Sunday, October 27, 2013

स्वदेशी का अंगीकार करें - बहिष्कार करें चीनी सामान का


20 जुलाई 1905 को ब्रिटिश शासन ने बंग-भंग की घोषणा की और उनके इस आव्हान को भरपूर साहस से स्वीकारते हुए लो. तिलक ने साम्राज्यवादी शक्तियों का मुंहतोड उत्तर देने के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का स्वीकार ये दो सूत्र प्रमुख रुप से दिए। वस्तुतः 'स्वदेशी" और 'बहिष्कार" एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इसीलिए 7 अगस्त 1905 से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का स्वीकार आंदोलन तीव्रता से प्रारंभ हुआ। अरविंद घोष, रविंद्रनाथ ठाकुर, लालालाजपत राय इस आंदोलन के मुख्य उद्‌घोषकों में से थे। आगे चलकर गांधीजी ने इस स्वदेशी आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्रबिंदु बनाया। इस आंदोलन के प्रभाव के कारण ही लो. तिलक ने 'हिंद केसरी" की शुरुआत कर हिंदी के प्रचार-प्रसार का अभियान चलाया। पं. मदनमोहन मालवीयजी ने काशी हिंदूविश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात हिंदी एक विषय के रुप में सम्मिलित करके 'अभ्युदय", 'मर्यादा", 'हिंदुस्थान" आदि पत्रों का प्रारंभ एवं सम्पादन कर हिंदी का प्रचार प्रसार शुरु किया।



लो. तिलक के आवाहन पर देश में स्वदेशी और बहिष्कार का आंदोलन चलानेवालों में क्रांतिकारी सावरकर बंधुओं का विशेष स्थान रहा है। 1 अक्टूबर 1905 को पुणे की एक सभा में वीर सावरकर ने छात्रों के सम्मुख विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का एक आश्चर्यमयी प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव की स्वीकृति हेतु जब सावरकर तिलक से मिले तो उन्होंने एक शर्त लगा दी कि, दस-बीस वस्त्र जलाने से काम नहीं चलेगा यदि विदेशी वस्त्रों की होली जलानी ही है तो ढ़ेरों कपडे जलाने होंगे। इस शर्त के अनुसार ही सावरकर ने 7 अक्टूबर 1905 को दस बीस नहीं तो ढ़ेरों विदेशी वस्त्रों से लदी एक गाडी की होली जलाई। सावरकर की यह परिकल्पना इतनी अनूठी थी कि पूरे 16 वर्षों के अनंतर क्यों ना हो गांधीजी ने 9 अक्टूबर 1921 को मुंबई में इसी प्रकार विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।



गांधीजी में स्वदेशी ललक इतनी जगी हुई थी कि दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित अपनी पत्रिका 'इंडियन ओपीनियन" (गुजराती संस्करण 28 दिसंबर 1907) में गांधीजी ने पाठकों से 'पैसिव रेजिस्टेंट", 'सिविल डिसओबिडिएन्स" और ऐसे ही कतिपय शब्दों के लिए समानार्थक गुजराती शब्द सुझाने का कहते हुए इसके लिए पुरस्कार भी रखा था। गांधीजी के इस आवाहन के प्रत्युत्तर में उन्हें 'प्रत्युपाय, कष्टाधीन प्रतिवर्तन, कष्टाधीन वर्तन, दृढ़प्रतिपक्ष, सत्यनादर, सदाग्रह आदि शब्द जब प्राप्त हुए तो तब उन्होंने उन सब शब्दों के अर्थों का अलग-अलग विश्लेषण करने के तत्पश्चात सदाग्रह शब्द का चयन किया और उसे बदलकर 'सत्याग्रह" कर दिया। इस विषय में तब गांधीजी ने लिखा था ''सिविल डिसओबिडिएन्स" तो असत्य का अनादर है और जब वह अनादर सत्य रीति से हो तो "सिविल" कहा जाएगा। उसमें भी 'पेसिव" का अर्थ समाया हुआ है। इसलिए फिलहाल तो एक ही शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और वह है - 'सत्याग्रह"। गांधीजी ने आगे यह भी लिखा था कि ः जल्दी-जल्दी करके चाहे जो शब्द दे डालने से अपनी भाषा का अपमान होता है और अपना अनादर होता है। इसलिए ऐसा करना, और वह भी 'पेसिव रेजिस्टेंस" जैसे शब्द अर्थ देने के सिलसिले में, एक तरह से 'सत्याग्रही" के संघर्ष का ही खंडन हुआ।



सावरकर ने तो 1893 में 10 वर्ष की आयु में ही 'स्वदेशी" का उपयोग करो का विचार प्रस्तुत करनेवाली कविता लिखी थी। यह निर्विवाद है कि लोकमान्य तिलक का बहुत प्रभाव सावरकर पर था और कदाचित्‌ तिलक के ही कहीं किसी भाषण में सावरकर ने वह सुना हो इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लोकमान्य तिलक ने तो 1998 में ही पुणे में स्वदेशी वस्तुओं के विक्रय के लिए एक दुकान प्रारंभ की थी। इनके भी पूर्व बंगाल के भोलाचंद्र ने 1874 में शंभुचंद्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित 'मुखर्जीज मेगजीन" में स्वदेशी का नारा दिया था। 1870 में 'वंदेमातरम्‌" का महामंत्र देनेवाले बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने 1872 में 'बंगदर्शन" में स्वदेशी का नारा दिया था। वंदेमातरम्‌ के उद्‌घोष ने इसी आंदोलन के दौरान महामंत्र का रुप धर प्रत्येक भारतीय को आंदोलित कर दिया।

उपर्युक्त उदाहरण इसलिए दिए हुए हैं कि स्वदेशी का विचार कितना पुराना है यह पाठक जान सकें। आपको आश्चर्य होगा कि  यह विचार सबसे पहले महाराष्ट्र के निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता गणेश वासुदेव जोशी (9-4-1828 से 25-7-1880) जिनके द्वारा किए गए सार्वजनिक कार्यों के कारण उनको 'सार्वजनिक काका" ही कहा जाने लगा था, ने दिया था। समाजसुधारक न्यायमूर्ति रानडे के साथ मंत्रणा कर सार्वजनिक काका ने 1872 में स्वदेशी आंदोलन का श्रीगणेश किया था। उन्होंने 'देशी व्यापारोत्तेजक मंडल" की स्थापना कर स्याही, साबुन, मोमबत्ती, छाते आदि स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन करने को प्रोत्साहन दिया था। इसके लिए स्वयं आर्थिक हानि भी सही थी। इस स्वदेशी माल की बिक्री के लिए सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित पुणे, सातारा, नागपूर, मुंबई, सुरत आदि स्थानों पर दुकाने प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित किया था। स्वदेशी वस्तुओं की प्रदर्शनियां भी आयोजित की। उन्हींके प्रयत्नों से आगरा में कॉटन मिल शुरु की गई थी। यही कार्य सावरकर ने 1924 से 1937 तक रत्नागिरी में नजरबंदी की अवस्था में बहुत बडे पैमाने पर किया था।


12-1-1872 को उन्होंने खादी उपयोग में लाने की शपथ ली थी और उसे आजीवन निभाया। खादी का उपयोग कर उसका प्रचार-प्रसार करनेवाले वे पहले द्रष्टा देशभक्त थे। इतना ही नहीं तो खादी का पोशाक कर 1872 में दिल्ली दरबार में भी सार्वजनिक सभा की ओर से गए थे। (जिसकी स्थापना उन्होंने उस काल में पुणे के 95 प्रतिष्ठित लोगों को लेकर कानूनी पद्धति से राजनीतिक कार्य किए जा सकें। जनता की शिकायतें सरकार के सामने प्रस्तुत की जा सके, उसे सार्वजनिक किया जा सके इसके लिए 1970 में की थी। इस प्रकार इस सार्वजनिक सभा को राजनीति का आद्यपीठ या कांग्रेस की जननी भी कहा जा सकता है।)



यह इतिहास कथन इसलिए कि इससे प्रेरणा ले आज फिर से इस स्वदेशी के विचार को अपनाने, इसके प्रचार-प्रसार, आंदोलन की आवश्यकता तीव्रता से महसूस की जा रही है। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग कांग्रेस या किसी विशिष्ट विचार के लोगों का नहीं तो समूचे राष्ट्र का संकल्प था और होना चाहिए। आज वैश्वीकरण के इस दौर में मुक्त द्वार की नीतियों का लाभ उठा चीन अपने सस्ते उत्पादों से पूरे भारत के बाजारों को पाटता चला जा रहा है। हमारे उद्योग-धंधे चौपट हुए जा रहे हैं। चीन का इतिहास विश्वासघात का रहा है वह न केवल हमारी भूमि को दबाए बैठा है, सीमाओं पर समस्याएं खडी कर रहा है वरन्‌ अपने सस्ते सामान का हमारे बाजारों में ढ़ेर लगाकर हमें अन्यान्य तरीकों से हानि भी पहुंचा रहा है, हमारे सामने नई-नई समस्याओं को खडी करने के साथ ही साथ चुनौती भी दे रहा है।



आज बाजार में जिस ओर नजर घूमाइए उस ओर चीनी सामान दिख पडेगा। घरेलू सामान,बच्चों के खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान, मोबाईल से लेकर हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियां तक आखिर क्या नहीं है। यह सारा चीनी सामान हमारे घरेलू उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पादों से सस्ता है। बाजार के लिए उत्पादन से सस्ता आायत पड रहा है लेकिन इससे हमारे लघु, मध्यम, कुटिर उद्योग चौपट हुए जा रहे हैं। लाखों लोग बेरोजगारी की गर्त में जा रहे हैं। इस पर चिंतन आवश्यक है। यह एक कुटिल चाल है। आज सस्ता लगनेवाला माल कल बहुत महंगा पडेगा। अंग्रेजों ने भी इसी तरह सस्ता माल उपलब्ध करवा पहले व्यापार फिर देश की दुर्दशा की। आर्थिक गुलामी का अगला पडाव राजनैतिक गुलामी ही है।



सस्ते चीनी सामान के हम आदि होते जा रहे हैं। चीनी उद्योगों ने हमारे उद्योगों को निगलना प्रारंभ कर दिया है इसका ज्वलंत उदाहरण है लुधियाना का साइकल उद्योग। जो पुर्जे पहले देश में बनते थे वे अब चीन से मंगाए जा रहे हैं। हमारे ही पैसों से चीनी मालामाल हो रहे हैं तो हम कंगाल। विश्वासघाती और दादागिरी करनेवाला चीन हमारा हितचिंतक कभी भी नहीं हो सकता। सस्ता मिल रहा है इसलिए चीनी माल खरीदकर हम चीन को दृढ़ कर स्वयं के साथ छल कर रहे हैं। आज कंपनियां, उद्योग गुहार लगा रहे हैं लेकिन कोई सुन नहीं रहा। यह वही चीन है जिसके माओत्सेतुंग ने अनेक बार कहा था - तिब्बत चीन की हथेली है तो नेफा, भूटान, नेपाल, लद्दाख, सिक्किम इसकी उंगलियां हैं। जिन्हें हम हासिल करके ही रहेंगे।

चीन के साथ हमारा निर्यात कम और आयात अधिक है। परिणामतः हमारा धन उनके पास चला जाता है जो हमारे ही खिलाफ उपयोग में लाया जाता है। सर्वेक्षणों के अनुसार बिजली के सीएफएल का प्रमुख कच्चा माल फास्फोरस के लिए हम चीन पर निर्भर हैं। अभी हाल ही में चीन ने फास्फोरस की कीमतें बढ़ाकर हमारी चूलें हिला दीं। दवा उद्योग बल्क ड्रग के लिए पूरी तरह चीन पर निर्भर है। दूरसंचार क्षेत्र का 50% आयात पर निर्भर है उसके 62% पर चीन का अधिकार है। बिजली परियोजनाओं के 1/3 बॉयलर, टरबाईन चीन से आए हुए हैं। देशभर में चल रही विभिन्न परियोजनाओं में चीन कम दरों में ठेके लेकर धीरे-धीरे अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है जो आगे जाकर घातक सिद्ध होंगी। उसकी घटिया मशीनरी, पुरानी पडती जा रही टेक्नालॉजी सस्ते के चक्कर में हम अपनाते जा रहे हैं जो कल को निश्चय ही दुखदायी साबित होगा। चीन हमसे कच्चे माल के रुप में लोह अयस्क, रबर यहां तक कि कपास तक आयात कर रहा है और बाद में निर्मित वस्तुओं के रुप में हमें ही निर्यात के रुप में लौटा रहा है। क्या ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास को दोहराया नहीं जा रहा है।

हमें एक बार फिर से स्वदेशी का अंगीकार और विदेशी (यानी चीनी) का बहिष्कार के सूत्र को अपनाना होगा। हमें चीनी माल का बहिष्कार कर अपने राष्ट्रधर्म का पालन करना चाहिए। भारतीय उत्पादों की विश्वसनीयता भारत ही नहीं तो पूरे विश्व में चीन की अपेक्षा अधिक है। हमारी प्राथमिकता 'सस्ता" नहीं वरन्‌ 'सुरक्षा, सम्मान, स्वाभिमान" की होना चाहिए।

आज भी प्रासंगिक होने के कारण इस लेख का समापन मैं बंकिमचंद्र चटोपाध्याय व भोलाचंद्र के इन कथनों के साथ करता हूं - ''जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पडे हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए एक विराट अतिथिशाला बन गई है।"" ''आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों द्वारा ही सम्भव है।""

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