Friday, April 17, 2015

सेक्यूलरिजम और इस्लाम
shirishsapre
सेक्यूलरिजम शब्द संसार में कब, कहां और किन परिस्थितियों में आया उसकी गहराई में न जाते हम 'ऑक्सफोर्ड" अंग्रेजी शब्दकोश में इस शब्द का क्या अर्थ दिया हुआ है वह पहले देखेंगे। शब्दकोश के अनुसार इस शब्द का अर्थ है 'इहलौकिक बातों के संबंध में"। पारलौकिक और आध्यात्मिक बातें इन इहलौकिक बातों से अलग हैं, ऐसा इस व्याख्या में गृहित है। अनेक विचारकों ने अपनी - अपनी पद्धतिनुसार इस शब्द की व्याख्या की हुई है। इस शब्द की व्याख्या के संबंध में जो वादविवाद हमेशा होते रहते हैं वे 'शासन की धर्मसंबंधी भूमिका कौनसी होनी चाहिए" इस पर से ही होते हैं। इस स्थान पर 'शासन" इस शब्द में केंद्र-राज्य सरकारें, लोकसभा-विधानसभा, न्यायालय और कानून द्वारा स्थापित अन्य संस्थाओं का समावेश होता है। इसी में से फिर सेक्यूरिजम की अनेक भूमिकाएं जन्म लेती हैं।

अपने को जो सेक्यूलरिजम मानना है, जिस सेक्यूलरिजम का पालन करना है वह भारतीय संविधान का है। संविधान की धारा 25 में सेक्यूलरिजम की भूमिका आई हुई है। यह नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार प्रदान करनेवाली धारा  है। इस धारा में उस स्वतंत्रता की मर्यादाएं भी बतलाई हुई हैं। इस धारा में दो उपधाराएं हैं। इनमें से पहली उपधारा मनुष्य द्वारा पारलौकिक अर्थ का धर्म (यानी संप्रदाय, उपासनापंथ अथवा रिलिजन) पालने के अधिकारों से संबंधित है, तो दूसरी उपधारा इहलौकिक जीवन में धर्म का स्थान तय करनेवाली है।

पहली उपधारा के अनुसार प्रत्येक को अपने धर्म (रिलिजन) का पालन करने की और उसका प्रचार-प्रसार करने की समान स्वतंत्रता दी गई है; परंतु उसके लिए चार शर्तें डाली गई हैं। उनमें से तीन शर्तें सार्वजनिक सुव्यवस्था, नीतिमत्ता और आरोग्य के विरोध में वह स्वतंत्रता न होने संबंधी है। चौथी शर्त संविधान द्वारा सभी नागरिकों को प्रदान किए हुए संविधान में अन्य मूलभूत अधिकारों के विरोध मेें वह स्वतंत्रता न होने संबंधी हैं। इन चार शर्तों का पालन न करने पर पूजा, प्रार्थना इस अर्थ का संप्रदाय का पालन भी न किया जा सकेगा इस प्रकार का इसका अर्थ है। इन शर्तों का पालन करने के बाद बचा हुआ पारलौकिक धर्म कितना बच रहता है यह पाठक स्वयं सहज ही तय कर सकते हैं।

दूसरी उपधारा में इस धर्मस्वतंत्रता के विरोध में शासन को कुछ अधिकार प्रदान किए गए हैं ः शासन को आर्थिकनीति, राजनीति, सामाजिकनीति और अन्य इसी प्रकार की इहवादी बातों के संबंध में कानून बनाने का पूर्ण अधिकार रहेगा। इस अधिकार के आडे वह धार्मिक स्वतंत्रता आ नहीं सकती। यह उपधारा शासन को नागरिकों के इहलौकिक जीवन के संबंध में सार्वभौम अधिकार प्रदान करती है। शासन को यह अधिकार देकर संविधान ने नागरिकों के व समाज के इहलौकिक जीवनसंबंधी धर्म के अधिकार को ही समाप्त कर डाला है। धर्म (रिलिजन) का पालन करना यह बात सेक्यूलर बातों से पूर्णतया अलग है, यह गृहित लेकर ही यह धारा तैयार की गई है। इसी उपधारा में आगे यह भी कहा गया है कि, सामाजिक सुधार और समाजकल्याण के संबंध में कानून बनाने का शासन को पूर्ण अधिकार रहेगा। 

धारा 25 के अनुसार संविधान ने नागरिकों को पारलौकिक धर्म पालन करने की मर्यादित स्वतंत्रता दी हुई है, तो इहलौकिक बातों के संबंध में धर्म को निष्प्रभ करने का शासन को सार्वभौम अधिकार प्रदान किया हुआ है। इस संबंध में संविधान ने केवल एक अपवाद और वह इस धारा में विशेषरुप से स्पष्टीकरण देकर किया हुआ है। सिक्खधर्मीय लोगों को धर्माज्ञा के रुप में कृपाण रखते हैं। अब प्रश्न यह है कि, कृपाण रखना यह बात पारलौकिक है कि इहलौकिक? धर्म में कही हुई होने के बावजूद यह बात स्पष्टरुप से ही इहलौकिक है ऐसा होने के बावजूद उपधारा 2 के अनुसार कृपाण रखने की बंदी लानेवाला कानून बनाने का अधिकार शासन को प्राप्त होनेवाला था। वह न हो ऐसी संविधानकर्ताओं की इच्छा थी इसलिए उन्होंने इस धारा में विशेष स्पष्टीकरण देकर कृपाण रखने का मुद्दा उस धर्म के पारलौकिक बातों में समाविष्ट किया। इस कारण ही यह बात अब केवल कानून-सुव्यवस्था और अन्य मूलभूत अधिकार आदि शर्तों के अधीन रही। यह अपवाद संविधानकर्ताओं की धर्मविषयक भूमिका पर एकदम स्पष्ट प्रकाश डालता है।

'धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार" इस शीर्षकतले संविधान की 26 से 30 इस प्रकार की और पांच धाराएं हैं। मगर इन धाराओं में उपरोक्त धारा के विरोध में कुछ भी नहीं है। उदा. धारा 26 धर्मविषयक व्यवहार के संबंध में है। पारलौकिक धर्म कहा तो, उसके लिए मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि का निर्माण आएगा ही। उसके लिए मालमत्ता धारण करना, संस्था स्थापित करना, आर्थिक व्यवहार करना ये सेक्यूलर बातें आएंगी ही। इस धारा के अनुसार इस प्रकार की संस्थाओं की पारलौकिक बातें सार्वजनिक सुव्यवस्था, नीतिमत्ता और आरोग्य के अधीन रखी गई हैं, तो सेक्यूलर बातों संबंधी कानून बनाने का अधिकार शासन को प्रदान किया हुआ है। अर्थात्‌ कौनसी बात धर्म की और कौनसी सेक्यूलर इस बारे में विवाद होने पर उसका निर्णय न्यायालय द्वारा दिया जाएगा। उदा. सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकरण में इस प्रकार से निर्णय दिया है कि, पुजारी द्वारा कौनसी पद्धति से पूजा की जाए यह धर्म का भाग है; मगर पुजारी की नियुक्ति सेक्यूलर मामला है। (AIR 1972 Sc 1586) अतः 'धर्म" अथवा 'धार्मिक" शब्द संविधान में संप्रदाय, उपासनापद्धति अथवा पारलौकिक धर्म इस अर्थ से सर्वत्र उपयोग में लाया गया है, यह ध्यान में रखे जाने योग्य है।

अब हम इस्लाम की भूमिका को देखेंगे - पाश्चात्य पद्धति में जिस प्रकार से 'धर्म" और 'राज्य" अलग-अलग होते हैं वैसा इस्लाम में नहीं होता। इस्लाम को मानव जीवन का विभाजन राजनीति, धर्मनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति इस प्रकार का मान्य नहीं है। इस्लाम के अनुसार मानव जीवन के सारे घटक इस्लाम में एकजीव होकर समाविष्ट हो गए हैं। इस्लाम एक जीवन पद्धति है जिसमें अल्लाह ने समय-समय पर जो संदेश पैगंबर को दिए थे उनमें उपर्युक्त प्रकार का विभाजन नहीं है। अल्लाह ने मानवी जीवन को धर्मनीति, राजनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति आदि खानों में बांटकर मार्गदर्शन नहीं किया है। इस कारण ये सारी बातें इस्लाम में अविभाज्य होकर एकरुप हो गई हैं। इस्लाम को पाश्चात्य पद्धतिवाला धर्म और राजनीति का विभाजन मान्य नहीं। 

इस संबंध में हम कुछ विद्वानों के अभिप्रायों पर गौर करेंगे जिससे कि इस्लाम की भूमिका को बडी आसानी से हम समझ सकेंगे - 1. बर्नाड लुईस ः ''ईसाई धर्म के संस्थापक ने अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि, 'सीजर (यानी राज्य) का सीजर को दो, ईश्वर (यानी धर्म) का ईश्वर को दो" ... परंतु, तीन शताब्दियों के बाद सम्राट कॉन्सटॅन्टाईन के काल में राज्य और चर्च (धर्म) एक रुप हो गए। परंतु, (मूलतः) इस्लाम के संस्थापक स्वयं ही (ऐसे) कॉन्सटॅन्टाईन थे... इसलिए उनके सहयोगियों के सामने ईश्वर (धर्म) और सीजर (राज्य) इनमें से एक को चुनने का प्रश्न निर्मित ही नहीं हुआ। इस्लाम में सीजर नहीं था केवल अल्लाह था और मुहम्मद साहेब उनके पैगंबर थे। अल्लाह की सीख बतलाना और उसकी ओर से राज्य करना ये दोनो ही काम वे करते थे ... अल्लाह के उस संदेश में (राजनैतिक) आदेश और उसका (धार्मिक) आधार भी दिया हुआ होता था।""

''(इस्लाम के अनुसार) राज्य एक धार्मिक संस्था है ... उसमें चर्च और राज्य एक ही होते हैं, जिसका प्रमुख खलीफा होता है। धार्मिक और इहलौकिक, आध्यात्मिक और भौतिक, संत और गृहस्थी, इतना ही नहीं तो पवित्र और अपवित्र इन जुडे हुए शब्दों के लिए इस्लाम में वैकल्पिक संज्ञा ही नहीं है।"" 

2. भूतपूर्व सांसद एम. तय्यबुल्ला - ''इस्लाम में राज्य और धर्म एक ही और अविभाज्य हैं, एक ही शरीर के दो भाग हैं। हॅन्स कोहन ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ the history of nationalism in the eastमें कहा है ः 'इस्लाम केवल धर्म नहीं तो (मुस्लिमों का) राज्य है।" (यह बिल्कूल सत्य है) इस्लाम में राज्य की संकल्पना राजनैतिक-आध्यात्मिक है ... जो राज्य और धर्म में विभाजन की बात करता है उसे (इस्लाम का) कुछ नहीं समझता है। वह केवल अंधता से पाश्चात्यों की नकल करता है और धर्म के संबंध में पूर्णतः अज्ञानी है।""

''पैगंबर मुहम्मद ने (इस्लामी) राज्य की स्थापना 'इस्लाम के अविभाज्य अंग" (the organ of islam) के रुप में की थी और वे ही 'अरबस्थान के प्रजासत्ताक के पहले अध्यक्ष" (first president of the republic of arabia) और उसी समय 'इस्लाम के धार्मिक प्रमुख" बने। इसी प्रकार से उनके उत्तराधिकारी खलीफा भी वैसे ही बने।"" (एम. तय्यबुल्ला कांग्रेस के भूतपूर्व सांसद थे। स्वतंत्रता पूर्वकाल में वे महात्मा गांधी के सहयोगी थे। उन्होंने 1942 के स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लिया था और वे कारावास में भी गए थे इस ग्रंथ islam and non violence की प्रस्तावना गांधीजी लिखनेवाले थे। उन्होंने यह ग्रंथ पढ़ा भी था। परंतु, उनकी हत्या के कारण वे प्रस्तावना लिख ना सके। गांधीजी ने उन्हें भेजे हुए एक स्वहस्ताक्षरित पत्र की छायाप्रति भी उस गं्रथ के अंत में दी हुई है। अपना यह ग्रंथ उन्होंने गांधीजी को ही अर्पित किया हुआ है। 1940-48 के काल में असम कांग्रेस अध्यक्ष और बाद में वहां के मंत्री भी रहे थे)

3. मौ. अबू मुहम्मद इमामुद्दीन ः ''इस्लाम मानव जीवन का विभाजन दो भागों में करता नहीं है। एक भाग इस्लाम के अधीन और दूसरा (इस्लाम से) स्वतंत्र ऐसा नहीं होता। इस्लाम ही मानव जीवन का संविधान है। उपासना, उपजीविका, सामाजिक व्यवस्था,  नागरिकता, शिष्टाचार, राजनीति, शासन व्यवस्था आदि सबकुछ इस्लाम के अधिकार क्षेत्र में समाविष्ट है।""

उपर्युक्त कथन इस्लाम की सेक्यूलरिजम के संबंध में भूमिका एकदम साफतौर पर प्रस्तुत करते हैं फिर भी किसी को कुछ शंका ना रह जाए इसलिए हम दअ्‌वतुल कुरान भाष्य इस संबंध में क्या कहता है पर गौर करेंगे -  ''जीवन को धर्म और संसार के खानों में विभक्त कर अल्लाह और उसके रसूल के कितने ही फैसलों को जो पारिवारिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन से संबंधित हैं रद्द कर देना और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष जीवन पद्धति को अपनाना इस्लाम से खुली विमुखता है।""  (खंड 3 पृ. 1475) 

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