Monday, April 7, 2014

राम प्रेमी मुसलमान कवि

भारतीय संस्कृति के प्रतीक राम के बारे में रावण के मामा मारिच ने कहा था - रामोविग्रहवान धर्मः अर्थात्‌ श्रीराम तो मूर्तिमान धर्म हैं। राम के प्रति आदर, प्रेम, भक्ति का भाव देश-विदेश में फैला हुआ है। राम बौद्ध जातकों, जैन ग्रंथों में भी हैं। गुरु गोविंदसिंह का 'रामावतार" तो प्रसिद्ध ही है। राम मिस्त्र की लोककथाओं में भी है और वियतनाम तथा कंपूचिया तक में। मुसलमान भी इससे अछूते नहीं रह सके हैं। रामकथा को सबसे पहले सचित्र प्रस्तुत करने का श्रेय जाता है अकबर को। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश से लगाकर कई बौद्ध देशों और आग्नेय देशों से लगाकर रशिया तक में रामायण अत्यंत लोकप्रिय है। 

तुलसीदास और 'रामचरित्‌ मानस" के बारे में विख्यात मुस्लिम कवि मुहम्मद फैयाजुद्दीन अहमद खां ने निकाले हुए प्रशंसोद्‌गार हैं - यह राम नाम से है उनके प्यार की महिमा। कि सिर पे रखती हैं दुनिया कलाम तुलसी का।। कवियित्री आसिया खातून सिद्धिकी ने राम की वंदना करते हुए लिखा है - 'रोम रोम में रमा हुआ जे राम है, निर्गुण भी है सगुण और अभिराम है। ह्रास धर्म का देख कि जो प्रकटित हुआ उस विभूति को श्रद्धासहित प्रणाम है।" शाह जलालुद्दीन वसाली एक ऐसे मुस्लिम संत थे जो रामकथा मात्र सुनकर 'वसाली" (जो ईश्वर से जुड गया हो) बन गए। शाह जलालुद्दीन मुल्तान नगर में पंडित टेकचंद से श्रीरामकथा सुना करते थे, जो उस जमाने में अत्यंत कठिन काम था। इन्हीं जलालुद्दीन की कृपा से अयोध्या में पंडित टेकचंद को श्रीराम के दर्शन हुए और वे 'वलीराम" बन गए। फारसी के केवल तीन शेर पढ़कर वे अद्‌भुत विद्वान हो गए। उनका लिखा 'दीवाने वलीराम" बडा प्रसिद्ध गं्रथ है।

मुस्लिम साहित्यकारों और कवियों ने रामायण और तत्संबंधी काव्यरचनाएं की। 'रामायण फैजी" संभवतः पहिली रचना होना चाहिए। अब्दुल कादिर बदायूंनी की रामायण फारसी और सादउल्लाह मसीहकृत 'दास्ताने रामोसीता" ये अनुवाद क्रमशः 1589 और 1623 में प्रकाशित हुए। 'दास्ताने रामोसीता" तो फारसी भाषी जनता में बहुत लोकप्रिय हुआ। अकबर के प्रिय अब्दुल रहीम खानखाना तो पूरी तरह से राममय थे। दुख एवं कष्टों के क्षणों में उन्होंने लिखा था - 'भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस। दीनबंधु दुखटारन कोसलधीस।" अपने उद्धार की प्रार्थना करते हुए वे लिखते हैं - 'वेद पुरान खानत अधम उधार। केहि कारण करुनानिधि करत विचार।' 'रामचरित्‌ मानस" का पहला अनुवाद उर्दू में सन्‌ 1860 में प्रकाशित हुआ। यह अनुवाद इतना लोकप्रिय हुआ कि उर्दू में उसके सोलह संस्करण निकले। उर्दू में एक और अनुवाद 1866 में 'रामायन-ए-फरहत नज्म-हर्फ व हर्फ" प्रकाशित हुआ। वह भी बहुत लोकप्रिय हुआ और सात संस्करण उसके भी निकले।

आधुनिक रसखान के नाम से विख्यात उत्तरप्रदेश के रायबरेली के अब्दुल रशीद खान ने स्कूल के पाठ्यक्रम में सुंदरकांड पढ़ा और उससे इतने प्रभावित हुए कि रामभक्त बन गए। रामायण के अहिल्योद्धार, शिवधनुषभंग, राम का वनगमन, शबरी भेंट आदि प्रसंगों पर उन्होंने काव्य रचना की। पाकिस्तान के कवि जफर अली खां के अनुसार हिंदू सभ्यता और भारतीय संस्कृति के रुप में राम का स्वरुप सारी दुनिया के लिए आदर्शवत है। जफर कहते हैं - नकाशे तहजीबे हुनूद अपनी नुमाया है अगर तो वे सीता से है लक्ष्मन से है राम से है।"  वे बिना किसी दिक्कत के आगे कहते हैं - 'मैं तेरे शोज ः ए तसलीम पे सिर धुनता हूं कि। यह इक दूर की निसबत तुझे इस्लाम से है।" बांग्लादेश के राष्ट्रकवि नजरुल इस्लाम ने रावण की कैद में सीता को उद्देशित कर दुखी होकर लिखा है- 'किस सुदूर अशोक कानन में बंदिनी तुम सीता और कब तक जलेगी मेरे वक्ष में विरह की चिंता सीता ओ सीता।"

उत्तरप्रदेश कानपुर के प्रसिद्ध रामकथाकार बद्रिनारायण तिवारी के मंच मानस संगम द्वारा प्रकाशित 'रामकथा और मुस्लिम साहित्यकार" जिसके कई संस्करण छप चूके हैं में दसियों मुस्लिम विद्वानों के लेखों को इकट्ठा किया गया है जैसेकि शैलेश जैदी, महफूज हसन रिजवी, डॉ रहमतउल्लाह, डॉ. नूरजहां बेगम आदि जिन्होंने रामकथा की धारा में डूबकी लगाई है। रामकथा के रससाहित्य में सराबोर हो नथूर वाहिदी लिखते हैं - 'तुलसीजी के सुंदर सपने संत कबीर के पास कहां। मन मंदिर के बंद पटों में जीवन का इतिहास कहां। ध्यान के गहरे सागर में प्रेम जो डूब गया वो डूब गया। उनकी नजर में पे्रम नगर में सीता का बनवास कहां।"  डॉ. जलाल अहमद खां 'तनवीर" रामचरित मानस जैसे महाकाव्य और तुलसीदास के विषय बिल्कूल सहजता से लिखते हैं - 'कर रहे हैं हर अधर, गुणगान सीता राम के। चल रही हर ओर चर्चा राम की अविराम है।।" कबीर जैसे क्रांतिकारी संत ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को 'बापराम" या 'बापरामराय" स्वीकारते हुए कहा था - 'राम राई मेरा कहना सुनीजै। पहले बकसि, तब लेखा लीजै।" 'हे मेरे रामराय! मेरी बात सुनिये तथा क्षमा करिये ... अब मैं तेरी शरण में आ गया हूं।  
  
परंतु, रामकथा के प्रेमी, रामरस में डूबे इन मुस्लिमों की दशा बडी ही दयनीय रहती है। कट्टर मुसलमान इनके विरोधी रहते हैं इनके रामप्रेम को कुफ्र करार देते हैं। तो, हिंदू भी इन्हें विधर्मी मुसलमान ही मान दिल से सम्मान नहीं देते, इनके कार्यों पर गौर नहीं करते। ये भले ही शिकायत ना करें परंतु हालात बयां करते हैं। रहीम की बदनसीबी देखिए, मुसलमान उन्हें इसलिए नहीं मानते कि उन्होंने राम, कृष्ण, शिव, गंगा आदि हिंदू देवताओं का गुणगान किया और हिंदू इसलिए कि वे उनके बारे में अज्ञानी हैं। तभी तो आज निजामुद्दीन में उनकी मजार उपेक्षित पडी है। वहां चादर चढ़ाने कोई नहीं आता। जबकि अमीर खुसरो के उर्स होते हैं, रात-रात भर कव्वालियां गाई जाती हैं। क्या कभी कोई दिन भी आएगा जब दिन फिरेंगे शायद फिर भी जाएं तब तक रहीम के इस दोहे पर ही मनन करें- 'रहिमन चुप है बैठिए देखि दिनन को फेर। जब नीके दिन आइ हैं बनतन लागै बैर।।" 

2 comments:

  1. bahut sundar likha hai ji hamara gyaan badhane main aapke lekh ne ek mahatvpoorn rol adaa kiya hai thanks !! aap aagya deven to aapki is rachna ko apne blog par share kar doon taaki or jyada log raam ko jaan saken or unke bhakton ko bhi !!

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  2. kyon nahi avshya. bas krupya isi tarah protsahan dete rahe. bahut-bahut dhanyvad

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