Thursday, November 17, 2011

सावरकर - सूर्य नमस्कार ! 

सावरकर नाम है एक बहुआयामी व्यक्तित्ववाले आज के युग के मानवतावादी महर्षि का! एक ऐसे प्रखर सूर्य का जिसके प्रखर हिंदुत्व दर्शन के कारण अच्छे-अच्छों की आँखें चौधिया गई थी। परंतु, इसी कारण से उनके अन्य समाजोद्धारक विचार व आचार उपेक्षित ही रह गए। विशेष रुप से मूलतः भक्तिभावी स्वभाव के हम लोगों को आचरण पसंद नहीं। इसीलिए तो सावरकर का समाज-सुधार जो एक जमाने में गाया जाता था वह आज सुनने को भी नहीं मिलता।

वीर सावरकर का हिंदू-राष्ट्र कोई एकांगी, फुसफुसा अथवा अस्थायी आधार पर खडा किया हुआ नहीं है। हिंदू-राष्ट्र के प्रबल व प्रभावी निर्माण के लिए राज्यक्रांति के समान ही समाजक्रांति भी की जाना आवश्यक है। एक क्रांति के बिना दूसरी क्रांति घटित होना ही कठिन; घटित हुई भी तो टिकना तनिक भी संभव नहीं। हिंदू संगठन के आंदोलन की तत्त्वात्मक और कार्यात्मक योजना वीर सावरकर अंडमान से रिहा होने के पूर्व से ही आंक रहे थे। सन्‌ 1924 में वे कैद से छूटकर रत्नागिरी में स्थलबद्ध हुए। उस दिन से उन्होंने इस योजना की उसके इस दोहरे स्वरुप की कार्यवाही को करना प्रारंभ किया। तभी से वे प्रचार करने लगे और उनके कार्यक्रम स्थलबद्धता की चौखट में बैठ सकें ऐसे प्रत्यक्ष प्रयोग भी उन्होंने चालू किए। उन्होंने उनके अंगोपांगो का विशदीकरण करनेवाले अनेक स्वतंत्र ग्रंथ और श्रद्धानंद, केसरी, किर्लोस्कर आदि सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में स्फुट लेख भी लिखे थे।

1924 में सशर्त रिहा होने के बाद पहले तीन साल यानी 1926 के अंत तक सावरकरजी ने अस्पृश्यता निवारण, स्वदेशी प्रचार और बलसंवर्धन के लिए व्यायामशालाओं का प्रसार इन तीन बातों पर मुख्यतः बल दिया। आगे पूरे महाराष्ट्र में उनके जिस भाषाशुद्धि के आंदोलन नेे खलबली मचा दी उस भाषाशुद्धि का कार्य भी इसी काल में शुरु हुआ था। इसके उदाहरण हैं ः 'हवामान"  को 'ऋतुमान", रत्नागिरी के 'नेटिव्ह जनरल लायब्ररी" का रुपांतर 'नगरवाचनालय" या 'नगर ग्रंथालय" में हुआ। इसी प्रकार से पाठशालाओं में 'हाजिर" के स्थान पर 'उपस्थित" की पुकार करना, आदि। किसी भी नई बात के आरंभकाल में जैसी हेठी, निंदा होती है उसी प्रकार की भाषाशुद्धि के मामले में भी घटित होने लगी। इसी काल में सावरकरजी ने विद्यार्थियों के लिए हिंदी की कक्षाएं चलाई। सावरकरजी को हिंदी ही राष्ट्रभाषा के रुप में अभिप्रेत थी। मगर वह हिंदी संस्कृतनिष्ठ होना चाहिए, ऐसा उनका आग्रह था। उन्होंने लिपिशुद्धि और भाषाशुद्धि मंडलों की स्थापना की, जातिभेदोच्छेदक संस्थानों को जन्म दिया। पहले भारतीय वायुवीर रत्नागिरी के कॅप्टन दत्रातय लक्षमण पटवर्धन तथा 'डी लॅकमन" की देखरेख में 'रायफल क्लब" की स्थापना की। सावरकरजी ने  समाजक्रांति को पूरक ऐसा एक 'अखिल हिंदू उपहार गृह" शुरु किया। उस उपहार गृह के संचालक श्री गजाननराव दामले थे। वहां चाय-चिवडा महार के हाथ से मिलता था। वहीं सावरकरजी अतिथियों से मिलते थे।

अस्पृश्योद्धार के साथ ही सावरकरजी का शुद्धिकरण का कार्य भी शुरु था। उनके द्वारा किया गया महत्वपूर्ण शुद्धिकरण था धाक्रस परिवार का। दस पंद्रह वर्ष पूर्व ईसाई बन चूके इस परिवारा को सावरकरजी ने शुद्धि समारोह कर फिर से हिंदू धर्म में लिया था। समाज में समरस किया इतना ही नहीं तो उनकी दो उपवर कन्याओं के विवाह योग्य ऐसे वरों से करा दिए। और एक लडकी के विवाह में तो श्री धाक्रस के आग्रह पर कन्यादान भी किया। सावरकरजी द्वारा प्रचारित बातों से अब समाज अभ्यस्त होने लगा था। परंतु, इस पर संतुष्ट न रहते गतिमान रहना सावरकरजी के किसी भी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण भाग होता था। इसलिए देवालय की 'सीढ़ी के बाद सभा मंडप आंदोलन" सावरकरजी ने शुरु किया। स्पृश्यास्पृश्यों के समिश्र मेले सभा मंडप में जाने पर किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं इस प्रकार का प्रचार शुरु किया। किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में अस्पृश्य माने गए बंधुओं को साथ लेकर वे मंदिर जाने लगे। इस आंदोलन को लेकर अनेक लोग उन्हें छोडकर जाने लगे। बस सुधारक ही बचे रह गए। सामान्य लोगों को अस्पृश्यों का देवालय प्रवेश उस काल में भयंकर भ्रष्टाचार लगा इसमें कोई आश्चर्य नही। सावरकरजी अपने किसी भी नए आंदोलन का उपक्रम सार्वजनिक गणेशोत्सव और रत्नागिरी के पुरातन श्री विट्ठल मंदिर से करते थे। गणेशोत्सव समिति सावरकरजी का व्यासपीठ था। अस्पृश्यता धर्मसम्मत होने के कारण उसका पालन किया जाना चाहिए ऐसा कहे जानेवालों के व्याख्यानों का आयोजन जानबूझकर सनातनी करते थे। तो, अस्पृश्यता निषेध के सुधारक। इस प्रकार की यह खींचतान लगभग दो साल चली।  इस कारण समाज ऊपर से नीचे तक हिल उठा।  अस्पृश्यता बाबद अनुकूल या प्रतिकूल चर्चाओं के बिना रत्नागिरी में अन्य विषय ही नहीं बचा था।

1928 में दशहरे के शुभ दिन, परधर्मियों को हम अपने घरों में जहां तक प्रवेश देते हैं वहां तक तो भी अस्पृश्यों को प्रवेश देने के लिए तैयार हिंदू नागरिकों के घरों में, अपने सवा सौ अनुयायियों और 8-10 अस्पृश्यों सहित सावरकरजी ने समारोहपूर्वक प्रवेश किया और उन सभी के नाम प्रकाशित किए गए। पाठशालाओं में भी अस्पृश्य समझे जानेवाले बच्चों को मिश्रित रुप से बैठाया जाए, उन्हें पाठशालाओं के बरामदों अथवा कक्षा में एक ओर न बैठाया जाए। यह बात सावरकरजी हिंदू संघटन की दृष्टि से अत्यंत ठोस और मूलगामी समझते थे। परंतु, सावरकरजी के इस आंदोलन को भी तीव्र विरोध का सामना करना पडा। कई पाठशालाओं में शिक्षकों की हडतालें हुई तो, कई गांवों में गांववासियों ने विरोध किया। कुछ स्थानों पर स्पृश्यों द्वारा दिए गए स्थान वापिस ले लिए गए। तो कुछ स्थानों पर अस्पृश्यों ने यदि अपने बच्चों को पाठशालाओं में भेजा तो बहिष्कार किया जाएगा की धमकियां दी गई। 

देवालय प्रवेश के साथ ही सावरकरजी को समाज के पतन का कारण बनी 'बंदियों" को तोड डालना था और इसलिए पुराने देवालयों में अस्पृश्यों के प्रवेश आंदोलन के साथ ही जिस देवालय में अस्पृश्यों को सवर्ण हिंदुओं के समान प्रवेश और अन्य अधिकार होंगे ऐसा अखिल हिंदुओं के लिए श्री पतित पावन मंदिर का निर्माण सेठ श्री भागोजी कीर की सहायता से किया। 10 मार्च 1929 को मंदिर का शिलान्यास श्रीमत्‌ शंकराचार्य डॉ. कूर्तकोटी के करकमलों द्वारा हुआ। उपस्थित स्पृश्यास्पृश्यों के प्रचंड जनसमुदाय के सामने सावरकरजी ने इस देवालय के उद्देश्यों की रुपरेखा निम्नानुसार कथन की -

1). इस देवालय में शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी भगवान श्रीविष्णू की देवी लक्ष्मी सहित स्थापना की जाएगी। 2). उस मूर्ति की पूजा करने का अधिकार जातिनिर्विशेष ढ़ंग से सभी हिंदुओं को समान रुप से रहेगा। 3). मगर, ऐसी पूजा करनेवाले को सर्वप्रथम देवालय के प्रांगण में स्नान कर व शुद्ध वस्त्र धारण करने के बाद में ही पूजा के लिए मंदिर के गर्भगृह में जाने का अधिकार होगा। 4). देवालय का पुजारी 'स्वधर्मक्षम" होना चाहिए, फिर वह किसी भी जाति का हो। इस प्रकार सभी हिंदुओं के लिए खुला रहनेवाला देवालय अखिल महाराष्ट्र तो क्या परंतु, अखिल भारत में भी दुर्लभ होने के कारण इस मंदिर को एक विशिष्टता प्राप्त हुई। इस समय  सावरकरजी ने अपने भाषण में कहा था ''अस्पृश्यों को प्रेम से स्पृश कर उनका अंगीकार करनेवाले दो ही शंकराचार्य हुए हैं। पहले, पीठ स्थापक आद्य शंकराचार्य काशी में स्नान कर वापिस आते समय मार्ग में अद्वैत तत्त्वज्ञानी अस्पृश्य को आलिंगन देनेवाले और दूसरे यह शंकराचार्य डॉ. कूर्तकोटी जो अखिल हिंदुओं के प्रतिनिधि के रुप में आए हुए पांडु विठु महार को हार और हाथ अपने गले में डालने देकर उस पांडोबा के साथ ही स्वयं भी कृतार्थ हुए। यह श्री पतित पावन मंदिर स्मृति है सनातनियों के विरोध की परवाह न करते अस्पृश्यता के कलंक को धो डालने के वीर सावरकर के क्रांतिकारी कार्य की।

श्री पतित पावन मंदिर के कारण सावरकरजी को बिना किसी अवरोध के सामाजिक क्रांति का कार्य करने के लिए स्वतंत्र व्यासपीठ प्राप्त हुआ। जब सनातनियों ने अस्पृश्यों को गणेशोत्सव के लिए विट्ठल मंदिर के सभामंडप में प्रवेश को नकारा तो, सावरकरजी ने सभासदत्व से त्यागपत्र देकर अखिल हिंदू गणेशोत्सव में भाग ले सकें ऐसा अखिल गणेशोत्सव श्री पतित पावन मंदिर में शुरु किया। इसी उत्सव में डेढ़ हजार स्त्रियों द्वारा भाग लिया हुआ हल्दी-कुंकु कार्यक्रम भी संपन्न हुआ। विशेष रुप से दर्ज करने लायक बात है पांच अस्पृश्य लडकियों द्वारा गायत्री मंत्र पठन की स्पर्धा में भाग लेना। शिवू भंगीने शास्त्रशुद्ध स्वरों में सैंकडों लोगों के सामने तीन बार गायत्री मंत्र का उच्चारण कर पुरस्कार जीता। सबसे महत्वपूर्ण बात थी सावरकरजी द्वारा 'हिंदुओं के जातिभेद" इस विषय पर हुए व्याख्यान। हिंदूजाति की वर्तमान दुर्बल, अव्यवस्थित स्थिति के लिए महत्वपूर्ण कारण है 'हिंदुओं के बीच का जातिभेद"। हिंदुओं की  शक्ति को बांझ कर डालनेवाली अधिकांश सभी दुष्ट रुढ़ियों का मूल इस जातिभेद में ही है, ऐसी उनकी दृढ़ धारणा थी। और इसीलिए जातिभेद के उच्छेदन का आंदोलन उन्होंने हाथ में लेना तय किया।

उन्होंने केसरी में 'जातिभेद के इष्टनिष्टत्व" इस शीर्षक तले लेखमाला लिखी और इस प्रश्न को महाराष्ट्र में गति दी। प्रचलित जातिभेद की अनिष्टता युवाओं के मानस पर अंकित होना चाहिए इसलिए उन्होंने रत्नागिरी में युवाओं का 'हिंदू मंडल" स्थापित कर उसमें जातिभेद के अनिष्टत्व को सिद्ध करने के लिए चर्चा करते थे। उनका कहना था जातिभेद सप्तपाद प्राणी है। वे पांव हैं - वेदोक्तबंदी, सिंधुबंदी, शुुद्धिबंदी, स्पर्शबंदी, रोटीबंदी व बेटीबंदी। इनमें से मुख्यतः तीन पांव स्पर्शबंदी, रोटीबंदी और बेटीबंदी तोडी कि जातिभेद समाप्त हुआ ही समझ लीजिए। इसके लिए 'जातिभेदोच्छेदनार्थ अखिल हिंदू सहभोजन करिष्ये" इस प्रकार का संकल्प कर सहभोजन होना चाहिए। 16 सितंबर 1930 को पहला सहभोजन रत्नागिरी में हुआ। इस समारोह के कारण रत्नागिरी ही नहीं तो पूरे महाराष्ट्र में खलबली मच गई। रत्नागिरी में पहले से ही चल रहे सावरकरजी के भाषाशुद्धि, लिपिशुद्धि, अस्पृश्यता निवारण, शुद्धिकरण, पाठशालाओं में अस्पृश्य बच्चों को मिश्रित ढ़ंग से बैठाना, 'अखिल हिंदू उपहारगृह की स्थापना", अस्पृश्यों का देवालय प्रवेश, अस्पृश्यों के साथ हिंदू नागरिकों के घरों में प्रवेश आदि अभियानों के बाद अब जातिभेदोच्छेदनार्थ सहभोजन ने आग में घी डालने का काम किया। पहले से ही उन्हें रुढ़ीप्रिय समाज पाखण्डी, 'सबगोलंकारी" अर्थात्‌ छूत-छात न माननेवाला कहता था। पहले कुछ अनुयायी मंदिरों में अस्पृश्यों के साथ प्रवेश प्रकरण के कारण छोड गए थे अब उसमें और बढ़ोत्री हुई। तथापि, 'वरंजनहितं ध्येयं न केवला न जनस्तुती" इस ध्येय वाक्य से प्रेरित सावरकरजी ने चिंता न की।

जात्युच्छेदक सहभोजनों और सहभोजकों का सनातनियों द्वारा बहिष्कार की धूम मची हुई थी कि जिस देवालय में अस्पृश्यों को सवर्ण हिंदुओं के समान ही प्रवेश और अन्य सभी प्रकार के अधिकार हों ऐसे 'अखिल हिंदुओं के लिए श्रीपतितपावन मंदिर" जो सेठ भागोजी कीर की सहायता से निर्मित किया गया था के उद्‌घाटन के समय श्री भागोजी कीर जाति से भंडारी होने के कारण वेदोक्त पद्धति से हम धार्मिक विधि नहीं करेंगे, ऐसा शास्त्री-पंडितों ने कहा, तब सावरकरजी एक ओर तथा शास्त्री-पंडित दूसरी ओर इस पद्धति से दो दिन तक शास्त्रार्थ चला। सावरकरजी का धर्मग्रंथों का अध्ययन कितना प्रबल है इसका प्रत्यय सबको इस समय हुआ। शंकराचार्य डॉ. कूर्तकोटी ने भागोजी कीर के कर कमलों द्वारा वेदोक्त विधि से धार्मिक विधि होने में कोई आपत्ति नहीं ऐसा निर्णय दिया। फिर भी शास्त्री-पंडितों को वह मान्य नहीं हुआ। श्रद्धालु प्रकृति के सेठजी ने कहा पुराणोक्त तो पुराणोक्त परंतु, मूर्ति की प्रतिष्ठा समय पर हो। सावरकरजी तत्काल बोले प्रत्येक हिंदू को वेदोक्त अधिकार है। इस सिद्धांत का त्याग करना हो तो, सबसे पहले मेरा त्याग करो। परंतु, यदि सिद्धांत का त्याग नहीं करनेवाले हो तो पूर्वास्पृश्यों का जो हजारों का समुदाय आज आया हुआ है उन हजारों हिंदुओं के हाथों से देवमूर्ति उठाकर जयजयकार कर हम उस मूर्ति की स्थापना करेंगे। यही हमारी विधि होगी। 'हिंदू धर्म की जय"  का हजारों कंठों से निकलनेवाला जयघोष ही हमारा वेदघोष होगा और 'भावेहि विद्यते देवो" हमारा शास्त्राधार।

अंत में मसूरकर महाराज के आश्रम के वे.शा.सं. विष्णू शास्त्री मोडक द्वारा महाराज की आज्ञानुसार कीर सेठजी के कर कमलों द्वारा वेदोक्त विधि से देवप्रतिष्ठादिक सारे धर्म विधि भलीभांति पूर्ण किए गए। और दिनांक 22 फरवरी 1931 को श्री पतितपावन की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा श्री शंकराचार्य के कर कमलों द्वारा 'हिंदू धर्म की जय" गगनभेदी नारों के साथ की गई। इस समारोह में पूणे के श्री राजभोग द्वारा शंकराचार्यजी की पाद्यपूजा की गई। दूसरे दिन दि. 23 को अन्नसंतर्पण के कार्यक्रम में 'सावरकरजी का पाखंडी सहभोजन नहीं होना चाहिए" का आग्रह अनेक सनातनियों के साथ ही श्री मसूरकर महाराज, संत पाचलेगांवकर महाराज और स्वयं डॉ. कूर्तकोटी ने भी किया। सहभोजन, जातिउच्छेदन इस प्रकार के आंदोलन आततायी और पांखडी हैं। सावरकरजी के इन आंदोलनो को हमारी बिल्कूल भी सहमति नहीं है, ऐसा वे जाहिर रुप से कहने लगे।

परंतु, इस अन्नसंतर्पण का जात्युच्छेदक सहभोजन कार्यक्रम सावरकरजी द्वारा स्थगित किया जाना संभव ही नहीं था। इस समारोह में दूर-दूर से आए हुए लोगों को रत्नागिरी में की गई सामाजिक क्रांति का प्रदर्शन दिखाने का अवसर गंवाना सावरकरजी जैसे आग्रही प्रचारक को मान्य होनेवाला नहीं था। उन्होंने कीर सेठजी के पास न्याय्य मांग की ''अन्न संतर्पण के भोजन की इच्छा रखनेवालों की स्वतंत्र पंगत रखने की व्यवस्था करें, जो उस पंगत में बैठना चाहें बैंठे। सनातनियों की जातिगत पंगत का हम सहभोजक विरोध नहीं करेंगे। वे भी हमारी पंगत का विरोध ना करें। उनकी प्रामाणिकता को हम मान्य करते हैं। वे हमारी प्रामाणिकता को मान्य करें।"" सावरकरजी के जातिभेदोच्छेदक सहभोजन की परंपरा आगे चलकर हमारे इंदौर में भी चटनी-रोटी सहभोजन के रुप में पहुंची।

22 फरवरी को ही मंदिर के सभामंडप में दोपहर को मुंबई के अस्पृश्यता निवारक परिषद का छठा अधिवेशन हुआ। अध्यक्ष के रुप में सावरकरजी को चुना गया। सुभेदार घाटगे (पुणे) ने तो 'हमारे सच्चे शंकराचार्य" की उपाधि सावरकरजी को प्रदान की। स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा अधिक कर्मठ रुढ़ीग्रस्त होती हैं। इस कारण जात्युच्छेदन के आंदोलन ने स्त्रियों में जड पकडी तो वह अधिक शाश्वत स्वरुप का होने का संभावना थी। इसके लिए उनमें भी खुल्लमखुल्ला रोटीबंदी तोडने की प्रवृत्ति शुरु करना आवश्यक था। परंतु, यह काम सरल नहीं था। इसके लिए बहुत मेहनत करना पडी। वर्ष-दो वर्ष के प्रयत्नों के बाद तीस-पैतीस सुविद्य स्त्रियां और बीस-पच्चीस अस्पृश्य स्त्रियों का पहला सहभोजन 21 सितंबर को हुआ। इसी मंदिर में सावरकरजी अस्पृश्यों को यज्ञोपवित भी बांटते थे।

1933 में शिवरात्री पर रत्नागिरी में जन्मजात अस्पृश्यता का मृत्युदिवस मनाना रत्नागिरी की हिंदूसभा ने तय किया। उस 'दिन" के लिए पूणे के डिप्रेस्ड क्लास मिशन के कर्मवीर शिंदे और दलित वर्ग के नेता पा. ना. राजभोग आए थे। समारोह के अध्यक्षीय भाषण में कर्मवीर शिंदे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण के कार्य में अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया था, ने कहा ''रत्नागिरी के सामाजिक परिवर्तनों को मैंने सूक्ष्मता से देखा है। इस पर से मैं निःशंक रुप से कह सकता हूं कि, यहां घटित हो रही सामाजिक क्रांति अभूतपूर्व है, सामाजिक सुधार का कार्य मैंने जीवन भर किया है। वह इतना कठिन और क्लिष्ट है कि, मैं भी बीच-बीच में निरुत्साहित हो जाता हूं। परंतु, यह क्लिष्ट काम मात्र सात वर्षों में रत्नागिरी जैसे सनातनी नगर में सावरकरजी ने कर दिखाया। यह रत्नागिरी केवल अस्पृश्यता का उच्चाटन कर ही रुकी नहीं अपितु जन्मजात जातिभेद के उच्चाटन करने के लिए कटिबद्ध हुई। आप लोगों को अस्पृश्यों के साथ सहभोजन, सहपूजन आदि सारे सामाजिक व्यवहार प्रकटरुप से करते हुए मैंने देखा है। इससे मैं इतनी प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं कि, यह दिन देखने के लिए मैं जीवित रहा बडा अच्छा रहा।  
 
वीर सावरकर की यह क्रांति आगे खंडित हो गई। परिणामस्वरुप 1927 में महाड में डॉ. आंबेडकर द्वारा की गई घोषणा 1956 के दशहरे पर अमल में लाई गई। परंतु, उसके पूर्व ''1938 में पूना ओ.टी.सी में एक दिन डॉ. आंबेडकर पधारे। उन्होंने डॉक्टरजी से पूछा, 'इन स्वयंसेवकों में कोई महार जाति के हैं क्या?" डाक्टरजी ने कहा, 'होंगे लेकिन हम उनकी जाति-वार याददाश्त नहीं रखते, इच्छा हो तो कमरे में चलकर जानकारी ले सकते हैं।" वे बोले, 'हॉं, मैं जानकारी लेना चाहता हूँ।" इस पर दोनो कमरे में गए और स्वयंसेवकों से पूछा, 'यहां कोई महार जाति के कोई हैं क्या?" कुल करीब 200 स्वयंसेवकों में से 8 या 9 स्वयंसेवक महार जाति के निकले। उनसे आंबेडकरजी ने पूछा, 'क्या आप अन्य स्वयंसेवकों के साथ ही खाना खाते हैं?" उत्तर मिला, 'जी हॉं," और सबने मिलकर बतलाया कि वहॉं वे कोई भेदभाव महसूस नहीं करते।"

आंबेडकर आश्चर्य-चकित हो गए और बोले, 'मैंने ऐसा दृश्य अपने जीवन भर कहीं नहीं देखा। परंतु डॉक्टर! आपके इस मार्ग से पूरी महार जाति का उद्धार करने में सैंकडों साल लग जाएंगे। मुझे उतना 'धैर्य" नहीं है। इनका उद्धार तुरंत हो, ऐसी मेरी इच्छा है।" डाक्टरजी हॅंसकर बोले, 'आपकी इच्छा ठीक है, पर मैं कहूँगा, 'हेस्ट मेक्स वेस्ट" और इतना कहकर डॉक्टरजी आंबेडकरजी को अपने साथ अपने निवास-स्थान पर ले चले गए।""(राष्ट्रधर्म मार्च 1989पृ.102 युगान्तर विशेषांक) 24 मई 1956 बुद्धजयंती पर नरे पार्क में डॉ. आंबेडकर ने निर्वाण की घोषणा की कि 14 अक्टूबर 1956 विजयादशमी को अनुयायियों सहित मैं बौद्धधर्म ग्रहण करुंगा। डॉ. आंबेडकर को इस विचार से परावृत्त करनेवाली एक भी हिंदू शक्ति नहीं थी ऐसा ही कहना पडेगा।

''डॉक्टर साहब के धर्मांतर करने के निश्चय का जब श्री गुरुजी को पता चला तब उन्होंने अविलम्ब ठेंगडीजी को डॉक्टर साहब के पास चर्चा करने हेतु भेज दिया। 'डॉक्टर साहब, सुना है कि आप हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले हैं?" 'हॉं,मैंने पक्का निर्णय किया है।" 'परंतु आप जो विचार बताते हैं वही सब हममें से कुछ युवक प्रत्यक्ष आचरण में अनेक वर्षों से ला रहे हैं।" 'आप युवक याने आर.एस.एस. ही है?"  'जी हॉं, हममें कुछ सवर्ण भी हैं, कुछ दलित वर्ग के भी हैं। जो सवर्ण हममें हैं वे ऐसा विचार करते हैं कि भूतकाल में हमसे जो कुछ पाप हुआ सो हो गया है उसका प्रायश्चित करने को हम तैयार हैं। हमको सब हिंदू मात्र का संगठन करना है।" 'बहुत ही अच्छा है परंतु इस पर मैंने कुछ सोचा ही नहीं ऐसी तुम्हारी धारण है क्या?" 'आपने इस पर सोचा नहीं होगा यह कैसे हो सकता है डॉक्टर साहब!" ठेंगडीजी ने कहा।

'तो फिर मेरे प्रश्न का उत्तर दो।" 'पूछिए आपका प्रश्न डॉक्टर साहब!" 'तुम्हारे आर.एस.एस. का कार्य कब प्रारंभ हुआ।" 'सन 1925 में।" 'याने कार्य प्रारंभ हुए कितने वर्ष हो गए?" 'साधारणतः 27-28 वर्ष।" 'देशभर में आर.एस.एस. वालों की कुल  कितनी संख्या है?" 'मुझे तो इसकी कल्पना नहीं है।" 'अच्छा! तो मेरे अनुमान से देशभर में 26-27 लाख स्वयंसेवक होंगे।" 'हो सकते हैं।" 'तो तुम ही बताओ कि 26-27 लाख सवर्ण और दलित लोगों को आपकी संस्था में लाने में अगर आपको 27-28 वर्ष लगे हैं तो पूरे दलित वर्ग को संघ में लाने के लिए कितने वर्ष लगेंगे?" 'परंतु... .. डॉक्टर साहब... 'बीच में मत बोलो। तुम क्या कहने वाले हो वह सब मुझे पता है। तुम जो geometricl progression बतानेवाले हो उसकी भी कुछ मर्यादा है। बकरी कितनी भी बडी हो जाए तो भी बैल नहीं बन सकती। मुझे अपने ही जीवन में इस समस्या का हल करना है। इसको निश्चित दिशा देनी है।""  ठेंगडी मौन रह गए।" (स्वदेश दीपावली विशेषांक 1973 पृ.25) और प्रत्यक्ष नागपूर में ही दशहरे के विजयदिवस पर तथाकथित अस्पृश्यों का बडा भाग हिंदूधर्म समाज से अलग हो गया।

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