Thursday, October 16, 2014

व्रतों के जंजाल में उलझती महिलाएं

वर्तमान में स्त्री-पुरुष समानता की बातें चरम पर हैं। हर क्षेत्र में महिलाओं का दखल बढ़ता जा रहा है। लिंग पर आधारित भेद को नकारकर पुरुषों के एकाधिकार, वर्चस्व को चुनौती दी जा रही है। लेकिन व्रत रखने के मामले में महिलाओं का एकाधिकार सा ही है। इन व्रतों की विशेषता यह है कि ये सभी पति या बेटों यानी पुरुषों को केंद्र में रखकर उन्हीं के लाभ के लिए, देवी-देवताओं के प्रकोप से घर-परिवार को बचाए रखने के लिए पत्नी या मां के रुप में महिलाओं द्वारा ही रखे जाते हैं।

पूरे सप्ताह में एक दिन भी ऐसा नहीं होगा जिस दिन हिंदू महिलाएं व्रत ना रखती हों। सप्ताह के इन दिनों के अतिरिक्त संकष्टी चतुर्थी, रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्री, एकादशी आदि के व्रत अलग हैं और भी कई व्रत हैं जिनकी सूची बडी लंबी है जो दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। व्रत में देवी-देवताओं के पूजन के अलावा विशेष किस्म के वृक्षों-पत्थरों आदि की भी पूजा की जाती है।

कई लोगों को याद होगा कि 1975 के आसपास एक  फिल्म आई थी 'जय संतोषी मां"। इसके पूर्व इस देवी का कहीं अता-पता ना था परंतु यह पिक्चर क्या सुपरहीट हुई महिलाएं संतोषी माता का व्रत रखने लगी। वैसे अब यह व्रत रखा जाता है कि नहीं इस संबंध में मैं कुछ कह नहीं सकता परंतु, सुनने में जरुर आता नहीं। हां, अब साई बाबा का बुखार अवश्य ही चरम पर है और हो सकता है कि जिस प्रकार से साई बाबा के मंदिर रातोरात उग आते हैं वैसे ही हो सकता है महिलाएं साईबाबा का भी व्रत रखने लगी हों, तो कह नहीं सकते। यह भी हो सकता है कि शायद पुरुषों ने इस मामले में महिलाओं के एकाधिकार को भंग भी कर दिया हो। लेकिन यह बात निश्चित है कि साईबाबा से मनौतियां भरपूर चढ़ावे सहित जरुर दिल खोलकर मांगी जा रही हैं।

व्रतों की होड में क्या शिक्षित क्या अशिक्षित सभी महिलाएं जोरशोर से लगी रहती हैं। महिलाओं की हालत यह है कि भले ही बच्चों के पाठ्यक्रम की पुस्तकों की उन्हें कोई जानकारी ना हो परंतु, भिन्न-भिन्न व्रतों-उपवासों की बखान भरी कब कौनसी विधि रखना, क्या चढ़ावा चढ़ाना, मुंहमांगी मुराद कैसे पूरी होगी और यदि व्रत भंग हुआ तो क्या हानियां होगी से भरपूर पुस्तकें जरुर इन महिलाओं के संग्रह में मिल जाएंगी।

चूंकि, व्रत रखनेवाला स्वयं भी कार्यसिद्ध हो इसलिए जुट जाता है तो सफलता मिलने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। यदि सफलता मिल गई तो उस देवी या देवता का माहात्म्य बढ़ जाता है परिणामस्वरुप भक्तों की संख्या भी बढ़ जाती है। कार्यसिद्धि के पश्चात भक्त का कर्तव्य बनता है कि वह पुनः व्रत रखे और उद्यापन करे जिसमें बहुत व्यय करना पडता है। ना करने पर देवी-देवताओं का कोपभाजन बनने का भय रहता है। इन उपवासों के साइड इफेक्ट के रुप में कमजोरी की शिकायत उपवासकर्ता द्वारा की जाती है जबकि कोई विशेष शारिरीक श्रम किए होते नहीं है बल्कि तरमाल सुतने का कार्यक्रम जरुर किया गया होता है फिर भी शिकायत तो करना ही पडती है। भले ही हमेशा रुखा-सूखा जाया जाता हो परंतु, कुछ विशेष व्रतों पर विशेष खाने-पीने की व्यवस्था की ही जाती है। मानो व्यंजन नहीं बने तो व्रत के पुण्यलाभ से वंचित रह जाएंगे। इसमें घर का बजट बिगडना तय ही होता है।

व्रत यानी धार्मिक दृष्टि से किया जानेवाला उपवास या प्रतिज्ञा, रखने में कोई हानि नहीं यदि उससे मन को सकारात्मक विचारसरणी की शिक्षा या अनुशासन मिलता हो तो उसका भौतिक फल लाभ मिल सकता है। इस दृष्टि से व्रत रखने में कोई हानि नहीं। लेकिन ये व्रत तो वर्तमान में अंधविश्वास, बाजारवाद का शिकार हो गए हैं और घर का बजट ही बिगाडने पर उतारु हैं। उदाहरणार्थ कुछ वर्षों पूर्व एक स्थान पर आग लगी तो तर्क यह दिया गया कि शीतलासप्तमी को घर के लोगों ने गरम भोजन किया इसके फलस्वरुप आग लगी और हानि हुई। अब इसे अंधविश्वास नहीं तो क्या कहा जाए। हमारी गलतियों से घटी दुर्घटना की जिम्मेदारी देवी-देवताओं पर थोपना कदापि उचित नहीं। हिंदू धर्म की विशालता को छोटा करने के समान है। हम तो ईश्वर को दयालु, मित्र, सखा मानते हैं। अपने तारणहार, दुखहर्ता के रुप में पूजते हैं, ऐसा ईश्वर भला हमारी छोटी सी चूक की इतनी बडी सजा हमें कैसे दे सकता है।  

आजकल करवा चौथ और वैभव लक्ष्मी व्रत रखने का चलन बडे जोरों पर है। करवा चौथ के व्रत पर बाजारवाद किस प्रकार से हावी है यह टी. व्ही. पर साफतौर से देखा जा सकता है। प्रतिदिन भले ही महिलाएं सादगी से रहती हों परंतु, इस व्रत पर भडकीली साडियां पहनने, ओढ़ने की होड लग जाती है। जमकर सोलह श्रंगार किया जाता है लॉकर से निकालकर गहने पहने जाते हैं। नई प्रसाधन सामग्री खरीदने में महिलाएं जुट जाती हैं। रोज पति को ताने सुनाए जाते हों लेकिन इस दिन चरण स्पर्श किए जाते हैं। दिन भर भूखे रहकर पति के दीर्घायु की कामना की जाती है फिर शाम को जमकर भारी भोजन भरपेट किया जाता है इससे स्वास्थ्य गडबडा जाए तो भी चलेगा, भई साल भर में एक बार ही तो यह व्रत दिवस आता है। अब इन्हें कौन समझाए कि यदि व्रत रखने मात्र से पति दीर्घायु होने लगते तो दूसरे धर्मों की औरतें भी यह व्रत न रखने लग जाती।

यही हाल वैभव लक्ष्मी व्रत का है जहां जाओ वहां महिलाएं यह व्रत रखते नजर आ जाएंगी। इस व्रत में लक्ष्मीनारायण की पूजा, पक्वानों का भोग और दान-दक्षिणा की विधि होती है। इस व्रत का स्वागतार्ह भाग यह है कि इस व्रत को रखने की शर्त यह है कि इसमें मन को सदैव प्रसन्न रखना होता है और शाम को उपवास समाप्ति के समय घर के सभी लोग एकत्रित भोजन करें यह नियम होता है। आजकल की भागदौड भरी जिंदगी में एकत्रित भोजन करना दुश्वार होता जा रहा है ऐसे में यदि इस धार्मिक नेम से यह साध्य होता हो तो निश्चय ही प्रशंसनीय है। यदि व्रत ऐहिक वैभव की आशा किए बिना केवल मनःशांति के लिए किया जाए तो स्वागतार्ह है। परंतु इसलिए किया जाए कि रातोरात ऐश्वर्यसंपन्न हो जाएंगे तो यह चिंता का विषय है। यदि ऐसा है तो इसका अर्थ यह हुआ कि इन महिलाओं को व्रत किसलिए रखे जाते हैं का अर्थ ही समझा नहीं है। व्रत में व्रती को अपने अंदर की आंतरिक शक्ति को जागृत करना होता है। जीवन के आव्हान को स्वीकार कर व्यवसाय में सफलता का मार्ग ढूंढ़ें तो लक्ष्मी प्रसन्न होगी। मेरा कार्य ही मेरी पूजा है इस श्रद्धा के साथ अपना नियत कार्य करें तो क्या यह भी वैभव लक्ष्मी का पूजन नहीं होगा। 

वर्तमान में महिलाएं अधिकारों के नाम पर हर मामले में हक जताते नजर आती हैं, बराबरी का दावा करती रहती हैं। विवाह के पश्चात पति से नहीं पटी तो पति तो क्या पूरे परिवार को डराने-धमकाने से बाज नहीं आती। कोर्ट-कचहरी कर तिगनी का नाच नचा देती हैं तब तो उन्हें सीता-सावित्री नजर नहीं आती। अंत में केवल यही कहना है कि व्रत-उपवासों से ही देवी-देवता प्रसन्न होते हैं या नहीं? यह तो कोई नहीं जानता लेकिन इन व्रतों की भरमार से व्रत रखनेवाले का स्वास्थ्य और परिवार की व्यवस्था अवश्य प्रभावित हो जाती है। व्रत दिवस पर घंटों भगवान के दर्शनार्थ मंदिर की कतार में लगना, फिर सत्संग-प्रवचन के नाम पर भीड में धक्के खाते फिरने में कोई तुक नजर नहीं आती इससे तो अच्छा है कि कोई उपयोगी कार्य किया जाए। 

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