Tuesday, October 21, 2014

चरमराती डाक-व्यवस्था की सुध कौन लेगा !

ब्रिटिश राज की भारत को तीन अच्छी देन हैं ः भारतीय रेल, भारतीय सेना और भारतीय डाक। भारतीय डाक व्यवस्था दुनिया की सबसे उन्नत व्यवस्थाओं में से एक है, जो एक लंबा सफर तय कर चूकी है। आज की इस भागमभाग भरी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में भी उसने अपना महत्व बनाए रखा है इसकी पुष्टि बढ़ती स्पीड-पोस्ट सेवा के ग्राहकों की सूची से मिलती है। यह विशेष स्पीड-पोस्ट सेवा कुछ अधिक मूल्य लेकर उच्च सेवा, तीव्र गति से देने के उद्देश्य से शुरु की गई थी। इस सेवा के बढ़ते ग्राहकों की संख्या डाक विभाग की विश्वसनीयता और बेहतरी को ही दर्शाती है। वैसे उसमें भी कुछ त्रुटियां हैं जैसेकि संवादहीनता एवं समन्वय की कमी जिन्हें दूर किए जाने की तत्काल आवश्यकता है। 

परंतु, जब साधारण डाक वितरण की ओर दृष्टि डालते हैं तो बिल्कूल विपरीतता ही दृष्टिगोचर होती है। डाक देर से मिलने की शिकायत करना तो लोग भूल ही गए हैं। क्योंकि, अब डाक मिल जाना ही बहुत बडी बात हो गई है। पहले मुहल्ले या कालोनी में डाकिये (पोस्टमेन) का दिख पडना आम बात थी, परंतु अब उसके दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। जबकि पहले दिन में दो बार डाक बांटी जाती थी और तीसरी डाक के रुप में रजिस्ट्री, मनिऑर्डर आदि तो, चौथी डाक के रुप में कभी-कभी आनेवाले टेलिग्राम जो अब बंद हो गए हैं; होती थी। इस समय डाक वितरण की जो बदहाल स्थिति है उसके पीछे सबसे बडा कारण एक लंबे समय से डाकियों की भर्ती न होना भी है। जबकि समय के साथ कई डाकिये सेवानिवृत्त होते चले गए, जनसंख्या वृद्धि और नगरों के फैलाव के कारण ग्राहक एवं मकानों की संख्या तो बढ़ गई लेकिन डाकियों की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो गई और कार्यक्षेत्र एवं कार्यभार अवश्य बढ़ गया है जिसकी भरपाई आउटसाइडर (ओएस) से काम कर करवाई जा रही है, इनकी अपनी अलग ही पीडा है शोषण की। दस पंद्रह वर्षों तक काम करने के बाद भी उनका नियमितीकरण नहीं हुआ है। स्टाफ की इस कमी के कारण डाक विभाग का काम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

कुछ वर्षो पूर्व तक लगभग हर चौराहे या महत्वपूर्ण स्थानों पर पोस्ट ऑफिस का लाल डिब्बा हुआ करता था। कई स्थानों पर लाल डिब्बे के अलावा लोकल डाक के लिए हरा डिब्बा तो, सफेद डिब्बा राजधानी या महत्वपूर्ण शहरों के लिए हुआ करता था। जिनसे दिन में कितनी बार कितने-कितने बजे डाक निकाली जाएगी लिखा रहता था। इन डिब्बों से डाक निकालकर छंटाई कर सीधे गंतव्य की ओर रवाना की जाती थी। लेकिन धीरे-धीरे ये डिब्बे गायब होते चले गए और अब तो लाल डिब्बे ही बडी मुश्किल से नजर आते हैं जिसमें सारी डाक पहले एकत्रित की जाती है फिर छंटाई कर उसको गंतव्य स्थान की ओर जिलों के माध्यम से रवाना किया जाता है। उदाहरण के लिए पहले खरगोन जिले के गोगांवा डाक पहुंचाना हो तो सीधे गोगांवा ही भेज दी जाती थी लेकिन अब बदली हुई व्यवस्था के अंतर्गत डाक पहले जिला स्थान यानी खरगोन जाएगी फिर गोगांवा इसमें समय अधिक लगता है और डाक देरी से पहुंचती है। यह सब स्टाफ की कमी की वजह से हो रहा है और डाक वितरण की व्यवस्था गडबड हो रही है। 
  
एक जमाना था जब शहर के पोस्टमास्टर जनरल का सम्मान कलेक्टर से अधिक हुआ करता था लोग उसे अतिथि के रुप में आमंत्रित किया करते थे। समाचार पत्रों में समाचार छपा करते थे कि किस तरह बिना ठीक पते या आधे-अधूरे पते के, गलत पता लिखा होने के बावजूद पत्र गंतव्य तक सही सलामत पहुंचा। डाकिये से लोग आत्मीयता रखते थे। यह सारा सम्मान, आत्मीयता का कारण था डाक विभाग की उत्कृष्ट सेवा। परंतु, कुछ भ्रष्ट एवं कामचोर कर्मचारियों एवं डाकियों के कारण इस सम्मान-आत्मीयता एवं विश्वसनीयता में कमी अवश्य आई है, परंतु डाक विभाग का महत्व आज भी बरकरार है इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब रफी अहमद किदवई संचार मंत्री बने तब उन्होंने डाक तंत्र को मजबूत बनाने के प्रयत्न किए थे। यह समर्थन आगे भी जारी रहा। परंतु, धीरे-धीरे ढ़र्रा बिगडने लगा। यूपीए सरकार के समय जब ज्योतिरादित्य सिंधिया संचार मंत्री थे तब उनके कार्यकाल में अवश्य कुछ सुधार नजर आने लगा था। सिंधिया ने कई ई.डी. या ओएस यानी आउटसाइडर को संभागों, प्रदेशों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में जूते, चप्पल, झोलों का वितरण समय पर किया था, डाकियों को तीन साल में वर्दी विभाग द्वारा दी गई। डाक विभाग के आधुनिकीकरण के तहत कमप्यूटराजेशन आरंभ किया, छोटे-छोटे पोस्ट-ऑफिसों में तक कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी गई। पूरे विभाग में एक उत्साह का वातावरण बनाने में वे सफल रहे उसके फलस्वरुप कार्यपद्धति में सुधार आना प्रारंभ हुआ। परंतु, उनके बाद फिर से डाक विभाग की गाडी पुराने बदहाल ढ़र्रे पर लौट आई। अब हालात यह हैं कि पोस्टमेन के पास वर्दी ही नहीं है तो वाशिंग अलाउंस मिलने का सवाल ही नहीं उठता। उसके पास उसका पहचान पत्र तक नहीं, नाम पट्टिका नहीं, मोनो जो उसके कंधों की शोभा बढ़ाता था वह भी नहीं। अब उसमें और किसी अनजान से कोरियर कर्मचारी में कोई फर्क नहीं बच रहता।

राजे रजवाडों की सरकारों के समय में संदेशों का आदान-प्रदान हरकारों के द्वारा होता था। वर्तमान समय में पोस्टमेन द्वारा होता है। कुछ वर्ष पूर्व पोस्टकार्ड की लागत बहुत कम थी मात्र पंद्रह पैसे जो अब पचास पैसे है। वर्तमान में अंतरदेशीय पत्र दो रुपये पचास पैसे और लिफाफा पांच रुपये का है। जो महंगाई और लागत को देखते हुए जनता के लिए बहुत ही सस्ता और विभाग के लिए महंगा सौदा। सरकार को चाहिए कि आधुनिक टेक्नालॉजी का उपयोग कर अपनी सेवाओं की उत्कृष्टता-गुणवत्ता को बढ़ाए; कार्यपद्धति को अधिक सुगम और कार्यकुशलता बढ़ाए। ईमानदार, कार्यकुशल एवं दक्ष पोस्टमेन, कर्मचारी, अधिकारियों को पुरस्कृत करे और मक्कार, कामचोर बेईमानों को डाक विभाग से निकाल बाहर करे। डाक सामग्री की कीमतें बढ़ाने के साथ ही साथ उन्हें पर्याप्त मात्रा में पोस्ट आफिसों पर उपलब्ध भी कराए। जब सभी चीजों और सेवाओं की कीमतें सभी क्षेत्रों में बढ़ाई जा रही हैं चाहे वे बैंकिंग सेवाएं हो, इंश्योरंस हो या रेल सेवा तब पोस्ट आफिस द्वारा घाटा खाकर सेवा देने में कोई तुक नजर नहीं आती बनिस्बत इसके की सेवाओं को ही बंद कर दे। जैसाकि सुनने में आ रहा है कि पोस्टकार्ड का प्रकाशन जो कि नासिक से होता है विभाग बंद करने जा रहा है। इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि लागत बहुत अधिक है और आजकल वाट्‌स एप, मोबाईल, फेसबुक के जमाने में लोग पोस्टकार्ड को उपयोग में ही नहीं लाते और जो स्टॉक है वही अनबिका पडा है। कुछ हद तक तो यह ठीक है परंतु एक बहुउपयोगी सेवा को इस तरह के तर्क देकर बंद कर देना कुछ गले नहीं उतरता। 

आज भी शहरों में ही एक बहुत बडा वर्ग है जो इन साधनों का ऐसा उपयोग धडल्ले से नहीं करता जैसाकि बतलाया जा रहा है। सभी जगह इंटरनेट सुविधाएं नहीं हैं। कई लोग तो जिस एसेमेस की दुहाई दी जा रही है को पढ़ना तो दूर की बात रही आते से ही डिलीट कर देते हैं। आज भी भारत का ग्रामीण भाग 70 प्रतिशत है जो 2036 तक 60 प्रतिशत रहने की संभावना है। 80 प्रतिशत पोस्ट आफिस भी तो ग्रामीण क्षेत्र में ही हैं। कुछ इसी प्रकार के तर्क मोबाईल के बढ़ते प्रयोग को देखकर लैंडलाइन के बारे में भी व्यक्त किए गए थे। परंतु, आज भी लैंडलाइन का महत्व बरकरार है उपयोग करनेवाले आज भी लैंडलाइन का ही उपयोग कर रहे हैं। पत्र पढ़ने से आत्मीयता का भाव जगता है। साने गुरुजी का कहना था 'पत्र आधी भेंट होती है" इसलिए भेंट भले ही ना हो परंतु, पत्र भेजना चाहिए। आदतें तो बनाने से बनती हैं। 

पोस्ट कार्ड के माध्यम से कई समाज जागरण के और समाजोपयोगी अभियान भी तो संचालित किए जा रहे हैं। उदाहरणार्थ महाराष्ट्र के सातारा के वाई के प्रदीप लोखंडे ने सन्‌ 2000 में पुणे में 'रुरल रिलेशन्स" नामकी संस्था ग्रामीण क्षेत्र की भावी पीढ़ि को शैक्षणिक दृष्टि से दृढ़ करने और ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए स्थापित की है। इसके द्वारा 'ग्यान की" यह ग्रंथालय उपक्रम प्रारंभ किया गया है जिसके तहत अभी तक 1255 ग्रंथालय दान किए गए हैं। इस उपक्रम द्वारा प्रभावित हुए विद्यार्थियों ने प्रदीप लोखंडे को 94000 पत्र लिखकर अपना अभिप्राय सूचित किया है। हर रोज उन्हें 200 से 400 पत्र प्राप्त होते हैं। एक और उदाहरण लें ः 'गोरखपुर मांगे एम्स" अभियान के तहत 139139 पोस्टकार्ड भेजे गए थे। इस प्रकार से पोस्ट कार्ड द्वारा अभिव्यक्ति व जनजागरण एवं रचनात्मकता के और भी कई अभियान पूरे देश में संचालित किए जा रहे हैं। 

इसलिए इस बहुउपयोगी पोस्टकार्ड को बंद करने की बजाए इसकी कीमतें बढ़ाई जाए। जब रिजर्व्ह बैंक ने ही पचास और पच्चीस पैसे के सिक्कों को बंद कर दिया है तो पोस्ट कार्ड की कीमत पचास पैसे और अंतरदेशीय की कीमत ढ़ाई रुपये रखने की तुक ही समझ से परे है। आखिर डाक विभाग का एक बहुत बडा योगदान देश में साक्षरता बढ़ाने और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में रहा है यह कैसे भुलाया जा सकता है। इसी पोस्ट कार्ड के माध्यम से सरकार ने कई नारों द्वारा जनजागरण अभियान चलाए हैं। घाटा पूर्ति के लिए पोस्ट कार्ड पर विज्ञापन भी तो छापे जा सकते हैं। चाहें तो क्या नहीं हो सकता, कहते हैं इंदिरा गांधी ने 1980 में ही पोस्ट कार्ड बंद करने का निर्णय लिया था। उनका कहना था कि वसूली गई रकम की तुलना में छपाई और वितरण सेवा नहीं पुसाती। उस समय के पोस्टमास्टर जनरल जे. एल. पठान ने संतोषी माता को 16 पत्र भेजने के शगूफे को उपयोग में ला डाक विभाग को लाभ में लाया था। आज भी यदि कोई  अभियान जिससे लोग पोस्ट कार्ड लिखने की ओर प्रेरित हों, उसका उपयोग फिर से बढ़े, प्रारंभ करें का चलाया जाए तो सफलता क्यों नहीं हासिल की जा सकती। 

उदाहरण के लिए त्यौहारों के मौसम में यदि जनता कोे उच्च गुणवत्तावाली सेवाएं डाक विभाग प्रेम-स्नेह पत्र समय पर डिलीवर करे तो डाक विभाग घाटे से तो उभरेगा ही साथ ही लोग उसकी ओर फिर से आकर्षित भी होंगे। दशहरा-दीवाली जैसे त्यौहारों पर एक साधारण सा दस रुपये का ग्रीटिंग भेजने के लिए पांच रुपये का टिकिट लगाए जाने के स्थान पर यदि तीन रुपये का शुल्क लिया जाए और समय पर डिलीवर किया जाए तो जनता को पोस्टमेन त्यौहारों पर दिखेगा और लोगों का ध्यान भी उसकी समय पर दी गई सेवाओं की ओर आकर्षित होकर वह फिर से पोस्ट आफिस का रुख करेगा जो कि अब कम हो गया है। समय पर डाक पहुंचाने के लिए इंडियन एयरलाइंस के विमानों का भी प्रयोग बढ़ाया जाए जिससे कि डाक समय पर पहुंच सके आखिर वह एयर लाइंस डाक विभाग को छूट भी तो देती है।

डाक विभाग एवं उसकी सेवाएं फिर से एक बार बहुत लोकप्रिय हों, वह बदहाली से उभरे इसके लिए एक अभियान सा चलाया जाना चाहिए जिसके द्वारा लोगों में फिर से पोस्टमेन और डाक व्यवस्था में पुराना विश्वास, आत्मीयता बहाल हो, उनको भारतीय डाक विभाग का उज्जवल इतिहास बताया जाए। लोग जानते ही नहीं हैं कि भारतीय डाक विभाग से कई बडे नामचीन लोग जुडे रहे हैं। जैसेकि, नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक सी. व्ही. रमन, फिल्म अभिनेता देवानंद, साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद, महाश्वेता देवी, राजिंदर बेदी आदि। भारत में वायसराय रहे लॉर्ड रीडिंग भी डाक विभाग से जुडे रहे हैं, अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन पोस्टमेन थे। महात्मा गांधी पोस्ट कार्ड के अच्छे प्रशंसक एवं उपयोगकर्ता थे। लोगों ने पोस्टकार्ड पर क्या-क्या न उकेरा है। उसका उपयोग किस प्रकार से बडे पैमाने पर जन जागरण एवं समाज के उपयोग के लिए किया है। डाक विभाग ने इस लंबे सफर में कितने कष्ट सहकर, समय आने पर जान की बाजी लगाकर भी लोगों को सेवाएं दी हैं। इन सबसे बढ़कर बात यह है कि भारत सरकार का एक कर्मचारी अपने कार्यक्षेत्र में आनेवाले हर घर तक पहुंच रखता है यह बहुत महत्वपूर्ण बात है।

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