Friday, May 30, 2014

क्या मध्यपूर्व ईसाई विहीन हो जाएगा 

मध्यपूर्व सेमेटिक धर्मों (यहूदी, ईसाई और मुस्लिम) की जन्मभूमि है। सन्‌ 1914 में मध्यपूर्व की आबादी का लगभग 25 प्रतिशत ईसाई था। परंतु, अब वह केवल पांच प्रतिशत रह गया है। नवंबर 2013 में क्रिश्चियन पादरियों की बैठक में इस पर चिंता प्रकट करते हुए पोप फ्रांसिस ने कहा था, हम चुपचाप बैठकर ईसाईविहीन मध्यपूर्व की कल्पना कर नहीं सकते। आज जब वैश्विकरण के कारण दूरियां घट रही हैं विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न धर्म, वंश, मूल, रंग, महाद्वीपों के लोग रह रहे हैं। प्रजातंत्र, समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धार्मिक सहिष्णुता-अधिकारों के सिद्धांतों को सर्वव्यापी मान्यता मिलती जा रही है। ऐसे में मिस्त्र, सीरिया, इराक से ईसाइयों के पलायन, उनके उत्पीडन और उनके पूजास्थलों के जलाए जाने, उनसे असहनीय संरक्षण कर की मांग की घटनाओं के कारण वे वहां से पलायन के लिए बाध्य हो रहे हैं। इस कारण पोप को इस प्रकार का बयान देना पड रहा है।

पोप की चिंता निश्चय ही जायज है। क्योंकि, वे इस्लाम के इतिहास से वाफिक हैं कि किस प्रकार से पूर्व में खलिफाओं के काल में ईसाइयों को इसी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पडा था और ईरान को तो देखते-देखते अग्निपूजक पारसी विहीन ही कर दिया गया था। दअवतुल कुरान भाष्य खंड 2, पृ. 1125 से हमें ज्ञात होता है कि, जब इस्लाम अवतरित हुआ तब अरबस्थान में छः धर्म थे ः ''मुसलमान, यहूदी, साबिई, ईसाई, मजूसी (अग्निपूजक पारसी) और बहुदेववादी (मूर्तिपूजक)।"" लेकिन ये सब समय के साथ गायब होते चले गए यह कैसे हुआ? 

सन्‌ 639 में दूसरे खलीफा उमर ने सेनापति अमर बिन अल-आस को येरुशलेम जीतने का आदेश दिया जो कि सेमेटिक धर्मों की पुण्यभूमि है और इसे 'पैगंबरों का शहर" भी कहा जाता है। पैगंबर मुहम्मद की 'मेराज" (स्वर्गारोहण) यात्रा के समय उनको ले जानेवाला घोडा कुछ समय के लिए यहां रुका था उस समय यहां की एक चट्टान पर उनके पद चिन्ह अंकित हुए थे और तभी से यह भूमि मुस्लिमों के लिए पवित्र है। पैगंबरत्व के आरंभिक चौदह वर्षों तक मुहम्मद साहेब और मुसलमान यरुशलेम की ओर ही मुंह करके नमाज पढ़ा करते थे। मक्का-मदीना के बाद यही स्थान मुसलमानों के लिए पवित्र है।

दस दिनों के घेरे के बाद भी विजय हासिल नहीं हुई। इसके बाद सेनापति उबैदा सहायता के लिए आया। उबैदा ने वहां के गव्हर्नर और जनता को लिखित सूचना भेजी कि, ''हमारी मांग है कि, तुम प्रतिज्ञापूर्वक जाहिर करो कि, अल्लाह एकमात्र है और मुहम्मद उसके पैगंबर हैं। अगर तुम्हें यह मान्य न हो तो जिजिया दो और हमारे मांडलिक बनो। अगर तुमने इसे नकार दिया तो मैं ऐसे लोग लेकर आया हूं कि, तुम लोग जितना सुअर के मांस और शराब पर प्रेम करते हो उससे अधिक वे मृत्यु पर प्रेम करते हैं। मैं तुममें से लडनेवाले मनुष्यों का कत्लेआम किए और तुम्हारे बच्चों को गुलाम बनाए बगैर यहां से हिलनेवाला नहीं।"" इस समय मुस्लिम सैनिक प्रार्थना करते समय कुरान की ''ऐ मेरी कौम के लोगों! इस पवित्र धरती में प्रवेश करो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए सुनिश्चित कर दी है। और पीछे न हटो वरना नामुराद हो जाओगे।"" (5ः21) इस आयत का जोर-जोर से पाठ करते थे। 

उबैदा ने घेराबंदी में चार महिनों तक किसी प्रकार की ढ़ील नहीं दी। अंत में बिशप ने संवाद साधा कि, ''क्या तुम्हें यह मालूम नहीं है कि यह पवित्र शहर है और इस पुण्यभूमि में जो हिंसा करता है वह ईश्वर के कोप को निमंत्रित करता है।""

उबैदा ने उत्तर दिया ''हां, हमें मालूम है कि, यह पैगंबरों की भूमि है। यहां वे चिरविश्राम कर रहे हैं। यहीं से पैगंबर मुहम्मद ने स्वर्गारोहण किया था। हमें मालूम है कि, तुम से अधिक इस भूमि के योग्य हकदार हम हैं। अल्लाह जब तक यह शहर हमारे कब्जे में दे नहीं देगा, तब तक हम यह घेराबंदी नहीं उठाएंगे।""

बिशप ने शहर की शरणागति का निर्णय लेते हुए उबैदा को कहलवाया कि, शरणागति स्वीकारने और करार करने के लिए खलीफा स्वयं यहां आएं। सेनानियों ने विचार किया कि 'जब बिना शस्त्र काम हो रहा है तो व्यर्थ खून क्यों बहाया जाए?" खलीफा उमर ने अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श किया। अली (पैगंबर मुहम्मद के दामाद और चौथे खलीफा) ने कहा कि, यरुशलेम यहूदी और ईसाइयों का पवित्र शहर होने के कारण खलीफा को स्वयं वहां जाना चाहिए।

इस अनुसार खलीफा यरुशलेम के लिए रवाना हुए। सर्वप्रथम वे मौके के स्थान जबिया जहां से दमास्कस, जॉर्डन, यरुशलेम  आदि सभी दिशाओं की ओर रास्ते निकलते थे पहुंचे। वहां के बिशप खलीफा से मिलकर करार करने के उद्देश्य से पहुंचे। करार के अनुसार वहां के ईसाइयों की जान-माल की रक्षा प्रदान की गई। इसके लिए वहां के लोगों को विशिष्ट दर से जजिया देना था। उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता दी गई। परंतु, यहूदियों को शहर में रहने से प्रतिबंधित किया गया। शर्त के अनुसार उन्हें रोमनों से लडते समय   मुसलमानों की सहायता करना होगी। जिन्हें यह करार मान्य न हो वे वहां से निकल जाने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।

करार की शर्तें इस प्रकार से थी- 1. ईसाई वहां नए चर्च ना बनाएं। 2. वर्तमान में स्थित चर्चों के दरवाजे मुस्लिम यात्रियों के लिए खुले रखे जाएं और उनमें मुस्लिमों को तीन दिन और रात रुकने की अनुमति हो। 3. चर्च के घंटे की आवाज एक ही बार आना चाहिए। 4. चर्च पर क्रॉस ना लगाया जाए ना ही किसी सार्वजनिक स्थान पर लगाया जाए। 5. ईसाई स्वयं के बच्चों को कुरान ना पढ़ाएं। 6. अपने धर्म के संबंध में खुले तौर पर कुछ ना बोलें। 7. अन्य लोगों का धर्मांतरण करने के प्रयत्न ना करें। 8. अपने रिश्तेदारों को इस्लाम स्वीकारने से ना रोकें। 9. वे मुस्लिमों जैसा पोशाक न करें, उनकी जैसी टोपी, पगडी या चप्पलें ना पहनें। उनके जैसे बाल ना बनाएं। 10. वे अलग दिखें इसलिए कमर पट्टा उपयोग में लाएं। 11. सिक्कों पर अरबी भाषा का प्रयोग ना करें। 12. वे मुस्लिमों जैसा सलाम ना करें। 13. मुस्लिमों जैसे उपनाम ना रखें। 14. कोई मुसलमान सामने आए तो खडे रहें और उसके बैठने के बाद ही बैठें। 15. वे प्रत्येक मुस्लिम यात्री का अपने घर पर तीन दिन आतिथ्य करें। 16. वे शराब ना बेचें। 17. शस्त्र धारण ना करें। 18. घोडे या ऊंट पर सवारी करते समय जीन का उपयोग ना करें। 19. जो पहले किसी मुसलमान के यहां नौकरी में हो उसे अपने यहां नौकरी ना रखें। इन शर्तों को स्वीकारने और इनकी मर्यादा में ही खलीफा उमर ने उन्हें जान-माल की सुरक्षा, चर्च उपयोग में लाने की छूट और धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया। इस करार पर इतिहासकार इरविंग का अभिप्राय बडा ही उल्लेखनीय है परंतु, लेख की सीमा को देखते हुए यहां नहीं दे रहे हैं। 

इसके बाद खलीफा उमर यरुशलेम पहुंचे वहां बिशप और शहरवासियों ने उनका स्वागत किया और शहर की चाबियां खलीफा को सौंप दी। अल्लाह ने यह पवित्र भूमि अपने को प्रदान की है इस बाबत अब उमर और मुसलमानों को कोई आशंका ना रही। इस समय उमर ने कुरान की (44ः25 से 28) आयतें कहीं। जो हरे-भरे खेतों, फलबागों और समृद्धी के संबंध में हैं। बिशप ने उन्हें वहां के सबसे बडे चर्च में प्रार्थना करने की विनती की। परंतु, उमर ने नकारते हुए कहा ः ''अगर मैंने यहां प्रार्थना पढ़ ली तो उसके आधार पर मुसलमान एक दिन इस चर्च को कब्जे में ले लेंगे और चर्च को मस्जिद बना देंगे।"" इसके बाद उन्होंने चर्च की सीढ़ियों पर नमाज पढ़ी उसी समय उस सीढ़ी पर एक समय में एक से अधिक मुसलमानों को नमाज पढ़ने से उन्होंने प्रतिबंधित किया था। परंतु, आगे चलकर उसकी बगल में ही मुस्लिमों ने मस्जिद का निर्माण किया और उन सीढ़ियों का आधा भाग और चबूतरा उसमें समाविष्ट कर डाला। पॅलेस्टाईन के अन्य भागों को जीतने के निर्देश दिए। बाद में अनेक शहरों के लोगों ने यरुशलेम के माफिक करार कर शरणागति स्वीकार की और इस प्रकार मुसलमान पॅलेस्टाईन के राजा बने।

इसी प्रकार इजिप्त की राजधानी अलेक्जांड्रिया को मुस्लिम सेनापति अमर ने निर्णायक लडाई लडकर जीत लिया और उस पर इस्लाम का ध्वज फहरा दिया। अलेक्जांड्रिया की संपत्ति लूटने के लिए मुस्लिम सैनिक अधीर हो रहे थे। उनके लिए लडाई का इहलोक का सच्चा बदला वही था। तलवार के बल पर विजय प्राप्त हुई होने के कारण वह उनका अधिकार ही था। सेनापति अमर ने खलीफा उमर से इस संबंध में मार्गदर्शन मांगा। उमर ने आदेश दिया कि, शहर में लूटमार न करने दी जाए, वहां की संपत्ति जनसेवा और धर्मप्रसार के लिए सुरक्षित रखी जाए। इसकी बजाए उन्हें देने के लिए इस्लाम का स्वीकार न करनेवाली जनता पर जजिया लगाने का आदेश दिया। इस संबंध में उमर का कहना था, ''जजिया युद्धलूट से अधिक लाभकारी है। युद्धलूट (कुछ लोगों के लिए ही होती है) शीघ्र समाप्त हो जाती है, तो जजिया (सभी लोगों के लिए और आगे भी) चलता रहता है।"" यहां उमर ने राज्य को मिली हुई संपत्ति बांटने के प्रस्ताव को ठुकरा कर मिलनेवाले जजिया से सैनिकों को पारिश्रमिक देने की योजना थी।

आदेशानुसार जजिया देनेवालों की गणना की गई। उनकी संख्या छः लाख निकली। प्रतिव्यक्ति दो दीनार जजिया लगाया गया। एक प्रमुख ने आकर विनती की कि, एकमुश्त रकम जजिया के रुप में ले ली जाए। तब अमर ने चर्च की ओर ऊंगली उठाकर उत्तर दिया ''अगर तुम मुझे इस जमीन से छत तक भर जाए इतना (धन) दिया तो भी मैं इंकार नहीं करुंगा। तुम हमारे लिए कमाई का साधन हो।""

आज वही परिस्थिति मध्यपूर्व के कुछ देशों में निर्मित हो गई है। एक समाचार के अनुसार जिस प्रकार से 'सातवीं सदी में ईसाइयों को खलीफा के संरक्षण में रहने के लिए आधा औंस सोना देना पडता था। सोना नहीं देने की स्थिति में दो विकल्प थे। या तो धर्मपरिवर्तन करो या फिर मरने के लिए तैयार रहो। फरवरी में उत्तर सीरियाई शहर रक्का में रहनेवाले 20 ईसाइयों को भी यह विकल्प दिया गया था। इस बार संरक्षण की कीमत 650 सीरियाई पौंड थी। युद्धग्रस्त क्षेत्र में दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे लोगों के लिए यह धनराशी बहुत अधिक थी। ... रक्का के 3000 में से अधिकतर भाग चुके हैं। युद्ध और क्रांति से आक्रांत मध्यपूर्व के कुछ देशों में पिछले दस वर्षों से ईसाइयों की स्थिति कमोबेश रक्का के बचे हुए ईसाइयों के समान है। ... मिस्त्र में सत्ता परिवर्तन के  बाद ईसाइयों को साम्प्रदायिक हिंसा का कहर झेलना पडा था। मुसलमानों की भीड ने 63 चर्च जला दिए थे। 2003 से अब तक दस लाख ईसाई सीरिया से पलायन कर चूके हैं।"(दैनिक भास्कर 4मई 2014, पृ.10) ऐसी भीषण परिस्थितियों में पोप और वेटिकन की चिंता को अनुचित कदापि नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, समाचार के अनुसार ''वर्तमान परिस्थितियों में 2020 तक मध्यपूर्व में ईसाइयों की आबादी एक करोड 20 लाख से घटकर आधी रह जाएगी।"" 

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