Thursday, April 3, 2014

चंदनं न वने वने

संस्कृत में एक सुभाषित है- ''शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे। साधवो न हि सर्वत्र, चंदनं न वने वने।"" अर्थात्‌ प्रत्येक पर्वत पर हीरे-माणिक नहीं मिलते; प्रत्येक हाथी के गंडस्थल में मोती मिलता ही है, ऐसा नहीं; सभी ओर सज्जन मनुष्य नहीं होते और प्रत्येक वन में भी चंदन वृक्ष मिलता ही है, ऐसा नहीं। यानी संसार में श्रेष्ठ चीजें अत्यंत दुर्लभ होती हैं।

चंदन का वृक्ष श्रेष्ठ एवं दुर्लभ होने के कारण ही संस्कृत के ग्रंथों में इसकी महत्ता गाई गई है। संस्कृत ग्रंथों में चंदन के कई नाम मिलते हैं। जैसेकि, 'गंधसार", 'श्रीखंड", 'मलयज", आदि। आजादी की लडाई के महामंत्र 'वंदेमातरम्‌" की एक पंक्ति में 'मलयज" शब्द अपने गुण 'शीतलाम्‌" के साथ आया हुआ है। कालिदास से लेकर महाभारत-रामायण तक में चंदन का वर्णन मिलता है। कालिदास ने अपने गं्रथों में चंदन की प्रशंसा श्रंगार सामग्री के रुप में की है। कालिदास की नायिकाएं शरीर पर चंदन का लेप करती हैं। पतंजलि ने भी चंदन के गुणों का वर्णन अपने ग्रंथ 'महाभाव्य" में किया है। कौटिल्य ने भी अपने 'अर्थशास्त्र" में इसके गुणों का बखान किया है। हितोपदेश में दुर्जन व दुर्गुण के संबंध में बतलाने के लिए चंदन का उल्लेख आया हुआ है। यह सुभाषित इस प्रकार से है - 

मूलं भुजंगैः, कुसुमानि भृङ्‌गैः, शाखाः प्लवंगै, शिखराणि भल्लैः। नास्ति एव तत्‌ चन्दनपादपस्य यत्‌ न आश्रितं दुष्टतरैः च हिंस्त्रैः। अर्थात्‌ (चंदन वृक्ष की) जडों में सर्प आश्रय लेते हैं, फूलों का आश्रय भंवरे लेते हैं, शाखाओं पर बंदर और शिखर पर भालू आश्रय लिए रहते हैं। चंदन वृक्ष के पास की एक भी चीज ऐसी नहीं कि जिसका आश्रय अत्यंत दुष्ट, हिंसक प्राणियों ने लिया हुआ न हो। यानी कि सज्जनों का आश्रय लेकर ही दुष्ट लोग अपने दुष्कृत्य करते रहते हैं। यह सुभाषित सर्वकालिक सत्य के दर्शन कराता है।

वसंत में चंदन के पेड पर अकसर कोयल कूकती दिखाई देती है। चंदन की पत्ती, फल, फूल आदि में कोई गंध नहीं होती। इसलिए यह समझना भूल ही है कि सुगंध के कारण चंदन के पेड पर सर्प लिपटे रहते हैं। वास्तव में जिन स्थानों पर चंदन उगता है वहां सांप अधिक पाए जाते हैं। यह तो चंदन की महत्ता है कि इसे काव्यों में स्थान में मिला। सर्प और चंदन के संबंध में रहीम का भी एक दोहा है - जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।
    
इसके पेड विशेष रुप से दक्षिण भारत में मिलते हैं। मलयालम में इसे 'चंदन", तमिल में 'श्रीगंधम्‌", तेलगू में 'चंदनम्‌", मराठी में 'चंदन" तो, गुजराती में 'सुकेत" कहते हैं। विज्ञान की भाषा में इसे 'सैंटलम अल्बम" कहते हैं। यह मझौली ऊंचाई का बेहद धीमी बढ़वार वाला सदाबहार परजीवी पेड है। ये वन के पेडों के बीच इक्का-दुक्का ही उगते हैं इसीलिए तो 'चंदनम्‌ न वने वने" कहते हैं। दो वर्ष की आयु का होते ही इसकी जडें किसी पेड की जडों से चिपकर उसका भोजन-पानी सोखने लगती हैं। संभवतः इसीलिए इसके आस-पास कोई दूसरा पेड पनप नहीं पाता।

चंदन में सुगंध उसमें उपस्थित तेल के कारण होती है जिसे आसवन करके निकाला जाता है। इसकी लकडी में 6 से 10 तो जडों में 10 प्रतिशत से कम तेल नहीं मिलता। इसकी लकडी सजावटी चीजें तैयार करने के काम आती हैं। बुरादा सुगंधित होने के कारण हवन सामग्री में मिलाया जाता है। चंदन दुर्लभ एवं बहुमूल्य होने और इसके व्यापक व्यवसायिक उपयोग के कारण यह व्यापारियों के लालच का शिकार हो गया है। इसके कारण दुर्लभ से दुर्लभतम होता जा रहा है। चोरी-छिपे इसके वृक्षों की कटाई जारी होकर इसकी लकडी की तस्करी की जाती है।

हिंदुओं और पारसियों के धार्मिक अनुष्ठानों में भी इसे अच्छा-खासा महत्व प्राप्त है। इसी महत्व के कारण तुलसीदासजी ने भी अपने एक दोहे में चंदन का उल्लेख इस प्रकार से किया है - ''चित्रकूट के घाट पे, भई संतन की भीर, तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।"" 'चरक संहिता" एवं 'भाव प्रकाश" में चंदन के औषधीय गुणों का परिचय दिया हुआ है। औषधीय एवं श्रंगार प्रदान करनेवाला होने के कारण साधु-संत इसे सिर-माथे पर लगाते हैं। इसके औषधीय गुण इस प्रकार से हैं -  
   
गर्मी के दिनों में लू लगने पर ठंडे दूध में एक बूंद चंदन का तेल डालकर पीने से बहुत लाभ होता है। यह सुगंधित दूध गर्मी से उपजी घमौरियों, फुन्सियों को नष्ट करता है। इसके पाउडर से फेस-पैक भी बनाया जा सकता है। चंदन के तेल में मूत्र विरेचक गुण हैं। यह मूत्रकच्छ के उपचार में दिया जाता है। मूत्राशय की सूजन, सूजाक, खांसी में भी उपयोगी होता है। चंदन के बीज से निकलनेवाला तेल त्वचा रोगों के लिए लाभप्रद है। इसकी लकडी को पानी में घिस कर लेप को किसी भी अंग की सूजन, सिरदर्द और त्वचा रोगों में लगाया जा सकता है। इसका तेल इत्र, दवाइयां और साबुन आदि बनाने के काम आता है।  

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