Saturday, March 28, 2015

भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास

यद्यपि भ्रष्टाचार कोई अकेले भारत की समस्या नहीं है अपितु वह तो विश्वव्यापी समस्या है। तथापि, इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जिस प्रकार से चारों ओर फैले हुए भ्रष्टाचार ने हमें ग्रसित कर रखा है उस कारण भ्रष्टाचार सर्वसाधारणजन और हमारे देश दोनों को लिए एक भयंकर समस्या बन गया है। भले ही भगवान राम या कृष्ण के काल में हमें भ्रष्टाचार का उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी भ्रष्टाचार की हमारी ऐतिहासिक परंपरा पुरातन तो निश्चय ही है। मौर्यकाल में इसका उल्लेख मिलता है। आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का यह उद्धरण प्रमाणस्वरुप दिया जा सकता है कि जिस प्रकार जल के भीतर रहनेवाली मछली जल पीती है या नहीं यह पता लगाना कठिन है उसी प्रकार सरकारी नौकर भ्रष्टाचार करते हैं या नहीं यह पता लगाना भी एक कठिन कार्य है। उस काल में भी घूस देने को एक अस्त्र की तरह माना जाता था।

भ्रष्टाचार केवल रिश्वत लेना ही नहीं बल्कि देना भी है। टैक्स न देना या चुराना, लायसेंस-परमिट बेचना, किसी की संपत्ति औने-पौने में लेना, बिना बिल का माल-खरीदना बेचना या झूठे बिल बनाना, बिना दौरे किए भत्ते लेना, आदि यानी कि भ्रष्टाचार के सहस्त्रों रुप और नाम हैं। इस सब पर से तो यही मानना पडेगा कि हमें चिराग लेकर उन्हें ढूंढ़ना पडेगा जो भ्रष्टाचार से वास्तव मंंें सख्त नफरत करते हों। हम भारतीयों के जीवन में भ्रष्टाचार इस प्रकार से व्याप्त हो गया है जैसेकि किसी हरे-भरे पेड के कण-कण में विद्यमान पानी। वास्तव में हम सब किसी ना किसी मौके की तलाश में ही रहते हैं। ये बात अलग है कि यह मौका हर किसीको मिल नहीं पाता या मिला तो वह उसे भुना नहीं पाता। इस कारण वह अनिच्छा से ही क्यों ना हो पर ईमानदार बना रह जाता है।

किंतु, सच पूछा जाए तो भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास मुगलकालीन भारत से शुरु है। मुगल बादशाहों विशेषकर अकबर ने रिश्वत के राजनैतिक हथियार का प्रयोग अपने विरोधियों के दमन के लिए किया, मगर फिर भी भ्रष्टाचार उस काल में इतना विकराल नहीं था। वास्तव में भ्रष्टाचार ने व्यापक रुप लेना प्रारंभ किया ब्रिटिशों द्वारा भारत पर कब्जे के बाद। उन्होंने पटवारी, पुलिस कॉन्सटेबल और चपरासी जो क्रमशः राजस्व, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका से संलग्न थे, नियुक्त किए और इन तीनो के ही वेतन बहुत कम रखे इस कारण वे अतिरिक्त कमाई रिश्वत की आय से करने लगे। इन तीनो को ही ब्रिटिशों ने अपनी शासन पद्धति का आधार स्तंभ बना रखा था। इस प्रकार भ्रष्टाचार बढ़ने लगा तथा कुछ विभाग तो भ्रष्टाचार के लिए ही मशहूर हो गए।

आगे चलकर जब देश स्वतंत्र हुआ तो उद्योगीकरण की शुरुआत हुई। लोगों में संपत्ति का मोह कुछ अधिक ही बढ़ने लगा साथ ही नैतिक पतन भी प्रारंभ हुआ और भ्रष्टाचार ने अपनी जडें विभिन्न क्षेत्रों में जमाना भी प्रारंभ कर दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के दो-तीन दशकों तक तो ऊपर की कमाई करनेवाले लोग बडे गुपचुप तरीके से रिश्वत लेते थे और समाज के सामने रिश्वत के पैसों का भौंडा प्रदर्शन भी नहीं करते थे ताकि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बनी रहे। क्योंकि, उस समय भ्रष्टाचारी को लोग अच्छी नजरों नहीं देखते थे। मगर धीरे-धीरे परिदृश्य बदलने लगा और भ्रष्टाचारी समाज में प्रतिष्ठा पाने लगे। आगे चलकर जब वैश्वीकरण-निजीकरण की बयार बहने लगी तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का कुनबा बढ़ने लगा उसने वटवृक्ष का रुप धारण कर लिया और ईमानदार व ईमानदारी ने उसके तले दम तोडना प्रारंभ कर दिया।

चुनावी खर्चों के कारण संविधान द्वारा घोषित प्रजातांत्रिक समाजवादी राष्ट्र राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के हाथों का खिलौना बन गया। उद्योगपतियों से चंदा उगाही शुरु हो गई। जिसके कारण अनुचित व्यापार पद्धति और कालाबाजारी दिए गए चंदे की कई गुना वसूली की प्रवृत्ति स्वाभाविक रुप से जोर पकडने लगी। इस भ्रष्टाचार के माध्यम से अधिकाधिक धन कमाने के लिए कोटा-परमिट राज लाया गया, ट्रस्ट बना डोनेशन के माध्यम से धन एकत्रित किया जाने लगा। सरकारी बैंकों से फर्जी तरीके से लोन लेकर वारे-न्यारे किए जाने लगे। इस पूरे सिस्टम में बाधक बननेवाले नेताओं-अधिकारियों को धन से खरीदा जाने लगा या रास्ते से किसी ना किसी प्रकार से हटाया जाने लगा। इस प्रकार भ्रष्टाचार का घोडा सरपट दौडने लगा। इस पूरी प्रक्रिया से कालाधन पैदा होने लगा। 21 दिसंबर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुई बहस में राममनोहर लोहिया ने जो भाषण दिया था वह आज भी प्रासंगिक है। उस समय लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ। 

उदारीकरण-बाजारवाद-वैश्विकरण-निजीकरण की नीतियां अपनाने के बाद पहले कोटा-परमिट इंस्पेक्टर राज को भ्रष्टाचार को लिए दोषी ठहराया गया अब नए दौर को दोष दिया जा रहा है। किंतु, यह सच भी है कि इस नए दौर में जितना कालाधन पैदा हुआ विदेशों में गया उतना पहलेवाले दौर में नहीं हुआ था। इस सबका सबसे बडा दुखद पहलू तो यह है कि भ्रष्टाचार का वायरस न्यायपालिका, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे पवित्र एवं सेवाभावी पेशों में गहरे तक पैठ गया है। वस्तुतः आज भ्रष्टाचार गॉडफादर बन गया है इसे खुश रखो और मजे में जीयो वरना जीना दुभर हो जाएगा ऐसी परिस्थिति निर्मीत हो गई है। किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, हमाम में सभी नंगे हैं, जितना जिसके हाथ लग जाए उतना वह साफ कर देता है और जिसको मौका नहीं मिलता वह पाक-साफ बना भ्रष्टाचार का रोना रोते रहता है। 

सच तो यह है कि भ्रष्टाचार हमारी सबसे बडी कमजोरी है और इस भ्रष्टाचार की उत्पत्ति मानव आचरण में नैतिकता के क्षरण का परिणाम है। भ्रष्टाचार के इस जानलेवा विषाणु से मुक्ति पाना कोई आसान काम नहीं। इसके प्रभाव को शनैः शनैः ही कम करना होगा। इसके लिए आचरण की शुद्धता की आवश्यकता है। साधारण लोग तो बडों का ही अनुसरण करते हैं और जब तक शीर्ष पर बैठे लोग सादगी का और भ्रष्टाचार मुक्त आचरण का प्रदर्शन नहीं करते। आदर्श प्रस्तुत नहीं करते तब तक इस भ्रष्टाचार की दीमक से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसके अलावा सबसे अधिक आवश्यकता यदि किसी बात की है तो वह है सामाजिक संस्कारों की भी जिसकी शुरुआत घर से ही होती है जो लगभग ओझल सी हो गई है।

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