Wednesday, April 29, 2015

ताजमहल, तेजोमहालय अर्थात्‌ त्रिनेत्रधारी भगवान शिवजी-तेजाजी का मंदिर है
ताजमहल एक बार फिर विवादों के घेरे में है। इस बार छः वकिलों के एक समूह ने एक याचिका दायर कर दावा किया है कि ताजमहल एक शिव मंदिर है, दलील यह दी गई है कि वहां भगवान अग्रेश्वर महादेव विराजमान हैं।  इन्होंने यह दावा किया है कि वहां कोई कब्र मौजूद नहीं। शारदापीठ जगद्‌गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंदजी महाराज ने भी एक बयान देकर कहा है कि ताजमहल के नीचे शिवमंदिर है और इसे भक्तों के लिए खोला जाना चाहिए जिससे कि वे वहां पूजा-अर्चा कर सकें। शंकराचार्य के मुताबिक इस मामले को सुलझाने के लिए उन्होंने कोर्ट में अर्जी भी दी है। इस संबंध में सबसे पहले एक साहसी उद्‌भट विद्वान पुरुषोतम नागेश ओक ने एक पुस्तक लिखकर दावा किया था कि 'ताजमहल मंदिर भवन" है, 'ताजमहल राजपूत प्रासाद" था। 

 यह विलक्षण शोध प्रतिभा का धनी जिसने अथक परिश्रम के बल पर मात्र भारत ही नहीं तो विश्व इतिहास को एक नवीन आयाम  दिया का जन्म इंदौर नगर में 1917 में हुआ था और शिक्षा होलकर कॉलेज इंदौर में। 1941 में आजाद हिंद फौज में शामिल होकर द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेज साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध किया था। जून 1942 से जून 1943 तक वे आजाद हिंद सेना के इंडोचायना रेडियो केंद्र के प्रसारण में स्वाधीनता प्रचारक रहे तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सिंगापुर शिविर काल में जून 1943 से 15 अगस्त 1945 अर्थात्‌ युद्ध समाप्ति तक नेताजी के सान्निध्य में एक सैनिकी सहकारी अधिकारी के रुप में कार्यरत रहे। उसके बाद वे स्वतंत्रता प्राप्ति तक भूमिगत रहे। 

स्वाधीनता के पश्चात युद्ध के इतिहास और अनुभवों पर आधारित दो पुस्तकें 'हिंदुस्थान का द्वितीय स्वाधीनता युद्ध और नेताजी के साथ" प्रकाशित की और इन्हीं विषयों पर भाषण एवं जनजागरण करते फिरे। बाद में मुंबई विश्वविद्यालय से एम.ए. और विधि की उपाधियां प्राप्त कर अगस्त 1947 से लगभग साढ़े चार वर्ष तक दिल्ली में हिंदुस्थान टाईम्स तथा 1951 से 1953 तक स्टेट्‌समन में संवाददाता का कार्य करते रहे। 1953 से 1957 तक भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में क्षेत्रीय अधिकारी रहे। तत्पश्चात अमरीकी दूतावास में सम्मानीय पद पर कार्य किया। लोकमान्य तिलक के केसरी में 1961 मेें तीन धारावाहिक लेख 'ऐतिहासिक इमारतींच्या बांधकामाचे जनक" (ऐतिहासिक इमारतों के निर्माण के जनक) शीर्षक से लिखकर खलबली मचा दी थी। अपने इतिहास शोध कार्य के विराट स्वरुप को व्यापक स्तर पर चलाने के लिए 14 जून 1964 को 'इन्स्टीट्यूट फॅार रीरायटिंग इंडियन हिस्ट्री" नामक संस्था को जन्म दिया।

पु. ना. ओक ने ताजमहल से संबंधित अपने शोध पत्र में एक सौ से अधिक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं जो कि उनके इस मान्यता का समर्थन करते हैं कि ताजमहल मुस्लिम नहीं तो एक हिंदू निर्माण है। इन प्रमाणों में ही श्री ओक ने एक शिलालेख का आधार दिया है जो कि चंदेल राजा परमादिदेव का है न कि डॉ. त्रिवेदीजी के कथनानुसार जयपुर के राजा का। उक्त शिलालेख लखनऊ के अजायबघर में है। इस शिलालेख के आधार से ही ओक की यह दृढ़ मान्यता है कि 'ताजमहल, तेजोमहालय, अर्थात्‌ त्रिनेत्रधारी भगवान शिवजी-तेजाजी का मंदिर है।" यह निष्कर्ष उन्होंने संस्कृत पुस्तक 'खर्जुरवाहक" पढ़ने के बाद निकाला था।

यह पुस्तक उन्हें इंदौर के एक प्राध्यापक श्री विक्रम गणेश ओक ने दी थी। (यह दोनो ओक रिश्तेदार नहीं हैं) वे जब छतरपुर में पदस्थ तब उन्हें यह पुस्तक 'खर्जुरवाहक" वहां के अभिभाषक महेश्वर काले ने जो उनके काका द्वारा लिखी गई थी उनकी पढ़ने-लिखने की अभिरुचि को देखते दी थी। उस पुस्तक को पढ़ने के बाद उन्हें ऐसा आभास हुआ कि राजा परमादिदेव के संस्कृत श्लोक में वर्णित भवन कहीं वहीं तो नहीं जिसे हम ताजमहल कहते हैं। उस संदर्भ से उन्होंने पु.ना.ओक को अवगत कराया।  पु. ना. ओक ने पुस्तक में उद्‌धत संस्कृत शिलालेख, जिसे 'बटेश्वर" शिलालेख कहा जाता है की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए पुरातत्व संग्रहालयों, ग्रंथालयों की भरपूर खाक छानकर निष्कर्ष रुप में एक नवीन शोध 'ताजमहल मंदिर भवन है"। शीर्षक का पुस्तक के रुप में प्रकाशित की। जिससे वैचारिक जगत में तहलका मचा। इस विषय में विक्रम ओक का जो योगदान रहा उसकी भावुक सराहना पु. ना. ओक ने अपने पत्र द्वारा करते हुए उन्हें लिखा था - ''आपने अपनत्व से जो जानकारी हमें दी वह अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। इसके लिए मैं आपका हमेशा के लिए ऋणी हूं। इस विषय में इसी प्रकार सक्रिय रहें।""   

अपने प्रमाणों में ओक ने शाहजहां के दरबारी बखरकार मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी के बादशाहनामे का उल्लेख भी किया, जिसमें की उक्त भवन को मानसिंह मंजिल बताया गया है और जिसे तत्कालीन जयपुर नरेश जयसिंह से प्राप्त कर उसमें अगले वर्ष मुमताज को दफनाने की बात है। ओक ने शाहजादा औरंगजेब के 1652 के उस पत्र का  आधार भी अपने कथन की पुष्टि हेतु लिया है। इस पत्र में औरंगजेबउक्त कब्र को 'उज्जवल कब्र" कहता है। यह पत्र 'यादगार नामा" और 'आदाब ए आलमगिरी" इन दोनो तत्कालीन इतिहास ग्रंथों में उद्‌धृत है। इस प्रकार ओक आलोचकों के इस कथन को स्पष्ट आव्हान देते हैं कि 'ताजमहल" शब्द का प्रयोग शाहजहां और औरंगजेब दोनो के समय तक नहीं हुआ था। पर उसके अनंतर के बखरकारों ने इसका प्रयोग किया अतः उसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। श्रीओक जयपुर राजघराने में अप्रकाशित पडे हुए कपडदारा विभाग के पत्र क्रमांक 176 एवं 177 को प्रकाशित करने का आव्हान भी प्रकट रुप से करते हैं।

श्रीओक वास्तुविज्ञान के संस्कृत ग्रंथ में उद्‌धृत वास्तुपुरुष का तथा ताजमहल के शिल्प, उस पर दिखाई देनेवाली नागों की जोडीयां, धतूरे के ओम्‌ आकार के फूल, उसका अष्टकोण निर्माण, ताजमहल के शिखर पर होनेवाले त्रिशूल कलश, आम्रपत्र, आदि  का आधार भी चित्रसहित दर्शाते हैं। इस प्रकार ओक का कथन केवल तर्क ही नहीं तो शिल्प एवं अभिलेखों पर आधारित है। इतना होते हुए भी ओक ने यह कभी नहीं कहा कि इसका निर्माण इस विशिष्ट वर्ष में, इस विशिष्ट नरेश ने किया है। उनका स्पष्ट कथन यह है कि तथाकथित 'ताजमहल" तेजोमहालय होकर उसका निर्माण शाहजहां के पहले ही हुआ है।

इतिहास शोध ओक का स्वानंद था, जीवनव्रत था। हिंदुस्थान के इतिहास में क्रांति ला देनेवाले ऐसे उद्‌भट विद्‌भट विद्वान के एक प्रसिद्ध ग्रंथ 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" ने 10 मार्च 1992 को राज्यसभा की चर्चा में स्थान पाया और फिर बुधवार 11 मार्च को लोकसभा में इस पर विस्तृत चर्चा हुई। 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" जुलाई 1966 में प्रकाशित अंगे्रजी इतिहास शोधग्रंथ - 'सम ब्लंडर्स ऑफ इंडियन हिस्टोरिकल रिसर्च" का हिंदी रुपांतर है। 10 मार्च को राज्यसभा में जनता दल सांसद मोहम्मद अफजल ने ओक के शोधग्रंथ 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" का पार्लियामेंट हाऊस की लाइब्रेरी में होने पर आपत्ति उठाई और दूसरे ही दिन लोकसभा में हर माह 'मुस्लिम इंडिया" प्रकाशित करनेवाले धर्मनिरपेक्ष जनता दल के सांसद शहाबुद्दीन के नेतृत्व में देश विभाजक मुस्लिम लीग और निजाम की रियासत में हिंदुओं पर जुल्म ढ़ानेवाले रजाकारों के वारिस इत्तेहादुल मुसलमीन आदि के मुस्लिम सांसदों ने इस शोधग्रंथ को हममजहबियों के दीनी जज्बातों पर हमला बताते हुए इसे पार्लियामेंट हाऊस की लाइब्रेरी से हटाने और इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने की रट लगा दी।

शहाबुद्दीन ने चतुराईपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हुए कहा कि 'यह पुस्तक कोई विद्वत्‌ रचना नहीं, कोई गंभीर रचना नहीं, अतः मैं इसे कोई विशेष महत्व देना नहीं चाहता। पर चूंकि यह लोगों की भावनाओं के प्रति आक्रमक है और हमारे देश में ईशनिंदा के विरुद्ध कानून है", अतः इस पुस्तक को पार्लियामेंट हाऊस लाइब्रेरी से हटाया जाना चाहिए। प्रतिबंधित भी किया जाना चाहिए और शासन को इस विषय में अभी ही घोषणा करनी चाहिए। मुस्लिम लीग के सुलैमान सैत ने शहाबुद्दीन से सहमति दर्शाई। परिणामतः 11 मार्च 1992 को लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से इस गं्रथ को संसदीय ज्ञानपीठ (संसद ग्रंथालय) में संग्रहित 11 लाख ग्रंथों से अलग निकाल कर ताले में बंद रखने की अर्थात्‌ पठन हेतु नहीं दिए जाने की तत्काल व्यवस्था की जाए! 

1 से 7 सितंबर 1986 को साऊदम्पटन नगर के साऊदम्पटन विश्वविद्यालय में आयोजित विश्व पुरातत्व परिषद में पु. ना. ओक ने जिस शोध ग्रंथ को प्रस्तुत किया था उस शोधलेख में 'इस्लाम भी वैदिक संस्कृति से ही उपजा हुआ एक पंथ है"। उपशीर्षक में वही विचार व्यक्त किए गए थे जो कि इस ग्रंथ में भी दिए गए हैं। क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि जिस शोधलेख का सम्मान विश्व सम्मेलन में होता है उस पर मुस्लिम सांसदों द्वारा हायतौबा मचाने पर शोधग्रंथ को ताले में बंद कर दिया जाता है। 

प्रथम लोकसभा अध्यक्ष श्री जी. वी. मावलंकर की परिकल्पना के अनुसार, पूर्व में जिसे 'प्रिंसेस चेंबर" के नाम से जाना जाता था जहां अविभाजित भारत के देशी राज्यों के शासकों के सम्मेलन हुआ करते थे उसीके लिए इसका निर्माण हुआ था; जहां बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति पर कुछ समय के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायालय कक्ष के रुप में इसका उपयोग हुआ था; जब सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान भवन निर्मित हो गया था तब न्यायालय वहां स्थानांतरित हो गया, यहां विशाल संसद ग्रंथालय स्थापित किया गया। यह मात्र ग्रंथालय नहीं तो ज्ञानपीठ है अतः ग्रंथ संग्रहण के अतिरिक्त भी अन्य अनेक सुविधाएं, व्यवस्थाएं संजोयी गई हैं। 

ऐसे ज्ञानपीठ की गरिमा को कलंकित करनेवाले अन्याय के एकमात्र प्रतीक को वहां से हटाकर, क्षुद्रता संकुचितता को तिलांजलि दे, मुक्तता, विशाल मनस्कता की भावना को अपना कर विराट 'संसदीय ज्ञानपीठ" रुपी स्वर्ण को सुरभित कर दे। जो पूर्व में ना हो सका वह यह नई कार्यशैली वाली मोदी सरकार करे 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें" शीर्षक का जो अनूठा शोधग्रंथ बंद करके रखा गया है उस तालाजडे बक्से से उसे आजाद करे। 

No comments:

Post a Comment