Friday, June 20, 2014

दुनिया को मुसीबत में डालता शीआ - सुन्नी विवाद

इस समय इराक में छिडे हुए गृहयुद्ध ने सारी दुनिया की सांसें रोक रखी हैं। यह युद्ध शीआ-सुन्नी विवाद के फलस्वरुप उपजा है। नफरत की यह जंग इराक को तबाही की ओर ले जा रही है और सारी दुनिया खौफजदा है। इस शीआ-सुन्नी विवाद ने पूरे मध्यपूर्व को ही सुलगा रखा है। यह विवाद कोई आज का नहीं है यह चौदह सौ से अधिक वर्षों से चला आ रहा है और इसकी जड में है पैगंबर साहब का उत्तराधिकारी यानी खलीफा कौन होगा? सबसे पहले खलीफा और खिलाफत की संकल्पना को समझ लें।

खलीफा का अर्थ होता है प्रतिनिधि या किसी की अनुपस्थिति में उसके स्थान पर काम करनेवाला, राजा, प्रमुख या मुहम्मद साहेब का उत्तराधिकारी। मुहम्मद साहेब ने कहा था 'मेरे बाद अब कोई पैगंबर नहीं आएगा खलीफा भर आएंगे।" परंतु जब मुहम्मद साहेब मृत्यु को प्राप्त हो गए तो उनके बाद उनका प्रतिनिधित्व कौन करेगा इस संबंध में कोई सूचना उन्होंने रख नहीं छोडी थी। इस कारण खलीफा पद के लिए विवाद की स्थिति निर्मित हो गई और मुस्लिमों के विभिन्न गुटों व व्यक्तियों के बीच विवाद उभर कर सामने आ गया।

 मक्कावासी (मुहाजिर, निर्वासित) मुहम्मद साहेब के कुरैश वंश के होने के कारण और इस्लाम स्वीकृति के मामले में वरिष्ठ होने के कारण व मुहम्मद साहेब के इन वचनों के आधार पर कि 'खिलाफत (राज्य सत्ता) हमेशा कुरैशों के ही हाथों में रहेगी भले ही उनके दो मनुष्य ही (पृथ्वी पर) जीवित रहें तो भी (वह रहेगी)।" (मुस्लिम 4476,बुखारी 7140) खलीफा पद पर अधिकार जमाना चाहते थे। तो मदीनावासी (अनसार यानी मददगार, जिन्होंने मुहम्मद साहेब और उनके साथियों को मक्का से हिजरत अर्थात्‌ देशत्याग कर मदीना आने पर शरण दी थी) इस सोच के कारण कि उनके द्वारा आश्रय दिए जाने के कारण ही मुहम्मद साहेब का इस्लाम इतना फल-फूल सका था। इसलिए वे ही खलीफा पद के असली दावेदार हैं महत्वाकांक्षी हो खलीफा पद पर किसी मदीनावासी को ही देखना चाहते थे।

 अतः मदीनावासियों ने नेता के रुप में 'सद बिन उबादह" को चुन भी लिया था। यह पता चलते ही अबू बकर और उमर (यानी मक्कावासी) दोनो ही तत्काल वहां पहुंचे। अबू बकर ने मदीनावासियों को दो टूक शब्दों में कह दिया कि ''ऐ मदीना के लोगों! अपनी गुणवत्ता के विषय में तुम जो कह रहे हो वह बिल्कूल सत्य है। इस संंबंध में तुम जैसे प्रशंसा के पात्र दुनिया में और कोई नहीं। परंतु, अरब लोग हमारी टोली कुरैश के सिवाय अन्य किसी को अपने प्रमुख के रुप में मान्यता नहीं देंगे। हम अमीर (राजा) हैं तुम वजीर (प्रधान) हो।" इस पर मदीनावासियों ने कहा 'ऐसा नहीं है। फिर भी, ऐसा करो ः तुम में से एक को अमीर और हम में से भी एक को अमीर बनाओ।" यह दो अमीरों की मांग अबू बकर ने तत्काल ठुकरा दी और कहा 'नहीं, हम अमीर और तुम हमारे वजीर (ंमंत्री) हो। हम सभी अरबों में सर्वश्रेष्ठ कुल के और वंश से सर्वश्रेष्ठ हैं।" 'उमर (दूसरा खलीफा) ने भी आगाह कर दिया कि दो खलीफा (कुछ लोगों के मतानुसार 'तलवार") एक साथ नहीं रह सकते। वह एक अरिष्ट होगा। अल्लाह की कसम, पैगंबर के कुल के सिवाय अन्य किसी को भी अरब खलीफा के रुप में नहीं मानेंगे...हम पैगंबर के कुल के (यानी कुरैश) हैं और इसलिए हम से बेहतर खलीफा पद का हकदार और कौन हो सकता है? केवल दुराग्रही, पापी और विनाश के गड्‌ढ़े में गिरने की चाह रखनेवाला ही इसे नकार सकता है।" इस प्रकार से पैगंबर की विरासत यानी खिलाफत के लिए संघर्ष शुरु हुआ।

 परंतु, मदीनावासियों द्वारा पीछे हटने के कारण मक्कावासियों का रास्ता साफ हो गया और उमर तथा एक और प्रभावशाली मक्कावासी अबू उबैदा (पैगंबर के आरंभिक सहयोगी) द्वारा तत्काल अबू बकर के प्रति एकनिष्ठता की शपथ लेकर उन्हें पैगंबर का वारिस खलीफा घोषित कर दिया गया। रुबेन लेव्ही के मतानुसार 'सच कहें तो उमर के इस निर्णय के कारण हर तरह से अबू बकर समाज पर लादा गया था। उसके बदले में अबू बकर ने मरते समय (अपने बाद) उमर की खलीफा पद पर नियुक्ति की थी।"  

परंतु, 'अबू बकर का विरोध करनेवाले केवल मदीनावासी ही नहीं थे बल्कि कुछ मक्कावासी भी उनके विरोध में थे। वे अली के समर्थक थे। इनका कहना था कि वे पैगंबर चचेरे भाई, दामाद और पैगंबर के ही हाशिम वंश के होने और योग्य होने के कारण खलीफा पद पर अधिकार अली का बनता है। जब अबू बकर को खलीफा चुना गया उस वक्त यह इने-गिने वहां मौजूद नहीं थे। मुहम्मद साहेब के निकट के रिश्तेदार होने के कारण वे उनकी अंत्येष्टि क्रिया की तैयारियों में व्यस्त थे। अबू बकर के चुनाव के संबंध में उनसे पूछा भी नहीं गया था। अली के पक्ष के लोग 'शीआ" तो अबू बकर, उमर के पक्ष के लोग 'सुन्नी" कहलाए और यहीं से इस्लाम के इन पंथों में विभाजन की शुरुआत हुई।

 शीआ गुट का आक्षेप है कि पैगंबर के हाशिम वंश के व्यक्ति को खलीफा पद से दूर रखने के लिए ही अली को इस पद से दूर रखा गया और इस संबंध में उनका सबसे अधिक गुस्सा उमर के प्रति है। शीआओं का कहना है कि सकिफा (सभागृह का नाम जहां चुनाव हुआ था) ('सकिफा" को 'मुस्लिमों कापहला विघटन" सूचित करनेवाला सामान्य नाम मानना चाहिए) में कुछ मदीनावासियों ने अली को खलीफा के रुप में चुनने की मांग की थी और यह भी कहा था कि मक्कावासियों में केवल अली ही ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी योग्यता पर ऊंगली नहीं उठाई जा सकती और उन्हें मानवंदना देने के लिए हम तैयार भी हैं। (इन योग्यताओं को मुस्लिम इतिहासकार इब्ने खलदून ने अपने 'मुकद्दमे" मेें विस्तार से पृ. 178 से 180 पर दिया हुआ है।) 

परंतु, उमर ने तत्काल अबू बकर से निष्ठादर्शक हाथ मिला लिया। इतना होने पर भी कुछ अनसारों ने विरोध कर चिल्लाते हुए कहा 'हम अली के सिवाय अन्य किसी भी (कुरैश) नेता की मानवन्दना नहीं करेंगे"। परंतु, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई।" 

'दूसरे दिन सार्वत्रिक मानवंदना के लिए जो जनसभा आयोजित की गई उसमें अली के पक्ष के लोग उपस्थित नहीं हुए। उनमें अली सहित अब्बास (पैगंबर के चाचा), जुबैर, तल्हा, खलीद बि. सईद, अमर (सभी पैगंबर के सहयोगी) और अन्य प्रतिष्ठित शामिल थे। हाशिम वंश (जिसके कि स्वयं पैगंबर थे) का कोई भी उपस्थित नहीं था (वे अंत्येष्टि क्रिया में व्यस्त थे)। दफन विधि के बाद अली के पक्ष के लोग अली की पत्नी फातिमा (पैगंबर की बेटी) के घर एकत्रित हुए। यह बात अबू बकर और उमर को पता चली। अबू बकर ने उमर को उधर भेजा। अली और उनके समर्थकों को खलीफा से एकनिष्ठता की शपथ लेने के लिए बाध्य करने का काम उन पर सौंपा गया था। वहां जाकर उमर ने फातिमा के घर में अनधिकृत प्रवेश कर उन्हें इशारा दिया कि, अगर उन्होंने ऐसी शपथ नहीं ली तो, वे घर को जला डालेंगे। वहां उपस्थित जुबैर ने उमर के विरोध में तलवार उठा ली। परंतु, उमर के लोगों ने उन्हें निःशस्त्र कर दिया और उनसे एकनिष्ठता की शपथ लेने में सफल रहे। परंतु, अली ने शपथ लेने से इंकार करते हुए उमर के सामने वही तर्क दोहराया जो उमर ने अनसारों के सामने दोहराया था कि 'खलीफा पद पर हमारा अधिकार इसलिए अधिक है क्योंकि, हमने तुमसे पहले इस्लाम का स्वीकार किया था और हम पैगंबर के अधिक निकट के रिश्तेदार हैं। उसी तर्क के आधार पर तो इस्लाम स्वीकार करनेवालों में तुमसे पहले मैं हूं कि नहीं? क्या तुम सबसे अधिक निकट का खून का रिश्ता पैगंबर के साथ मेरा है कि नहीं? इसलिए यदि तुम सच्चे मुसलमान हो तो अल्लाह से डरो और पैगंबर के परिवार से उसके वारिस होने का अधिकार मत छीनो।" दरवाजे की आड से फातिमा ने गर्जना की ऐ लोगों! पैगंबर का शव हमारे पास रखकर तुम हमारे अधिकार को नजरअंदाज कर खिलाफत हथियाने के लिए भागे।" उसके बाद रोते हुए वह बडी जोर से चिल्लाई 'ऐ पिताजी! ऐ अल्लाह के पैगंबर! इधर तुम गए उधर कितनी जल्दी अबू बकर और उमर हमारे ऊपर मुसीबतें डाल रहे हैं।" इसके बाद अली को अबू बकर के पास ले जाया गया। वहां उसे शपथ लेने के लिए कहा गया। इस पर अली ने स्पष्ट रुप से पूछा, 'अगर मैंने शपथ नहीं ली तो तुम क्या करोगे?" उसे उत्तर दिया गया ः'ऐ अल्लाह! तो फिर हम तुम्हें मार डालेंगे।" इस पर अली ने निर्भयतापूर्वक पूछा ः'क्या तुम अल्लाह के सेवक को और पैगंबर के भाई का कत्ल करोगे?" इस पर उमर ने कहा 'तुम पैगंबर के भाई हो यह हमे मान्य नहीं।"* इसके बाद खलीफा ने निर्णय दिया 'ऐ अली! अगर तुम्हें शपथ नहीं लेना हो तो मैं जबरदस्ती नहीं करुंगा।" इसके बाद अली सीधे पैगंबर की कब्र पर गए और जोरों से बोले 'ऐ मेरे भाई! ये लोग मेरे साथ कैसा तुच्छता का व्यवहार कर रहे हैं और मुझे कत्ल करने की तैयारी में हैं।" अंत में अली ने छह महीने बाद अबू बकर के प्रति एकनिष्ठता की शपथ ली। इस दौरान उनकी पत्नी फातिमा की मृत्यु हो गई थी।"

* लगता है उमर यहां मक्का यात्रा से मदीना लौटते समय सन्‌ 632 में 'खुम गधीर" के प्रवचन में पैगंबर मुहम्मद द्वारा अली के संबंध में निकाले गए उद्‌गारों को भूल गए उसमें पैगंबर ने कहा था ः'जो कोई मुझे मौला (स्वामी) के रुप में स्वीकारता है, उसने अली को भी मौला के रुप में स्वीकारना चाहिए। ऐ अल्लाह! अली के मित्रों का तू मित्र बन और अली के शत्रुओं का शत्रु बन। जो उसकी मदद करेंगे तू उनकी मदद कर, और जो उसे कमतर आंकेंगे तू उनकी आशाओं को निष्फल कर।" 'शीआ पंथीय मुस्लिम इस प्रवचन को इतना महत्व देते हैं कि खुमगधीर की घटना को वे ईद के रुप में (ईद की बजाए) मनाते हैं।" पैगंबर ने अली की प्रशंसा में कहा था 'अली मेरा और मैं अली का अंश हूं।" 'अली कुरान के साथ और कुरान अली के साथ है।" 'जो अली पर प्रेम करता है, वह मुझ पर प्रेम करता है। और जो अली का द्वेष करता है, वह मेरा द्वेष करता है, वस्तुतः वह अल्लाह का द्वेष करता है।" 'जो अली को कष्ट देता है, वह मुझे ही कष्ट देता है।" 'जो अली को कुछ देता है वह मुझे ही कुछ देता है।" 'जो अली को गाली देता है वह मुझे ही गाली देता है।" 'अली मेरा वजीर है, मेरे बाद वही मानवों में सर्वश्रेष्ठ है।" 'मैं जिनका नेता हूं, अली उनका नेता है।"

अली के धर्मप्रेमी, संयमी, उदार स्वभाव के कारण और इस्लाम की एकता को प्रधानता देने के कारण खुला संघर्ष नहीं हुआ और जो भी विवाद था वह अली द्वारा एकनिष्ठता की शपथ लेने के कारण समाप्त हो गया। परंतु, तात्कालिक रुप से वह विवाद भले ही थम गया था। परंतु, उनके अनुयायियों में बना रहा और आज भी शीआ-सुन्नी के रुप में पूरे विश्व में नजर आता है। फिर वह ईरान-इराक, सीरिया, लेबनान आदि अरब देश हों या भारत।

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