Saturday, September 13, 2014

हिन्दी दिवस 
निज भाषा हिन्दी

'मैं भारत से उसी प्रकार बंधा हुआ हूं, जिस प्रकार कोई बालक अपनी मां की छाती से चिपटा रहता है। क्योंकि, मैं अनुभव करता हूं कि वह मुझे मेरा आवश्यक आध्यात्मिक पोषण देता है। उसके वातावरण से मुझे अपनी उच्चतम आकांक्षाओं की पुकार का उत्तर मिलता है।" मातृभूमि के प्रति विशुद्ध (संस्कृतनिष्ठ) मातृभाषा हिन्दी में यह वचन और किसी के नहीं तो श्रीमन्‌ मोहनदास करमचंद गांधी के हैं जो उनके अपने पत्र यंग इण्डिया (young india)(6 अप्रैल 1921  April 6th 1921) में प्रकाशित हैं।

 तथापि, इतिहास को यदि 'इति-ह-आस" के रुप में देखा जाए तो कहना होगा कि, हिंदू-मुस्लिम एकता का गांधीजी का आत्यन्तिकता का भाव  इस चरमावस्था पर पहुंच चूका था कि, इस हेतु वे किसी बडे से बडे त्याग और बलिदान के लिए तत्पर हो चूके थे। गांधीजी की इसी दृष्टि ने 'हिन्दी" के स्थान पर 'हिन्दुस्तानी" को प्रतिष्ठित करके छोडा। और जब राजनीति प्रभावित भारतीय जीवन गांधी की आंधी के वशीभूत हुआ तो जैसाकि होता है सावरकरजी के तर्क को कि 'हमारी भारतीय भाषाओं में अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि के जो शब्द हैं, उन्हें ना तो हमने आत्मसात किया है, ना ही उन्हें अपनी भाषाओं में होनेवाले विभाषाओं के वे शब्द हमारी विजय के चिन्ह नहीं तो हमारी देह पर हुए प्रहारों के घाव हैं" को अनसुना कर दिया गया। ऐसे में सत्तर वर्ष पूर्व की वह हिन्दी जिसके वर्तमान रुप को हम नाममात्र के लिए भलेही हिन्दी कहें, पर यथार्थ में वह हिन्दुस्तानी है - हिन्दी, अरबी, फारसी का मिलाजुला रुप है। इतना ही नहीं तो उससे बढ़कर है। 'हिन्दुस्तानी" के रुप में जब मुक्त द्वार की नीति अपनाई गई तो स्वच्छंदियों ने उसमें अंग्रेजी भाषा के शब्द घुसेडने में किसी संकोच का अनुभव नहीं किया और उसी निःसंकोच भाव के फलस्वरुप आज क्या दूरदर्शन, क्या समाचार पत्र और क्या साहित्य सभी में एक संकर भाषा को देख, पढ़, सुनने पर समाज विवश है, फिर जीवन के सामान्य व्यवहार की भाषा का तो कोई प्रश्न ही नहीं। 

बानगी के लिए एक आयोजक के वचन देखिए - 'देवियों और सज्जनों, आज के प्रोग्राम के चीफ गेष्ट मिष्टर .... का भाषण आपने सांति से सुना इसलिए हम आपके तहेदिल से शुक्रगुजार हैं।" अपने इन्हीं भावों को आयोजक इन शब्दों में व्यक्त कर सकते थे - 'देवियों और सज्जनों, आजके कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सम्माननीय....  के विचार आपने शांतिपूर्वक सुने इस हेतु हम आपके ह्रदय से आभारी हैं।" ऐसा करने में किसी भाषा की उपेक्षा, अपमान का कोई प्रश्न ही नहीं। सभी भाषाओं का अपना-अपना क्षेत्र होता है, वहां उनका प्रयोग होना चाहिए। स्पष्ट है कि इस प्रकार यथासंभव शुद्ध भाषा का प्रयोग किसी अन्य समाज या भाषा के विरोध या अपमान के लिए नहीं तो अपनी भाषा पर गर्व के अस्मिता भाव से करने का आग्रह है, दुराग्रह नहीं। 

गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के जो पांच प्रमुख लक्षण बताए हैं उनमें तीसरा लक्षण उस भाषा का अधिकतर लोगों द्वारा प्रयोग। वीर सावरकरजी ने भी हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने के प्रमाण में यही कहा है कि समग्र रुप में हिन्दी भाषा सम्पूर्ण भारत के बहुजन समाज में अन्य किसी भी भाषा से अत्यधिक प्रमाण में बोली जाती है, समझी जाती है और लिखी जाती है। हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने का एक अन्य महत्वपूर्ण तत्त्व यह भी है कि यह किसी विदेशी, विधर्मी, विजातीय, संस्कृति द्वारा हम पर थोपी नहीं गई है अपितु इसी भूमि की प्राचीन सम्पन्न भाषा संस्कृत से इसका उद्‌भव हुआ है। संस्कृत से प्राकृत भाषाओं के उद्‌भव का इतिहास लगभग एक सहस्त्र वर्ष तक पीछे जाता है। वैसे हिन्दी भाषारुपी सरस्वती की सुप्त धारा की शोध की जाए तो कुछ आश्चर्यजनक तथ्य इस प्रकार प्रकट होता है कि जैन और बौद्ध मत के प्रचारक जब इनके उद्‌भवस्थल पूर्वी भारत से ठेठ दक्षिणी भारत पहुंचे तो ईसा की द्वितीय शती से छठी शती के उस काल में जैन बौद्ध मत के मूलतः पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के साहित्य ने उत्तर तथा दक्षिण में भाषा सेतु का महनीय काम किया। उसी प्रकार आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य और मध्वाचार्य जैसे आध्यात्मिक चिन्तकों के देशाटन से भाषाएक्य का सूत्र प्रबल बना। क्या आश्चर्य की शताब्दियों पूर्व दक्षिण की इन महान विभूतियों की विचारधाराओं का निरुपण हिंदी साहित्य में हुआ। 

भारत के लिए एक सम्पर्क भाषा के रुप में अंग्रेजी को अनिवार्य बतानेवालों को यह कौन बतलाए कि उस प्राचीनकाल में दक्षिण द्राविडभाषी जन तीर्थाटन हेतु अविरतरुप से उत्तरी भारत आते थे और तत्कालीन प्राकृत भाषाओं के माध्यम से ही उनका संवाद सम्पर्क निर्बाध रुप से होता रहता था।  यहां तक की मुस्लिम आक्रमण और शासनकाल के आरंभिक दिनों में मुसलमानों ने भी हिन्दी को संपर्क भाषा के रुप में अपनाया। और यह भी इतिहास ही है कि इन्हीं मुस्लिम आक्रांताओं के साथ हिन्दी तब दक्षिणी हिन्दवी, खडी बोली के रुप में दक्षिण में भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनी। 

भारत की एक राष्ट्रीयता की धारणा के अनुसार ही एक राष्ट्रभाषा की भावना भी समय के साथ स्पष्ट हुई। राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय आदि ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने की भावना को सर्वप्रथम अभिव्यक्ति देकर मानो इस पुनीत घोषणा करने का सम्मान बंगाल को प्राप्त करा दिया। 1905 में नागरी प्रचारिणी भाषा सभा काशी के तत्वाधान में आयोजित सम्मेलन में लोकमान्य तिलक ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि घोषित किया। और इस प्रकार इस राष्ट्र की स्वतन्त्रता को प्राप्त करने हेतु चलायमान संघर्ष में मानो एक उमंग भर दी। 1910 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना के साथ ही राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि की प्रतिष्ठापना हेतु संगठित प्रयास आरम्भ हुए।

1918 में गांधीजी की अध्यक्षता में इन्दौर में सम्पन्न हिन्दी साहित्य सम्मेलन के आठवे अधिवेशन के साथ ही दक्षिण भारत में हिन्दी प्रसार यज्ञ का शुभारम्भ हुआ। 1937 में राजगोपालाचारी का अन्तरिम शासन जब तमिलनाडु अर्थात्‌ तत्कालीन मद्रास प्रांत में था तब उन्होंने पूरे प्रांत में माध्यमिक स्तर तक विद्यालयों में हिन्दी को अनिवार्य विषय बना दिया था। इस प्रकार तब राष्ट्रभाषा समझी जानेवाली हिन्दी का रथ अबाध गति से दौड रहा था। दाल में काला उजागर तब हुआ जब देश के स्वतंत्र हो जाने पर संविधान सभा की राष्ट्रभाषा समिति की बैठक में 12 दिसम्बर 1949 को राजभाषा के प्रश्न पर हुए मतदान में हिन्दी के पक्ष-विपक्ष में समान मत आने पर डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के अध्यक्षीय मत से हिन्दी विजयी हो पाई। वैसे 1944 में तमिलनाडु में ई. पी. रामस्वामी नायकर जो मूलतः हिन्दी समर्थक और सेवक थे के द्वारा द्रविड कषगम पार्टी का गठन और उसके तत्वाधान में 'रेस्पेक्ट मूवमेंट" चलाकर पहली बार हिन्दी विरोध का शंखनाद किया। इस हिन्दी विरोध के पीछे नायकर का तर्क यह था कि हिन्दी के प्रबल होने से दक्षिण पर ब्राह्मणों और उत्तर भारतीयों का शासन हो जाएगा। सी. एन. अन्नादुराई ने तो हिन्दी विरोध को ही प्रमुख प्रश्न बनाते हुए द्रविड कषगम से अलग द्रविड मुनेत्र कषगम की स्थापना की थी और दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु में हिन्दी विरोध प्रबलतम हो गया था। फिर भी संविधान समिति में जो स्थिति उजागर हुई थी वह अकल्पनीय थी।

हमारे संविधान के भाग 17 अनुच्छेद 343 में हिन्दी को राजभाषा मानते हुए यह निश्चय किया गया कि हर पांच वर्ष में एक-एक आयोग इस तरह तीन आयोग बनाकर 1965 तक हिन्दी और अंग्रेजी का समानान्तर स्वरुप चलाते हुए उस वर्ष अंग्रेजी को बिदा किया जाए। पर लगता है सहेतुक रुप से ढ़ील दी गई और 1963 में एक नवीन राजभाषा विधेयक के माध्यम से यह निर्णय किया गया कि जब तक हिन्दी अंग्रेजी का स्थान लेने में सक्षम नहीं हो जाती अंग्रेजी चलती रहेगी और 1967 में राजभाषा विधेयक में एक संशोधन के द्वारा यह प्रावधान कर दिया गया कि जब तक एक भी अहिन्दी भाषा राज्य चाहेगा संघ शासन का कार्य अंग्रेजी से चलता रहेगा। इस प्रकार जनतन्त्र की घुमावदार गलियों में हिन्दी को घुमाफिराकर लगता है मूलस्थान पर पहुंचाने की चेष्टाएं चल रही हैं। हिन्दी के साथ इस तरह का खिलवाड राजनीति द्वारा किया जा रहा है तो उधर हिंदी सेवी कहलानेवाले अपना सम्मान करवाने तथा अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियां बताने में लगे रहे और हिन्दी के प्रति अपना दायित्व नहीं निभाया। परिणामतः एक समय बना हिन्दी का माहौल जाता रहा और नवीन पीढ़ियां स्वार्थवश अंगे्रजी की ओर पग बढ़ा रही हैं। अपनी रानी बिटिया को गुलाब को पिंकी, गुडिया को डॉली, सोनिया को गोल्डी बनाकर स्वयं मम्मी-पापा बना रही है।

कहना अनावश्यक है कि राष्ट्रभाषा कहलाए जानेवाली हिन्दी के संबंध में अनेक प्रमाण जो हम विस्तारभयावश दे नहीं रहे हैं यह सिद्ध करते हैं कि स्थिति चिंताजनक और चिंतनीय है। परंतु, स्थिति चिंताजनक है कहकर मुंह लटका कर बैठने हताश होने से कोई सुधार सम्भव नहीं और जो कुछ सम्मुख है उसे कोसने से समस्या का समाधान तो निकलनेवाला है नहीं। समस्या का समाधान तो यही है कि निज भाषा हिन्दी की उन्नति और उत्थान के लिए यथार्थ में राष्ट्रभाषा में रुप में हिन्दी को सम्मानित स्थान दिलवाने के लिए नए सिरे से कार्य प्रारम्भ किया जाए। 'गतं न शोच्य" की भावना से एक नई पट्टी पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा की गरिमा प्रदान करने का श्रीगणेश करें।

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