Sunday, September 15, 2013

हिंदी दिवस 14 सितंबर


 अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीयता का मिथक



कई लोग कहते हुए मिल जाएंगे कि अंग्रेजी विश्वभाषा है, उसे सीखे बगैर प्रगति कर नहीं सकते। यह पूरी तरह सत्य नहीं है। यह बात वे लोग करते हैं जो अंग्रेजी के सिवाय कुछ नहीं पढ़ते, जिन्हें दूसरी भाषाओं का रत्तीभर ज्ञान नहीं। अंग्रेजी अच्छी तरह से जाननेवाले आखिर इस देश में हैं ही कितने? किंतु इन लोगों ने राजकाज पर अपना वर्चस्व बना रखा है और इन्हीं लोगों ने अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीयता के मिथक का हौआ खडा कर रखा है।

यदि संपूर्ण विश्व परिदृश्य का इस संबंध में निरीक्षण किया जाए तो दिख यह पडेगा कि दर्शन हो या साहित्य, राजनीति का क्षेत्र हो या कला का यहां तक कि विज्ञान का भी तो अंग्रेजी का कहीं भी एकाधिकार नहीं है। विश्व के महान दार्शनिकों में गिने जानेवाले सुकरात, अरस्तू, अफलातून, हीगल, मार्क्स, गौतमबुद्ध, कणाद, कपिल आदि में से ना तो कोई अंग्रेज है ना ही अंग्रेजीभाषी। धर्म के क्षेत्र पर विचार करें तो जितने भी विश्वव्यापी धर्म हैं उनके धर्मग्रंथ मूलरुप से अंग्रेजी में नहीं लिखे गए हैं। अंग्रेजी तो बडी कठिनाई से आधा दर्जन देशों में राजकाज या घर-बाजार की भाषा है। इसका होहल्ला क्या केवल इसलिए है कि कभी विश्व में अंग्रेजों के राज में सूरज डूबता नहीं था!


यदि अकेली अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा होती तो संयुक्तराष्ट्र में अंग्रेजी के व्यतिरिक्त चीनी, फ्रेंच, स्पेनिश, रुसी यहां तक कि अरबी  भाषा को मान्यता ना होती। अमेरिका में भी अंग्रेजी का एकाधिकार नहीं है। कहीं स्पेनिश तो, कहीं फ्रेंच, डच भाषा का वर्चस्व है। यहां तक कि कई क्षेत्रों में अरबी, उर्दू, हिंदी, पंजाबी बहुतायत से बोली जाती है। अंतरराष्ट्रीय डाक भाषा भी अंगे्रजी ना होकर फ्रेंच है। विश्व में बहुतायत से बोली जानेवाली भाषा स्पेनिश है। एक समय था जब ब्रिटेन में अंग्रेजी को हीन समझा जाता था और प्रभुत्व फे्रंच का था। जितने भी कानून बनते थे वे फे्रंच में बनते थे और ऊँची शिक्षा की भाषा लैटिन थी। जो तर्क आज अंग्रेजी के लिए दिए जाते हैं वही तर्क किसी समय फ्रेंच और लैटिन को बनाएं रखने के लिए दिए जाते थे। अंग्रेजी को लाने के लिए संघर्ष करना पडा, अंग्रेजों का स्वाभिमान अंततः रंग लाया और इंग्लैंड में अंग्रेजी राजकाज की भाषा बनी।



अंग्रेजों ने आयरलैंड की भाषा गेलिक को एक शताब्दी में समाप्त कर अंग्रेजी को थोप दिया था। 1929 में आयरलैंड में गेलिक भाषा के लिए विद्रोह हो गया और अंत में समझौता होकर आयरिश गेलिक भाषा को आयरलैंड में राजकीय भाषा बनने का अधिकार प्राप्त हुआ। इसी प्रकार का विरोध मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपीन, सिंगापुर आदि में भी हो चूका है और अंगे्रजी के वर्चवस्व को वहां नकार दिया गया है। मध्य पूर्व के अरब देशों ने भी अपने निशाने पर अंग्रेजी को ही लिया था। चीन, कोरिया, जापान, वियतनाम ने अपनी भाषा को इतना उन्नत कर रखा है कि सारी प्रौद्योगिकी, आर्थिक, रक्षा, विज्ञान और राजनय के क्षेत्र में सारा काम उनकी अपनी भाषा में ही होता है। उनके यहां एक मोर्चा सतत अंगे्रजी के विरोध में डटा रहता है। वे अपनी प्रौद्यिगिकी भी अपनी भाषा में ही उपलब्ध कराते हैं, आपको उनकी भाषा आती हो या नहीं।



अब यदि हम हमारे देश के संबंध में विचार करें तो क्या देखते हैं कि हिंदी दिवस ने एक प्राणहीन, नीरस परंपरा का रुप धर लिया है। अंग्रेजी स्कूल कुकुरमुत्तों के रुप में उगते चले जा रहे हैं जहां अंग्रेजी के नाम पर अधकचरी पीढ़ी जिन्हें न तो ढ़ंग से हिंदी आती है और ना ही अंगे्रजी समझने-बोलने योग्य हो पाते हैं, तैयार की जा रही है। जबकि हिंदी इतनी प्रभावी है कि वोट मांगना हो तो हिंदी में ही मांगना पडता है, विज्ञापन हिंदी के ही लोकप्रिय हो पाते हैं, हिंदी बिना उनका काम चल नहीं सकता। इन बहुराष्ट्रीय व्यापारिक संस्थाओं को अपना सामान जो बेचना है। हां, इससे एक भय यह अवश्य पैदा हो गया है कि जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना चाहिए कहीं वह बाजार की भाषा ना बनकर रह जाए! वैसे यह होना असंभव सा ही है, बस आवश्यकता है तो इच्छाशक्ति की जिसके आधार पर ही हम हिंदी को उसका स्थान दिला सकते हैं।



ऊपर वर्णित आंदोलन, उनकी सफलता, उनके स्वाभिमान से हमें प्रेरणा, मार्गदर्शन लेना होगा। वैश्वीकरण से उपजी प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थिति का लाभ उठाकर हम हिंदी को और अधिक प्रभावी कर सकते हैं। जब कमाल अतातुर्क ने तुर्की को आधुनिक रुप देना प्रारंभ किया था तब उसने अपने अधिकारियों से पूछा- 'क्या देश का सारा कारोबार तुर्की भाषा में चलाना संभव है?" तब तक सारा कारोबार अंग्रेजी में ही चलता था। अधिकारियों ने कहा, 'सर ! इसके लिए कम से कम छः महीने आवश्यक हैं।" इस पर कमाल ने उत्तर दिया, 'समझो कि वे छः महीने आज रात को ही समाप्त हो रहे हैं और कल सुबह से पूरी तरह तुर्की भाषा में कारोबार करना शुरु करो।" बस तब से आजतक तुर्की का सारा कामकाज तुर्की भाषा में चला आ रहा है। और आज हम जिस विकास-विकास की रट लगाए रहते हैं उस दौड में वह हमसे कहीं आगे है एवं तुर्की भी हमारी तरह एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक देश है। वैश्विक राजनीति में वह कहीं से भी कमतर नहीं है।



वास्तव में आज हमें एक ऐसे क्रांतिकारी नेतृत्व को तलाशना होगा जो वर्तमान में व्याप्त निराशा के वातावरण से देश को उभारने के साथ ही साथ सत्ता में आने के पूर्व भी और आने के बाद भी हिंदी के मुद्दे को ना भूले इसके लिए वातावरण बनाना पडेगा तभी हिंदी दिवस मनाना सार्थक सिद्ध होगा। 

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