Friday, February 14, 2014


ईसाई धर्मप्रचारकों ने संस्कृत क्यों सीखी? 2

...... विलियम केरी (1767-1837) ने 19वी शताब्दी के आरंभ में पाया कि पूरे भारत में पढ़े लिखे हिंदू संस्कृत समझते हैं जबकि स्थानीय भाषा में तो एक ही प्रांत में विभिन्नता है। केरी ने यह भी पाया कि स्थानीय लोगों पर संस्कृत का अच्छा प्रभाव है अतः ईसाई धर्म के प्रचार के लिए संस्कृत का उपयोग किया जाना चाहिए। आम लोगों में प्रतिष्ठा पाने के लिए यह बतलाना आवश्यक था कि ईसाई प्रचारक संस्कृत और हिंदू धर्म का अच्छा ज्ञान रखते हैं इसके लिए केरी ने बंगाल में 1818 में सेरामपुर कालेज की स्थापना की। उसका विचार था कि यहां से तैयार हुए ईसाई पंडित संस्कृत साहित्य के प्रवाह को ईसाइयत के लाभ के लिए मोड सकेंगे।  उसका सपना इस कालेज को ईसाइयत की काशी बनाने का था। केरी का कहना था 'मंदिर तोडने के स्थान पर उसमें रखी मूर्ति को ही बदल देना चाहिए। जिससे वहां उपस्थित उपासकों को पूजा के लिए एक नया और वैध ध्येय मिल सके।"

सन्‌ 1839 में जान म्यूर जिसमें ईसाई धर्मप्रचार का बडा उत्साह था ने मत परीक्षा नामक पुस्तक में संस्कृत के माध्यम से हिंदू धर्म के खंडन व ईसाईधर्म के मंडन का प्रयास किया। जिसके उत्तर में सोमनाथ नामक पंडित ने मतपरीक्षा-शिक्षा, हरचंद्र तर्कपंचानन ने मतपरीक्षोत्तरम्‌ और नीलकंठ गोरे ने शास्त्रत्व-विनिर्णय में म्यूर की स्थापनाओं का खंडन किया। इन पंडितों का उद्देश्य हिंदुओं को ईसाइयत में दीक्षित होने से रोकना था। अपने धर्म के बचाव एवं श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए ईसाइयत पर आक्षेप भी किए। नीलकंठ गोरे का कहना था कि ईसाईधर्म में मोक्ष को विषयभोगस्वरुप माना गया है, पशुओं की सद्‌गति की कोई चर्चा नहीं है, एक ही जन्म की बात कही गई है। हरचंद्र ने तो चर्चा के दौरान अत्यंत कटु होकर यह लिखा कि इन प्रचारकों से मुक्ति नहीं है जो लगातार एक ही वाक्य दोहराते रहते हैं कि ः हमारे धर्म में आओ और सदा सुखी रहो। 'इनके मायाजाल में केवल वही फंसता है जो मद्य-मांस आदि के लोभ से अथवा इनकी कन्याओं के रुप से आकृष्ट होकर अपने धर्म के तत्व का या ईसाइयत के दोषों का विचार किए बिना ईसाई हो जाता है।"

नीलकंठ गोरे के गं्रथ का सारांश ः ईसाई कहते हैं दैवी पुस्तक (यानी बाइबल) में वर्णित जीसस के चमत्कार सच्चे हैं तो वे सिद्ध करके बतलाएं। अगर ईसा प्रभु का सच्चा अवतार है और उन्होंने अंधों को ठीक किया तो उस पर श्रद्धा रखनेवाले अंधे को अब दृष्टि क्यों नहीं आती। मानवी आत्माओं सहित सभी वस्तुएं प्रभु ने स्वयंभू उत्पन्न की हैं इस ईसाई तत्व में गंभीर बाधाएं हैं। जो प्रभु पापियों को जन्म देता है वही उन्हें मुक्ति देने के लिए आगे आता है, यह ईसाई तत्व बडा ही विचित्र है। स्वयं ने ही उत्पन्न किए हुए पापियों को चिरंतन नरकवास देनेवाला प्रभु अपराधी ठहरता है। आद्य पाप का ईसाई तत्व निरर्थक है। जीवशास्त्र की दृष्टि से भी भ्रामक है। मनुष्य जाति के पापों के लिए ईसा ने यंत्रणाएं भुगती यह ईसाई तत्व पागलपन है। मात्र ईसा पर विश्वास रखने से पाप धुलने लगे तो  पापी लोग मनमाने तरीके से पाप करने लगेंगे। इसके उलट पापक्षालन के लिए पश्चाताप आवश्यक होने पर जीसस पर का विश्वास अनावश्यक ठहरता है। स्वर्ग सुख के लिए मुक्ति ईसाइयत की यह कल्पना निकृष्ट है। इसमें आंतरिक शांति, ध्यान, समत्व बुद्धि के लिए स्थान ही नहीं। सुखों की मर्यादा ना होने के कारण स्वर्ग में भी ईसाई सदैव असंतुष्ट ही रहेंगे। इस चर्चा का परिणाम यह हुआ कि हीदन्स के मतों की परीक्षा लेने निकले म्यूर का ही अखिल मत परिवर्तन हो गया। 

परंपरागत संस्कृत पंडित हिंदू या ईसाई किसी भी ओर से धर्मपरिवर्तन के विरुद्ध थे। सोमनाथ ने ईसाइयों से प्रार्थना की कि वे अपने धर्म में रहें और दूसरों को अपने धर्म का पालन करने दें। परधर्म की निंदा उचित नहीं है। इससे धर्म हानि, ईश्वर का क्रोध, क्रूरता, राज्य नाश और जन असंतोष उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है।

म्यूर का आक्षेप था कि हिंदुओं में अनेक संप्रदाय हैं। कुछ शास्त्र मूर्तिपूजा का समर्थन करते हैं तो कुछ निषेध। पुराणों और दर्शनों में भी अंतर्विरोध है। विष्णु की उपासना वेदों में नहीं मिलती। पार्वती, लक्ष्मी आदि की पूजा बात बहुत बाद में शुरु हुई। इस पर हरचंद्र का उत्तर बडी आक्रमक था। उन्होंने बतलाया कि ईसाई धर्म में भी कैथलिक, प्रोटेस्टंट, प्रेसबीटेरियन आदि हैं। गिब्बन जैसे तर्क करनेवाले को ईसाई पादरी उत्तर देने के स्थान पर नास्तिक कहते हैं।

भारतीय पंडितों का मानना था कि उनका धर्म सृष्टि के प्रारंभ से ही पृथ्वी पर विद्यमान है। अतः सृष्टि के प्रारंभ से प्रचलित धर्म को छोडकर विद्वान लोग बहुत समय बाद प्रचलित हुए धर्म को क्योंकर स्वीकारेंगे, विश्वास करेंगे। 19वी शताब्दी के जानेमाने विद्वान रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपना यह अनुभव व्यक्त किया था कि 'यूरोपीय संस्कृत विद्वानों में हमारी किसी भी पुस्तक, चिंतन या संस्था की अतिपुरातनता को नकारने और हमारे साहित्य में सर्वत्र ग्रीक प्रभाव खोजने की एक सहज प्रवृत्ति है जबकि उनके तर्क में मुख्य बात अकसर यह होती है कि भारत के लोग अपने इतिहास में अनेक बार विदेशियों से पराजित हुए हैं और इसलिए उनमें कुछ अच्छी बात हो ही नहीं सकती।" भंडारकर ने यह भी पाया कि यूरोपीय विद्वानों ने अकसर सर्वथा अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर बडे व्यापक निष्कर्ष निकाले हैं। (कलेक्टेड वर्क्स, प्रथम खंड पृ.349)  
इस प्रकार से यूरोपीय विद्वानों ने ईसाई धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने और उसके प्रचार के लिए अनेक प्रकार के पूर्वाग्रह गढ़े थे परंतु, हमारे भारतीय पंडितों ने उनका यथासमय खंडन किया, तर्कपूर्ण उत्तर दिया इस कारण ईसाई धर्म यहां बढ़ नहीं पाया। उनके उद्देश्य में बाधक होने के कारण उन्होंने विशेषकर ब्राह्मणों पर अपना निशाना साधा। ब्राह्मणों ने पीढ़ी दर पीढ़ी स्मरण में रखने के कारण वेदों के प्राचीनतम ग्रंथों की रक्षा हुई यह मॅक्स मूल्लर के ध्यान में आ गया था। हिंदूधर्म को यदि नष्ट करना है तो पहले ब्राह्मणों को नष्ट करना चाहिए यह उसका निश्चित मत था। मॅक्स मूल्लर के ब्राह्मण द्वेष का उत्तराधिकार किस प्रकार चलाया गया इसके कई उदाहरण ब्रह्मदत्त भारती ने अपने अभ्यासपूर्ण सत्यान्वेषी विवेचन 'मॅक्स मूल्लर ए लाइफलांग मॅस्करेड" इस ग्रंथ में दिए हुए हैं।

मॅक्स मूल्लर ईसाई के रुप में जन्मा और ईसाई के रुप में ही जीया। परंतु, ईसाई के रुप में नहीं मरा। 'स्व" की सततता है और मृत्यु के बाद भी 'स्व" बना रहता है, इस विषय में मेरे मन में कोई आशंका रही नहीं है, यह मत उसने मृत्यु के तीन वर्ष व्यक्त किया था। नया करार (न्यू टेस्टामेंट बाइबल) में वर्णित चमत्कारों पर उसका विश्वास रहा नहीं था। 'पाखंडी" के रुप में ऑक्सफोर्ड में उसकी आलोचना होती थी। परंतु, खेद की बात है कि उपर्युक्त पूर्वाग्रह हमारे कुछ अंगे्रजीदां लोगों में अंधमान्यताओं के रुप में घर कर गए हैं और उनके दूर होने के लक्षण भी नजर नहीं आते। जबकि अब यूरोप, अमेरिका, आफ्रिका के लोगों को अपने मूल 'पेगन" धर्म का भान होने लगा है।   (समाप्त)

2 comments:

  1. मैक्समूलर योजना बद्ध तरीके से हिन्दू धर्म शास्त्रो का भाषांतर किया था उसने हिन्दू धर्म का बहुत ही नुकसान किया जब स्वामी दयानन्द ने आवाहन किया वह भाग खड़ा हुआ।

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  2. lekin aaj ye bat log bhul gae hai. aapke jaise jankar bahut kam hai

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