Tuesday, November 18, 2014

विश्व शौचालय दिवस विशेष 19 नवंबर
जीवन के अभिन्न अंग हैं ः शौचालय एवं स्वच्छता 
 
शौचालय के महत्व, उसकी आवश्यकता, कमी एवं इसके प्रति उपेक्षा को देखते हुए इस समस्या के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित हो इसके लिए 19 नवंबर को विश्व-शौचालय दिवस मनाने का निर्णय संयुक्त राष्ट्र संघ ने लिया है। भारत में तो यह विषय सर्वाधिक उपेक्षित था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस गंभीर समस्या की ओर सरकारों का ध्यान गया है और पहले जयराम रमेश और फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने स्वच्छता एवं शौचालय इस विषय को 15 अगस्त को लाल किले से भाषण देते समय उठाकर सर्वाधिक चर्चित कर दिया है। 

फिर मोदी ने 2 अक्टूबर गांधी जयंती पर स्वच्छ भारत का अभियान छेड इस मुद्दे को जन चर्चा का विषय बना लोगों को जागरुक बनाने का अभियान 9 लोगों को जोडो कर कर दिया और इसका अच्छा प्रतिसाद सेलेब्रिटिज की ओर से भी आया है। वैश्विक हस्ती बिल गैट्‌स ने भी मोदी की शौचालयों की प्रतिबद्धता के लिए अपने ब्लॉग पर भूरी-भूरी प्रशंसा की है। वैसे इसके परिणाम आने में समय लगेगा अभी हाल फिलहाल तो कोई विशेष फरक नजर आया नहीं है। क्योंकि इस विषय में सर्वाधिक बडी बाधा स्वयं जनता ही है और जब तक उसकी मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक भरपूर सफलता मिलना असंभव सा ही है। 

इसके उदाहरण स्वरुप पंजाब के सामुदायिक शौचालयों का उल्लेख किया जा सकता है जिनका निर्माण तो कर लिया गया परंतु, उपयोगकर्ता ही गायब हैं। महाराष्ट्र में भी लाखों शौचालय बने हैं और इतने ही गायब भी हैं, क्योंकि कइयों का उपयोग तो ग्रामीण जन भूसा रखने के लिए कर रहे हैं। कई सार्वजनिक शौचालयों की दुर्दशा, दुरुपयोग, टूटफूट तो साधारण बात है। परंतु, हद तो तब हो जाती है जब कार्यालयों में मालिकों या अधिकारियों को उनके वाश रुम के दुरुपयोग, दुर्दशा की शिकायतें मिलती है और सफाई कर्मी आकर शिकायत करते हैं कि अपने कर्मचारियों को शौचालयों का उपयोग करना तो सीखाइए। इस मामले में तो शिक्षित-अशिक्षित दोनो ही एक समान हैं। एक परामर्शदाता अभियंता के कार्यालय में जो स्वयं अपने शौचालयों की स्वच्छता का मुआयना करते हैं के अनुसार उन्होंने उनके कार्यालय में स्वयं एक इंजीनिअर को वाशबेसिन में तम्बाखू-सुपारी थूकते रंगे हाथों पकडा उनका कथन है कि जो सफाईकर्मी इस गंदगी को हाथ से साफ करता है क्या वह इंसान नहीं है? हालात यह हैं कि लोग डस्टबीन और पीकदान में फर्क ही नहीं समझते और डस्टबीन में ही थूक देते हैं यह भी एक कार्यालय और दुकानदार की शिकायत मैंने सुनी है। 

इसी समय यह बतला देना उचित होगा कि किसी भी व्यक्ति को घिन जो आती है वह गीली गंदगी की किंतु, कई लोग जो बडे जोर-शोर से सडकों पर कचरा उठाते, सफाई करते फोटो छपवा रहे हैं वे केवल सूखा कचरा उठाते ही नजर आते हैं, गीला नहीं। जबकि मोदी ने दिल्ली के पुलिस स्टेशन पर स्वच्छता की थी उसमें गिली गंदगी भी थी। कचरे की ही जब बात चली है तो इंदौर के एमटीएच कंपाउंड में सेंट्रल कोतवाली के पीछे स्थित सरकारी मकानो की हालत यह है कि उनकी खुली नाली में मल तैरते हुए मिल जाएगा और कचरे का ढ़ेर अलग ही है। जबकि सामने ही स्वास्थ्य विभाग का कार्यालय भी है, निकट ही प्रेस क्लब भी है।

लोगों की मानसिकता बयान करने के लिए एक और उदाहरण है स्कीम 78 नं का। वहां स्थित एक प्लाट खाली पडा है जहां लोग कचरा फैंक जाते हैं वहां का जागरुक पार्षद अवश्य समय-समय पर कचरा गाडी भेजकर कचरा उठवाता रहता है लेकिन लोग ऐसे हैं कि कचरा उठते समय कचरा न तो कचरा गाडी में डालते हैं न ही उस स्थान पर जहां कचरा उठाया जा रहा है। वे कचरा उस स्थान पर डालते हैं जो साफ हो चूका है वह भी निगम कर्मियों के सामने ही और इसी प्रकार के लोग नगर निगम को आगे बढ़कर कोसते नजर आ जाएंगे। इस प्रकार के दृश्य कहीं भी देखे जा सकते हैं।

कुछ लोगों का कथन है कि यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही स्वच्छता अभियान चलाया जाता तो शायद स्थिति वह ना होती जो आज नजर आ रही है। कहने को तो यह कथन बडा आकर्षक लगता है परंतु, इस संबंध में मेरा कहना यह है कि उस काल की परिस्थितियों पर तो गौर करें। उस समय जातिवाद चरम पर था, लोगों की शिक्षा दर मात्र 18 प्रतिशत थी और लोगों की मानसिकता यह थी कि सफाई कार्य करना सफाई कर्मियों का ही काम है। आज भी इस संबंध में मानसिकता कुछ विशेष बदली नहीं है भले ही शिक्षा का प्रतिशत बढ़कर 74 हो गया है। इस कारण इस तरह की बातें करना व्यर्थ सा ही लगता है। (गांधीजी और उनके शिष्यों ने जरुर इस संबंध में उल्लेखनीय कार्य किया जो एक अलग लेख का विषय है) हां एक प्रगति अवश्य हो गई है वह है विभिन्न शब्दों के प्रयोग की- संडास, लेट्रिन से होते हुए टॉयलेट और अब वॉशरुम कहलाने लगे हैं बस। शौचालय शब्द का प्रयोग तो आमजनता कम ही करती है और यह तो समाचार पत्रों में प्रयुक्त किए जानेवाला शब्द है एवं स्वच्छता गृह शब्द तो लगभग चलन में ही नहीं है। 

हमारी नगरपालिकाओ की नीति शौचालयों-मूत्रालयों के संबंध में कुछ ऐसी है कि वे स्वयं होकर इनका निर्माण करने में अग्रणी नहीं होते जब समस्या गंभीर हो जाती है, जनता त्रस्त हो जाती है, समाचार पत्रों में समाचार छपने लगते हैं या किसी क्षेत्र विशेष के रहवासी अश्लीलता, गंदगी एवं दुर्गंध से बेजार हो जाते हैं और जनता आंदोलन पर उतारु हो जाती है तब जाकर कहीं इनके निर्माण की ओर इनका ध्यान जाता है। वास्तव में शौचालयों का निर्माण आबादी के मान से किया न जाकर इसमें भी तुष्टीकरण की नीति अपनाई जाती है। जहां 10 की आवश्यकता है वहां दो का ही निर्माण कर तुष्ट करने की कोशिश की जाती है। बरसों से यही सिलसिला चला आ रहा है। शहरों की आबादी बढ़ती ही चली जा रही है, मूत्रालयों की आवश्यकता भी उसी अनुपात में बढ़ रही है परंतु, कई वर्षों से उनके विस्तार की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है (अक्सर बडे शहरों एवं घनी आबादीवाले क्षेत्रों जैसकि बस, रेल्वे स्थानकों आदि पर लोग कतारों में खडे दिख पड जाते हैं) बल्कि जो हैं उनमें से भी कई को गायब कर दिया गया है। निर्माण भी अव्यवस्थित ढ़ंग से होता है कहीं-कहीं तो ढ़ाल उल्टा ही दे दिया जाता है, पार्टीशन की ऊंचाई रखते समय सामान्य बुद्धि तक का प्रयोग नहीं किया जाता। कहीं ड्रेनेज ही नहीं है फिर भी निर्माण और उपयोग भी प्रारंभ कर दिया जाता है, कहीं व्यापारी अपने लाभ के लिए उन्हें तोड देते हैं, उन पर अतिक्रमण कर लेते हैं। लगता है मूत्रालयों के निर्माण का कोई मानकीकरण ही नहीं किया गया है। यह भी देखने में आ रहा कि रेल्वे जो अपने निर्माण में गुणवत्ता का ध्यान रखता है वहां भी अब शौचालयों के निर्माण में गुणवत्ता उपेक्षित हो गई है जबकि बातें बॉयो टॉयलेट की की जा रही हैं।

शौचालयों से जुडी और भी कई समस्याएं जिनका निराकण भी आवश्यक है जैसेकि 2019 तक लक्ष्य पूर्ति कैसे होगी? हम इतनी सीवरेज और सीवर शोधन यंत्र व्यवस्था किस प्रकार से कर सकेंगे, फ्लश के लिए पानी कहां से आएगा, आदि? कई स्थानों पर तो ढूंढ़े से भी शौचालय मिलते ही नहीं। जो बने भी हैं वे टूटे-फूटे पडे हैं उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं। सबसे बडी बात यह है कि इस संपूर्ण चर्चा में केवल उपयोगकर्ता और निर्माण की ही बात की जा रही है परंतु, सफाईकर्मियों का पक्ष तो उपेक्षित, अनुल्लेखित ही है कि इतने प्रशिक्षित सफाईकर्मी आएंगे कहां से? वैसे सुलभ इंटरनेशल के बिंदेश्वर पाठक ने इस संबंध में सहायता का प्रस्ताव रखा है। फिर भी यह प्रश्न बचा ही रहता है कि इन सफाईकर्मियों को पर्याप्त सुरक्षा साधन भी तो लगेंगे, जो फिलहाल कार्यरत सफाईकर्मियों को ही उपलब्ध नहीं हैं तो, भविष्य के लाखों लगनेवाले सफाईकर्मियों को कहां से उपलब्ध हो पाएंगे और क्या यह काम जो लोग जन्मजात कर रहे हैं क्या वे ऐसे ही आजीवन करते रहेंगे?

 इस संबंध में उल्लेखनीय कार्य किया था अप्पा पटवर्धन ने जिन्हें कोंकण (महाराष्ट्र) का गांधी कहा जाता है जिन्होंने 'ब्राह्मण भंगी प्रभु संतान; सफाई पूजा एक समान" की घोषणा देते हुए मालवण में सफाई काम किया था। अप्पा के आत्मचरित्र 'माझी (मेरी) जीवन यात्रा" (कुल पृ. 740) की प्रस्तावना में काका कालेलकर लिखते हैं ः ''अस्पृश्यता-निवारण में भी अंत्योदय का तत्त्व स्वीकारना चाहिए, ऐसा कहनेवाला हमारा एक पक्ष है। और इसके लिए कम से कम मैला उठानेवाली जाति से पाखाने का काम छुडवाना ही चाहिए ऐसा कार्यक्रम भी सुझाया गया है। इस मामले में अप्पा ने अपने प्रयत्नों का चरम गांठा है।"" इसके लिए अप्पा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 'संडास-मूत्रालयों के नए-नए प्रयोग किए थे।" विनोबा भावे के शब्दों में 'हम दोनो महात्मा गांधी के आश्रम में थे। वे सफाई का काम करते थे और शिक्षक भी थे।" चूंकि उनके कार्य का जो महत्व है वह अलग से देना ही योग्य होगा इसलिए लेख को यहीं विराम देता हूं।

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