Sunday, October 19, 2014

उपेक्षित है लक्ष्मी का वाहन उल्लू

जिसके नाम का उच्चारण ही भयकारक है ऐसा पक्षी है उल्लू। उल्लू से अनेक अंधविश्वास जुडे हुए हैं। जैसेकि यदि उसे ढ़ेला मारा तो  जिसप्रकार से पानी में ढ़ेला धीरे-धीरे घुल जाता है उसी प्रकार से मारनेवाला छीज-छीजकर मर जाता है। उल्लू को भूत-भविष्य-वर्तमान सबका पता रहता है मानो वह कोई त्रिकालज्ञ हो। उल्लू दुष्ट शक्तियों का वाहक होता है, आदि। ऐसे अशुभ, विनाशसूचक जिसे मूर्ख माना जाता है जिससे हम डरते हैं, घृणा करते हैं को देवी लक्ष्मी का वाहन होने का सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ यह हमें विचार में डाल देता है। 

इस संबंध में लोगों की धारणाएं हैं कि लक्ष्मी और उल्लू में एक दो समानताएं हैं। पहली, दीपावली में अमावस्या की रात्री में ही लक्ष्मी की पूजा की जाती है और ऐसा माना जाता है कि इस रात लक्ष्मी घूमती रहती है और ऐसी अंधियारी रात्री में उन्हें उल्लू जैसा निशाचर ही तो वाहन के रुप में मिल सकता है। दूसरा, उल्लू अंधकार में रहता है और लक्ष्मीजी भी अंधकार के मार्ग से ही आती हैं भले ही वह ज्योतिरुपेण क्यों ना हो, अनुचित आय भी तो अंधकार में ही प्राप्त होती है। ऐसी भी धारणा है कि, उल्लू निशाचर होने के साथ ही हिंसक होता है, प्रकाश से डरता है ऐसे वाहन पर बैठकर आनेवाली लक्ष्मी अपकारक ही होगी, लक्ष्मी नहीं वह अपलक्ष्मी होगी। लक्ष्मी तो विष्णूप्रिया है यदि उसे आमंत्रित ही करना है तो विष्णु के साथ ही आमंत्रित करना चाहिए जो विष्णु के साथ गरुड पर बैठकर ही आए। 

उल्लू का वेदकालीन नाम 'उलूक" है और उलूक ऋषी तो मृत्युज्ञानी। इस दृष्टि से तो उल्लू भी ऋषितुल्य हुआ। कुछ लोग यह मानते हैं कि उल्लू की विष्ठा का तिलक कपाल पर लगाएं तो भूत-भविष्य का ज्ञान हो जाता है। ऐसा उल्लू जो लक्ष्मी का वाहन है और लक्ष्मी यानी समृद्धि-संपन्नता। फिर उल्लू अशुभ कैसे? 'उलूक" तो नाम है वैशेषिक दर्शन के आद्यप्रवर्तक 'कणाद" का जिनके उदर निर्वाह का साधन था खेत में पडे हुए अन्न के कण एकत्रित कर उससे अपनी क्षुधा शांत करना। उनकी इस उच्छवृत्ति के कारण लोग उन्हें कणभक्ष या कणभुज कहते थे। उनकी दिनचर्या थी दिनभर ग्रंथरचना और रात्रि में आहार प्राप्ति हेतु विचरण। इसलिए लोग उन्हें 'उलूक" कहने लगे। कण भर अन्न पर जीकर ज्ञानसाधना करनेवाला 'कणाद" यानी 'उलूक"। उलूक गणों का कोहबर भी है और 'उलूकी" नाम है मातृदेवता का। संस्कृत में उलूक को कौशिक भी कहते हैं।

महाभारत से ज्ञात होता है कि शकूनी मामा उलूक जाति का था उसके जन्म के समय उल्लू चिल्लाया था। उसके रथ का ध्वजचिन्ह उल्लू ही था। ऐसा अपशकुनी, अशुभ, तिरस्करणीय शकूनी का चरित्र हमारे सामने आता है महाभारत में और सारी उजाड कथा हमारे ध्यान में आ जाती है। शकूनी और उल्लू का संबंध सामने आकर वीराने खंडहरों में सुनसुनान स्थानों पर मिलनेवाला, विचरनेवाला उल्लू का संबंध सर्वनाश से जुडना समझ में आ जाता है। श्रीलंका में भी इसे अशुभ पक्षी मानते हैं। रोम में तो कहावत है कि यदि उल्लू ने रोम में प्रवेश नही किया होता तो रोम का विनाश नहीं हुआ होता। परंतु, यूनानी इसे शास्त्र और कला का निदर्शक प्राणी मानते हैं। प्रसिद्ध पक्षीविद्‌ सालेम अली के अनुसार उल्लू एक बुद्धिमान प्राणि है। जहां तक अशुभ का प्रश्न है, उल्लू का किसी भी प्रकार की विनाशलीला से संबंध नहीं है। वास्तव में कतई ऐसा नहीं है कि किसी अट्टालिका पर उल्लू बैठे और उसके बोलना प्रारंभ करते ही वह खंडहर में तब्दील हो जाए।

फिर भी आश्चर्य तो बच ही रहता है कि आखिर देवताओं की कल्पना करनेवालों ने उल्लू को लक्ष्मी का वाहन क्यों बनाया? भाषा के प्रयोग में लक्ष्मी को सौंदर्य और समृद्धि के प्रतीक के रुप में प्रयोग में लाया जाता है। चित्रों में भी लक्ष्मी अत्यंत सुंदर रुप में दर्शाई जाती है। सौंदर्य का प्रतीक कमल उसका आसन है। फिर सौंदर्य का प्रतीक लक्ष्मी का वाहन कुरुप और अशुभ उल्लू ही क्यों? यह असंगति इतनी अग्राह्य प्रतीत होती है कि हंसवाहिनी सरस्वती की भांति उल्लूवाहिनी लक्ष्मी के चित्र सहसा दिख ही नहीं पडते। कमलासन लक्ष्मी के चित्र ही मिलते हैं और दीपावली पर इन्हीं चित्रों की पूजा भी की जाती है।

भारतीय संस्कृति की कल्पना में प्रायः सभी देवताओं के वाहन हैं। वाहन का अर्थ 'यान" है, जो किसीको वहन करता है अर्थात्‌ ले जाता है। प्राचीनकाल में यानों को पशु ही चलाते थे। अतः पशु ही मुख्य रुप से वाहन थे। पशुओं की पीठ पर बैठकर भी यात्रा की जाती थी। अतः पशुओं को ही सामान्यतया वाहन माना गया साथ ही कुछ पक्षियों को भी देवताओं के वाहन बना दिया गया। भारतीय संस्कृति कोई साधारण संस्कृति तो है नहीं कि केवल प्राचीन वाहन प्रथा के आधार पर देवताओं के वाहनों की कल्पना कर ली। इसके पीछे कुछ दार्शनिक रहस्य भी है। इसीलिए कुछ पक्षियों को भी वाहन के रुप में सम्मिलित कर लिया गया वरना हमारे देश में तो इतना बडा कोई पक्षी होता ही नहीं है कि उस पर कोई मनुष्य सवार हो सके। वाहन गति का सूचक है। सजीव वाहन का ग्रहण  सांस्कृतिक धारणाओं की सजीवता और गतिशीलता का द्योतक है। जैसेकि सरस्वती विद्या की देवी है तो, लक्ष्मी शील, सौंदर्य एवं समृद्धि की अधिष्ठात्री है। संकेत यह है कि सजीव भाव और गतिशील साधना के द्वारा ही देवताओं के प्रतीकों से लक्षित सांस्कृतिक तत्त्वों को जीवन में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। 

पशु भूमि पर चलते हैं और पक्षी हवा में उडते हैं। भूमि यथार्थ की और हवा कल्पना की सूचक है। शिव के समान जिन देवताओं की धारणा में यथार्थ की प्रधानता है उनके वाहन पशु हैं। यथार्थ की गति भी पशुओं की भांति मंद होती है। यहां सिंह अपवाद है। कल्पना वायु के समान सूक्ष्म और पक्षियों के समान उसकी गति तीव्र होती है। विद्या, कला, सौंदर्य आदि में कल्पना ही प्रधान होती है। अतः सरस्वती, लक्ष्मी आदि के वाहन पक्षी हैं। ध्यान योग्य बात यह है कि वाहनों के चयन में सौंदर्य की अपेक्षा उपयोगिता पर बल दिया गया है। उपयुक्तता के आधार पर ही उल्लू को लक्ष्मी के वाहन के रुप में मान्यता दी गई है।

सौंदर्य और कल्याण तो आंतरिक भाव हैं। जो बाहर से कुरुप और अशुभ दिखते हैं उनके अंदर भी सुंदरता और मंगल भाव हो सकते हैं। वैसे भी उल्लू तो मात्र वाहन है लक्ष्मी तो कमल पर ही विराजती हैं। धन तो अस्थायी है आज है कल नहीं। इसी भांति लक्ष्मी भी चंचल, अस्थिर है। संचय करने पर भले ही वह स्थिर दिखे परंतु, उत्तराधिकारियों के हाथों में आते ही वह अपना चंचल स्वरुप दिखला ही देती है। किसी को उल्लू कहना यानी वह मूर्ख है ऐसा समझा जाता है। परंतु, वास्तव में उल्लू एक बुद्धिमान और उद्यमी पक्षी है। जब सारी दुनिया सोती है तब रात्री में जागनेवाला मानो यह कोई संयमी मुनी। अंधेरे की राख मला हुआ कोई निस्संग योगी। उसकी दृष्टि तमोभेदिनी।

इसी प्रकार से लक्ष्मी के साधक व्यवसायी उद्यमी उद्यम के लिए उस समय सजग होते हैं जब दूसरे लोग सोते रहते हैं या जिस उद्यम के बारे में वे सोच रहे होते हैं उसके प्रति दूसरे अनभिज्ञ रहते हैं। रात्रि के अंधकार में जब लोग बाहर निकलना भी पसंद नहीं करते ना ही उन्हें कहीं समृद्धि की संभावना नजर आती है। ऐसे में तीव्र दृष्टि से वे साधक समृद्धि का मार्ग ढूंढ़ ही लेते हैं। यहां अंधकार भविष्य का सूचक है और चूंकि भविष्य अदृष्ट होने से अंधकारमय ही होता है। भविष्य के इस अंधकार में जिस के संबंध में लोग सजग नहीं होते ये लक्ष्मी के साधक समृद्धि के मार्ग को खोज लेते हैं।

जिन खंडहरों में या वीरानों में उल्लू घूमता है वे दूसरों की असफल या खंडित योजनाओं के प्रतीक हैं जो अपने वैभव को बनाए ना रख सके परंतु, ये उद्योगीजन इन्हीं खंडित योजनाओं को साकार कर यश प्राप्त करते हैं, लक्ष्मीपति बनते हैं। वीरान स्थान प्रतीक है अछूत क्षेत्रों का जिनमें कम ही लोग जाते हैं या जाने से डरते हैं। रात के अंधेरे में उल्लू इन्हीं वीरानों को आबाद करते हैं। इसी प्रकार उद्यमीजन इन्हीं अछूते क्षेत्रों में अपना भविष्य आजमाते है, सफलता एवं समृद्धि को प्राप्त करते हैं। उल्लू अन्य पक्षियों की भांति झुंड में नहीं रहता निर्भय हो अकेला ही वीरानों में रहता है और अपनी तीव्र दृष्टि (उल्लू के दृष्टपटल मनुष्य से पांच गुना होते हैं), से वह देख लेता है, तीक्ष्ण कानों से वह सुन लेता है जो हमें ना तो दिखाई देता है ना ही सुनाई देता और अपनी इन प्रभावी शक्तियों का उपयोग कर अपना शिकार हासिल कर लेता है। ठीक इसी प्रकार से लक्ष्मी के साधक उद्यमी भी अपना लक्ष्य हासिल कर के ही दम लेते हैं। 

लक्ष्मी के वाहन उल्लू के शिकार होते हैं चूहे, छछूंदर, सांप, कीडे-मकोडे, गिरगिट, गिलहरियां जो फसलों को हानि पहुंचाने में लगे रहते हैं। इस प्रकार से उल्लू तो किसान मित्र हुआ। बेहतर होगा कि शुभाशुभ के झंझटों को छोड हम उल्लू की उपेक्षा करना छोडें, उसके संबंध में भ्रांत धारणाओं के त्यागें। अंधविश्वास में लिप्त हो उसकी हत्या करना छोडें।      
  

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