Tuesday, December 9, 2014

गाली पुराण

गालियां क्या है आक्रोश की अभिव्यक्ति का माध्यम। जब कोई किसी पर क्रुद्ध होता है तो उसका यह क्रोध अपशब्द के रुप में प्रकट होता है जो अश्लील होता है यही गाली है। संस्कृत-हिंदी शब्दकोश (आपटे) के अनुसार अश्लीलम्‌ यानी गाली - रचना का एक दोष जिसमें ऐसे शब्द प्रयोग किए जाएं जिनसे श्रोता के मन में शर्म, जुगुप्सा और अमंगल की भावना पैदा हो। उदाहरण के लिए 'साधनं सुमहद्यस्य, मुग्धा कुड्‌मलिताननेन दधती वायुं स्थितिकासा", तथा 'मृदुपवनाविभिन्नो मत्प्रियाया विनाशात्‌" - में साधन, वायु और विनाश शब्द अश्लील हैं और क्रमशः शर्म, जुगुप्सा और अमंगल की भावना पैदा करते हैं- 'साधन" शब्द तो लिंग (पुरुष की जननेन्द्रिय), 'वायु" शब्द अपान (गुदा से निकलनेवाली दुर्गंधयुक्त वायु) तथा 'विनाश" मृत्यु को प्रकट करता है। 

हमारे यहां षड़रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह) दमन का उपदेश है क्योंकि, ये वृत्तियां समाज के लिए हानिकारक हैं। इस दृष्टि से भी गाली बकना, अपशब्दों का प्रयोग, दुर्वचन कहना वर्जित है। गालियां सामनेवाले व्यक्ति के मन पर चोट करती है और कभी-कभी अत्याधिक अपमान की अनुभूति होने पर हत्याएं तक हो जाती हैं। गालियां भी दो प्रकार की होती हैं ः सुसंस्कृत लोगों की गालियां जो थोडी शिष्ट होती हैं। दूसरे में उन लोगों की गालियां होती हैं जिन्हें सुसंस्कृत होने का मौका नहीं मिला। उनकी गालियां ठेठ होती हैं एवं इन लोगों का गालियों का कोष भी बहुत समृद्ध होता है व नई-नई गालियों का ईजाद करने में भी इन लोगों को महारत हासिल होती है।

गालियां बकने को भा.दं.वि. की धारा 294 में दंडनीय माना गया है। मनुसंहिता में नियम बतलाया गया है कि, कोई भी किसी को भी देश, जाति या वृत्ती (कामकाज) पर से गाली देता है तो उसे राजा दो सौ पण से दंडित करे। भाष्यकार मेधातिथि ने उसके उदाहरण भी दिए हुए हैं।

साहित्य संस्कृति का सबसे पुष्ट अंग है तथा संस्कृति संस्कार शब्द से उपजा है, संस्कार अनगढ़ को गढ़ता है, परिष्कृत करता है अर्थात्‌ साहित्य हमें परिष्कृत करने के लिए होता है। जिस प्रकार से साहित्य में भूषण होते हैं उसी प्रकार से दूषण भी होते हैं। गालियों का अक्षरशः वाड्‌मय है परंतु, लगभग लिखित रुप में उपलब्ध न होने के कारण उपेक्षित है। फिर भी संसार में अनेक भाषा वैज्ञानिक संस्थाएं उनका संग्रह करती हैं और इस संबंध में ऊहापोह करनेवाले सामयिक पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित करती हैं। लगभग 35-40 वर्ष पूर्व गालियों का अध्ययन करने के लिए दो रशियन भाषाशास्त्री भारत आए भी थे और उन्होंने अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला था कि पंजाब गालियों में सबसे समृद्ध प्रदेश है। उडीसा के गोपालचंद्र प्रहराज का 'पूर्णचंद्र उडीया भाषाकोश" संकलित करने में महत्वपूर्ण हाथ है। उन्होंने गांव-गांव घूमकर पनघटों पर महिलाओं के बीच होनेवाली कहासुनी को ध्यानपूर्वक सुनकर नए-नए अपशब्दों को दर्ज किया था।

प्राचीनकाल से ही गाली बकना प्रचलित रहा होना चाहिए। सांसारिक कलह ही इनकी जन्मदाता है। भगवत पुराण में तो कलियुग को कलहयुग कहा गया है। पुराण बतलाते हैं कि जुए का अड्डा, मदिरालय, संसार और पशुहत्या का स्थान। यहीं पर सबसे अधिक गालियां पैदा होती हैं। जैसे कविता भावनाओं का उत्कट सहज आविष्कार है वैसे ही गालियों की भावना (अच्छी-बुरी) भी श्रुतीगोचर सहज आविष्कार है। सुवचन व दुर्वचन मनुष्य के मुख में एक ही समय विद्यमान रहते हैं। संतज्ञानेश्वर से लेकर समर्थ रामदास तक की रचनाओं में अपशब्द सहज रुप से आए हुए हैं। संस्कृत के गालीगलौज के उदाहरण भी संस्कृत को शोभा दें उसी स्तर के हैं। संस्कृत भाषा का महासागर उसमें लिखित ग्रंथों के कारण ही उफन रहा है और उसमें आई हुई अशिष्टता जंगल की खुशबू की तरह ही है। 

वर्तमान में हमारे जीवन का ऐसा कौनसा क्षेत्र है जहां अपशब्दों का प्रयोग धडल्ले से जारी ना हो। क्रिकेट के क्षेत्र में आस्ट्रेलिया के खिलाडियों में अपशब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति आम बात है। मुक्केबाजी में तो लंबे समय से गालियां बकना खेल का मानो हिस्सा सा ही रहा है। मुक्केबाजी के दौरान गालियां बकने के लिए विश्वप्रसिद्ध मुक्केबाज मुहम्मदअली (केसियस क्ले) मशहूर थे। टीम अन्ना के आंदोलन में भी अपशब्दों का प्रयोग हो चूका है। आजकल की फिल्मों में गालियां बेछूट दी जा रही हैं। यहां तक की फिल्मों के नाम तक अपशब्दों पर रखे जा रहे हैं, गानों में भी गालियों का प्रयोग धडल्ले से किया जा रहा है। 

उ.प्र. और म.प्र के कुछ क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर औरतें अश्लील गीत गाती हैं जिसमें दुल्हा-दुल्हन को या उनके नाते-रिश्तेदारों को बेहद अश्लील उपमाओं से नवाजा जाता है। महाराष्ट्र के सांगली जिले की खंडाला तहसील के सुखेड और बोरी गांव में हर साल गाली देने का त्यौहार मनाया जाता है जिसमें दोनो गांवों की औरतें नागपंचमी के दूसरे दिन एक दूसरे को गालियां बकती हैं। जिसे ब्रिटिश शासन काल में 1940 में बलपूर्वक बंद करवा दिया गया था। बाद में यह प्रथा फिर से प्रारंभ हो गई थी और शायद वर्तमान में यह बंद है। जयपुर के गालीबाज तो मशहूर रहे हैं जिन्होंने गालियों को समाज सुधार का माध्यम बनाया था।

आजकल साहित्य में भी गालियों का प्रवेश यथार्थवाद के नाम पर हो गया है जो विवाद्य है। परंतु, राजनीति में गालियों के रुप में नई शब्दावली जरुर प्रविष्ट हो गई है। म.प्र. विधानसभा में भी इनका प्रयोग हो चूका है। इस संबंध में समाचार पत्रों के कुछ शीर्षक देखिए- 'हरामजादे" व 'साले" शब्द चुनाव संहिता के नजरिए से गलत नहीं", 'चोर, उचक्का, धूर्त, कमीना, गुंडी, गुंडों का सरदार, आदि। 

यह सब देख, पढ़-सुनकर ऐसा लगता है कि गांधीजी ने सौ वर्ष पूर्व (1909) संसदीय लोकतंत्र को वेश्या कहा था जिस पर बहुत हंगामा मचा था, ब्रिटिश महिलाओं ने इस पर बहुत हाय-तौबा मचाई, गांधीजी ने तीव्र प्रतिक्रिया को देखकर अंत में बांझ कहना अधिक उचित समझा, आज संसद की नाकारा बहस, संसद में होनेवाले हंगामे और अंततः या तो संसद का स्थगन या बहिष्कार देखकर लगता है कि गांधीजी ने कहीं सच ही तो नहीं कहा था।

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