Friday, August 22, 2014

बढ़ता ध्वनि प्रदूषण - एक गंभीर सामाजिक समस्या

 वर्तमान में बढ़ता प्रदूषण एक गंभीर अंतर-राष्ट्रीय समस्या का रुप धारण कर चूका है। वायु, जल, भूमि में व्याप्त प्रदूषण की तरह कोलाहल, शोर भी पर्यावरण प्रदूषण में सम्मिलित हो गया है। देश में बढ़ते वायु, जल, भूमि प्रदूषण जो विभिन्न गैसों के उत्सर्जन एवं बढ़ते कीटनाशकों, कच्चे तेल के रिसाव, प्लास्टिक और एल्यूमिनियम तथा विषैले पदार्थों जैसे केडमियम, सीसा आदि के प्रयोग से और उनके उचित तरीके से नष्ट न होने की प्रक्रिया से हो रहा है पर तो बडी चिंता प्रकट की जाती है। परंतु, ध्वनि प्रदूषण के विरुद्ध कोई खास ऐसा शोर सुनाई नहीं देता। लगता है शोर-शराबा लोगों को जरा कुछ ज्यादह ही पसंद है। तभी तो, कोई भी धार्मिक हो या सामाजिक उत्सव, समारोह बिना शोर मचाए सफल नहीं समझे जाते। बारातें हों या धार्मिक जुलूस सडकों को घेर लेना, यातायात में बाधा डालना, उसे रोककर सडकों पर नाचना। इनमें शामिल बैंड भी ज्यादा से ज्यादा भोंगे अपनी गाडियों पर कसकर अधिकाधिक शोर पैदा कर अपना महत्व दर्शाते से लगते हैं। शायद यह शोर कुछ कम पडता है इसलिए आजकल बडी गाडियों पर बडे-बडे डीजे बजाते हुए जुलूस निकाले जाते हैं। आजकल सफल नेता वही होता है जो समाज चाहता है उन गलत गतविधियों को स्वयं उसमें शामिल होकर उसे प्रोत्साहन प्रदान करता है। इसीलिए चुनाव प्रचार में वे भी बडी-बडी गाडियों पर शोर मचाते डीजे के साथ चुनाव प्रचार करते नजर आते हैं। 
कई बार कई उच्चन्यायालय इस ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ निर्णय दे चूके हैं। परंतु, उनके निर्णयों का कोई असर नहीं हो रहा है और इस ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ उठनेवाली आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती हैं। लोकसभा तक में इसके खिलाफ प्रश्न पूछा जा चूका है और पर्यावरण मंत्री जवाब भी दे चूके हैं कि 'रात 9 बजे से सुबह 6 बजे तक लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है।" 'एक रिपोर्ट के अनुसार लाउडस्पीकर सबसे अधिक शोर करते हैं। लेकिन दिल्ली के मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों पर लगे लाउडस्पीकर मनमोहक कीर्तन के नाम पर लगातार शोर करते ही रहते हैं। कानूनी पाबंदी होने के बावजूद भी इन्हें बंद नहीं कराया जा सकता। इस तरह की लाचारी दूरदर्शन से प्रसारित 'जनवाणी" कार्यक्रम में पर्यावरण मंत्री प्रकट कर चूके हैं।" 

वैज्ञानिकों के अनुसार ध्वनि प्रदूषण मनुष्य को धीरे-धीरे मौत की तरफ ले जानेवाला तत्त्व है। इसके कुप्रभावों का ज्वलंत उदाहरण है नईदुनिया भोपाल संस्करण 16-10-86 का एक समाचार 'भोपाल के महापौर ने उनके मकान के सामने दुर्गोत्सव की झांकी में लाउडस्पीकर से होनेवाले शोर से उत्तेजित होकर झांकी तोडी।" जनसत्ता में 24-2-92 में छपे एक लेख के अनुसार 'बोकारो जैसे छोटे शहर मेें 50 से 70 मानसिक रोगियों का इलाज के लिए बोकारो जनरल अस्पताल में आना यह साबित करता है कि इस शहर में ध्वनि प्रदूषण किस हद तक पहुंच चूका है। किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार '1980 के गणपति उत्सव के दौरान शोर का स्तर 97 डेसिबल तक पहुंच गया था जबकि विमानतलों पर शोर 90 डेसिबल का होता है।" यह तबके हालात है  और तब से लेकर अब तक तो कई गुना आबादी भी बढ़ चूकी है, नए-नए कल-कारखाने खुल चूके हैं, यातायात भी कई गुना बढ़ गया है, ज्यादा ध्वनि पैदा करनेवाले कई यंत्र भी बाजार में आ चूके हैं। तो, परिस्थितियां कितनी भयावह होना चाहिए इसकी कल्पना की जा सकती है। 'विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा सहन करने योग्य शोर की सीमा 45 डेसिबल निर्धारित की गई है। शोर यदि 70 डेसिबल से अधिक हो तो पीडादायक हो सकता है। लगातार शोर से स्थायी बहिरापन, उच्च रक्तदाब, मस्तिष्क में अस्थिरता, अल्सर, गैस की समस्या, एलर्जी उत्तेजना, बांझपन, अनिद्रा का कारण बन सकता है। अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ है कि इसके कारण नाडीतंत्र की गडबडी और पाचन क्रिया खराब हो सकती है। केवल कल-कारखाने, मोटरगाडियां, रेलें, हवाईजहाज ही शोर प्रदूषण में योगदान नहीं करते, अपितु धार्मिक और सामाजिक उत्सव भी इसमें बढ़ावा करते हैं। इन उत्सवों में लाउडस्पीकरों का उपयोग खासतौर पर होता है।" 'लाउडस्पीकरों का शोर तो अत्यंत घातक है। उसे तो शीघ्र नियंत्रित करने की जरुरत है।"

एक याचिका की सुनवाई के दौरान 'केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ताओं को ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।" 'केंद्रिय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के बनाए नियमों के अनुसार लाउडस्पीकरों का रुख बाहर की तरफ नहीं, बल्कि समारोह की तरफ होना चाहिए। बोर्ड ने लाउडस्पीकरों के ध्वनि स्तर की सीमा भी तय की है।" परंतु, सभी मस्जिदों पर तने लाउडस्पीकरों का रुख बाहर की तरफ ही होता है। नईदुनिया  29-10-03 में छपे 'श्री ए. के. शेख (सूबेदार), प्रथम वाहिनी, विसबल, इंदौर" केपत्र के अनुसार ''नमाज पर बुलावे के लिए किसीको इस्लाम ने ठेकेदार नहीं बनाया है। रमजान में रात्रि 3 बजे से हर 15 मिनिट में प्रत्येक मस्जिद से उठाने की आवाज लगाई जाती है। जिस क्षेत्र में 5-6 मस्जिद हैं। वहां के लोगों की नींद हराम हो जाती है।... बूढ़े व बीमार लोगों के लिए तो यह ध्वनि प्रदूषण अभिशाप ही है। अन्य जाति-समाज के लोगों को 3 बजे उठाना क्या न्यायसंगत है? किसी भी प्रकार से अन्य को प्रताडित करना इस्लाम में हराम है दूसरों को परेशान कर स्वयं सुखी नहीं रह सकते हैं। शासन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के परिपालन में इस प्रकार के ध्वनि प्रदूषण पर पूर्ण पाबंदी लगाकर अन्य जाति - समाज के लोगों को राहत दे सकता है।"" 

परंतु, इस प्रकार की न्यायोचित समाज हितकारी आवाज उठानेवालों की कोई सुनवाई नहीं होती। बल्कि होता यह है जो पटना में फरवरी 2005 में हुआ था। 'पटना उच्चन्यायालय में पांच वर्ष पूर्व मस्जिद की प्रबंध समिति ने आश्वासन दिया कि दिन में एक और चार बजे मस्जिद से लाउडस्पीकर पर अजान नहीं पढ़ी जाएगी। इसके बावजूद अदालती आदेश का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता रहा। अदालत ने स्वयं की अवमानना का मामला चलाया जिस पर मुजार की ओर से आश्वासन दिया गया कि अब बाधा उत्पन्न नहीं की जाएगी। लेकिन अदालती आदेश की खिल्ली उडाई जाती रही। आखिरकार 4 फरवरी को न्यायमूर्ति के आदेश पर मुअज्जिन अलीमुद्दीन को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया। इसी बीच कुछ मुस्लिम नेताओं ने मामले को सांप्रदायिक रुप दे दिया और दोपहर की नमाज के समय भडकाऊ भाषण दिए। शुक्रवार का दिन था भीड बढ़ती गई और भीड ने कोतवाली को घेर लिया और न्यायमूर्ति के प्रति अशिष्ट भाषा का उपयोग कर अलीमुद्दीन की रिहाई की मांग करने लगे। सडक जाम कर उन्होंने जानबूझकर दोपहर की नमाज मुख्य सडक पर पढ़ी। उच्चन्यायालय ने पूछताछ के बाद अलीमुद्दीन को छोड दिया तब कहीं शांति हुई।"(पांचजन्य 20-2-05) यह बेजा अडियल रवैया भी तब जबकि लगभग पांच वर्ष पूर्व सन्‌ 2000 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि 'किसी भी समुदाय को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी प्रार्थना को माइक्रोफोन या लाउडस्पीकर जैसे ध्वनि विस्तारक यंत्रों द्वारा प्रसारित करे जिससे कि दूसरों को कष्ट पहुंचे। न्यायमूर्ति एम. बी. शाह तथा न्यायमूर्ति एस. एन. फुकेन की खंडपीठ ने एक चर्च की अपील पर यह निर्णय दिया। अपील में मद्रास उच्चन्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें चर्च से लाउडस्पीकर की आवाज धीमी करने को कहा गया था। न्यायालय ने कहा कि सभ्य समाज में धर्म के नाम पर दूसरों को कष्ट पहुंचे ऐसी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती।"  
               
हम सब एक देश के वासी हैं और जब हमें साथ-साथ रहना है तो, हम शांति से मिलजुल कर क्यों न रहें? बेजा जिदों का त्याग क्यों ना करें? जैसाकि मौलाना वहीदुद्दीन कहते हैं ''तालमेल बुजदिली नहीं। तालमेल किए बिना इस दुनिया में जिंदगी की तामीर या निर्माण मुमकिन नहीं। मुसलमान आज जिस मुल्क में भी शांति और सुकून से रह रहे हैं, वे उसी उसूल पर अमल करके वहां रह रहे हैं। मगर अजीब बात यह है कि जब हिंदुस्थान में इस उसूल को अपनाने को कहा जाता है तो फौरन कुछ सतही किस्म के मुसलमान लीडर बोल पडते हैं कि यह बुजदिली है, यह हालात से समझौता करना है, यह अपने को पीछे ले जाना है वगैराह। ""(पांचजन्य 16-9-90) ''पैगंबर मुहम्मद के जमाने में मक्का के मुसलमान झगडा टालने के लिए कई साल तक अजान दिए बिना नमाज पढ़ते रहे।""(जनसत्ता 15-12-90) 

वैसे पिछले कुछ वर्षों में ध्वनि प्रदूषण की समस्या के प्रति लोग जागरुकता दिखला रहे हैं। परंतु, जिस प्रकार से यह बढ़ रहा है वह मानवजाति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। ध्वनि प्रदूषण रोकथाम का सबसे कारगर उपाय है हम स्वयं शोर कम करें, कारखानों को आवासीय क्षेत्र से दूर रखकर भी इससे होनेवाले नुक्सान को कम किया जा सकता है। वृक्षारोपण वह भी नीम, बरगद, इमली, अशोक आदि के वृक्षों का, बेलें भी शोर सोखने का काम करती हैं, रक्षा कवच सिद्ध हो सकता है।  'नॉइज बैरियर्स" जैसे ध्वनि शोषक यंत्र भी बेहद मददगार साबित हो सकते हैं। 

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