Friday, June 13, 2014

दुनिया से निराला काफिरस्तान
 
मुहम्मद मुस्तफा खॉं के उर्दू-हिंदी शब्दकोश के अनुसार 'काफिर" का अर्थ होता है- माशूक, प्रेमपात्र, कृषक, किसान, दर्या, नदी, ईश्वर की दी हुई नेमतों पर कृतज्ञता प्रकट न करनेवाला, सत्य को छिपानेवाला और 'काफिरस्तान" देश का निवासी। अधिकांश लोगों के मन में निश्चय ही सवाल उठ खडा होगा कि क्या काफिरस्तान नामका भी कोई देश या प्रदेश हो सकता है तो, उन्हें यह जानकर आश्चर्य का झटका लगेगा कि हां इस प्रकार का एक प्रदेेश इस विश्व में है और वह भी पाकिस्तान में तो उनका आश्चर्य दोगुना हो जाएगा। क्योंकि सामान्य हिंदू तो यही समझता है कि काफिर मतलब वह जो इस्लाम को नहीं मानता और भला ऐसा प्रदेश और वह भी पाकिस्तान में कैसे हो सकता है? 
 
यह प्रदेश गांधीजी के अनन्य सहयोगी सरहद गांधी के वायव्य प्रांत से लगा हुआ होकर बारहमासी नदी 'चित्रल" के तट पर बसे चित्रल शहर से तीस किलोमीटर दूर स्थित है। यह प्रदेश पूरी तरह पहाडी है और पिछडा होकर आज भी मानो 18वीं शताब्दी में ही जी रहा है। इसके दो कारण है हमेशा तेज गति से बहते रहनेवाली चित्रल नदी और अत्यंत दुर्गम पहाडी भाग होना। ब्रिटिश सरकार तक को इसकी कोई विशेष जानकारी नहीं थी।
 
इंटरनेट की जानकारी के अनुसार पाकिस्तानी लेखक अफजल खान ने 'चित्रल और काफिरस्तान ः ए पर्सनल स्टडी" नामका यात्रा वृतांत लिखा है उसमें पृष्ठ 12 से 15 के बीच 'ए शॉर्ट हिस्टरी ऑफ चित्रल एंड काफिरस्तान" नामका एक अध्याय है उसमें काफिरस्तान का नामोल्लेख है। इसका कारण बतलाते हुए लेखक का कहना है ः 'काफिर लोगों से चर्चा करने के लिए मुझे कोई दुभाषिया नहीं मिला।" इन लोगों की भाषा बिल्कूल ही भिन्न होकर उनकी बोली को भी काफिर ही कहें तो ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि  संसार की किसी भी भाषा से उसकी समानता नहीं। इनकी भाषा की कोई लिपि नहीं होने के कारण कोई साहित्य ही नहीं होता।
 
पिछले सौ वर्षों में कुछ गिने-चुने विदेशी ही वहां तक पहुंचे हैं। सन्‌ 1890-91 में ब्रिटिश जॉर्ज स्कॉट राबर्टसन ने वहां भेंट थी थी और वहां का रोचन वर्णन 'काफिर ऑफ द हिंदूकुश पर्वत" में किया है। उनसे प्राप्त जानकारी के अनुसार ये काफिर विश्वविजेता सिकंदर के सिपाहियों के वंशज हैं। लाल-गोरा रंग, सुनहरे बाल, नीली आंखों वाले ये लोग जब सिकंदर खैबर दर्रे से वापिस यूनान लौट रहा था तब हिंदूकुश पर्वत के इस दुर्गम भाग में कुछ सैनिक रास्ता भूल गए और बहुत प्रयत्नों के बावजूद जब वे वहां से निकल ना सके तो वहीं बस गए। रुडयार्ड किपलिंग की कलाकृति 'द मॅन हू वुड बी किंग"(1888) काफिरस्तान के लोगों पर ही लिखी हुई होना चाहिए ऐसा इंग्लिश साहित्य समीक्षकों का कहना है। जिस पर एक फिल्म (1975) भी बनी थी जिसमें जेम्सबांड फेम 'सीन कानेरी" और मायकल कैन ने काम किया था। 
 
काफिरस्तान के लोग मूर्तिपूजक होकर बहुदेववादी थे। उनके तीन प्रमुख देवताओं के नाम 'इमरा" (श्रेष्ठ निर्माता), 'मोनी" (हीन देवता) और 'गिश" युद्ध देवता। इतिहासकारों के मतानुसार 1398 में इन काफिरों ने तैमूरलंग से और 1526 में जब मुगल बादशाह बाबर  इधर आया था तब इन्होंने उनसे टक्कर ली थी। 1895-96 में अफगिनास्तान के अमीर अब्दुर रहमान खान ने इस क्षेत्र के लोगों को साम दंड भेद की नीति अपनाकर मुसलमान बनाया और इस प्रदेश का नाम नूरीस्तान (नूर यानी प्रकाश) रखा। इसने जीतने के बाद हजारों लोग को यहां से हटाकर दूसरे प्रदेशों में बसा दिया। 1900 में इनकी आबादी 60,000 थी जो अब बहुत ही कम हो गई है।
 
इनका रहन-सहन बिल्कूल ही अलग है ये वाइन पीना और नाच-गाना पसंद करते हैं और हर गांव में एक नाचने का प्लेटफॉर्म और नाचघर होता ही है। नवजात के जन्म के समय, विवाह के अवसर पर और तो और मृत्य के अवसर पर भी ये नाचगाने का आयोजन करते हैं। ठंड के दिनों में ये अग्नि की पूजा करते हैं। खेती के मौसम में जलपूजक बन जाते हैं। ब्रिटिश डॉ. जॉर्ज राबर्टसन के अनुसार इनके 70 देवता हैं। कुछ वर्षों बाद गए लुईस डुप्री ने इनके सात देवताओं के बारे में बतलाया है इनमें अग्नि, वरुण, सूर्य, चंद्र का समावेश है। पूजा के समय सुगंधित धूप जलाते हैं और बकरे की बलि देते हैं। 
 
मई महीने में ये वसंतोत्सव मनाते हैं। उसे 'जुशी" कहते हैं। इस समय ये रंगबिरंगे कपडे पहनते हैं। इनके पोशाक वनस्पतीजन्य प्राकृतिक रंगों से रंगे जाते हैं। शरीर को फूलों से सजाकर नाचते गाते हैं। जुलाई में गेहूं बुआई का उत्सव मनाते हैं। सितंबर में अंगूर और अखरोट की फसल आने पर आनंदोत्सव समारोहित करते हैं। इनका नववर्ष दिसंबर में आता है जिसे ये जोर शोर से मनाते हैं।  गेंहू, जौं और बकरे का मांस इनका प्रमुख भोजन है इसके अलावा हिंदूकुश पर्वत पर मिलने वाले फल भी इनका आहार होते हैं। अतिथि सत्कार भरपूर अखरोट से करते हैं। 
 
काफिरों का धर्मगुरु होने के लिए धनवान होना आवश्यक है जो अधिकाधिक लोगों को भोजन करा सके। इनकी धारणा है कि उसका हुक्म मानना चाहिए। इनके धर्मगुरु को 'उटाह" कहते हैं। इनमें बहुविवाह की प्रथा है। विवाह योग्य लडके को एक भाला और कुछ भेडों के साथ जंगल में छोड दिया जाता है। एक वर्ष पश्चात जब वह शारीरिक और मानसिक शक्ति प्राप्त कर लौटता है तब उसका विवाह उसकी पसंद की लडकी से कर दिया जाता है।  
 
इनके मृतक के अंतिम संस्कार की रीत भी दुनिया से निराली है। ये अंतिम संस्कार पर्वत शिखर पर किसी विशिष्ट स्थान पर करते हैं। किसी रोग से मृत्यु होने पर अग्निसंस्कार किया जाता है। अकाल मृत्यु पर मृत देह को लकडी की पेटी में रखकर उसके साथ कपडे, आभूषण और मृतक की पसंदीदा चीजें रखी जाती हैं। परंतु मृत देह को न दफनाते पर्वत शिखर पर खुले में रखा जाता है जिसे पशु-पक्षी खा जाते हैं। एक विशेषता और खुले में रखी हुई होने के बावजूद कोई भी बहुमूल्य वस्तुओं को हाथ नहीं लगाता इसके पीछे सोच यह है कि ऐसा करना यानी मृत्यु को बुलावा देना है। पुनर्जन्म में ये विश्वास करते हैं। प्राकृतिक मृत्यु होने पर भी उत्सव मनाते हैं और पूरे गांव को मटन का भोजन कराते हैं। ऐसी अपनी दुनिया से निराली आधुनिक संस्कृति से दूर काफिर जाति के ये लोग अत्यंत निर्भय होकर स्वयं की अपनी निराली दुनिया में रमे रहना पसंद करते हैं।

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