Friday, November 11, 2011

समझें मुस्लिम मानस को

समझें मुस्लिम मानस को
प्राचीनकाल से ही भारत बहुधर्मीय देश रहा है और प्रारंभ से ही विभिन्न जनसमूहों को अपने-अपने धर्म, आचार-विचारों के पालन की, प्रचार की स्वतंत्रता रही है और विभिन्नताओं के बावजूद अनेकता में एकता यहां के समाज का मूलपिंड रहा है। समय-समय पर विभिन्न जनसमूह इस देश में आते रहे और यहां के जनसमूहों में विलीन होते चले गए। भले ही वे विभिन्न रंग, वंश, धर्म, विचारों-परंपराओं के थे। कहीं कुछ अलगत्व-विशेषता रही तो कहीं कुछ मात्रा में समानता भी आई और कालांतर में इस देश के रहवासियों को हिंदू नाम प्राप्त हुआ। इनमें कई संघर्ष भी हुए पर वे तात्कालिक ही सिद्ध हुए। इस प्रकार से विभिन्न जनसमूहों की विभिन्न श्रद्धाओं, आचार-विचारों का परस्पर आदर रखते हुए ऐतिहासिक प्रक्रिया से बने इस हिंदू समाज का एक सर्वसमावेशक मानस तैयार हुआ। जिसकी मुख्य मान्यता सभी धर्म सत्य हैं केवल मार्ग अलग-अलग हैं। यह समाज जितना संकुचित है उतना ही उदार भी है, ऐसा यह हजारों साल के संस्कारों से तैयार हुआ हिंदू समाज है, मानस है।

दूसरी ओर इस भारत का एक और अविभाज्य घटक है, मुसलमान। यह भी एक विशिष्ट समाज है। ये दोनो ही समाज एक हजार से भी अधिक वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। परंतु, फिर भी हिंदू समाज मुस्लिम मानस से पूरी तरह परिचित नहीं। मुस्लिम मानस-समाज की पहली विशिष्टता जो एकदम ध्यान में आती है वह है उनकी धार्मिक कट्टरता। यही विशेषता हिंदु समाज की भी है। परंतु, एकदम से नजर नहीं आती। इसका कारण है उसके विरोध करने का तरीका। जो आक्रमक नहीं वरन्‌ उपेक्षा से मारता है और अपने धर्म-विचारों का पालन पूर्ववत ही करते रहता है। दूसरी ओर मुसलमान अपने धर्मविरोध का प्रतिकार बडी आक्रमकता से संघटित रुप में करते हैं। इसी के साथ वे अपने धर्म के प्रति बडे आग्रही भी होते हैं और इसका प्रदर्शन भी विविध रुपों में करते रहते हैंे इस कारण उनका विरोध कट्टरता तो तत्काल ध्यान में आ जाती है। परंतु, हिंदुओं की  नहीं आती।

मुस्लिम समाज की दूसरी विशेषता है स्वयं का अलगत्व-विशेषतत्व हमारा धर्म पूर्णत्व को प्राप्त, सर्वश्रेष्ठ है की भावना के साथ टिकाए रखने के प्रति सतत प्रयत्नशील रहना। इसलिए अपने धर्म के आचार-विचारों में दूसरे धर्म के आचार-विचार न आ जाएं, अपना धर्म विशिष्ट और विशुद्ध बना रहे इस पर उनका ध्यान विशेषरुप से रहता है और इसीलिए वे अन्य धर्म-समाज की किसी भी  नई बात को स्वीकारने को तैयार नहीं होते। वस्तुतः सैकडों वर्षों से हिंदुओं के साथ रहने के कारण उन पर अनजाने में ही हिंदुओं के आचारों-विचारों, प्रथाओं-परंपराओं का प्रभाव पड चूका है। परंतु, ये सब बातें गैर-इस्लामी हैं कहकर उनके उलेमा उन्हें सतत चेताते रहते हैं। अनेक उलेमा तो उन्हें यह भी बताते रहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र, भौगोलिक राष्ट्रवाद, संविधान का सार्वभौमत्व  गैर-इस्लामी है। यह भी अपने धर्म को विशिष्ट-विशुद्ध रखने का ही भाग है। इस गुण विशेषता के कारण ही जिस प्रकार से प्राचीनकाल से ही इस देश में आते रहे कई अन्य जनसमूह यहां की मूलधारा में अपने अलगत्व-विशिष्टत्व को गंवाकर विलीन हो गए  ऐसा मुसलमानों के साथ हो न सका है। उल्टे भारत ही नहीं तो सारे संसार के लोगों द्वारा इस्लाम का स्वीकार किया जाना चाहिए क्योंकि, वही सत्यधर्म है (12ः40) और कभी ना कभी ऐसा होकर रहेगा। सर्वत्र अल्लाह का दीन इस्लाम (3ः19) प्रस्थापित होकर रहेगा ही ऐसा उन्हें प्रामाणिकता से लगता रहता है। क्योंकि, ये अल्लाह के वचन हैं, आश्वासन है।(9ः33)

मुस्लिम समाज की तीसरी विशिष्टता अपना धर्म ईश्वरीय, एकमेव सत्य संपूर्ण जीवन का मार्गदर्शन करनेवाला, परिपूर्ण, आदर्श, शाश्वत, अंतिम व अपरिवर्तनीय है। (5ः3) इस कारण इसमें किसी भी तरह का सुधार-बदलाव हो ही नहीं सकता। इसलिए हर नई बात स्वीकारने के पूर्व वे उसका आधार अपने धर्म में ढूंढ़ते हैं, देते हैं, उसे अपने धर्म की चौखट में बैठाते हैं उसके बाद ही स्वीकारते हैं। साथ ही कुरान वचनों (3ः110, 2ः47, 58ः11) के कारण वे स्वयं को अल्लाह के पसंदीदा होने के कारण अन्यों से श्रेष्ठ-उच्च दर्जे के हमेशा विजयी होनेवाले और राज्य करने का अधिकार तो हमे ही है (21ः105, 24ः55) की भावना वाला समुदाय है। और यह भावनाएं कहीं कम ना हो जाएं इस ओर मुस्लिम विद्वान बडे सचेत रहकर अपने समाज में हमेशा यह उपर्युक्त भावनाएं भरने में लगे रहते हैं। 

चौथी विशिष्टता, जो बात इस्लामधर्म में नहीं है या इस्लाम विरोधी है वह हमें स्वीकार्य नहीं, ऐसा वे लाख कहें तो भी अनेक सुधार  उन्होंने भी अनजाने में ही अथवा धर्म के सील-सिक्के लगाकर स्वीकार लिए हैं। वैसे भी धर्म की सभी बातों का पालन अचूक रुप से असंभव सा ही है। ऐसे समय में मुस्लिम समाज अपने पैगंबर के जीवन चरित्र का आधार लेकर तालमेल बैठा लेते हैं। इसके लिए वे अपने पैगंबर के मक्काकालीन जीवन चरित्र का आधार लेते हैं। जहां बहुसंख्य अनेकेश्वरवादियों/मूर्तिपूजकों से उन्होंने तालमेल बैठाया था। उसके लिए पैगंबर ने 'सब्र करो" का उपदेश दिया था, प्रतिकार का नहीं। 'सब्र" का वर्णन कुरान में सत्तर से अधिक बार हुआ है। इससे उसकी आवश्यकता और महत्व का अंदाजा लगाया जा सकता है।" यह परिस्थितिनुसार तालमेल बैठा लेने की नीति का भाग है। जिसके लिए कुरान में भी आया हुआ है ''अल्लाह किसी शख्स पर उसकी शक्ति से जियादः बोझ नहीं डालता।""(2ः286) इस प्रकार से मुस्लिम समाज पैगंबर के आदर्श जीवन चरित्र और कुरान का आधार लेकर आग्रही धर्मश्रद्ध रहते हुए किन परिस्थितियों में कैसे रहना का मार्गदर्शन करनेवाले इस्लाम का व्यवहारिक समाज है। और यह बडी ही महत्वपूर्ण विशिष्टता है जो ध्यान में रखने योग्य है।

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