Thursday, July 17, 2014

सबके लिए बने समान नागरिक संहिता - भाग 2

भारत एक देश है, यहां कहने के लिए समान नागरिक अधिकार और कर्तव्य हैं परंतु, व्यवहार में हम पाते हैं कि विभिन्न जाति धर्मावलम्बियों के लिए विभिन्न विधान बनाए गए हैं। 1954 में विशेष विवाह अधिनियम बनाया गया जो अन्तरजातिय विवाहों को वैधता प्रदान करता है। 18 मई 1955 से देश में 'हिंदू विवाह अधिनियम" लागू है। जिसके अनुसार हिंदू पुरुष को एक समय में एक स्त्री से वैवाहिक संबंध बनाए रखने का अधिकार है। इस अधिनियम की यह भी विशेषता है कि, अनुसूचित जातियों को इसके प्रभाव से परे रखा गया है। भारत के ईसाइयों के लिए सन 1872 में 'भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम" बनाया गया था जो सौ वर्षों के उपरांत भी प्रभावशील है। जहां तक देश के मुस्लिमों के विवाह का प्रश्न है उसे हमारे राजनेता आज तक किसी विधान के द्वारा नियमित करने का साहस दिखा नहीं सके हैं। अंगे्रजों ने एक मोहमडन ला अवश्य बनाया था। 1400 वर्ष पूर्व अरबस्थान की सामाजिक रीतियों के अनुसार जो विवाह पद्धतियां निकाह और मुताह वहां प्रचलित थी उस आदिम अवस्थावाली पद्धतियों की और वह भी वहां की परिस्थिति से सर्वथा भिन्न परिस्थिति वाले इस भारत में मुसलमानों में आज भी प्रचलित है। वस्तुतः कुरान में चार विवाह करने का कोई धर्मादेश नहीं है। वह मात्र परामर्श भर है। आज संसार के विभिन्न देशों में भी मुस्लिमों में एक पत्नी पद्धति के विधान बनाए जा रहे हैं। तथापि, भारत के मुल्ला-मौलवी इस बात पर हाय-तौबा मचाते हैं।
विवाह विधान के संबंध में दो उल्लेख महत्वपूर्ण होंगे। 1). पूर्व में गोवा पुर्तगालियों के अधीन था। वहां पर पूर्व का पुर्तगाली विवाह अधिनियम आज भी प्रभावशाली है। जिसके अनुसार हिंदू, सिक्ख, ईसाई, मुसलमान सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए एक से अधिक विवाह प्रतिबंधित हैं। 2). दूसरा आश्चर्य है जम्मू-काश्मीर राज्य का। 21 सितंबर 1981 को जम्मू-कश्मीर विधान सभा ने एक विधेयक पारित कर मुसलमानों के लिए अनिवार्य किया है कि धार्मिक पद्धति से निकाह होने के उपरांत भी एक माह की समयावधि में रजिस्ट्रार के न्यायालय में जाकर उसका पंजीयन करवा लें। हमारे देश के दो छोरों की यह वैधानिक स्थिति क्या समूचे भारत के लिए आवश्यक नहीं। हमारे देश में विवाह विधानों की भिन्नता के कारण क्या हिंदू क्या इस्लाम 'धर्म" मानो एक मजाक बन चूका है।

18 मई 1955 को देश के हिंदुओं के लिए 'हिंदू विवाह-विच्छेद अधिनियम" अनिवार्य किया गया। विवाह विधान संशोधन अधिनियम 1970 के द्वारा इसमें धारा 13 को समाविष्ट किया गया है। फलस्वरुप पूर्व की अपेक्षा अब विवाह विच्छेद कुछ सुलभ हुआ है। भारत के ईसाइयों के लिए 'भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम 1869" बनाया गया था। जिसके अनुसार इस अधिनियम का लाभ प्राप्त करने के लिए एक पक्ष का ईसाई होना आवश्यक है। मुसलमानों के विवाह विच्छेद (तलाक) के संबंध में पूर्व में हमारे देश में कोई विधान नहीं था। 1939 में 'मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम" अवश्य बनाया गया और मुस्लिम महिलाओं को इस विषय में कुछ शक्ति प्रदान करने की चेष्टा की गई। तथापि, इससे स्थिति में कुछ विशेष परिवर्तन नहीं आया है। इस्लाम के अनुसार  मुसलमान पुरुष को यह अधिकार है कि वह बिना कोई कारण बताए मात्र दो साक्षियों के सन्मुख 'तलाक", 'तलाक", 'तलाक" इस प्रकार मात्र तीन बार 'तलाक" शब्द का जाप कर पत्नी को तलाक दे सकता है। मुस्लिम पत्नी को भी तलाक जिसे 'खुला" कहते हैं का अधिकार अवश्य है परंतु वह पुरुष की तुलना में अत्यंत ही संकुचित तथा अप्रयोगनीय स्वरुप का है। इस्लाम में 'मेहर" की व्यवस्था कर स्त्रियों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने तथा स्त्री-पुरुषों में समानता की बात की जाती है। परंतु, तलाक का अधिकार  और प्रक्रिया महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और समान अधिकार की पोल खोलकर रख देता है। 'तलाक" के संबंध में इस्लामियों का दुराग्रह मात्र भारत में ही चल सकता है अन्य अनेक देशों में नहीं।

विवाह और विच्छेद के अतिरिक्त उत्तराधिकार, दहेज आदि में भी धार्मिक आधार पर विभिन्नता को हमारे देश में वैधानिकता मान्यता है। हिंदुओं के लिए 'हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956" बना हुआ है। ईसाइयों और मुसलमानों के लिए उनके पारम्परिक अधिकार हैं। मुसलमानों में 'दत्तक विधान" पद्धति न होने से कुल चलाने तथा उत्तराधिकार हेतु चार-चार विवाह किए जाते हैं। हमें यह निःसंकोच स्वीकारना होगा कि, दहेज हमारे समाज के लिए भयंकर अभिशाप है। इसकी गंभीरता को दृष्टिगत रख 1 जुलाई 1961 को हिंदुओं के लिए दहेज निषेध अधिनियम लागू हो गया। आर्थिक प्रलोभन के कारण मुसलमानों में भी दहेज का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। पर 1961 का अधिनियम मात्र हिंदुओं के लिए ही होने के कारण मुस्लिम वधुओं के माता-पिता असहाय हैं।

किसी भी समाज में सुधार करने हेतु उस समाज के नेतृत्व में ही चिंतन तथा क्रियाशीलता आवश्यक है इसके अभाव में शासकीय विधान ही एक मात्र उपाय शेष रहता है। जहां तक मुसलमानों का प्रश्न है। उनके नेतृत्व को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 1). धार्मिक नेतृत्व- मुसलमानों का धार्मिक नेतृत्व 1400 वर्ष पूर्व की अरबस्तान की परिस्थितियों के लिए बनाए गए  नियमों को कठोरता से बनाए रखना चाहता है। 2). राजनेता तो मुस्लिम वोटों के भूखे हैं और मुस्लिम राजनेता तो यहीं से शुरु करते हैं कि देश में मुस्लिन पर्सनल ला को लेकर निहायत नासमझी की बातें की जाती हैं। अव्वल तो वह दूसरों के रास्ते में क्या रुकावट डालता है कि उसे बदलने की पेशकश हो? दूसरे यह कैसे कहा जा सकता है कि मुसलमान चार-चार शादियां कर सकता है? मुस्लिम पर्सनल ला कहीं पर नहीं कहता कि तुम चार शादियां करो। दूसरी शादी करने पर नियम के अनुसार दूसरी पत्नी को उतना ही प्यार करना होगा जितना कि पहली को। क्या ऐसा मुमकिन है? अब ऐसों को यह कौन समझाए कि चार-चार पत्नियां रखनेवाले  और मात्र तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहकर पत्नी को सडक की परायी औरत बनानेवालों का प्यार से क्या वास्ता हो सकता है? तो कोई फरमाता है कि पर्सनल ला का संबंध सीधा धर्म से है अतः ऐसी चीज को छेडना उचित नहीं होगा। कुछ इसी प्रकार के विचार पढ़े-लिखे भी प्रकट करते नजर आते हैं। 3). मुसलमानों में सामाजिक नेतृत्व अत्यंत ही क्षीण है और जो कोई समाज सुधार की बात करता है उसे समाज से न तो कोई सहयोग मिलता है ना ही कोई मान-सम्मान बल्कि वह पीडित रहता है।

देश में विद्यमान पृथक-पृथक संहिता के राष्ट्रजीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर अनेकानेक दुष्परिणाम हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में भी होंगे। अतः उन पर विचार अत्यावश्यक है। राजनीति पर प्रभाव ः भारत एक प्रजातांत्रिक देश है और प्रजातंत्र में संख्याबल का अपना एक महत्व है। संख्याबल के महत्व को लेबनान और इजराईल के उदाहरणों से समझा जा सकता है। कुछ वर्षों पूर्व लेबनान में ईसाई बहुसंख्या में थे परंतु, आज लेबनान मुस्लिम बहुल है। पिछली शताब्दी के प्रारंभ में यहूदी इजराईल में अल्पसंख्या में थे  पर आरंभ में रुस से और फिर आगे जर्मनी एवं संसार के अन्य राष्ट्रों से यहूदी पेलेस्टाईन पहुंचे और आज वह भाग इजराईल बन चूका है। जनसंख्या के प्रभाव को हम 1947 में विभाजन के रुप में देख चूके हैं। आर्थिक प्रभाव ः बहुविवाह और अधिक बच्चे पैदा होने से देश की सीमित अर्थशक्ति और आर्थिक विकास पर दबाव बढ़ता चला जा रहा है। हमारी आर्थिक उन्नति को जनसंख्या विस्फोट लील लेता है। धार्मिक ः हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है और सभी को अपने धर्म के आचरण की मुक्ततता है तथापि, धार्मिक स्वतंत्रता की आड में मुस्लिमों की संख्यावृद्धि भारत में इस्लाम के प्रभाव में वृद्धि करेगी जो देश को संकटग्रस्त बना देगा। 

मुसलमानों में विद्यमान अशिक्षा, मुस्लिम महिलाओं की पर्दाप्रथा, तलाक का संकट तथा बहुविवाह, मुसलमानों विशेषकर मुस्लिम महिलाओं को सदा पिछडी हालत में ही रखेगा। मुसलमान देश के नागरिक हैं और इतनी बडी संख्या में नागरिकों का पिछडा रह जाना देश की सामाजिक अवस्था के लिए संकटकारी है। राष्ट्र और समाज का एक हिस्सा भी यदि पिछडा हुआ रहता है तो उससे समूचे राष्ट्र और समाज की प्रगति कुप्रभावित होगी।

उपर्युक्त संकटों से मुक्त होने का एक ही उपाय है - समान नागरिक संहिता। निश्चय ही सामाजिक सुधारों के लिए समाज में जागरण और उन समाज सुधारों के प्रति समाज में लालसा उत्पन्न करना आदर्श पद्धति है। तथापि, यदि कोई समाज इस आदर्श पद्धति के अवलंबन हेतु तैयार न हो तो आज के युग में शासनशक्ति का प्रयोग अनिवार्य ही होगा। इसीलिए मुस्लिमों को समाज सुधारों से दूर रखने की इच्छा रखनेवाले एवं समान सामाजिक संहिता के विरोधी प्रच्छन्न विरोधी मुसलमान तथा हिंदू राजनेता जो समाज सुधार का आग्रह रखते हैं के तर्कों के विपरीत यह समयोचित प्रतीत होता है कि मुस्लिमों के सामाजिक सुधार हेतु समाज सुधार की मंथर गति पद्धति का नहीं तो कानून का सहारा लेना ही उचित होगा इस प्रकार, देश के नागरिकों को बहुसंख्यक आदि वर्गों में न बांटते हुए सभी के लिए एक समान नागरिक संहिता का निर्माण राष्ट्र के लिए लाभकारी तथा न्यायोचित होगा।  

No comments:

Post a Comment