Saturday, January 31, 2015

30 जनवरी हुतात्मा दिवस - 
गांधीयुग का आदर्श सेवामयी जीवनव्रती - 
अप्पा पटवर्धन उर्फ कोंकण का गांधी

आज जब चारों ओर स्वच्छता और शौचालयों पर चर्चा बडे जोर शोर से चल रही है ऐसे समय में महान कर्मयोगी अप्पा पटवर्धन (सीताराम पुरुषोत्तम पटवर्धन) जो गांधीजी के असहकार युग के पहले ही उनके सत्याग्रह आश्रम में दाखिल हो गए थे। जिनकी मूलभूत प्रेरणा थी - मातृभक्ति, ब्रह्मचर्य, दलित सेवा। उनका गोपूरी का प्रयोग बडा प्रसिद्ध हुआ था। जिसके बाद वे विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से भी जुडे के आत्म चरित्र को जो स्वच्छता विषय से जुडा है, प्रस्तुत करना अत्यंत समयानुकूल समझ उसे संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूं। उनकी 'जीवन यात्रा" के महत्व को बतलाने की आवश्यकता इसलिए महसूस होती है क्योंकि, अप्पा पटवर्धन उन 8-10 दस लोगों में से एक थे जिन्होंने गांधी कार्य को उत्तम रीति से समझ अपना जीवन उसके लिए अर्पित करना तय किया था। उनके बारे में विनोबा भावे हमेशा कहते थे - 'एक अप्पा, बाकी गप्पा।" (काम करनेवाला एक ही है अप्पा बाकी सब गपोडे)

उनके लिखे इस आत्मचरित्र में अत्यंत उच्च प्रति की प्रामाणिकता सर्वत्र मिलती है। इसकी साक्ष यह पक्तियां हैं ः 'गांधी और अप्पा पटवर्धन में फर्क बतलाते हुए वे कहते हैं ः जो बात उचित और आवश्यक है इसलिए बुद्धि सहमत हुई वह लोगों की निंदा-स्तुती की परवाह ना करते तत्काल अमल में लाना यह गांधीजी एक दिन में कर दिखाते थे और वही करने में मुझे कई वर्ष लगे और अंत में करने लगा वह भी गांधीजी के आश्रम के आश्रय से (वे सार्वजनिक अप्पा गांधीजी के सत्याग्रह आश्रम में ही बने) और बाद में कर्तव्य विस्मृति दूर हुई, जागृति आई वह रस्किन को पढ़ने से।" जॉन रस्किन की 'अंटु दिस लास्ट" भारत में 'सर्वोदय" के नाम से प्रसृत हुई। जिसे गांधीजी ने रेल यात्रा के दौरान पढ़ा था और उसका परिणाम वे बॅरिस्टर गांधी से किसान गांधी बन गए। फिर वे क्रमशः चमार, हरिजन और बुनकर भी बने। 

संडास शब्द से उनका परिचय सबसे पहले 1904 में तब हुआ जब वे पहली बार रत्नागिरी नगर मिडल स्कूल स्कॉलर्शिप की परीक्षा के लिए आए थे। उन्हीं के शब्दों मेें ः 'रत्नागिरी शहर का वैभव देखकर मैं चकित हो गया परंतु, जब दूसरे दिन मैं संडास में गया वह प्रसंग मैं जीवनभर नहीं भूल नहीं सकता। संडास की बदबू इतनी असह्य थी कि वहां एक मिनिट भर सांस रोक कर बैठना तक दुश्वार हो गया। इस कारण कई वर्षों तक मैं संडास में ही नहीं गया। खुले में शौच के लिए जाता था। बरसात के दिनों में धान के खेत की मुंडेर पर बैठना पडता था जिस पर मुझे बडा अफसोस होता था। वे आगे कहते हैं स्वच्छ संडास मेरी एक जीवन विषयक आवश्यकता है। (वर्तमान में भी यही परिस्थिति कई स्थानों पर बडी सहजता से दिख जाएगी) 

स्पूतनिक की नीति शौचालयों के संबंध में जागरुकता आए के तहत मैंने सबसे पहला लेख 'स्पूतनिक" में 31 दिसंबर से 6 जनवरी 2013 के अंक में लिखा था जिसमें मैंने लिखा था कि 'आपको आश्चर्य होगा कि 20 शताब्दी के आरंभ तक हमारे नेताओं को शौचालय भी कोई समस्या है इसका भान तक न था। यह एक समस्या है इस ओर सबसे पहले यदि किसीने ध्यान आकर्षित किया तो वह थे गांधीजी। गांधीजी कांग्रेस के हर अधिवेशन में सबसे पहले शौचालयों की व्यवस्था की ओर ही ध्यान देते थे कि पानी आदि की समुचित व्यवस्था है कि नहीं!"

यह वाक्य कितना सटिक था इसका पता अप्पा के 'मेरी जीवन यात्रा" इस आत्मचरित्र से भी पता चलता है। वे लिखते हैं ः 'खादी संघ की सभा के लिए अगस्त 1925 में मैं (अहमद) नगर में गया। वहां 'पेशाब करने के लिए कहां जाएं?" पूछने पर सूचना मिली कि छत पर चले जाएं। छत का उपयोग शौच के लिए भी किया जाता है का पता मुझे चला। रत्नागिरी और मुंबई-पुणे के बाहर के महाराष्ट्र का यह मेरा पहला परिचय था।"

उनके द्वारा सार्वजनिक स्वच्छता कार्य अप्रैल 1928 से अचानक प्रारंभ हुआ। कोंकण बालावली के नारायण मंदिर में जहां रामनवमी के उत्सव के वास्ते चार दिन के लिए अनेक गांवों के लोग एकत्रित होते थे, वे चरखे के प्रचार-प्रसार कार्य के लिए गए। धर्मशाला के निकट ही एक तालाब था रात में वे वहां पानी पीने के लिए गए। मंदिर के आसपास पेशाब की बदबू आ रही थी और वही पेशाब का बहाव बहकर तालाब की सीढ़ियों पर आ गया था। (पेशाब के बहाव के इसी प्रकार के नजारे इंदौर के नवलखा बस स्टैंड पर भी देखे जा सकते हैं) सुबह क्या देखते हैं कि तालाब के दूसरे किनारे पर लोग निवृत्त हो रहे हैं और सफाई भी उसी तालाब में कर रहे हैं। उनके पास सामने प्रश्न खडा हो गया 'अब क्या करें? चार दिन कैसे रहेंगे? गांव छोडकर जाएं तो पलायनवाद होगा।" अंत में उत्सव के संचालक से जाकर मिले और उसके सामने उत्सव के दौरान सफाई की योजना रखी। गड्‌ढ़ों के मूत्रालय और कचरे के लिए टोकरियां। संचालक ने सहयोग का आश्वासन दिया और इस प्रकार से उनके सफाई कार्यक्रम की शुरुआत हुई। परिणामस्वरुप उत्सव के दौरान स्वच्छता बनी रही। 

स्थानीय समाचार पत्र में स्वच्छता कार्य की प्रशंसा छपी। उनके स्वच्छता कार्य की दखल सर्व्हंट्‌स ऑफ इंडिया सोसायटी के अधिकारी एन.एम.जोशी ने ली। उन्होंने कहा 'तुम्हारे गांधीवाद से मैं सहमत नहीं हूं तो भी तुम्हारी ग्राम सेवा अमूल्य है। हमारी सोशल सर्विस लीग के पास फ्लारेंस नाइटेंगल व्हिलेज सेनिटेशन फंड है उससे हम सहायता मंजूर करेंगे।" अप्पा ने गड्‌ढ़ोंवाले शौचालयों के प्रचार की कल्पना उनके सामने रखी। इसके लिए रु. 150 मंजूर कर अप्पा को भिजवा दिए। अप्पा ने गड्‌ढ़े, झांप, तट्टे, टाट, आदि सामग्री के शौचालय निर्मित कर उसे किसान का शौचालय नाम दिया। सावंतवाडी म्युनसिपालटी ने भी इन्हें मंजूरी प्रदान कर दी। इन शौचालयों की तारीफ हुई।

1928 से उनके द्वारा संडास-मूत्रालय-स्वच्छता बाबद अनेक उपक्रम, प्रचार, प्रयोग और सत्याग्रह किए गए थे। 1946 में वे हरिजन मुक्ति कार्य की ओर अग्रसर हुए। इसका पहला प्रयोग कणकवली में किया। इसका कारण यह था कि कणकवली गांव की सार्वजनिक सफाई बाबद की स्थिति अत्यंत ही दयनीय थी। कणकवली के तिराहे पर ही गाडियां रुका करती थी और जहां बाजार, पोस्ट-ऑफिस, स्कूल आदि होने के कारण बडी भीड रहा करती थी। वहीं आसपास लोग पेशाब किया करते और निकट की झाडियों में निवृत्त भी हो लिया करते थे। यह सब वह मुंबई-गोवा हायवे बन जाने के बावजूद बदस्तूर जारी था। इस कारण बरसात के दिनों में वहां दुर्गंध व्याप्त रहती थी। अप्पा कहते हैं 'मुझे स्वयं को पेशाब के लिए बार-बार जाना पडता था इस कारण छोटे शहरों और गांवों में जहां सार्वजनिक मूत्रालय नहीं होते वहां पेशाब जाने में कठिनाई महसूस होती थी।" (आज भी परिस्थितियां कुछ विशेष बदली नहीं हैं) कणकवली का रहवासी होने के कारण मैं स्वयं को बडा शर्मिंदा महसूस किया करता था।

देश की स्वतंत्रता निकट ही थी और अब जेल जाने के प्रसंग आनेवाले नहीं थे। स्वतंत्र भारत स्वच्छ भारत होना चाहिए इस दृष्टि से कुछ प्रयत्न करना चाहिए यह सोच 'स्वच्छ कणकवली" की योजना हाथ में ली। 1946 मई में कणकवली में जगह-जगह पर  सार्वजनिक शौचालय और विशेष स्थानों एवं स्कूलों में मूत्रालय आरंभ करने, रास्ते साफ करने और जगह-जगह पर के कचरे के ढ़ेरों को साफ करना आदि कार्यक्रम हाथ में लिए। गांधीजी के आश्रम पद्धति के दो-दो बालटियों के संडास खडे किए। बालटियों के स्थान पर कुम्हार से बडे-बडे कुंडे बनवाकर उनमें डामर पोता। गांव के सरपंच की सलाह पर बस स्टैंड पर तीन-चार स्थानों पर संडास बनाए। कुंंडों में सागवान के पत्ते बिछाए और मल ढ़ांकने के लिए एक डिब्बे में राख रखी गई। मल ढ़ोेने के लिए कांवर की व्यवस्था की। पूरी बरसात यह काम बडे उत्साहपूर्वक चला। स्वयं अप्पा ने पेशाब से भरे कांवर उठाए। यह मानवता के अनंतर  स्वच्छता की दृष्टि थी और मलमूत्र उत्कृष्ट खाद बनाकर उससे अन्न उत्पादन बढ़े।

उन्होेंने जो गोपूरी की कल्पना प्रस्तुत की थी जिसके कारण उन्हें बडी प्रसिद्धि मिली थी उसके पीछे यह त्रिविध घोषणा थी - 1. हरिजन मुक्ति आंदोलन - प्रबलता से चलाओ। 2. स्वच्छ भारत आंदोलन - सफल करो। 3. अन्न समृद्धि आंदोलन - पूरा करो। उनका हरिजन मुक्ति आंदोलन संडास-मूत्रालयों तक ही सीमित नहीं था। मृत पशु विच्छेदन (मरे हुए जानवर का चमडा निकालना) और शव साधना (मृत देह का परिपूर्ण उपयोग करना)। यह हरिजन मुक्ति आंदोलन के अंग ही थे। गोपूरी में गांधी निधी, हरिजन सेवक संघ के कार्यकर्ता सफाई की 'ट्रेनिंग" लेने के लिए आया करते थे। गोपूरी संडास की रचना सीखने के लिए भी आया करते थे। गांधी निधी से उन्होंने कई ग्राम पंचायतों को मैला गैस प्लांट बनाकर दिए।

अप्पा पटवर्धन कहते हैं इस तरह से मैं भारत विख्यात सफाई-नेता बन गया और इन सब को मात दे दी विनोबा भावे ने। आगे वे कहते हैं ः इंदौर के लोगों को विनोबाजी के प्रति भक्तिभाव और आकर्षण अद्‌भुत था। इंदौर के प्रमुख नागरिकों ने विनोबाजी से भेंट कर पूछा ः 'हमसे आप किस-किस चीज की अपेक्षा करते हैं?" विनोबाजी ने कहा- इंदौर नगरी साफसुथरी हो, इसके लिए तुम अप्पा को बुला लो। तत्काल उज्जैन के सांसद पुस्तके और दादाभाई नाईक ने शीघ्रता से इंदौर आने के बारे में पत्र लिखा।

इंदौर आने के पिछे मेरा उद्देश्य 'सफाई यज्ञ" का जोरदार प्रचार करना था साथ ही अपनी नगर दान की कल्पना से विनोबाजी को सहमत करना भी था। विनोबाजी की प्रेरणा से इंदौर के नागरिक स्वयं सफाई का अथवा सफाई-यज्ञ का व्रत बडी संख्या में स्वीकारें यह भी था। परंतु, इन दोनो ही उद्देश्यों में से मेरा कोई सा भी उद्देश्य सफल नहीं हुआ। फिर भी मेरे और विनोबाजी के इंदौर छोडने के बाद भी स्वयं सफाई का कार्य कुछ समय तक चलता रहा। परंतु, इंदौर में रहने के कारण मुझे सफाई कार्यकर्ता के रुप में अखिल भारतीय प्रसिद्धि जरुर मिल गई। बाद में मैंने जीवन निष्ठा के रुप में हरिजन मुक्ति स्वयं तक की सीमित शुरु रखी। विनोबाजी की तर्ज पर अखंड और अनन्य भाव से घूमते रहना तय किया तथा जिस जगह मुकाम करता वहां स्वच्छता कार्य के शिविर आयोजित करता। 

अप्पा ने सफाई करनेवाले को कम से कम घिन आए और घर के लोगों को उपयोग में लाने के लिए पूरी तरह से स्वच्छ, सस्ता और आसान कहीं भी फिट कर सकें, ले जा सकें ऐसा संडास 'कुटुंब कमोड" प्रस्तुत किया। जिसे मुंबई राज्य कल्याण विभाग ने मान्य कर 50 प्रतिशत सहायता मंजूर की। उन्होंने अंबर चरखा सीखने आनेवालों युवाओं को सफाई काम के लिए तैयार किया। और इस प्रकार से 'स्वर्ण हरिजन वर्ग" या 'नव हरिजन संप्रदाय" तैयार हुआ। लेकिन विघ्न संतोषियों ने युवकों को विचलित करना शुरु कर दिया। उन युवकों के विवाह में भी बाधाएं आने लगी। अंततः अप्पा ने हरिजन मुक्ति कार्य को दोयम स्थान देना तय कर हरिजन मुक्ति कार्य का संयोजक पद छोड दिया।

 हरिजन मुक्ति कार्य के दो पहलू थे। पहला और मुख्य- हरिजनों का घिन आनेवाला काम भी अपन स्वयं करें ः घिन आनेवाला होने पर भी करना ऐसा नहीं वरन्‌ घिनवाला है इसलिए दूसरे को न सौंपते अपना अपन ही करें यह मानवी प्रेरणा। दूसरा, उस काम का घिनौनापन जितना संभव हो सके उतना कम करने के लिए संडास के आसान नमूने और सफाई के आसान उपकरणों का प्रबंध करना। इन उपकरणों में आसान कांवर, मैला ढ़ोने के लिए हाथ गाडियां, ऊंचे जूते, रबर के हाथमौजे और विभिन्न औजार आते हैं। अप्पा को अनुभव यह आया कि हरिजन मुक्ति का दूसरा पहलू जो तांत्रिक पक्ष है वह तो सर्वसाधारण कार्यकर्ता को समझ में आ जाता है, सहमत हो जाता है, कर भी सकता है और उसीका बोलबाला होता है। परंतु, मुख्य प्रेरणा बडी आसानी से नजरअंदाज कर दी जाती है।

वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी के आवाहन पर सफाई करने के लिए भाजपा के सभी छोटे-बडे नेता जुट रहे हैं, सेलेब्रिटिज भी जुड रही हैं परंतु, सफाई के नाम पर केवल दिखावा एवं फोटो सेशन हो रहे हैं। 14 नवंबर से 19 नवंबर 2014 तक जो सफाई अभियान चला उस विशेष स्वच्छता अभियान पर केंद्र सरकार स्वयं नजर रखनेवाली थी एवं राज्यों में होेने वाले विशेष अभियान के साक्ष्य भी मांगे जानेवाले थे। परंतु, नतीजा शून्य ही निकला सब ओर गंदगी वैसी की वैसी ही फैली पडी रही। 25 दिसंबर को भारत रत्न अटलजी और महामना मालवीयजी के जन्मदिवस पर आयोजित सफाई कार्यक्रम का परिणाम भी यही हुआ। यानी कि यहां भी मुख्य प्रेरणा सफाई आचरण में आए वह स्वयं करें नदारद है।

वास्तव में इस प्रकार के कार्य जो सीधे समाज से जुडे हैं वे सरकारों और राजनीतिक दलों के बूते के होते ही नहीं हैं। यह कार्य तो उन सामाजिक संस्थाओं द्वारा किए जाने चाहिएं जिनका नेटवर्क (अखिल भारतीय) होने के साथ ही जिनके पास समर्पित कार्यकर्ता हों तो अधिक सफलता मिलने की संभावना है। विनोबाजी के भूदान आंदोलन में कांग्रेस कहीं नहीं थी। यह कार्य विनोबाजी ने अपने एवं कार्यकर्ताओं के बलबूते किया था। आज भी यदि उपर्युक्त प्रकार के गैर राजनैतिक सामाजिक संगठन इस स्वच्छता अभियान को हाथ में लें तो सफलता मिल सकती है। गांधीजी का सपना स्वच्छ भारत साकार हो सकता है। अंत में केवल एक ही बात कहना चाहूंगा कि बिना पर्याप्त पानी के स्वच्छता हो नहीं सकती और हिंदुस्थान में पानी के क्या हाल हैं यह जगजाहिर है। 

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