Tuesday, April 24, 2012

बाल विवाह और मुस्लिम पर्सनल लॉ

कुछेक माह पूर्व एक मुस्लिम महिला जकिया बेगम द्वारा मुंबई उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका पर मुंबई उच्च न्यायालय यह विचार कर रहा है कि बाल विवाह विरोधी कानून कहीं संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं है।  यह याचिका इसलिए लगाई गई है क्योंकि, जब जकिया गत दिसंबर में अपनी 14 वर्षीय बेटी की शादी करने जा रही थी तभी लडकी के चचा की इस शिकायत पर कि लडकी नाबालिग है पुलिस ने विवाह रोक दिया। और लडकी को हिरासत में लेकर बाल कल्याण समिति के समक्ष पेश कर बाद में रिमांड होम भेज दिया। इस मामले का महत्व इसलिए है क्योंकि, यह मामला कानून और मुस्लिम पर्सनल लॉ के बीच के विरोधाभास के कारण सामने आया है। मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार यह विवाह वैध है। क्योंकि, लडकी 14 वर्ष की होकर यौवनारंभ (Puberity) को प्राप्त हो चूकी है और अभिभावकों की सम्मति होने के कारण विवाह कानून सम्मत है। पुलिस द्वारा कानूनी सलाह लेने पर ज्ञात हुआ कि Child Marriage Restrain Act  जो सभी भारतीयों पर लागू होता है के तहत लडकी बालिग होने की आयु 18वर्ष होने के कारण यह विवाह कानून सम्मत नहीं। इधर बाल कल्याण समिति द्वारा भी उन्हें यह बतलाया गया कि Child Marriage Restrain Act & Juvenile Justice Act जो बच्चों के मूलभूत अधिकारों से संबंधित हैं मुस्लिम पर्सनल लॉ को अधिक्रमित Supersede करते हैं अथवा उनके ऊपर हैं। अतः मामले पर इन्हीं कानूनों के तहत विचार किया जाना चाहिए। Child Marriage Restrain Act का एक अंतर-राष्ट्रीय परिमाण भी है। भारत Child Reights Convention  इस अंतर-राष्ट्रीय परिषद में सहभागी होकर इसमें पारित किए गए बालकों के हितों एवं अधिकारों की रक्षा करने के कानूनों को जो सर्वसम्मति से पारित हैं से सहमत होने के कारण उन्हें लागू करने के लिए बाध्य है।

इस संदर्भ में 'दारुल-इस्ता-सफा" के मुफ्ती हिदायतुल्लाह शौकत कासमी ने यह फतवा जारी कर रखा है कि ''शरीअत पर श्रद्धा हमारी धर्मश्रद्धा का अविभाज्य घटक है और धर्मश्रद्धा का मूलभूत अधिकार संविधान ने दिया हुआ होने के कारण शासन इसमें हस्तक्षेप ना करे।"" यह प्रतिक्रिया कोई नई नहीं। शरीअत ईश्वरीय और अपरिवर्तनीय है क्योंकि, वह परिपूर्ण है की भूमिका सभी उलेमा, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और इस्लामी धार्मिक संस्थाएं जैसेकि देवबंद आदि लेती रही हैं।

परंतु, इस शरीअत की व्याख्या शिया-सुन्नी जैसे अलग-अलग पंथ तथा सुन्नियों के चार इमामों की विचारधारा और आधुनिक चिंतक भी अलग-अलग करते हैं, उनमें भी मतभिन्नता, विरोधाभास है। इसकी अनिवार्यता को तो सबसे पहले ठेस ब्रिटिशों ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कई बदलाव करके पहुंचाई। ब्रिटिशों ने शरीअत का कुछ भाग निरस्त कर भारतीय दंड विधान के कानून लागू किए। इसी के साथ शरीअत का साक्ष्य संबंधी कानून, कॉन्ट्रॅक्ट एक्ट जैसे अनेक कानून रद्द कर उनके स्थान पर आधुनिक कानून लागू किए। इसके कारण लगभग शरीअत का लगभग 80% भाग निरस्त हो गया। आज जिसे मुस्लिम पर्सनल लॉ कहा जाता है वह विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता और उत्तराधिकार इन चार बातों तक ही मर्यादित है। यह कानून शरीअत के तत्त्वों पर आधारित होने पर भी इस संबंध में उठनेवाले विवाद न्यायालयों में ही दाखिल करना पडते हैं। वैसे भी आज भारत में शरीअत कोर्ट का कोई अस्तित्व नहीं। गोआ में तो समान नागरिक संहिता पुर्तगाल काल से लागू है। इजिप्त में भी फौजदारी और दीवानी कानून 19वीं शताब्दी के फ्रेंच कानूनों के आधार पर हैं। जबकि यह इस्लामी राष्ट्र यह मानता है कि शरीअत कानून बनाने का प्रमुख स्त्रोत है और हुदूद के कानून के अनुसार कोडे मारने और मौत की सजा है लेकिन आज के इजिप्त में इसका उपयोग नहीं किया जाता। गुलामी जो इस्लामी कानून में वैध है को पूरे विश्व में सऊदी अरब सहित कहीं भी मान्यता नहीं। अफ्रीकी देश नाइजीरिया के दक्षिणी राज्यों में सन्‌ 2000 में कठोर इस्लामी कानून लागू जरुर किए गए परंतु, अमल में लाए नहीं गए। इसलिए कि कहने और सुनने में यह सजाएं अच्छी लगती हैं लेकिन व्यवहारिक नहीं हैं। इजिप्त की एक अदालत ने तो ऐसे 12 मुसलमानों को इस्लाम छोडने की आज्ञा प्रदान कर दी जिन्होंने ईसाइयत छोडकर इस्लाम को स्वीकार लिया था। जबकि, शरीअत कानून के अनुसार न तो कोई मुसलमान अपना धर्म बदल सकता है और न ही कोई गैर-मुस्लिम एक बार मुसलमान हो जाने के बाद अपने मूल धर्म में पुनः जा सकता है। इसी प्रकार से ब्याज के मामले में शरीअत के कानून को भी न के बराबर ही माना जाता है। इस्लाम के अनुसार तो कुरान अल्लाह द्वारा मुहम्मद साहेब को दिए हुए शब्द और हदीस मुहम्मद साहेब के विचार हैं जो उन्होंने अपनी उक्तियों एवं कृतियों द्वारा समय-समय पर व्यक्त किए थे, मूलाधार हैं। जबकि शरीअत तो हर देश में अलग-अलग हैं, इसकी व्याख्या भी अलग-अलग की जाती है। क्योंकि, कानून संबंधी स्वतंत्र भाग कुरान में आया हुआ नहीं है। प्रसंगानुसार मुहम्मद साहेब ने जो निर्णय दिए वे कुरान में विभिन्न स्थानों पर बिखरे हुए हैं। वे एकत्रित कर कुरान का कानून संबंधी भाग तैयार होता है। जो बहुत ही कम है। इस पर और हदीस पर आधारित शरीअत (कानून शास्त्र) को विभिन्न मुस्लिम विद्वानों ने विकसित किया है। इसलिए यह एक न होकर उन-उनकानून के ज्ञाताओं के अन्वयार्थोनुसार भिन्न-भिन्न है। इनमें हनाफी, शफी, हनबाली और मलिकी सुप्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार से  हर देश में लडकियों की रजोवृत्ति की आयु भिन्न-भिन्न है, हमारे देश में यह आयु 12, 13 वर्ष है, इसलिए इस संबंध में शरीअती आदेश भी विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न होंगे। ऐसे में शरीअत में हस्तक्षेप मत करो, शरीअत अपरिवर्तनीय है का दावा आखिर किस आधार पर किया जा रहा है?

बाल विवाह तो हिंदुओं में भी होते रहे हैं और आज भी बाल विवाह विरोधी कानून लागू हो जाने के बावजूद कभी-कभी कुछ अभिभावकों द्वारा इस प्रकार के विवाह संपन्न कराने के प्रयास किए जाते हैं। परंतु, जब शासन हस्तक्षेप करता है तो विरोध स्वरुप न तो किसी प्रकार के धर्मादेश (फतवे) जारी किए जाते हैं न ही शासन को, संविधान को चुनौति दी जाती है। शासन के हस्तक्षेप से भले ही थोडी सी नाराजगी प्रकट हो लेकिन न नुच के बाद स्वीकार लिया जाता है। क्योंकि, सबसे ऊपर देश का कानून है। जबकि हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार तो बाल विवाह वैध है। 'मनु (9/94) के मत से 12 एवं 8 वर्ष की कन्याएं विवाह योग्य मानी गई हैं। महाभारत (अनुशासन पर्व 44/14) के अनुसार कन्या की विवाह अवस्था 10 तथा 7 है। शास्त्रों के अनुसार 'नग्निका" अर्थात्‌ जिसका मासिक धर्म बिल्कूल सन्निकट हो विवाह योग्य है। वसिष्ठ धर्मसूत्र (17/70) के मत से नग्निका शब्द अयुवा का द्योतक है। वैखानस (6/12) के मत से नग्निका 8 वर्ष से ऊपर या 10 वर्ष के नीचे होती है। गौतम (18/20-23) के अनुसार युवती होने के पूर्व ही कन्या का विवाह कर देना चाहिए। पराशर (7/6-9) के मत से यदि कोई 12 वर्ष के उपरान्त अपनी कन्या न ब्याहे तो उसके पूर्वज प्रति मास उस कन्या का ऋतु-प्रवाह पीते हैं। माता-पिता तथा ज्येष्ठ भाई रजस्वला कन्या को देखने से नरक के भागी होते हैं। मरीचि के मतानुसार 5 वर्ष की कन्या का विवाह सर्वश्रेष्ठ है।"

परंतु, मुसलमानों के मामले में जब-जब भी इस प्रकार से संविधान और मुस्लिम पर्सनल लॉ में विरोधाभास सामने आता है तब-तब मुस्लिम समाज का नेतृत्व संविधान के 25वें अनुच्छेद में मिले धार्मिक स्वतंत्रता का आधार लेकर विरोध प्रकट करता है। शरीअत हमारी धर्मश्रद्धा का अविभाज्य भाग होने के कारण उसमें परिवर्तन करने के कारण हमारे मूलभूत अधिकारों को बाधा पहुंचती है का युक्तिवाद प्रस्तुत करता है। इससे यह सवाल उठना लाजिम है कि आखिर अधिक महत्व किसका है, सबसेऊपर कौन है, देश का कानून या कि मुस्लिम पर्सनल लॉ? अब मुंबई उच्च न्यायालय जिस संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता पर विचार करने जा रहा है वह संविधान के 25वें अनुच्छेद में इस प्रकार से वर्णित है -

1. ''लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रुप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
2. इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो -
(क). धार्मिक आचरण से सम्बद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलापों का विनियमन या निर्बंधन करती है;
(ख). सामाजिक कल्याण और सुधार का उपबन्ध करती है या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और विभागों के लिए खोलती है।""

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