Sunday, September 7, 2014

हिन्दुत्व का अहं - विनायक दा. सावरकर

'हिन्दू" और 'हिन्दुस्थान" ये शब्द विदेशी ना होकर हमारे अपने ही हैं। उनका प्रयोग करने में किसी प्रकार की हीनता नहीं है। मनुष्य की शक्ति का मूल उसके अहं की प्रतीती मेें है। मनुष्य का एक हाथ टूट गया, उंगलियां टूटी जख्म हुआ, खून बहा तो भी जब तक उसका अहं है तब तक उस मनुष्य का स्वतंत्र अस्तित्व रहता ही है। मनुष्य के राम कृष्ण जैसे सार्थक और टुंडा, मंटू जैसे निरर्थक नाम बदले भी जा सकते हैं, किंतु उसका अहं नहीं बदला जा सकता। उसकी सही-सही स्थिति अपरिवर्तनीय है तथा उसके जीवन से पूरी तरह से जुडा हुआ उसका नाम उसका अहं ही है। अहं के समाप्त होते ही वह मनुष्य समाप्त हो जाता है।

हमारे देश को और राष्ट्र को ऋगवेद काल से हम सप्त सिन्धु या सिन्धु अभिधान लगाया करते हैं। इस बात के लिए बाहरी प्रमाण भी अत्यंत निर्विवाद रुप से उपलब्ध हैं। जिंद-अवेस्ता पारसीक आर्यों का धर्मग्रन्थ है। इसके समय को सातवीं शती के इस ओर नहीं खींचा जा सकता है। उस ग्रंथ में भी हमारे राष्ट्र को हप्त-हिन्दवः ही कहा गया है। हप्त हिन्दु या हिन्दु ये शब्द सप्त सिन्धु या सिन्धु आदि नामों का ही पारसी उच्चारण है। पारसीयों के 'दसा तीर" नामक धर्मग्रन्थ के एक विभाग में निम्नलिखित वाक्य हैं - 

'अकन विहरमने व्यास अज-हिन्द आनद बसदाना के अकल चुनानस्त" (जरथुस्त्र की 65वीं आयत) अर्थ-व्यास नाम से एक ब्राह्मण पंडित हिन्द से आए। उन जैसा विद्वान बिरला ही है।

अरब देश में मुहम्मद पैगम्बर का जन्म होने के एक हजार वर्ष पूर्व शिव पूजा प्रचलित थी। मुहम्मद के समय तक भी कहीं-कहीं चलती रही है। मुहम्मद पूर्व उस एक हजार वर्ष के संधिकाल में रची हुई कविता आज उपलब्ध है। उसमें हमारे देश का नाम हिन्द और हमारे समाज का हिन्दू नाम ही उल्लिखित है। वह किसी बुरे अर्थ में नहीं अपितु एक विशेष नाम के रुप में ससम्मान प्रयुक्त किया गया है। उदाहरण के लिए लबीबीने अरब तकबीने तुर्का, इस दो हजार वर्ष पूर्व के, जब मुसलमान धर्म का अता पता तक नहीं था, अरबी कवि की निम्नलिखित पंक्तिया देखिए - 

अया मबारक अर्जे यो शैयेनतेता मिनल हिन्दे। वा अरा वक्कला हो मंइओ नज्जेला जिक्रनुन।।

उस कविता के अन्य चरणों में हिन्द, हिन्दू इन शब्दों का ही नहीं अपितु वेद, ऋक्‌ यजुर, अथर्व इनका भी स्पष्ट उल्लेख है। यह उदाहरण पैगम्बर पूर्व एक हजार वर्ष का है। पच्चीस सौ वर्ष पूर्व प्राचीन बाबोलिनियन समाज में प्राकृत हिन्दू रुप ही नहीं तो हमारे राष्ट्र और देश का मूल संस्कृत सिन्धु नाम उसी शुद्ध रुप में ही प्रचलित था। हमारे देश का अत्यन्त महीन कपडा जो उस देश में जाया करता था, उसे वे लोग सिन्धु ही कहा करते थे। प्राचीन ग्रीक समाज में भी होमर के समय से हमारे देश की तथा यहां के कला एवं कुशलता की पूर्ण प्रसिद्धि थी।

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