Friday, February 14, 2014

ईसाई धर्मप्रचारकों ने संस्कृत क्यों सीखी? 1

साधारणतया यह माना जाता है कि अंगे्रजी शासनकाल में भारतीय संस्कृति, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान से सर्वथा अपरिचित विदेशी विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन कर उसे सारे विश्व के सामने 'आलोचनात्मक, तुलनात्मक और ऐतिहासिक पद्धति" से रखा और नए रुप में वेद जैसे गंभीर ग्रंथों पर भाष्य लिखा। परंतु यह सारा कार्य सभी नेे निस्वार्थ होकर नहीं किया। अंग्रेजों के संस्कृत अध्ययन के पीछे दो कारण थे। पहला, प्रशासनिक। ईस्टइंडिया कंपनी और भारत के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने समझ लिया था कि जब तक भारत के हिंदू नियमों, आचार-विचार, व्यवहार की वास्तविक जानकारी अंगे्रजों को हो नहीं जाती, तब तक शासन की स्थापना असंभव है। दूसरा, यदि हिंदुस्थान में अपनी अंगरेज सरकार का आधार दृढ़ करना है तो कुछ भी करके यहां के हिंदुओं को ईसाई बनाना आवश्यक है। 

अतः वारेन हेस्टिंग्स ने भारत में रहनेवाले अंगे्रजों को आदेश दिया कि वे अधिकाधिक भारतीयों के रहन-सहन, आचार व व्यवहार की बातें सीखें और उनसे संपर्क बढ़ाएं। हिंदू धर्म, दर्शन, ज्योतिष, अध्यात्म की सारी बातें संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध थी। अतः विशेषकर उन अंगे्रज शासकों के लिए संस्कृत की जानकारी आवश्यक हो गई, जो  न्याय, शिक्षा और समाज की व्यवस्था के प्रति उत्तरदायी थे। परंतु, यह इतना आसान न था इसका प्रमुख कारण संस्कृत ग्रंथों का अंगे्रजी सहित अन्य विदेशी भाषाओं में  अनुवाद उपलब्ध न था और कोई संस्कृत विद्वान उनको संस्कृत सीखाने के लिए तैयार न था। भले ही वे आज की अपेक्षा निर्धन थे परंतु उनको विदेशियों को संस्कृत सीखाना अभीष्ट न था। बंगाल के न्यायाधीश सर विलियम जोन्स (सर्वप्रथम संस्कृत भाषा, आलोचना एवं स्मृति गं्रथों का अनुवाद अंगे्रजी में करके 'रॉयल एशियाटिक सोसायटी" की स्थापना कर उसके माध्यम से पश्चिमी जगत के सामने लानेवाले) ने स्पष्ट निर्देश दिए कि चाहे जो हो जाए एक संस्कृत विद्वान हमें संस्कृत सीखाने के लिए नियुक्त कर दो, धन की चिंता ना करो। अंततः एक वृद्ध वैद्य सशर्त सम्मत हुए।

सर विलियम जोन्स का संस्कृत सीखने का प्रारंभिक प्रयोजन 1787 में लिखे पत्र में प्रकट हुआ है - 'मैं अब संस्कृत और अरबी इतनी सरलता से पढ़ सकता हूं कि देसी वकील कभी उन कचहरियों को धोखा नहीं दे सकते जहां मैं बैठता हूं।" (एस. एन. मुखर्जी कृत सर विलियम जोन्स पृ. 128,9) ईसाइयत के प्रचार में रुचि रखनेवाले विद्वान यह दिखला देना चाहते थे कि ईसाई धर्म हिंदू धर्म से तार्किक दृष्टि से श्रेष्ठ है व संस्कृत सहित हिंदू शास्त्रों का ज्ञान उन्हें संस्कृत के विद्वानों से अधिक है। उनका मानना था कि 'ब्राह्मणों का एकाधिकार" संस्कृत पर से समाप्त करने से हिंदुओं को ईसाई बनाना सरल होगा। इंडोलाजी के विद्वान मोनियन विलियम्स ने 1861 में कहा था कि जब संस्कृत का ईसाईकरण हो जाएगा तो यह हिब्रू और ग्रीक के बाद सत्य यानी ईसाइयत के वाहक के रुप में सबसे उपयुक्त सिद्ध होगी। इस प्रकार के अभिप्राय क्या प्रकट करते हैं यह निश्चय ही विचारणीय हैं।

हिंदुस्थान में प्रोटेस्टंट मिशनरी भेजने की कल्पना डेन्मार्क के राजा फ्रेडरिक चतुर्थ को सूझी। उसने बार्थोलोम्यू जिगेनबाल्ग और हेन्री प्लुटश्चाव्ह इन दो जर्मन युवकों को दीक्षा देकर भारत भेजा। 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में जिगेनबाल्ग की ब्राह्मणों से चर्चा हुई। एक ब्राह्मण ने तो उससे पांच घंटे तक सतत चर्चा की। 1830 से 34 के बीच एच विल्सन की कुछ महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों से इसी प्रकार की चर्चाएं हुई। जिगेनबाल्ग के कुल हुए 54 संभाषणों में से 34 संभाषण 1719 में प्रकाशित हुए। इसके अनुवाद की प्रस्तावना में ब्राह्मणों द्वारा बतलाए हुए 8 'दैवी नियम" सारांश रुप में दिए थे। ये नियम 'ईशावास्यमिदम्‌ सर्वम्‌" इस उपनिषद के वचनों पर आधारित होकर उसमें आक्षपार्ह कुुछ भी नहीं था। वे इस प्रकार से हैं -

 1. जीव हत्या मत करो। जीव कोईसा भी हो तो भी उसमें का जीवन एक ही है। जो आत्मा तुझमें है वही उसमें भी है। 2. आंख, कान, जिह्वा, मुख, हाथ इन पंचेंद्रियों से करार कर उनके द्वारा दुष्टता के साथ का संपर्क टालो। 3. शुद्ध और प्रामाणिक मन से तुम नियम पूर्वक पूजा करो। 4. असत्य मत बोलो। 5. तुम गरीबों के प्रति उदार रहो। उनकी आवश्यकताएं और तुम्हारे सामर्थ्यानुसार उनकी सहायता करो। 6. गरीबों को पीडा मत दो, उन पर अत्याचार मत करो। तुम्हारे बंधू की अन्याय द्वारा हानि मत करो। 7.  तुम कुछ त्यौहार, उत्सव मनाओ परंतु अतिरेक कर शरीर के चोचले पूरे मत करो। कुछ कालावधि में उपवास करो और भक्ति एवं पवित्रता साधो। 8. कितनी भी छोटी हो तो भी तुम्हारे बंधू की वस्तु का अपहार मत करो। जो दूसरे का है उस पर तुम्हारा अधिकार नहीं। फिर भी प्रस्तावना में लिखा गया प्रभु की पृथ्वी पर ब्राह्मणों से अधिक कोई दुष्ट जाति नहीं, ब्राह्मण विश्व के सबसे बडे कपटी हैं, प्रतिदिन नई कथाएं रचकर अनाकलनीय गूढ़ कहकर अज्ञानी लोगों में प्रचारित करने में कुशल हैं। 

 रिचर्ड फॉक्स यंग के एक विवरणानुसार भारतीय पंडितों का मानना था कि व्यक्ति अपने अनुसार अपने धर्म का पालन करता है। 'आप ईसा के माध्यम से मुक्ति की आशा रखते हैं और हम विष्णु के माध्यम से।" भारतीय पंडितों की शिकायत थी कि ईसाई प्रचारक दूसरे के धर्म की निंदा करते हैं, दूसरों के शास्त्रों को मिथ्या बतलाते हैं, उनके धर्मग्रंथों में वर्णित चमत्कारों पर अविश्वास करते हैं जबकि अपने गं्रथों में वर्णित चमत्कारों का प्रचार करते हैं, स्वयं अनेक प्रकार के कर्मकांड का पालन करते हैं और हिंदुओं में प्रचलित संस्कारों और कर्मकांडों का उपहास करते हैं। ..... क्रमशः 

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