Friday, May 8, 2015

पक्षी दिवस 4 मई
जूझ पक्षियों की 

पक्षियों और उनकी अनूठी दुनिया का आकर्षण मनुष्य को प्रारंभ से ही रहता चला आया है। पक्षियों का मानव जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान अनेकानेक प्रकार से प्राचीनकाल से ही रहा है। मनुष्य का संबंध पक्षियों से भक्षण, मनोरंजन से लेकर अपने मन की बात कहने तक रहा है। प्राचीन भारतीयों ने विभिन्न पक्षियों जैसेकि तोता-मैना, हंस आदि को घर में स्थान दिया। उनसे अपनी  प्रेमकथा कहने से लेकर विरहकथा तक कही, अपना राजदार बनाकर उनके माध्यम से प्रेमसंदेश भेजने का काम लिया तो कभी शुभाशुभ जानने के लिए उनका उपयोग किया। तोता-मैना तो स्त्री-पुरुषों के सुख-दुख के साझीदार होते थे।  

प्राचीनकाल में इतने मनोरंजन के साधन नहीं थे जितने की आज हैं। उस काल में पक्षी एक बहुत बडा मनोरंजन का साधन थे।  प्राचीनकाल में पक्षियों की जूझ या लडाई का खेल अत्यंत लोकप्रिय था। बाण ने मुर्गा, सारस आदि की लडाइयों का वर्णन कर रखा है। चालुक्य नरेश सोमेश्वर के बारहवीं शताब्दी में रचित मानसोल्लास में मुर्गों की जूझ का वर्णन विस्तार से मिलता है। उसने लडाकू मुर्गों की आठ जातियां बतलाई हैं।

मुर्गों की लडाई के खेल की उत्पत्ति पौर्वात्य देशों में हुई और फिर वह खेल बाद में पाश्चात्य देशों में गया। वात्सायायन के कामसूत्र में मनोरंजन के लिए पशु-पक्षियों की जूझ का उपयोग किस प्रकार से किया जाता था का वर्णन मिलता है। वे बतलाते हैं ः दोपहर भोजन के पश्चात नागरिक तोता-मैना से कानाबाती किया करते थे अथवा लावा (पक्षी), मुर्गों की जूझ, भेडों की टक्कर का आनंद उठाते। पशु-पक्षियों की लडाई पर पैसा लगाकर जुआ भी खेला जाता था। मनु ने जुअॆ के दो प्रकार बतलाए हैं। पहला अचेतन वस्तुओं द्वारा खेला जानेवाला जुआ उसे 'द्यूत" कहते और मुर्गा, भेड आदि की लडाइयों पर शर्त लगाकर खेले जानेवाले जुअॆ को 'समाह्वय" कहा है।(मनुस्मृती, 9-221) याज्ञवल्क्य ने प्राणियों की जूझ को 'प्राणिद्यूत" कहा है। प्राणिद्यूत के दो प्रकार थे - सपणबंध यानी जिस लडाई पर शर्त लगाई जाती थी और पणबंधरहित यानी शर्त न लगाते खेली जानेवाली जूझ।
दूसरों के शौर्य पर अपने मन की बदले की भावना, युद्धपिपासा पूर्ण करने का शौक नवाबकालीन लखनऊ के निवासियों को बहुत था। यह तीन प्रकार का था 1. हिंसक जानवरों और चौपायों को लडवाने का। 2. पक्षियों की जूझ का। और 3. पतंगबाजी का। हिंसक जानवरों को लडवाने का शौक प्राचीन भारत में कहीं नहीं था। हां, रोम में जरुर पहले के जमाने में यह शौक था। वहां मनुष्य और पशुओं को परस्पर अथवा एकदूसरे के विरुद्ध लडवाया जाता था। परंतु, ख्रिश्चनिटी के उदय के पश्चात यह प्रथा बंद हो गई। परंतु, स्पेन और यूरोप के कुछ देशों में अद्याप सांडों की लडाई का खेल परस्पर या कभी-कभी मनुष्य के विरुद्ध लडा जाता है। 

हिंसक जानवरों की लडाई का खेल बादशाह और नवाबों तक ही सीमित था परंतु, पक्षियों की जूझ का खेल तो हरएक अमीर-गरीब के बस का था। लडने के लिए मुर्गा, बटेर को तैयार करने का शौक तो सर्वसामान्य व्यक्ति के लिए भी संभव था। नवाबकालीन लखनऊ में मनोरंजन के लिए मुर्गा, बटेर, तीतर, लावा, गुलदुम, लाल, कबूतर और तोता को लडवाया जाता था। गुलदुम को सामान्यतः सभी लोग बुलबुल समझते हैं। परंतु, यह गलत है। बुलबुल बदख्शां और ईरान का गानेवाला पक्षी है। परंतु, इस पक्षी की दुम के नीचे एक लाल रंग की चित्ती होती है। भारतीय संस्कृति पर गर्व करनेवाले और लखनऊ के ऐश्वर्यशाली व वैभवसंपन्न दीर्घ इतिहास का अंतिम पर्व देखनेवाले मशहूर पत्रकार, उपन्यासकार एवं निबंधकार अब्दुल हलीम 'शरर" ने अपने उपन्यास 'कल का लखनऊ" (नॅशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया) में इन लडाइयों का विस्तार से रसभरा वर्णन किया हुआ है। एक जमाने में लखनऊ की 'कबूतरबाजी" और 'बटेरबाजी" प्रसिद्ध रही है। 

प्राचीनकाल में बाज को सभी पक्षियों का सिरमौर माना जाता था। राजा के हाथ पर बैठने का बहुमान केवल उसे ही हासिल था। बाज को अच्छे शगुनवाला और राजा का मित्र माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि सफेद रंग का बाज निडर, पीले रंग का बाज श्रेष्ठ स्वभाव का और काला बाज बदमाश होता है। सोमेश्वर ने इनकी अनेक जातियों का वर्णन किया हुआ है। बाज को पकडने की पद्धति का वर्णन भी सोमेश्वर ने किया हुआ है। पक्षी विशेषज्ञ बाज को शिकार करने का प्रशिक्षण दिया करते थे। हाथ में कौअॆ को पकडकर उसे बाज को दिखाते थे और फिर उसे 'एहीती" कहकर बुलाते। बाज पास में आकर जैसे ही झपट्टा मारता कि कौअॆ को छोड दिया जाता था। इस प्रकार से कई बार करने पर पक्षी को झपट्टा मारकर पकडने में बाज निपुण हो जाता था। इसी प्रकार से आकाश में उडते पक्षियों पर झपट्टा मारकर पकडने का प्रशिक्षण भी उसे दिया जाता था। 'बाबरनामा" और 'आइन ए अकबरी" में भी बाज का उल्लेख आया है।

जूझ जोरदार हो इसके लिए जूझवाले दिन उसे भूखा रखा जाता था व सोने भी नहीं दिया जाता था जिसके कारण वह क्रोधित  अवस्था में रहता। जूझवाले दिन बाजों को जंगल में ले जाया जाता वहां विभिन्न जातियों के बाजों को राजा विभिन्न पक्षियों के बीच छोड देता। भिन्न-भिन्न पक्षियों से होनेवाली बाजों की लडाइयों का आनंद राजा उठाता। बाज कई पक्षियों को घायल कर मार डालता।  

आज तो पशु-पक्षी प्रेमी इसे निश्चय ही सहन नहीं करेंगे। कई देशों में इस प्रकार के हिंसक खेलों पर प्रतिबंध है। स्मृतिकार मनु ने भी शर्त लगाकर पक्षियों की जूझ पर शर्त लगाकर खेलनेवालों के हाथ तोडने का दंड बतलाया है। बुद्ध के काल में भी मुर्गों को लडवाया जाता था, परंतु बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए 'कुक्कुट युद्ध" निषिद्ध माना है। सम्राट अशोक ने भी अपने राज्य में प्राणि द्यूत पर बंदी लाई थी। निश्चय ही इसके पीछे यही भावना थी कि स्वयं के मनोरंजन के लिए निरीह प्राणियों की होनेवाली यातनाओं पर रोक लगे। यजुर्वेद में भी जीवदया को दृष्टि में रख कहा गया है कि 'प्राणी मात्र को दया की दृष्टि से देखो।"   

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