Thursday, March 15, 2012

आतंकवाद और मुस्लिम विद्वान

हिंसक इस्लामिक आतंकवाद जो वर्तमान में सतत चर्चा में बना हुआ है पर इस्लामी विद्वानों द्वारा जो विचार-वक्तव्य साधारणतया बार-बार दिए जाते हैं, दोहराए जाते हैं। वो कितने निर्रथक हैं, सर्वसाधारण को गुमराह करनेवाले हैं वह सर्वसाधारणजन इस्लाम के प्रति घोर अज्ञान, इस्लामी भाषा और उनसे निकलनेवाले अर्थो से अनभिज्ञता के कारण उन बयानों के पीछे छिपे वास्तविक अर्थों, निहितार्थो को समझ ही नहीं पाते और गुमराह होकर रह जाते हैं। उदाहरणार्थ मुस्लिम विद्वानों द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले चंद बयानों की बानगी देखिए ः उनमें पहला है, ये जो हिंसक कृत्य जिहाद के नाम पर किए जा रहे हैं ये कुछ राह से भटके हुए मुस्लिमों का काम है जो कुरान की आयतों की गलत व्याख्या करते हैं। यदि यह सच है तो फिर ये विद्वान यह क्यों नहीं बतलाते कि वे आयतें कौनसी हैं जिनकी कि गलत व्याख्या की जा रही है, यह गलत व्याख्या किन मुस्लिम विद्वानों के कुरान भाष्यों के आधार पर 'ये राह से भटके हुए मुस्लिम" कर रहे हैं, उन्हें यह कुरान भाष्य कहां से उपलब्ध होते हैं; करवाए जाते हैं? सवाल यह भी उठता है कि यदि उनके द्वारा की जा रही व्याख्या गलत है जैसाकि इन मुस्लिम विद्वानों का कहना है तो फिर वे यह बतलाए कि सही व्याख्या कौनसी है? साथ ही यह भी बतलाए कि सही व्याख्या करनेवाले विद्वान कौन और कितने हैं और उन्होंने कौन से कुरान भाष्य लिखे हैं, वे कहां उपलब्ध हो सकते हैं? आदि। पर इस बारे में सब मौन हैं।

दूसरा, कोई आतंकवादी घटना घटित होने पर जब कोई प्रतिक्रियास्वरुप कहता है कि हर आतंकवादी घटना में आतंकवादी मुस्लिम ही होता है जिसके कारण कई निर्दोष मारे जाते हैं तो मुस्लिम विद्वानों द्वारा झट कहा जाता है कि हिटलर ने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारा, तानाशाह पोलपोट ने भी निर्दोषों का नरसंहार किया जो आतंकवादियों द्वारा मारे गए लोगों की बनिस्बत कई गुना अधिक थे और ये तो मुस्लिम नहीं थे। तो यह मुस्लिम विद्वानों द्वारा आलोचकों के आक्रमण की धार को बोथरा करना ही हुआ। यदि हम इन निर्दोषों का संहार करनेवालों को इस निम्न कसौटी पर कसकर देखें तो सत्य क्या है यह अपने आप ही सामने आ जाएगा। इस्लाम में जिहाद की आज्ञाएं हैं जो कुरान में दी हुई हैं जिन्हें मुस्लिम आतंकवादी अपने इष्टत्व और न्यायत्व को सिद्ध करने के लिए दिखलाते हैं, प्रस्तुत करते हैं। जबकि अन्य नरसंहार करनेवालों उदा. हिटलर के पास इस प्रकार की कोई ईश्वरीय या धार्मिक आज्ञाएं नहीं थी। स्पष्ट है कि दोनो के कृत्यों को एक कसौटी पर कसकर देखा नहीं जा सकता। जैसाकि इस्लामिक विद्वान करने की कोशिश करते नजर आते हैं। वैसे तो यह वक्तव्य बार-बार दोहराया जाता रहता है कि 'इस्लाम निर्दोषों की हत्या की अनुमति नहीं देता।" परंतु, 'जिहाद में निर्दोषों की बलि लेना भी आता है, ऐसा कैरो (इजिप्त) स्थित 1000 वर्ष पुराने 'अल-अजहर" विश्वविद्यालय के कुछ गुरुओं का कहना है।" यह 'अल-अजहर" विश्वविद्यालय वही है जहां कई इस्लामिक आंदोलनों का जन्म हुआ अथवा उन्हें लगनेवाली प्रेरणा मिली। पॅलेस्टाईन में हिंसक कार्यवाहियां करनेवाले 'हमास" नामके संगठन का जन्म 'अल-अजहर" में ही जन्मे मुस्लिम ब्रदरहुड में से ही हुआ है। अल-कायदा के संस्थापकों में से एक अयमान अल जवाहरी जो ओसाम बिन लादेन का गुरु है इसी अल-अजहर विश्वविद्यालय स्थित मस्जिद परिसर में पला-बढ़ा है। पेशे से डॉक्टर है, कट्टर मुस्लिम ब्रदर है और 11 सितंबर की अमेरीकी आतंकवादी घटना की कल्पना का जनक है।

तीसरा अनगिनत बार दोहराया जानेवाला वक्तव्य है 'जिहाद मतलब अपने अंदर के शैतान को मारो" अर्थात्‌ षड़रिपुओं का दमन करो। यही असली जिहाद है, जिहाद ए अकबर अर्थात्‌ बडा जिहाद है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह मुस्लिम विद्वान यह नहीं बतलाते कि यह 'जिहाद ए अकबर" इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद साहेब ने अपने मक्काकाल के शुरुआती दौर में किया था जब वे अल्पसंख्यक थे, शक्तिहीन थे। लेकिन आगे चलकर मदीनाकाल में शक्तिसंपन्न होते ही मुहम्मद साहेब ने अपनी नीति बदल दी और तलवार वाले जिहाद को अपना लिया और उसी दृष्टि से कुरान में आज्ञाएं भी आने लगी। कुरान की कालानुक्रम से अंतिम माने जानेवाली सूरह अल-तौबा को 'मियान से निकली हुई तलवार" ही कहा गया है। और इस जिहाद का तलवार से जो अटूट संबंध है उससे मौ. आजाद जैसे राष्ट्रीय मुसलमान भी इंकार नहीं करते सूरह अल तौबा की आयत 41 ''निकल खडे हो.....जिहाद करो अल्लाह की राह में अपने माल और जान के साथ"" पर भाष्य करते हुए मौ. आजाद लिखते हैं 'संपूर्ण वित्त और प्राणों सहित प्रत्येक के लिए अल्लाह के कार्य के लिए जिहाद करना बंधनकारक है।" (तर्जुमन अल कुरान खंड 3 पृ.28) इसलिए इस्लामिक आतंकवाद पर लोगों के क्रोध को ठंडा करने के लिए इस प्रकार के लीपापोती करनेवाले वक्तव्य देने की बजाए ये विद्वान वास्तव में अपने समाज में जाकर पुरजोर अपील करें, जी तोड कोशिश पूरा मन लगाकर करें कि वे तलवार वाले जिहाद को भूलकर, छोडकर 'जिहाद ए अकबर" को अपनाएं और इसका पाठ पढ़ाने के लिए ईमानदारी से प्रयत्न करें तो ज्यादह अच्छा होगा।

एक और वक्तव्य जो मुस्लिम विद्वानों द्वारा उछाला जा रहा है वह है 'इस्लाम की स्थापना ही आतंकवाद के विरुद्ध हुई है।" इस्लाम के अनुसार बिल्कुल सत्य है इससे इंकार नहीं। परंतु, इस्लामिक दृष्टि से आतंकवाद क्या है यह समझना अत्यावश्यक है। पहले हम यह समझ लें कि आतंक कौन फैलाता है? जो 'जुल्मी", 'अन्यायी" होता है वह। और इस्लाम के अनुसार अनेकेश्वरवाद/बहुदेववाद सबसे बडा जुल्म, अन्याय है। (कुरान की सूर 31 आयत 13देखें इस संबंध में हदीस बु. 32,3428) अर्थ स्वतः स्पष्ट है। अंत में बार-बार दोहराया जानेवाला वक्तव्य जो इतनी बार दोहराया जा चूका है कि उसकी कोई सीमा ही नहीं रही। वह है 'इस्लाम मतलब शांति-अमन-पीस।"
'डिक्शनरी ऑफ इस्लाम" में 'अमन" का अर्थ 'मुस्लिम विजेता द्वारा जजिया कर देनेवाले को दिया हुआ संरक्षण।" इस्लाम का एक और अर्थ है 'अल्लाह की इच्छा को शरण जाना।" और अल्लाह की इच्छा क्या है यह कुरान की सूरह 'बकर" की 193वीं आयत में है। उसके अनुसार ''एक अल्लाह ही का दीन (इस्लाम धर्म) हो जाए"" अर्थात्‌ सर्वत्र इस्लाम धर्म की स्थापना हो। यहां भी अर्थ स्वयं ही स्पष्ट है कि अल्लाह की इच्छा को शरण जाओ मतलब इस्लाम स्वीकारो और शांति पाओ। आगे इसी इस्लाम मतलब शांति के समर्थन में यह भी कहा जाता है कि जिस धर्म में एक दूसरे से मिलते ही 'अस-सलाम वालेकुम" कहा जाता है और उत्तर में 'वालेकुम अस सलाम" जिसका अर्थ होता है 'खुदा से तुम्हें शांति मिले और खुदा तुम्हारी रक्षा करे" ऐसा धर्म भला हिंसक कैसे हो सकता है? परंतु, यह कथन अधूरा है। वस्तुतः इस संबंध में हदीस (पैगंबर मुहम्मद की उक्तियां और कृतियां) है जो इस प्रकार से है ः पैगंबर ने अनुयायियों से कहा था कि ः 'ग्रंथधारकों (अर्थात्‌ यहूदी-ईसाई) को पहले सलाम मत करो। वे तुम्हें 'अस सलाम वालेकुम" (तुम पर शांति रहे) कहें, तो उन्हें प्रति सलाम करते समय 'वालेकुम" (तुम पर भी वैसी ही रहे) कहो (मुस्लिमः 5380, 81, 89) उन्होंने आगे ऐसा भी कहा था कि, 'अगर यहूदी तुम्हें 'साम वालेकुम" (तुम पर मृत्यु रहे) कहें तो उन्हें तुम 'वालेकुम" (तुम पर भी वैसी ही रहे) कहो। (मुस्लिमः 5382,86-88) तथापि, अनेकेश्वरवादियों/मूर्तिपूजकों को सलाम किस प्रकार से करें का उल्लेख हदीस में नहीं मिलता। जिन पाठकों को कुरान संबंधी थोडी बहुत भी जानकारी होगी वे सूज्ञ अर्थ स्वयं ही समझ जाएंगे।

स्पष्ट है कि यदि मुस्लिम विद्वान, इस्लाम के सच्चे अनुयायी तहे दिल से चाहते हों कि इस्लाम मतलब शांति सार्थक सिद्ध हो तो उपर्युक्त प्रकार की शब्दों की लफ्फाजी के बजाए वास्तविकता के धरातल पर उतरकर गंभीरतापूर्वक सोचें, प्रयत्न करें कि इस्लामिक आतंकवाद का नाश करने में वे किस प्रकार से सहयोग प्रदान कर सकते हैं। क्योंकि, आतंकवादी उन्हीं के, इस्लाम के अनुयायी, मुस्लिम हैं।

No comments:

Post a Comment