Monday, January 19, 2015

प्राचीन भारत में गणिका

प्राचीनकाल में गणिका का स्थान एवं अर्थ जिस संदर्भ में आज की वेश्या का लिया जाता है कि तरह हेय नहीं था। उस काल में समाज में आज की तरह न तो रुढ़ियां व्याप्त थी ना ही वह इतना यौन पीडित था। वास्तव में गणिका उस परंपरा की स्मृति है जब समाज में सामूहिक अथवा गण विवाह हुआ करते थे। बाद में ऐसा काल आया जब सामूहिक विवाह के स्थान पर व्यक्तिगत विवाह प्रचलित हुए। जो स्त्री पहले पूर्ण सामाजिक सम्मान के साथ जीवन-यापन करती थी वह अब विवाहिता की अपेक्षा निचले स्तर पर आ गई। परंतु, वेश्या फिर भी ना हुई। अब वह संगीत की त्रिविध कलाओं का केंद्र बनी तथा सभ्यता के नियम सीखने के लिए धनवान लोग अपने बच्चों को उनके पास भेजा करते थे। इस प्रकार से वह समाज में सम्मान की पात्रा बनी रही। 

महाकवि शूद्रक के 'मृच्छकटिकम्‌" में तत्कालीन गणिकाओं की स्थिति का विस्तृत ज्ञान मिलता है। महाकवि के इस नाटक में प्रत्येक बात को प्रामाणिक रुप में प्रस्तुत किया गया है। गणराज्यों में गणिकाएं संपूर्ण राज्य की संपत्ति मानी जाती थी। गणराज्यों के ह्यास होने पर गणिकाओं एवं वेश्याओं भेद जाता रहा। मेधातिथि ने गणिका एवं वेश्या के भेद को स्पष्ट किया है। वेश्या केवल रुपजीवा व तनविक्रय वाली होती है जबकि गणिका कलावती स्त्री को कहा गया है। गणिका का दर्जा वारांगना से श्रेष्ठ है।

प्राचीन यात्री अलबेरुनी ने लिखा है कि गणिकाओं को वास्तव में राजाओं ने प्रोत्साहित किया, यदि ऐसा न होता तो कोई भी ब्राह्मण अथवा पुरोहित अपने मंंदिरों में गणिकाओं को सहन नहीं करता, जो नाचती-गाती, क्रीडा करती हैं। वास्तव में राजा अपनी शारीरिक,आर्थिक, राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए इन गणिकाओं को आकर्षण एवं प्रजा के आनंद का साधन बनाते हैं। इसके अतिरिक्त गणिकाओं का उपयोग अपने अविवाहित सैनिकों की कामुकता से प्रजा की रक्षा करना भी था। 

चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में गणिकाओं की स्थिति सुदृढ़ थी तथा उन्हें गुप्तचर विभाग में सम्मानजनक पद प्राप्त थे। इस काल में वे भारतीय दरबारों व नगरों का आकर्षण हुआ करती थी तथा विशेष रुप से राजपरिवारों, धनी व्यापारियों का मनोरंजन किया करती थी। उन्हें समाज में हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। वे सभी कलाआ में पारंगत हुआ करती थी। उन्हें संसद तक में उच्च स्थान प्राप्त था। गणिकाओं के यहां सभी का प्रवेश तक संभव नहीं था। शासक एवं कुलीन व्यक्तियों से भी वे अधिक सम्मानित थी।

कथा सरितसागर में उदारचरित तथा सदाचारी गणिकाओं की तुलना महारानियों तथा अन्य कुलीन नारियों से की गई है। अपने श्रेष्ठ गुणोें व चरित्र के कारण अनेक गणिकाओं ने तत्कालीन समाज में उच्च स्थान प्राप्त किया उनमें से कुछ हैं 'मृच्छकटिकम्‌" की नायिका 'वसंतसेना" जिसका उल्लेख नाटककार ने बडे आदर से किया है। उस पर 'उत्सव" नामकी एक फिल्म भी बनी है। वैशाली की नगरवधू 'आम्रपाली" जिसने मातृभूमि  के लिए सम्राट अजातशत्रु के प्रेम को ठुकरा दिया था। इस पर भी 'आम्रपाली" नामकी फिल्म बनी है। भगवान तथागत ने भी उसे 'आर्यअंबा" कहकर संबोधित किया था तथा उसका आतिथ्य ग्रहण किया था।

प्राचीनकाल में गणिका होना कितना कठिन कार्य था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनका चौंसठ कलाओं में परिपूर्ण होना आवश्यक था। उदाहरणार्थः उनका नृत्य, गीत-संगीत, चित्रकला, अभिनय के साथ-साथ पाककला में निपुणता, व्याकरण, तर्कशास्त्र, ज्योतिष विद्या, द्यूतकला, श्रृंगारकला, युद्धकला, घुडसवारी, भेष बदलने की कला आदि में पारंगत होना आवश्यक था। उस समय की गणिकाओं में रुपजाल में फांसने एवं चाटुकारिता के गुण आवश्यक माने जाते थे और संभवतः इन्हीं तमाम गुणों के कारण उन्हें गुप्तचरी के कार्य में लगाया जाता था इन्हीं में से कुछ सुंदर वेश्याओं को विषकन्या बनाकर शत्रु के खेमे में भेजा जाता था।

समसामयिक आवश्यकतानुसार इस कर्म अथवा परंपरा को मान्यता मिलती रही परंतु उनके प्रति आम धारणा अच्छी नहीं रही। संभवतः इसीलिए कौटिल्य ने सबसे पहले वेश्याओं को लाइसेंस देने की बात कही थी। अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने लिखा है कि 'गणिकाध्यक्ष" की नियुक्ति कर गणिकाओं की आमदनी और खर्च को नियंत्रित किया जाए। 'तारीख-ए-फरिश्ता" से पता चलता है कि एक बार एक दरबारी ने अलाउद्दीन से शिकायत की थी दिल्ली के बाजार में वेश्याएं ग्राहकों से मनमानी रकम ऐंठती हैं इस पर बादशाह ने शुल्कराशि तय कर दी शायद इसी समय से वेश्याओं के पंजीकरण की परिपाटी का प्रारंभ हुआ।

आज परिस्थितियां जरुर कुछ बदल गई हैं फिर भी वेश्याएं मौजूद ही हैं बल्कि उनकी तादाद कई गुना बढ़ी ही है। वेश्यावृत्ति का रुप भी निश्चित रुप से विकृत हो गया है जो समाज के ही विकृत रुप की अभिव्यक्ति है और ऐसा लगता है कि जब तक यह पितृसत्तात्मक समाज रहेगा तब तक यह वेश्यावृत्ति भी किसी ना किसी रुप में रहेगी ही।

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