Friday, September 28, 2012


आदि और अनादि गणपति

श्रीगणेशजी ऐसे देवता हैं जिनकी प्रतिष्ठा सभी संप्रदायों में है, अखिल भारतीय है। इनके अलावा यह सर्वमान्यता श्रीहनुमानजी को ही प्राप्त है। भारतीय संस्कृति में श्रीगणेश के आठ नाम विशेष रुप से लिए जाते हैं जो श्रीगणेश की आठ सिद्धियों और आठ महिमाओं के प्रतीक हैं। वास्तव में श्रीगणेश गणपति के रुप में अधिक महत्व रखते हैं। एक प्रकार से देखा जाए तो वे हमारे भारतीय गणतंत्र के प्रथम गणपति हैं और यह पद उन्हें ज्ञानी होने के कारण मिला है। क्योंकि, ज्ञानी ही किसीके दुखों का हरण कर सकता है और गणपति यदि विघ्न विनाशक, विवेकी, गंभीर न हो तो वह राष्ट्र की रक्षा कैसे कर सकते हैं। श्रीनारद ने स्तवन में गणेशजी के बारह पर्यायों का प्रयोग किया है। ग्यारहवां नाम गणपति है जो सभी गणों के पति अर्थात्‌ देवगण, मनुष्यगण और राक्षसगण के स्वामी से तात्पर्य रखता है। 'ग" अर्थात्‌ ज्ञान और 'ण" यानी 'निर्वाण" के पति से भी तात्पर्य रखता है।

श्रीगणेश विघ्नहर्ता एवं िऋद्धि-सिद्धि के दाता हैं। उन्हें ज्ञान व बुद्धि का प्रतीक भी माना गया है। उनके इसी रुप के कारण ऐसा कोई काम नहीं जिसे उनका स्मरण किए बिना आरंभ किया जा सकता हो। भारत जैसे कृषिप्रधान देश में प्रकृति की अनुकूलता के साथ ही जीवन का विकास भी चलता है और हम भारतीयों के जीवन में संकट से अधिक परेशानी क्षण प्रति क्षण घटित होनेवाले विघ्नों से ही होती है। इसलिए श्रीगणेशजी का विघ्नविनाशक रुप अधिक लोकप्रिय है।

हमारे तात्विक और सामाजिक जीवन में विघ्न का केंद्रीय महत्व है। हमारी मान्यता यह है कि बिना मांगल्य की भावना के ऐश्वर्य की कामना करना विनाश की ओर उन्मुख होना है। क्योंकि, ऐश्वर्य के साथ विनाशक शक्तियां भी संलग्न रहती हैं और इन विनाशकारी विघ्नों का शमन श्रीगणेशजी के स्मरण द्वारा किया जाता है। श्रीगणेशजी के स्मरण का अर्थ है ऐश्वर्य को लोककल्याण के साथ जोडना।

हमारे यहां ऐश्वर्य की आकांक्षा हमेशा से ही सात्विक रही है और इसका सबसे बडा प्रमाण है 'श्री" शब्द। 'श्री" नाम है भगवान्‌ श्रीविष्णु की पत्नी श्रीलक्ष्मी का। अनेक देवताओं का उल्लेख भी 'श्री" शब्द से किया जाता है विशेषकर श्रीगणेश का। यह एक अद्‌भूत बात ही है कि यह स्त्रीवाची संज्ञा बिना किसी लिंगभेद के सभी के साथ लगाई जाती रही है। यह संज्ञा लगाकर हम किसी व्यक्ति विशेष का गौरवगान नहीं करते अपितु जिस नाम के साथ इसे विशेषण के रुप में लगाया जाता है वह इस 'श्री" के माध्यम से संस्कारित हो जाता है। दीपावली पर लक्ष्मी-पूजन के साथ गणेश-पूजन की व्यवस्था भी इसी भावना की परिचायक है।

'श्री" शब्द में तीन पुरुषार्थ समाविष्ट किए गए हैं- धर्म, अर्थ और काम। परंतु, चौथे पुरुषार्थ मोक्ष का इसमें समावेश नहीं है। क्योंकि, यह चौथा पुरुषार्थ तो व्यक्ति को सभी लोकों के पार ले जाकर अखंड सत्ता में विलीन कर देने के लिए है। 'श्री" की साधना में धर्म को छोडा नहीं जा सकता और अर्थ एवं काम  की साधना को धर्म से निरपेक्ष रखा नहीं जा सकता।

पौराणिक कथा के अनुसार श्रीगणेश प्रजापति विश्वरुप की दो कन्याओं ऋद्धि और सिद्धि के पति हैं। ऋद्धि का मतलब है गति और गति कल्याणकारी होना चाहिए तभी तो वह सार्थक हो सकती है। श्रीगणेश की दूसरी पत्नी सिद्धि की व्यंजना है। ऋद्धि यानी गति और सिद्धि यानी जो उसे सार्थक बनाए। श्रीगणेश की इन पौराणिक पत्नियों का हमारे इहलौकिक लक्ष्य निर्णीत करने में मूलभूत महत्व रहा है। इन्हीं दो पत्नियों से प्राप्त पुत्र 'लाभ" और 'क्षेम" से संभवतः आज भी व्यापारी अपनी बहियों में ऋद्धि-सिद्धि और लाभ-शुभ लिखकर गणपति का अपने व्यापारों में मंगल करने का आवाहन करते हैं।

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