Thursday, July 17, 2014

सबके लिए बने समान नागरिक संहिता - भाग 1

सन्‌ 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वतंत्र भारत ने विश्व के संभवतः सबसे वृहद्‌ संविधान को अपनाकर जो स्वनिर्मित था, एक गणतंत्रात्मक अवस्था को प्राप्त किया। परंतु इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि हमारी संविधान सभा देश को एक समान नागरिक संहिता ना दे सकी साथ ही उसने भविष्य में उसके निर्माण के मार्ग को भी निष्कंटक ना रखा। संविधान सभा में समान नागरिक संहिता पर बनी सात सदस्यीय समिति की यह सर्वानुमति राय थी कि समान नागरिक संहिता बने। तथापि मतभेद इस बात पर था कि इसे मौलिक अधिकारों की सूची में रखा जाए या मार्गनिर्देशक सूची में। मीनू मसानी, अमृतकौर, और हंसाबेन मेहता मौलिक अधिकारों की सूची में रखने के पक्षधर थे। पर तीन के विरोध में चार के कारण इसे 'मार्ग निर्देशक सूची" में रखा गया।

समान नागरिक संहिता संविधान की धारा 44 से संबंधित है जिसमें कहा गया है कि - राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। सन्‌ 1955 में विधिमंत्री पाटसकर ने संसद के समक्ष जब हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया, तब कुछ सांसदों ने समान नागरिक संहिता की मांग की तो विधिमंत्री ने चतुराईपूर्वक यह बतलाने की चेष्टा की कि इस बिल के रुप में देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या के सुधार का प्रबल चरण उठाया जा रहा है। जो समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ाया गया एक कदम है। पंडित नेहरु ने इससे सहमति जताते हुए कहा था कि वे भी इसके पक्षधर हैं परंतु, यह समय उपयुक्त नहीं है और जब इस बिल के कारण अनुकूल वातावरण बन जाएगा तो समान नागरिक संहिता के निर्माण में सुविधा होगी। आज हिंदू कोड बिल बने 60 वर्ष होने जा रहे हैं परंतु हमारे नेता और शासक आज भी अनुकूल वातावरण बनाने में सफल नहीं हो सके हैं और यदाकदा इसकी मांग होती रहती है इस पर चर्चा होती रहती है। परंतु, अब मोदी सरकार ने संसद में साफ कर दिया है कि वह समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में सोच रही है इससे राजनीति में एकदम से उबाल आ गया है।

1977 में जनता शासन के दौरान श्रीमति सुशीला अडीबरेकर ने राज्यसभा में समान विवाह विधान की मांग की थी पर विधिमंत्री शांतिभूषण के उत्तर परंपरागत कांग्रेसी नीति और मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के थे। वर्तमान भाजपा सांसद और तत्कालीन राज्यसभा सदस्य नजमा हेपतुल्ला ने 1981 में इंका के श्री एन. सी. भंडारे के एक गैर सरकारी प्रस्ताव जो बहुपत्नीवाद प्रथा पर था की बहस में भाग लेते हुए यह सुझाव दिया था कि एक से अधिक पत्नियां रखनेवालों का समाज में बहिष्कार हो। तथापि, समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रश्न को टाल गई। विधेयक इंका सदस्य ने रखा अवश्य था परंतु उसे दल का समर्थन न मिल सका। अन्ना द्रमुक की श्रीमति नूरजहां रज्जाक ने स्पष्ट रुप से समान नागरिक संहिता की जरुरत पर बल दिया। इस्लाम की आड लेनेवालों को निशाने पे लेते हुए आपने कहा कि तुर्की, पाकिस्तान, मिश्र एवं अन्य इस्लामी राष्ट्रों में भी समान नागरिक संहिता एवं परिवार नियोजन लागू है।

अमेरिका और यूरोप के ईसाई राष्ट्रों ने देश के समस्त नागरिकों के लिए एक ही विधिप्रणाली अपनाई है। इजराईल में भी 1951 से महिलाओं के समान अधिकार तथा एकपत्नीत्व का विधान बनाया गया था। रुस और चीन जैसे साम्यवादी देशों के संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता को अक्षरबद्ध किया गया है। यह बात अलग है वह व्यवहार में दिखाई नहीं पडती। साम्यवाद के अनुसार तो धर्म सर्वथा अनावश्यक है। सूडान, अल्जेरिया आदि अफ्रीका के दर्जनों मुस्लिम देशों ने तथा मलेशिया और बांग्लादेश जैसे कट्टर इस्लामी राष्ट्रों तक ने शरीअत को अनदेखा कर समान नागरिक संहिता को अपनाया है। केवल खाडी देशों ने गैर मुस्लिमों पर इस्लामी कानून थोपने के रुप में समान सामाजिक संहिता को अपनाया है।

विश्व के ईसाई और मुस्लिम राष्ट्रों ने भले ही समान नागरिक संहिता, परिवार नियोजन आदि देश हितकारी विधानों को अपनाया हो पर भारत के ईसाई और मुसलमान मजहब की आड लेकर उसे दूर रखने में प्रयत्नशील हैं। संंविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार 'राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।" अनुच्छेद 15 (1) के अनुसार 'राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।" अनुच्छेद 15 (2) के अनुसार 'धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान ऐसे किसी भी कारण से सार्वजनिक संस्था और जगहों के उपयोग के संबंध में नागरिकों पर कोई प्रतिबंध नहीं होंगे।" अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का निर्देश देता है परंतु, उसके दूसरे उपविभाग में यह स्पष्ट किया गया है कि, समाज के आर्थिक, राजनीतिक तथा सांसारिक जीवन को नियंत्रित करनेवाले प्रचलित विधानों को धर्म के नाम पर विरोध करने का तथा ऐसे नवीन विधानों में बाधा उत्पन्न करने का अधिकार नहीं होगा। संविधान का अनुच्छेद 29 (1) स्पष्ट रुप से कहता है कि स्वतंत्र भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने की स्वतंत्रता अवश्य है, तथापि, उसमें 'धर्म" का उल्लेख सहेतुक रुप में ही नहीं किया गया है। अनुच्छेद 30 (1) धार्मिक तथा भाषिक अल्पसंख्यकों को अपनी स्वतंत्र शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने और चलाने का अधिकार देता है। परंतु, इसके द्वारा भी धार्मिक रुढ़ियां तथा कर्मकांडों को किसी भी प्रकार का संरक्षण नहीं दिया गया है। निश्चित ही संविधान के उपर्युक्त अनुच्छेद समान सामाजिकता को पर्याप्त बल पहुंचाते हैं। तथापि, अनुच्छेद 25 (2) संविधान के पूर्व आदेशों को एक प्रकार से निष्क्रिय बना देता है। यह अनुच्छेद राज्य को हिंदू समाज के लिए सुधारवादी विधान बनाने की छूट देता है और इसके अंतर्गत सिक्ख, जैन और बौद्ध  को उचित रुप से हिंदूसमाज में सम्मलित किया गया है। परंतु, ईसाइयों और मुसलामानों को इससे मुक्त रखा गया है। इस व्यवस्था के कारण सामाजिक संहिता बनाना टेढ़ी खीर हो गया है। इस बाधा की जडें बडी गहरी हैं। 1931 में कांग्रेस कार्यसमिति ने मुसलमानों के मजहबी कानूनों को संवैधानिक संरक्षण देने की घोषणा कर दी थी। स्वतंत्रता के बाद वोटों के लालच में कांग्रेस और अन्य दलों के नेताओं ने संविधान के 25 (2) के माध्यम से पच्चर मारकर रख दी। इस कारण बगैर संविधान संशोधन के समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आना संभव नहीं। 

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