Sunday, November 20, 2011

ये कैसे हो गए हैं हम?

वर्तमान में सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार, सत्ता-संघर्ष-स्वार्थ की आपाधापी, हिंसाचार, कदाचार, संस्कारहीनता, नैतिकता, सेवाभाव की कमी आदि के प्रदर्शन को देख कई लोग देश की स्वतंत्रता प्राप्ति यानी 1947 के आसपास के काल से आज की तुलना कर उस जमाने में कितनी देशभक्ति थी, ध्येय निष्ठा थी, उच्च आदर्श थे और आज ये क्या हो रहा है? हम कहां से कहां आ गए हैं, हम कहां जा रहे हैं, हमारा भविष्य क्या होगा, ये हम कैसे हो गए हैं? कहकर चिंता प्रकट करते नजर आते हैं। ऐसा सोचना, चिंता प्रकट करना भले ही कितना भी सद्‌भाव भरा हो। परंतु, मात्र भावुकता से भरा है, वस्तुनिष्ठ नहीं है।

उपर्युक्त कथन स्पष्ट हो सके इसलिए हम कुछ उदाहरण लेंगे। जैसकि कहां उस जमाने में चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंग, सुभाषचंद्र बोस आदि जैसों का त्याग, बलिदान-देशभक्ति और आज देखो तो चारों ओर लूट मची है, भ्रष्टाचार के बगैर कुछ लिए-दिए बगैर कोई काम ही नहीं होता। फौज में देखो तो होनहार युवा अधिकारियों की कमी खल रही है और युवा आर्थिक चकाचौंध देख आर्थिक लाभ के लिए दौड लगा रहे हैं। उस जमाने की फिल्में जैसकि 'दो आँखें बारह हाथ", 'जागृति", 'दोस्ती", बंदिनी आदि कुछ ना कुछ संदेश जो सामाजिक, नैतिक आदर्शों आदि से जुडा रहता था दिया करती थी, वास्तविकता के धरातल से जुडी हुआ करती थी। और आज की फिल्में समाज को स्वप्नलोक में ले जाने पर उतारु हैं, अश्लीलता-अनैतिकता फैला रही हैं। इनके प्रभावस्वरुप जहां कुछ वर्षों पूर्व तक की एड (विज्ञापन) फिल्में, उनके स्लोगन कितने साफ-सुथरे, मनभावन हुआ करते थे उदाहरणार्थ 'हमारा बजाज", 'सर्फ की खरीदारी में ही समझदारी है - ललिताजी", 'जब मैं छोटा बच्चा था - फिलिप्स", आदि। और आज 'ये तो बडा टोइंग है", 'निकालिए ना" आदि जैसे अंतर्वस्त्रों के विज्ञापन और तो और जो समाचार पत्र अपने उच्च नैतिकता के स्तर के लिए जाने जाते हैं उनमें भी ऐसे चित्र एवं विज्ञापन छपते हैं जो अश्लीलता की हदों को पार करते नजर आते हैं और जो कभी पीली किताबों में और उनके मुखपृष्ठों पर ही जगह पाते थे। कहां तो गांधी-नेहरु-सावरकर जैसे समाज को, देश को दिशा-दर्शन देनेवाले त्यागी नेता थे जिनके आदर्शों को सामने रख कई युवा चले, देश के लिए लडे, त्याग भी किया, आदर्श उपस्थित किया और आज के नेता स्वार्थलिप्सा में रत हैं। भ्रष्टाचार और अनैतिकता के नित नए रिकार्ड कायम कर रहे हैं। संक्षेप में समाज पतन के गर्त में जा रहा है यह इन समाज के प्रति सद्‌भाव रखनेवाले भावुकों का कहना है, निष्कर्ष है।

परंतु, हमारा जो कथन है कि यह वस्तुनिष्ठ नहीं वह इस आधार पर कि 1947 के आसपास का काल संकटकाल था, दुःखोपभोग का काल था। ऐसे समय में समाज एकजुट हो ही जाता है। क्योंकि, सबकी पीडा-दुःख एक जैसे ही होते हैं और दुःखों के लिए छीनाछपटी नहीं होती। उसे तो आपस में मिलकर बांटना होता है, बांटा जाता है। पर अब जबकि संकटकाल नहीं प्रत्युत  सुखोपभोग के लिए प्रतिस्पर्धा का काल है, सुखों के लिए छीनाछिपटी होती है। वह पीढ़ी लडी दुःखों को दूर करने के लिए, आनेवाली पीढ़ियां सुखोपभोग करें इसलिए। और हम लड रहे हैं हमें तो सुखोपभोग मिले ही साथ ही हमारी आनेवाली पीढ़ियों को भी मिले इसलिए। यही मुख्य फर्क है उस समय में और आज के समय में। इसी सुखोपभोग की लालसा के कारण से ही भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अनाचार-दुराचार पनपते हैं। और यह सब टालने के लिए प्रयत्न किए जाने पडते हैं, किए जाने चाहिएं। इसके लिए उचित वातावरण का निर्माण करना पडता है, आदर्श प्रस्तुत करना पडते हैं, जो उच्च नैतिक आचरण से ही संभव होते हैं। कोरी चिंता प्रकट करते रहने से कुछ नहीं होता। सिवाय मनःस्ताप के।

परंतु, हो यह रहा है कि आज जिन के कंधों पर समाज के प्रबोधन की जिम्मेदारी है वे लोग यह कार्य करने की बजाए कहते फिर रहे हैं कि अपना तो समाज ही पाखंडी है, हममें सामाजिक संस्कार ही नहीं हैं। हमें हमारा विधायक भ्रष्ट, स्वार्थी और पदलोलुप जान पडता है। यह हमारे विधायक का दोष नहीं है। क्योंकि, वह तो प्रतिनिधि है, प्रतिबिंब है, उस समाज का, जो स्वयं भ्रष्ट और स्वार्थी है। अस्तु विकृति नेतृत्व में नहीं बल्कि उस समाज में है जो उसे चुनता है। कई लोगों का राजनीति में प्रवेश को लेकर विरोध होता  है यह कहकर कि राजनीति भ्रष्ट है यहां अच्छे लोगों के लिए स्थान नहीं। भ्रष्टाचार कहां नहीं है ! स्वास्थ्य क्षेत्र में भी तो गजब का भ्रष्टाचार है, मेडिकल सिंडीकेट ने लूट मचा रखी है तो, क्या अच्छे लोगों ने इस क्षेत्र में जाना छोड देना चाहिए? सैन्य क्षेत्र के कुछ उच्च अधिकारियों पर भी भ्रष्ट आचरण के आरोप लग रहे हैं तो क्या अच्छे, योग्य देश के लिए कुछ कर गुजरने का माद्दा रखने की इच्छा वाले उम्मीदवारों को सेना में जाना छोड देना चाहिए? समाज सेवा के क्षेत्र में पाखंडी और भ्रष्ट लोगों की भरमार हो गई है। इसलिए क्या सेवाभाव से दान देना छोड देना चाहिए। क्या ऐसे लोगों को नहीं ढूंढ़ा जाना चाहिए जो वास्तव में सेवा कर रहे हों और उनकी सहायता करना चाहिए, जुडना चाहिए या समाज सेवा के क्षेत्र को उपेक्षित छोड देना चाहिए। ऐसी सोच से तो कोई भी अच्छा व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकेगा और सभी ओर चोर, भ्रष्ट लोगों का ही कब्जा हो जाएगा। वास्तव में अच्छे, योग्य कुछ कर गुजरने की इच्छा रखनेवालों को जीवन के इन कठिन क्षेत्रों की ओर जाना ही चाहिए तभी कुछ सुधार संभव है केवल आलोचना करते रहने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। शिक्षा क्षेत्र में भी तो आज से नहीं बल्कि बरसों से विविध रुपों में भ्रष्टाचार, आपाधापी मची है। इसलिए क्या विद्या दान जैसे अच्छे क्षेत्र में योग्य लोगों को नहीं जाना चाहिए? यदि नहीं गए तो अच्छे नागरिक कौन तैयार करेगा !   

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कुछ करना ही नहीं चाहते वह यह कहकर विरोध करते हैं कि प्रजातंत्र में 'यथा प्रजा तथा राजा" होता है। अपन कर ही क्या सकते हैं? यह कथन कुछ गलत भी नहीं है। परंतु, क्या यहीं पूर्णविराम लगा दिया जाए! क्या समाज अकर्मण्य अवस्था में है इसलिए अकर्मण्य नेताओं को ही राज करने दिया जाए! नहीं! इसके लिए समाज के ऐसे विचारकों-समाजसुधारकों को आगे आना होगा जो सत्ता की राजनीति से दूर रहकर समाज के प्रबोधन का कार्य करें समाज में जिम्मेदारी का, सेवा का भाव अपने आचरण से जगाएं। अच्छे लोगों को राजनीति में जाने के लिए प्रेरित करें। हमारे समाज में आज भी देशभक्ति, उच्च नैतिकता, भ्रष्टाचार को न चाहने की भावनाएं मौजूद हैं। लेकिन इनका प्रदर्शन समाज केवल तभी करता है जब संकटकाल हो, जैसे कारगिल युद्ध या 1971, 1962 के पाकिस्तान-चीन से हुए युद्ध। और फिर से अपने पुराने ढ़र्रे पर लौट आता है। यह भी सच है कि समाज का चाहे जितना प्रबोधन किया जाए तो, भी समाज में अवांछित तत्त्व तो रहेंगे ही। जो हर काल में रहते ही हैं कभी कम तो कभी ज्यादा। समाज तो बेलन जैसा होता है जिसके दो छोरों में से एक छोर होता है उच्च नैतिक आचरण-आदर्श के हामी नेतृत्व का और दूसरा इसके विपरीत होता है। जो छोर-पक्ष प्रबल होता है वो बेलन के मोटे भाग को यानी समाज को उसी दिशा में ले जाता है। हम भगवान राम को इसीलिए आदर्श राजा मानते हैं क्योंकि, उन्होंने उच्च आदर्शों-मर्यादाओं का प्रदर्शन किया और समाज को भी वैसा ही बनाया तभी तो उनके राज्य में एक कुत्ता भी न्याय मांगने आ सकता था। शिवाजी पडौस के घर में पैदा हो वह कुछ करे फिर हम जयजयकार करने पहुंच जाएंगे, हमारे घर में तो कार्पोरेट सेक्टर में जाकर पैकेज संस्कृति वाला ही पैदा होना चाहिए की सोच मे बदलाव लाने की आवश्यकता है।

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