Friday, November 11, 2011

इस्लाम में सुधार

इस्लाम में सुधार
मक्का में मुहम्मद साहेब ने पहले-पहल अपने दीन-ए-इस्लाम का प्रचार करने के लिए शांति का मार्ग अपनाया। इसके तहत मन और बुद्धि से सहमत हो और अच्छा लगे तो इस्लाम की ओर आओ और न आने पर परलोग के अजाब (दंड) का डर बतलाने का मार्ग अपनाया। परंतु, यह शांति का मार्ग कुछ काम न आया उल्टे उन्हीं के प्राण संकट में पड गए। (वैसे भी इस मार्ग से अल्लाह का उद्देश्य सर्वत्र 'दीन अल्लाह ही का हो जाए" पूर्ण होनेवाला भी नहीं था) और उन्हें हिजरत (देशत्याग) कर मदीना जाना पडा। और वहां जाकर उन्होंने अरबस्थान का वही परंपरागत तलवार का मार्ग अपनाया तथा वे सफल भी हुए। और देखते ही देखते संपूर्ण अरबस्थान को इस्लाम के रंग में रंग दिया। परंतु, अपने जीते जी ही उनके ध्यान में यह बात अच्छी तरह से आ गई थी कि अधिकांश टोलियों का इस्लाम स्वीकार दिखावटी है और इसकी प्रतीती कुरान (49ः14) में भी व्यक्त हुई है तथा यह सत्य भी सिद्ध हुई। लेकिन मुहम्मद साहेब कोई साधारण धर्म प्रचारक तो थे नहीं। धर्म प्रचारक होने के साथ-साथ ही वे चतुर-सुजान राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ होने के अलावा दूरदृष्टा भी थे। तभी तो इन दिखावटी इस्लाम स्वीकारने वालों का (इन्हें कुरान में मुनाफिक कहा गया है) बंदोबस्त इस प्रकार की हदीसों द्वारा कर दिया गया। हदीस कथन है ः 'अल्लाह ने तेरे लिए जो निर्णय लिया हुआ है वह तू टाल नहीं सकता। और अगर तू इस्लाम से दूर जाएगा तो अल्लाह तेरा निश्चय ही नाश करेगा।"(बुखारी 3620, 7461)  पैगंबर ने कहा ः'जो इस्लाम धर्म का त्याग करता है, उसे मार डालो।"(बुखारी 3017,6922,7362) साथ ही दूसरे धर्मानुयायियों की संगत में रहकर कहीं दीन-ए-इस्लाम की शुद्धता कम ना हो जाए या कोई बदलाव ना आ जाए या इस तरह के कर्मों गतिविधियों को यानी इस्लाम-त्याग को प्रोत्साहन ना मिलने पाए इस दृष्टि से भी प्रबंध करते हुए पैगंबर ने कह दिया 'मैं अरब भूमि में मुस्लिमों के सिवाय अन्य किसीको भी रहने न दूंगा।"(दाउद 3024) अल्लाह ने भी फरमा दिया ''जो कोई इस्लाम के सिवा किसी और दीन को अपनाएगा तो वह उससे हरगिज कुबूल नहीं किया जाएगा और आखिरत में वह नामुराद होगा।""(3ः85)

भले ही मुहम्मद साहेब और उनके अल्लाह ने इस्लाम का त्याग न होने पाए इसके लिए इतने सारे पुख्ता प्रबंध कर दिए थे फिर भी उनकी मृत्यु होते ही इतने बडे स्तर पर इस्लाम का त्याग हुआ कि इन धर्मत्यागियों के विरुद्ध छेडे गए जिहाद को इतिहासकारों द्वारा 'धर्मत्याग के दावानल" की संज्ञा दी गई। पैगंबर की मृत्यु (632ई.) होते ही कुछ ने पुनः मूर्तिपूजा प्रारंभ कर दी तो कइयों ने 'जकात"  देने से इंकार कर इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक को ठुकरा कर एक प्रकार से इस्लाम का त्याग ही कर दिया, तो कुछ ने स्वयं को ही पैगंबर घोषित कर अनुयायी इकट्ठे कर लिए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि, उन्होंने इस्लाम को दिल से कुबूल नहीं किया था। वैसे भी पुरानी श्रद्धाएं इतनी आसानी से मिटती नहीं और न ही मानसिकता रातो-रात बदली जा सकती है। ये तो मुहम्मद साहेब की तलवार का ही आतंक था कि जिससे डरकर अरब टोलियों ने इस्लाम का स्वीकार किया था। उनके आतंक का पता इस हदीस कथन में मिलता है ''मेरी ऐसे रोब (आतंक) के द्वारा मदद की गई है कि अगर दुश्मन एक माह के अंतराल पर भी हो तो उस पर रोब तारी होगा।""(दअ्‌वतुल कुर्आन खंड 1 पृ.223) इसके अलावा युद्धलूट के 4/5 भाग के रुप में धन-संपत्ति और सुंदर औरतें तथा मरने के बाद हमेशा के लिए स्वर्ग तथा वहां उपभोग के लिए हमेशा जवान बनी रहने वाली हूरें, मेवे तथा शराब मिलने के धार्मिक आश्वासन के कारण भी अरब टोलियां इस्लाम के नियंत्रण में रही और मौका मिलते ही इस्लाम को छोडकर भाग खडी हुई।

असगर अली इंजीनिअर ने अपनी पुस्तक Islamic State में पृ.37 पर लिख रखा है 'अधिकांश अरब टोलियों ने  इस्लाम का स्वीकार उस पर गहरी श्रद्धा के कारण नहीं वरन्‌ उस क्षेत्र की वह बढ़ती हुई शक्ति के होने के कारण किया था। इस्लाम के अध्ययनकर्ता स्प्रेंगलर के मतानुसार पैगंबर की मृत्यु के समय सच्चे अर्थों में इस्लाम स्वीकारने वालों की संख्या एक हजार से अधिक नहीं थी।"(Why I am not a Muslim-Ibn Warraq P.242)

पैगंबर की मृत्यु के बाद 'खलीफातुल रसूल" पदनाम धारण कर पहले खलीफा बने अबू बकर (632 से 634ई.) ने अब धर्म परिपूर्ण हो गया है उसमें किसी भी तरह की तोड-फोड बर्दाश्त नहीं की जाएगी कहकर इन विद्रोही तत्त्वों के विरुद्ध किसी भी तरह का समझौता न करते जिहाद छेड दिया और विद्रोह को कुचलकर रख दिया और अरबभूमि को एक बार फिर से इस्लाममय कर दिया। अरब टोलियों के मूल स्वतंत्रता प्रिय और विद्रोही प्रवृत्तियों को काबू में रखकर ही उन्हें इस्लाम के झंडे तले रखा जा सकता था। इस बात को चतुर मुहम्मद साहेब अच्छी तरह से जानते थे। इसीलिए तो उन्होंने अपनी मृत्यु के कुछ दिन पूर्व ही पडोसी सीरिया के विरुद्ध मुहिम आयोजित की थी। जिससे कि आपसी लडाइयों पर रोक लगे और सारे मुसलमान 4/5 भाग युद्ध लूट और स्वर्ग प्राप्ति की अदम्य लालसा से दीन-ए-इस्लाम के प्रसार में लगे रहें और ऐसा तो हो नहीं सकता कि उनके इस उद्देश्य से अबू बकर अनजान हों। इसीलिए तो विद्रोह को कुचल देने के तत्काल बाद दोबारा विद्रोह न हो इसके लिए उन्होंने पैगंबर की ही नीति अपनाई और इन नव-मुस्लिमों को अरबभूमि के बाहर आक्रमणों के अभियानों में लगा दिया। जिससे कि इन अभियानों के द्वारा परायों के विरुद्ध स्वजनों की एकता भी बनी रहे और बढ़े, रोजी-रोटी की समस्या भी युद्ध लूट के कारण हल होने के साथ ही शासन का खजाना भी भरे और जिहाद का पुनीत कर्तव्य भी पूरा हो। इससे इस्लाम का प्रसार तलवार के बल पर दिन दूनी और रात चौगुनी  गति से होने लगा एवं यही सिलसिला आगे जाकर दूसरे खलीफा उमर के समय अप्रतिहत गति से चलता रहा। और तीसरे खलीफा उस्मान द्वारा भी तब अपनाया गया 'जब अरब क्रियाशून्य और आलसी बन गए थे। इस कारण वे आपस में संघर्ष करने लगे थे। उन्हें काम में (इस्लाम के प्रसार के काम में) लगाए रखने के लिए खलीफा ने आक्रमण की व साम्राज्य विस्तार की योजना बनाई। उसमें (पुराने बर्बर) अफ्रीका, ट्‌यूनिस, अल्जेरिया, मोरक्को का भी समावेश था।"(चार आदर्श खलीफा-शेषराव मोरे, प्रकाशक राजहंस पुणे, पृ.368)

इस प्रकार बिना सहमत हुए लोग इस्लाम का स्वीकार करते चले गए। इसी कारण मगरिब (मोरक्को, उत्तर-पश्चिम अफ्रीका) के बरबर कबीलों ने इस्लाम तो स्वीकारा परंतु बारह बार मुर्तद (इस्लाम स्वीकार के बाद पुनः त्यागना) हुए। धर्म कोई खेल तो नहीं जो इस प्रकार बार-बार छोडा जाए-अपनाया जाए। परंतु, ऐसा हुआ क्योंकि, यदि इस्लाम लोगों की धर्मजनित आध्यात्मिक भूख को मिटा सकता या उनको तर्कसंगती से अध्यात्मिक उन्नति प्रदान कर सकता होता तो ऐसा कदापि न होता। तभी तो, मुहम्मद साहेब के जमाने में ही उनके एक सहयोगी अबू दर्दा ने यह कहा था कि 'यदि मैं निष्पर्ण यानी बिना पत्तों और डंठलों विहीन वृक्ष के समान होता तो कितना अच्छा होता।" तो, दूसरे सहयोगी उस्मान बिन माजून ने मुहम्मद साहेब से यह कहा था 'ऐ पैगंबर! मुझे सतत यह लगता रहता है कि भक्त बनकर पहाडों में चला जाऊं, तपस्वी का जीवन बिताऊं, समस्त संपत्ति का त्याग कर दूं, मेरी बीवी को छोड दूं, मांस भक्षण न करुं और सुंगधित परिमल का त्याग भी कर दूं।"(सूफी सम्प्रदाय- सेतुमाधवराव पगडी पृ.2) यह तो सन्यास हुआ जबकि इस्लाम सन्यास की अनुमति-मान्यता नहीं देता। सन्‌ 858 से 922 में हुए मंसूर नामक सूफी को 'अनलहक-अहं ब्रह्मास्मि" का प्रचार करने के कारण फांसी चढ़ना पडा था। यदि इस्लाम परिपूर्ण धर्म होता जैसाकि उसका दावा है तो इस तरह की आवाजें उठती ही नहीं और न ही इस प्रकार की आवाजों को दबाने के लिए कट्टरपंथियों को पैगंबर की इस हदीस का सहारा लेना  न पडता कि 'जो इस्लाम धर्म का त्याग करता है उसे मार डालो।"(बुखारीः 3017,7461)

इस्लाम के प्रारंभिक दिनों में ही खारजी नामका एक कट्टरपंथी धार्मिक पंथ निर्मित हुआ जो विशुद्ध इस्लाम के समर्थक थे। (चार आदर्श खलीफा- शेषराव मोरे पृ.572 राजहंस प्रकाशन, पुणे) खारिजी शब्द कुरान की 4ः100 आयत से संबंधित है। (573) अल्लाह के लिए प्राण देना वे अपना जीवन कर्तव्य मानते थे। कुरान की 9ः111 आयत के आधार पर उन्हें 'स्वर्ग (जन्नत) के लिए प्राण बेचनेवाले" कहा जाता था। वे जब लडने के लिए निकलते थे तब 'चलो जन्नत की ओर" की गर्जना किया करते थे। कुछ लोगों के अनुसार वे कट्टर धर्मनिष्ठ, और मुहम्मद सा. के सच्चे अनुयायी थे।" इन्होंने ही तीसरे खलीफा उस्मान की हत्या कर उन्हें अपमानित करने के लिए उनके शव को यहूदियों के कब्रस्तान में दफना दिया था। और इनकी अंत्ययात्रा पर पत्थर भी फेंके गए थे। (443) उनके अनुसार उस्मान की हत्या का कारण वे इस्लाम के मार्ग से भ्रष्ट हो गए थे। (574) चौथे खलीफा अली की हत्या भी इन्होंने ही की थी। तर्क वही था जो उस्मान के संबंध में था। इसके लिए उन्होंने दिन चुना था रमजान महिने का 17वां दिवस। (बद्र युद्ध दिवस) (603)

फिर भी सुधार या बदलाव की प्रक्रिया जारी रही। ''बाद के वर्षों में ईसाई तथा यहूदी धर्म के संपर्क में आने के कारण मुसलमानों में एक बुद्धिजीवी वर्ग उभरकर आया। इस वर्ग ने प्रचार किया कि मानव इच्छा स्वतंत्र है और मानव अच्छे-बुरे कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं है। कुरान में ऐसी आयतें भी हैं, जो इस विचार की पुष्टि भी करती हैं और इसका प्रतिवाद भी करती हैं। माबाद बिन अब्दुल्लाह बिन अलीम अलजुहानी पहला व्यक्ति था, जिसने कर्म की स्वतंत्रता का प्रचार किया। यह वर्ग अलकदार कहलाया। माबाद के मतानुसार मनुष्य के सारे कर्म ईश्वर द्वारा निर्धारित होते हैं, उसके विचार धर्मनिंदक समझे गए। उसकी निर्मम हत्या हज्जाज द्वारा कर दी गई। उसी काल में एक दूसरे वर्ग का उदय हुआ, 'मुरजिया" कहलाया। मुरजियाओं के अपने धार्मिक विचार थे, किंतु उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया। यहां तक कि उनके मरने के बाद जनाजे में शिरकत करना और उनके जनाजे की नमाज पढ़ाने पर पाबंदी लगा दी गई। ""(अनूप संदेश 1 जनवरी 1995, आफताब अहमद के लेख- 'तर्क और विज्ञान को नकारता इस्लामी कट्टरवाद" से उद्‌., देहरादून)     

 हमें विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ 'इब्ने खलदून का मुकद्दमा" से पता चलती है। इब्ने खलदून लिखते हैं ''उमय्या काल (सन्‌661 से 750ई.) से ही अनेक धर्मों पर आधारित दार्शनिक आंदोलन प्रारंभ हो गए थे। मोतेजला दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ, ... उमय्या राज्यकाल में ही इस्लाम के बहुत से कट्टर नियमों की या तो खुल्लमखुल्ला अवहेलना होने लगी और या उनके लिए इस्लामी धर्मशास्त्रों से ढूंढ़-ढूंढ़कर कोई न कोई बहाने तराशे जाने लगे, सभ्यता एवं संस्कृति की आवश्यकताओं को इस्लाम के सारे नियमों पर प्राथमिकता प्राप्त हो गई। अब्बासी राज्यकाल (750 से 902ई.) में तो यह उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच गई।""(प्रकाशन शाखा, सूचना विभाग, उत्तरप्रदेश पृ.19,20) इब्ने खलदून आगे लिखते हैं ''धर्म के क्षेेत्र में नए विचारों का प्रचार हुआ और बहुत से नए धार्मिक आंदोलन एवं विचारधाराएं प्रचलित हो गई। मोतेजला आंदोलन 'अब्बासी खलीफा (शासक) मामून" के समय बडी उन्नति कर गया। खलीफा की दर्शनशास्त्रीय रुचि ने इस आंदोलन को राज्य के धर्म का रुप दे दिया। मामून ने 827 ई. में कुरान के 'खल्क" होने के विषय में घोषणा करा दी वास्तव में यह बडा ही साहसपूर्ण कदम था। कट्टर धर्मनिष्ठ लोग कुरान को ईश्वर की वाणी कहते हैं और उनका विचार है कि जिन शब्दों में ईश्वर का आदेश हुआ, वे मूलरुप में कुरान में सुरक्षित हैं। मोतेजला इसका खंडन करते हैं। 'खल्क" का सिद्धांत यह है कि 'शब्द मनुष्य के बनाए हुए हैं।" मामून ने अपने समस्त अधिकारियों को इसी सिद्धांत को मानने पर विवश किया। अहमद इब्ने हम्बल (इस्लाम के धर्मविधान के चार प्रसिद्ध निर्माताओं में से एक शाफाई के शिष्य थे) को प्राचीन कट्टर विचारों से न हटने के कारण मृत्युदंड भोगना पडा। मामून के दो उत्तराधिकारियों के राज्यकाल में मोेतेजला के सिद्धांतों का ही जोर रहा, किंतु 848 में मुतवक्किल ने इस नई विचारधारा का दमन कर दिया। मोतेजला विचारधारा का विरोध करनेवालों में प्रमुख बगदाद का अबुल हसन अल अशअरी था ... अशअरी के सिद्धांतों का अधिक प्रचार अबू हामिद अल गज्जाली (जन्म 1058, मृत्यु 1111ई.) द्वारा हुआ। उन्होंने इस्लाम के शुद्ध नियमों के पालन पर विशेष जोर दिया। बाद में उन पर सूफी मत का अधिक प्रभाव पडा और वे इस्लाम के कट्टर अनुयायियों के एक प्रकार के नेता हो गए।""(30) ''गज्जाली ने इस्लाम के भीतर, हर किस्म के स्वतंत्र और तर्कसंगत अन्वेषण, खासकर स्वयं इस्लाम संबंधी अन्वेषण का गला घोंटकर रख दिया था।""(फतवे उलेमा और उनकी दुनिया-अरुण शौरी, पृ.483) 

और तभी से कट्टरता का जो जोर चला आ रहा है वह आज तक जारी है तथा इस कट्टरता की धारा के प्रवाह से जो निकलना चाहता है या सुधार करने की कोशिश करता है, उदारता दिखलाता है या इसके विरुद्ध भाष्य करता है उसे काफिर करार दिया जाता है और उसके विरुद्ध फतवों का दौर सा चल पडता है। 'बारहवीं सदी में सूफी संत हल्लाज को अब्बासी अंधविश्वासियों ने मरवा दिया और उसकी लाश को जला दिया गया, क्योंकि वह कहा करता था कि 'जब तू मुझे देखता है, तो तू उसको देखता है।" एक दूसरे सूफी सरमद की भी हत्या कर दी गई, क्योंकि वह नग्न रहता था और पूरे कलमे का पाठ नहीं करता था। दाराशिकोह को इसलिए प्राणदंड दिया गया क्योंकि उसका रुझान हिंदू धर्म की ओर था। दाराशिकोह ने 150 उपनिषदों का अनुवाद फारसी भाषा में किया था। यह आश्चर्य की बात है कि आज भी मुसलमानों में धार्मिक उन्माद और कट्टरवाद चला आ रहा है, जबकि 20वीं सदी को तर्क और और विज्ञान का युग समझा जाता है, किंतु मुस्लिम बुद्धिजीवी अभी भी गैलिलियो युग में ही जी रहे हैं, जो बुद्धिहीन, कट्टरपंथी मुस्लिम मुल्लाओं में सारे विश्व में परिलक्षित हो रहा है। जिसका नेतृत्व उन मुल्लाओं के हाथों में है, जो आधुनिक विचारों वालों के विरुद्ध फतवा देते फिरते हैं और यह सब केवल मुल्लाओं द्वारा ही नहीं, बल्कि शिक्षित मुसलमानों द्वारा भी हो रहा है। दो वर्ष पूर्व कट्टरपंथियों ने मिश्र के बुद्धिजीवी फिराक फौदा को गोली का निशाना बनाया। उसका अपराध केवल यह था कि वह धर्म को राजनीति से अलग करना चाहता था, यहां तक कि टर्की में जिसका पूरा पश्चिमीकरण हो चूका है, पुनः कट्टरवाद ने सिर उठाना आरंभ कर दिया है। टर्की के वामपंथी नेता अजीज नसीन ने रश्दी की 'सैटेनिक वर्सिस" से कुछ उद्धरण छाप दिए थे। कट्टरपंथियों के एक गिरोह ने उनके निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया, वह तो बच निकला, किंतु उसके 27 साथियों को जान से हाथ धोना पडा।" मिश्र के नोबल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार नगीब महफूज पर नास्तिकता का आरोप लगाकर उन पर चाकू से आक्रमण करने के दो आरोपियों को 10 जनवरी 1995 को मौत की सजा सुनाई गई। 'अल्जीरिया के सांसद 65 वर्षीय फलाह नौर की हत्या कट्टरपंथी इस्लामी गुट इस्लामिक सॉल्वेशन फ्रंट ने कर दी। वे नेशनल कौंसिल ऑफ ट्रांजिशन के सदस्य थे, जिसका गठन निर्वाचित संसद के स्थान पर किया गया था।"(नईदुनिया 17-1-95)
 'भारत में कट्टरवाद मुसलमान के जहन में गहराई तक बैठा हुआ है। दो वर्ष पूर्व प्रो. मुशीर उल हसन ने कहा कि रश्दी की किताब पर से पाबंदी हटा ली जाए। उस बेचारे पर जामिया के छात्रों ने कहर बरपा दिया। डॉ. आबिद रजा बेदार का भी पटना में वही हाल हुआ। उन्होंने केवल इतना कहा था कि 'हिंदुओं के लिए काफिर शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए।" अहमदिया पंथ के मौ. मिर्जा अहमद बेग और उनके अनुयायियों को अनेक देशों में काफिर करार दिया गया है। मिर्जा स्वयं को पैगंबर मानते थे यह तो कारण था ही इसके अलावा उनके द्वारा यह कहा जाना भी था कि, 'तलवार से जिहाद प्रतिबंधित कर दिया गया है।"

कट्टरता और उदारता का संघर्ष तो हर धर्म, हर समाज में हमेशा से ही होता रहा है, होता रहेगा और उदारता को अंततः सफलता मिलती रही है। परंतु, इस्लाम में जो कट्टरता हावी है उसके तो दूर होने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते। ऐसा क्यों है यह हमें इस उद्‌. से पता चलता है 'Muslims are the first victims of Islam. Many times I have observed in my travels in the Orient, that fanaticism comes from a small number of dangerous men who maintain the others in the practice of religion by terror.' - E. Renan हम तो केवल प्रार्थना ही कर सकते हैं कि इस्लाम में भी उदारता आए, वह सहिष्णु, आधुनिक और सुधारवादी बने। परंतु, इसके लिए एक नहीं तो अनेक कमालपाशाओं की जरुरत है।

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