इस्लाम सुधार को कतई पसंद नहीं करता। क्योंकि, उसकी यह दृढ़ मान्यता है कि अल्लाह से पैगंबर मुहम्मद को वह्य (अल्लाह की ओर से पैगंबर को आया हुआ आदेश) के रुप में जो संदेश प्राप्त हुए वे अंतिम हैं और इसीलिए इस्लाम में किसी भी तरह का सुधार या किसी इस्लामी संकल्पना में रत्ती भर भी फर्क हो नहीं सकता। और जो बात इस्लाम में पैगंबर के समय थी ही नहीं वह बात इस्लाम में शामिल करना (यानी कोई सुधार प्रचलन में लाना) बिदअत है। दअ्वतुल कुर्आन का अधिकृत भाष्य इस पर कहता है ''किसी भी मनगढ़ंत बात को दीन (इस्लाम धर्म) में शामिल करना उसे अल्लाह से जोडने के समानार्थ है।"" (यानी शिर्क (अनेकेश्वरवाद, बहुदेववाद) है जो सबसे बडा गुनाह है (31ः13) जिसे अल्लाह कभी माफ नहीं करता।) (खंड 1, पृ.329) 'दीन" क्या है यह बतलाते हुए भाष्य कहता है ''दीन का मतलब है इबादत (उपासना) और इताअत (आज्ञापालन) की वह व्यवस्था जिसे अल्लाह ने उतारा हो। उसमें अपनी तरफ से किसी भी चीज को दाखिल करना गोया इस बात का दावा करना है कि ये बात अल्लाह की तरफ से है जबकि यह सत्य नहीं है।""(329) कुर्आन भाष्य के अनुसार ः इसलिए दीन की बुनियादी बातों के सिलसिले में गलत स्पष्टीकरण एवं गलत व्याख्याओं में उलझकर जो दीन में नई-नई बातें एवं खुराफात पैदा करके उसकी जड पर कुल्हाडा चलाते हैं वे शिर्क में मुब्तिला (अनेकेश्वरवाद में फंसा हुआ) हैं, शैतान के मित्र हैं और उसके लिए तबाही है।" (310,311) इस्लाम के अनुसार संसार का सारा ज्ञान कुरान और हदीस (पैगंबर की उक्तियां एवं कृतियां) में है।
सुधार को इतना आपत्तिजनक मानने का कारण इस्लाम की दीनी या मजहबी संकल्पना में छुपा हुआ है। जिसके अनुसार ''अल्लाह ने इंसान की हिदायत और रहनुमाई के लिए जो दीन नाजिल फरमाया (धर्म उतारा) वह इस्लाम है। यही दीन अल्लाह का दीन है और तमाम नबियों (पैगंबरों, ईशदूतों) पर वह इसी दीन को नाजिल फरमाता रहा। उसने कभी किसी देश और युग में किसी भी नबी या रसूल पर इस्लाम के सिवा कोई और दीन नाजिल नहीं फरमाया लेकिन पैगंबरों की उम्मतों (समुदायों) ने उस असल और वास्तविक दीन में बिगाड और मतभेद उत्पन्न करके अलग-अलग धर्म ईजाद कर लिए।""(173) ''किंतु वास्तव में इस्लाम ही एक ऐसा धर्म है जो अल्लाह का दीन कहलाने का योग्य अधिकारी है।... इस्लाम किसी एक नस्ल या एक गिरोह का दीन नहीं बल्कि वास्तव में वह पूरे जगत और सारी कायनात (ब्रह्मांड) का दीन है।""(199) ''मतलब यह कि जीवन भर इस्लाम पर दृढ़ रहो और जब इस दुनिया से कूच करो तो मुसलमान की हैसियत से कूच करो।""(206)
कुरान (5ः3) में कहा गया है ''मैंने (अल्लाह ने) तुम्हारे लिए तुम्हारे दीन को मुकम्मल (परिपूर्ण) कर दिया और तुम्हारे इस्लाम को दीन की हैसियत से पसंद कर लिया।"" कुर्आन भाष्य कहता है ''अब इस दीन को इसी रुप में कयामत तक बाकी रहना है और संपूर्ण जगत की सारी कौमों (जातियों) के लिए यही हिदायत (शिक्षा) का स्तंभ है।""(339) इसी कारण ''अल्लाह के दीन में न कोई संशोधन किया जाए और न कांट-छांट। वैध-अवैध, हलाल, हराम, पारिवारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं में अल्लाह ही के आदेशों की ओर रुजू करें।"" (दअ्वतुल कुर्आन खंड 3, पृ.1719)
इस्लाम में सुधार लाने के प्रयत्नों पर पैगंबर का कथन है 'जो इस्लाम में नए सुधार करने का प्रयत्न करता है, उसे जो सम्मान देता है, वह इस्लाम नष्ट करने के कार्य में सहयोगी होता है।" (इब्न मजहः 14,42,5)
उपर्युक्त भाष्य से स्पष्ट होता है कि इस्लाम में सुधार करने का प्रयत्न करने का अर्थ गुमराही, असत्य कर्म, शिर्क (अनेकेश्वरवाद/बहुदेववाद) है और ये तो श्रद्धाहीनों (काफिरों) के कर्म होते हैं अर्थात् यह तो इस्लाम से दूर जाना हुआ, इस्लाम का त्याग हुआ। ऐसे लोगों के बारे में हदीस कथन है 'अल्लाह ने तेरे लिए जो निर्णय लिया हुआ है वह तू टाल नहीं सकता। और अगर तू इस्लाम से दूर जाएगा तो अल्लाह तेरा निश्चय ही नाश करेगा।"(बुखारी 3620,7461) इस्लाम में धर्मत्याग एक अत्यंत महत्वपूर्ण संकल्पना है। वह केवल इस्लाम छोडकर जाने तक कि सीमित न होकर उसकी अपेक्षा व्यापक है। पाकिस्तान की विधि शिक्षण संस्था के लिए वहां के सर्वोच्च न्यायालय के वकील डॉ. गिलानी ने लिखे हुए क्रमिक ग्रंथ में इसकी व्यापकता बतलाते हुए कहा है 'धर्मत्याग के सिद्धांत के कारण इस्लामिक विचारों की शुद्धता टिकी रहती है। धर्म के संबंध में परिवर्तन जोर-जबरदस्ती या नकार मतलब धर्मत्याग।"(The Reconstruction of Legal Thoughts in Islam- Dr. Riazul Hasam Gilani P.152) इसी ग्रंथ में शाह वलीउल्लाह द्वारा प्रस्तुत अर्थ इस प्रकार का है 'जो इस्लाम में मूलभूत सिद्धांतों के संबंध में, पैगंबर के सहयोगियों, उत्तराधिकारियों और उम्मा (मुस्लिम समाज) के सर्वसम्मत मत के विरुद्ध अर्थ निकालता है या स्पष्टीकरण देता है वह धर्मत्यागी(Apostate)।"(154) कुछ विद्वानों के मत से कुरान में धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड बतलाया गया है। इसके लिए वे इन आयतों का आधार लेते हैं 2ः217, 4ः89, 5ः54, 16ः106,7। परंतु, अनेक विद्वानों के मत से कुरान में इसके लिए मृत्युदंड की सजा न होकर नरकाग्नि का दंड बतलाया गया है। अर्थात् ही वह दंड देने का अधिकार अल्लाह का है। लेकिन कुरान में स्पष्ट रुप से मृत्युदंड का आदेश आया हुआ नहीं है तो भी वैसे स्पष्ट आदेश वाले पैगंबर के वचन हदीस में आए हुए हैं। पैगंबर ने कहा है 'जो इस्लाम धर्म का त्याग करता है, उसे मार डालो।"(बुखारी 3017,6922,7362) इसके अलावा आगे की हदीस का भी आधार है जिसके अनुसार पैगंबर ने कहा था 'जो एकमात्र अल्लाह पर और उसके पैगंबर पर श्रद्धा रखता है उस मुस्लिम के प्राण लेने की अनुज्ञा किसी को भी नहीं है, परंतु, आगे के तीन प्रकरणों में कानूनन उनके प्राण लिए जा सकते हैं ः विवाहित रहते व्यभिचार करनेवाला या करनेवाली, (दूसरे श्रद्धावान यानी मुसलमान) का खून करनेवाला और इस्लाम का त्याग करनेवाला।"(सहीह बुखारी हदीस क्र. 6878, मुस्लिम 4152 से 4, दाउद 4338 से 40, इब्न मजह 2533,4) हमारे मतानुसार अनेकेश्वरवादी श्रद्धाहीन (काफिर) के लिए जो दंड है वही धर्मत्याग करनेवाले के लिए है। दूसरे खलीफा उमर द्वारा उद्धृत हदीस के अनुसार एकमात्र अल्लाह और पैगंबर मुहम्मद को न मानने वालों के विरुद्ध जिहाद करने का आदेश अल्लाह ने पैगंबर को दिया था। अर्थात् यह न मानने वाले श्रद्धाहीन (काफिर) ही थे। यही नियम धर्मत्याग करनेवालों के लिए भी लागू होता है।
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