Saturday, January 7, 2012

विचारों के आदान -प्रदान का एक प्रभावी माध्यम इंटरनेट

लंदन का हाईड पार्क वहां वर्षभर होने वाले अनेकानेक असाधारण बडे सार्वजनिक आयोजनों के लिए प्रसिद्ध है। इस पार्क की एक विशेषता और भी है और वह यह कि वहां एक स्थान ऐसा भी है जहां एक बेंच पर खडे होकर कोई भी व्यक्ति अपने विचार मुक्त रुप से रख सकता है और विशेषता यह है कि उसे श्रोता भी मिल जाते हैं। वर्तमान में लोकप्रिय फेसबुक, आरकुट, ट्‌विट्‌र जैसी सोशल साइट्‌स भी कुछ इसी प्रकार के मंच जैसा कार्य कर रही हैं। निश्चय ही ये साइट्‌स मुक्त एवं स्वतंत्र विचारों के आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरी हैं और करोडों-अरबों लोग इन साइट्‌स का लाभ अनेकानेक ढ़ंग से उठा भी रहे हैं। उनमें टाइमपास करने, व्यवासायिक लाभ उठाने आदि से लेकर ज्ञान आदान-प्रदान करने जैसे कार्य भी सम्मिलित हैं।

ज्ञान की महिमा को तो सभी धर्मों ने स्वीकारा है। गीता में कहा गया है - ना हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिहविद्यते। अर्थात्‌ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निस्संदेह कुछ भी नहीं है। ""ज्ञानदेव तु कैवल्यम्‌। ज्ञान के कारण ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।'' भगवान राम युद्ध में पराजित और मरणासन्न रावण के पास अपने लघु भ्राता लक्ष्मण को ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजते हैं। योग वसिष्ठ में महर्षि वसिष्ठ भगवान राम को कहते हैं - ज्ञानवान्‌ एव सुखवान्‌, ज्ञानवान्‌ एव जीवति। ज्ञानवान्‌ एव बलवान्‌, तस्मात्‌ ज्ञानमयो भव।।

ज्ञान और विचारों के मुक्त आदान-प्रदान की, अभिव्यक्ति की, अपने-अपने विचारों को मानने की स्वतंत्रता तो हमारे यहां प्राचीनकाल से ही है। निराकार के पूजक सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानकदेवजी के सुपुत्र श्रीचंदजी साकार के पूजक निकले और प्रसिद्ध उदासीन आश्रम की स्थापना की। महांकाल की पेढ़ी पर बैठक चार्वाक घोषणा करते हैं - यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्‌ ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। उन्हें भी हम ऋषि परंपरा में गिनते हैं और उन्हें भी भक्त प्राप्त हैं तथा उनके विचारों को चार्वाक या लोकायत दर्शन माना जाता है। आद्य शंकराचार्य अद्वैत पर भाष्य करते हैं और मूर्तिपूजकों के लिए मंत्रो की रचना भी करते हैं।

महाराष्ट्र में भी लगभग 138 वर्षों की परंपरावाली वसंत व्याख्यानमाला का आयोजन हर वर्ष होता है। जिसका शुभारंभ प्रसिद्ध समाज सुधारक न्यायाधीश महादेव गोविंद रानडेजी द्वारा किया गया था। जिसे बाद में लोकमान्य तिलकजी ने आगे बढ़ाया। यह व्याख्यानमाला आरंभ करने के पीछे विचार यह था कि विविध प्रकार के व्याख्यान, विविध विषयों पर आयोजित किए जाएं, क्योंकि उस समय समाचार पत्र सरलता से उपलब्ध नहीं होते थे। और यह व्याख्यानमाला ज्ञान प्रदान करने का माध्यम बन सके। अब यह व्याख्यानमाला फेसबुक  और ट्‌विट्‌र पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चूकी है।

इस प्रकार से विविधता को स्वीकारने और ज्ञान की परंपरा को माननेवाले हम हिंदुस्थानी यदि फेसबुक आदि जैसी सोशल साइट्‌स से बडी संख्या में न जुडते तो ही आश्चर्य होता। परंतु, इस लाभदायी उपक्रम को कुछ लोगो ने अश्लीलता, असभ्यता-अभद्रता, अशालीनता फैलाने का माध्यम बना दिया है। जिस प्रकार से अभद्र, अशालीन टिप्पणियां, अश्लील फोटो फेसबुक पर चस्पा किए जा रहे हैं या कुछ लोगों द्वारा दूसरों के अकाउंट को हैक कर अश्लील व्हिडीओ आदि सामग्रियां लोड की जा रही हैं यह निश्चय ही चिंतनीय एवं आपत्तिजनक, अवैधानिक, स्वतंत्रता का दुरुपयोग करना ही है। इस प्रकार के कृत्यों पर कुछ लोग प्रतिबंध लगाने की बातें कर रहे हैं तो कुछ लोग इसे स्वतंत्रता का हनन समझकर विरोध प्रकट कर रहे हैं। इस संबंध में चिंतक सावरकरजी की यह टिप्पणियां विचारणीय हैं -

1). किसी व्यक्ति का अथवा समाज की केवल मानहानि, केवल उपमर्द या केवल हानि करने की दुष्ट बुद्धि से घृणित या असभ्य भाषा में जो लिखा जाए वही वाड्‌मय ही अनैर्बंधिक (गैर-कानूनी) या अप्रसिद्धेय समझा जाना चाहिए।

 2). ... सत्य जिज्ञासा से या तथ्य प्रतिपादन के उद्देश्य से जिस मत की प्रस्थापना कोई करना चाहता है उसे जहां तक संभव हो सके प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। लेखन अथवा उपदेश की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसके कारण पवित्रता का विडंबन हो रहा है ऐसा किसी को लगता हो तो उसका यह मत गलत है ऐसा विरुद्ध पक्ष द्वारा साधार प्रतिपादन किया जाना चाहिए; यानी उसके विडंबन की अप्रतिष्ठा हुए बगैर रहेगी नहीं। उसका कहना सत्य अथवा तथ्य ठहरा तो अपन ने भलती ही बात को असत्य अथवा अतथ्य बात को पवित्रता दी थी यह अपने ध्यान में आएगा। सत्य की ओर तथा तथ्य की ओर मनुष्य की  अधिक प्रगति होगी।

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