तुर्की में दरकती दीवारें प्रजातंत्र की
तुर्की पूरी दुनिया में एकमात्र ऐसा इस्लामी
देश है जो धर्मनिरपेक्ष है यहां की 99% जनता मुस्लिम है । वर्तमान में तुर्की
युवाओं एवं मजदूर संगठनों द्वारा पिछले दो सप्ताह से भी अधिक समय से किए जा रहे 'तकसिम
एकजुटता" आंदोलन और इस आंदोलन को कुचलने के लिए प्रधानमंत्री एर्दोगान की इस्लामी
पार्टी द्वारा अपनाए जा रहे दमनकारी रवैये के कारण अंतरराष्ट्रीय पर चर्चा में है।
बडे शहरों के युवा व्यक्तिगत आजादी एवं अनुदारवादी इस्लामी सरकार के बढ़ते नियंत्रण
के विरोध में हैं। तुर्की का हर दूसरा नागरिक एर्दोगान के रवैये को निरंकुश बता रहा
है। सरकार विरोधी प्रदर्शन तब प्रारंभ हुए जब सरकार ने इस्तंबूल के प्रसिद्ध गेजी पार्क
में ऑटोमन काल की सैनिक बैरेक बनवाना चाहा। इस आंदोलन के फलस्वरुप हजारों जख्मी हो
गए हैं व कुछ लोग मारे भी गए होकर यह आंदोलन तुर्की के सभी प्रमुख शहरों में फैल गया
है।
ये एर्दोगान वही नेता हैं जिन्होंने
2007 में हिजाब (परदा) बंदी हटाएंगे का आश्वासन अपने घोषणापत्र में दिया था। उन्होंने
यह भूमिका ली थी कि हिजाब पहना इसलिए नौकरी नहीं मिलेगी, पढ़ने नहीं दिया जाएगा मानवाधिकार
विरोधी है। उस समय भी हजारों धर्मनिरपेक्षवादियों ने मतदान के दौरान भारी विरोध प्रदर्शन
किया और सुप्रीम कोर्ट की ़शरण ली व कोर्ट ने हिजाबबंदी को कायम रखा। आंदोलनकारियों
को डर है कि कहीं सरकार तुर्की का धर्मनिरपेक्ष रुप बदल ना दे। एर्दोगान तुर्की के
सामाजिक जीवन में इस्लामी परंपराओं को फिर से स्थापित करने के पक्षधर हैं और विरोधियों
का कहना है कि तुर्की आज जो कुछ भी है वह धर्मनिरपेक्ष होने के कारण ही है। एक इस्लामी
देश में धर्मनिरपेक्षता का इतना जोर कहां से व किस प्रकार आया तथा वह धर्मनिरपेक्ष
किस प्रकार से बना इसके लिए तुर्की के इतिहास का अवलोकन करना पडेगा।
इस्तंबूल तुर्की की सांस्कृतिक राजधानी।
पूर्वी भाग यानी एशिया का भाग को 'अनातोलिया" (एशिया मायनर) यानी 'सूर्योदय का",
'प्रकाश का प्रदेश" तो, पश्चिम की ओर का भाग यानी 'यूरोप"शब्द का अर्थ 'सूर्यास्त
का" यानी 'अंधेरे का प्रदेश"। ईसा पूर्व इसका नाम था बायजंटाईन। यहां की
प्रजा में विविध उपासना पद्धतिवाले लोग थे। उनमें संघटित उपासना पद्धतिवाला समाज यानी
यहूदी समाज। बाकी के समाजों के ईश्वर, कर्मकांड आदि भिन्न-भिन्न होने के बावजूद वे
एकत्रित रहते थे व प्रजातांत्रिक थे।
ई.पू. 546 में पर्शियन राजा ने बायजंटाईन
को जीत लिया और प्रजातंत्र नष्ट होकर एकतंत्री शासन हो गया। सन् 300 में रोमन राजा कांस्टंटटेनियस ने बायजंटाईन को जीतकर इसका
नाम कांस्टंटाईन कर दिया इसका और चर्च का झगडा था और चर्च के काम में वह हस्तक्षेप
किया करता था इसने स्वयं ही एक बिशप को नियुक्त कर दिया चर्च द्वारा विरोध भी हुआ परंतु
इसने कुचल दिया। सन् 361 में ज्यूूलियन राजा हुआ इसने सत्ता
हिजडों के हाथ में सौंप दी। सन् 390 के आसपास थियोडोसियस
राजा बना वह यहूदियों के मामले में उदार था उसने ईसाइयों द्वारा उनके ध्वस्त किए गए
सायनागॉग के पुनःनिर्माण की अनुमति दी और एक कानून बनाकर मूर्तिपूजा बंदी लागू कर मूर्तिपूजकों
के मंदिरों को नष्ट कर दिया। इसीके काल में ईसाई परंपराओं, धर्म के विविध अर्थ निकाले
जाने लगे। सन् 691 में जस्टियन के कार्यकाल में
120 फतवे निकाले गए। फतवों में अभिनय की बंदी की गई थी, स्त्रियां खुले में नाच नहीं
सकती थी, स्त्रियां पुरुषों के और पुरुष स्त्रियों की पोशाक पहन नहीं सकते थे, आदि।
सन् 717 में लिओ मूर्तिभंजक शासक था। ईसाई
मूर्तिभंजक उसने ईसा के एक तेलचित्र को नष्ट कर दिया। सन् 1180 में कांस्टंटटिनोपल में 2500 यहूदी व उनके सायनागॉग भी थे।
कोई अमीर तो कोई गरीब परंतु उनके साथ व्यवहार अपमानजनक ही किया जाता था।
सन् 1453 में ऑटोमन सुलतान दूसरे महमूद (1429-81) ने कांस्टंटटिनोपल को जीतकर
उसका नाम इस्तंबूल कर दिया और वहां के चर्च 'हागिया सोफिया" का रुपांतरण 'सोफिया
कबीर मस्जिद" में कर दिया। बाद में कबीर मस्जिद चर्च को रुपांतरित कर बनाई गई
थी इसलिए उसने सोफिया कबीर मस्जिद के सामने ही भव्य नीली मस्जिद का निर्माण किया। पैगंबर
मुहम्मद ने मदीना में जो परंपरा स्थापित की थी वह ही इस्तंबूल में टिकी। मस्जिद के
आसपास इमामों के रहने के स्थान, हमामखाने निर्मित किए गए, दुकानें खुली।
तुर्की के राष्ट्रीय समाज की रचना सुलेमान
(1494-1566) के काल में हुई। उसे यूरोप में मॅग्निफिसेंट और उसके साम्राज्य को 'कानूनी"
यानी कानून निर्माता के अभिधान प्राप्त हुए। यह इस्लामी मान्यता के विरुद्ध था क्योंकि
इन कानूनों का उद्गम 'शरीअत" से नहीं था। इस प्रकार
सुलेमान मौलवियों से मुक्त हो गया। वह स्वयं ही मुफ्ती की नियुक्ति करने लगा। मस्जिदों
के इमाम, कुरान पाठक आदि पगारदार सरकारी नौकर हो गए। उसने मदरसों को भी अपने अधीन ले
लिया। यूरोप के लोगों पर ऑटोमन कानून लागू न करने के कारण वहां तद्देशीय व्यापारी वर्ग
का उदय हुआ और व्यापार पर विदेशियों का नियंत्रण रहा।इन सुधारों का इमामों और मुल्लाओं
ने विरोध किया।
सुलतान दूसरे मुहम्मद (1808-39) के काल
यानी 1830 के आसपास उसने पश्चिमी पद्धति की शिक्षण पद्धति को इस्तंबूल की पाठशालाओं
में लागू किया। इस शिक्षा पद्धति से निकले हुए लोग सेना और सुलतान के कामकाज में ऊंचे
पदों पर जाने लगे। समाज में उनका दबदबा निर्मित हुआ और सुधारों को प्रतिष्ठा प्राप्त
हुई। इन सुधारवादी विचारों में धर्म, सेक्यूरिज्म का प्रवाह था। मुहम्मद के पुत्रों
पहला अब्दुल (1839-61) और अब्दुल अजीज (1861-76) के कार्यकाल में सुधारों को अमल में
लाया गया। इन सुधारों के आंदोलन को तंजीमात कहते हैं। सुधारों का स्वरुप विविध था।
कानूनों को अमल में लाने का काम उलेमाओं से छिनकर सरकारी न्यायलयों को सौंप दिया गया।
मस्जिदें और शिक्षा सरकार के हाथों मे आ गई।
इन तंजीमात के एक परिणाम के रुप में युवा
तुर्क के नाम से बुद्धिवादी देशभक्तों का संगठन सामने आया। इनमें से नामिक कमाल
(1840-88) के सुधारों का व्यापक परिणाम हुआ। उसीने सबसे पहले देश का एक ही संविधान
होना चाहिए की कल्पना लोकप्रिय की। राष्ट्रभक्ति व निष्ठा ऑटोमन पितृभू के प्रति होना
चाहिए का विचार लोगों के सामने रखा। 1867 में इस्तंबूल के 'तस्वीर इ एफकार" इस
वर्तमान पत्र में उसने स्त्री-पुरुष समानता के संबंध में एक लेख लिखा उसे इस्लाम विरोधी
समझने के कारण वह लोगों का कोपभाजन बन गया और उसे देश छोडना पडा। 1870 में वह वापिस
लौटा परंतु, उसे स्त्री स्वतंत्रता का विषय छोडना पडा। वह राष्ट्रवाद एवं स्वतंत्रता
पर लिखने लगा। इस प्रकार से तंजीमात और उदार मतों का तुर्की में सूत्रपात हुआ उसकी
पूर्णता 2 अप्रेल 1924 को हुई।
जिस समय ऑटोमन साम्राज्य अस्त हो रहा
था उस समय तुर्कस्तान के लोग स्वयं को ऑटोमन के स्थान पर तुर्क कहने लगे। पहला महायुद्ध
समाप्त होने के बाद तुर्की मित्र राष्ट्रों के चंगुल से छूटकर स्वतंत्र हुआ। इस स्वतंत्रता
आंदोलन का नेता था कमालपाशा। 1922 में उसकी सत्ता दृढ़ हुई, 1923 में तुर्की एक स्वतंत्र
रिपब्लिक राष्ट्र के रुप में सामने आया और विश्व पटल पर एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र के
रुप में अवतरित हुआ। इसी वर्ष चुनावों में स्त्रियों का अंतर्भाव किया जाए का प्रस्ताव
विधिमंडल में पारित हुआ। कमाल पाशा ने स्त्रियों के मामले में जरा सावधानी बरती उसे
मालूम था कि मुसलमान स्त्रियों के संबंध में अपने पुराने विचार छोडने के लिए इतनी आसानी
से तैयार नहीं होंगे।
एक जाहिर भाषण में उसने कहा 'स्त्रियों
को शिक्षा मिलनी ही चाहिए केवल शिक्षा ही नहीं अपितु अच्छी शिक्षा। यदि अपने को अच्छे
पुरुष, नागरिक चाहिए हों तो उनका माताएं अच्छी शिक्षित होना ही चाहिए...समाज का एक
भाग पुरुष प्रगति करे और दूसरा स्त्रियों का भाग पिछडा रहा तो समाज की प्रगति कैसे
होगी? ... अपन ने शुरु की हुई क्रांति तभी सफल होगी जब स्त्री-पुरुष समान स्तर पर हों,
उनमें मित्रत्व का नाता निर्मित होना आवश्यक है।" तुर्की के लोगों के लिए यह सबकुछ
नया था परंतु, कमालपाशा बोल रहा है इसलिए उन्होंने सुन लिया। आगे उसने कहना प्रारंभ
किया कि 'यात्रा के दौरान मैंने देखा कि स्त्रियां टॉवेल या किसी कपडे से मुंह ढ़ककर
बैठती हैं, पुरुष सामने आने पर चेहरा घूमा लेती हैं। एक सुसंस्कृत समाज में माता-बहनों
का इस प्रकार के व्यवहार का क्या अर्थ निकलता
है। इससे अपना देश, समाज हास्य का पात्र बनता है।... स्त्रियां बुरका छोड दें। उसने
स्त्री-पुरुष पाश्चात्य संगीत के ताल पर नृत्य करें इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित
करना प्रारंभ किए। प्रसंग ढूंढ़कर वह इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करता था। आश्चर्य
की बात यह है कि नृत्य वह शुक्रवार जो मुसलमानों का पवित्र दिन है उसी दिन आयोजित करता
था।
कमालपाशा ने स्त्रियों को समान अधिकार
देने की व्यवस्था संविधान में 1926 में शरीअत को दूर कर एवं यूरोपीय पद्धति का एक स्वतंत्र
नागरिक कानून जारी कर विवाह-तलाक-उत्तराधिकार विषयक व्यवस्थाएं उसमें की। इस कानून
का आधार कोईसा भी धर्मग्रंथ नहीं था। इस कानून के अनुसार सिविल मेरिज पद्धति से विवाह
करना और उसका पंजीकरण सरकार के पास करना बंधनकारक था। इसी कानून में एकपत्नीत्व की
व्यवस्था भी थी, बहुविवाह गैरकानूनी था। तलाक भी न्यायालय के माध्यम से ही होते थे
मुल्लाओं का कोई स्थान न था। 1928 में स्त्रियों को नगरपालिका चुनावों में मतदान का
अधिकार मिला। 1933 में लोकसभा चुनावों में मतदान का अधिकार मिला। उसीके प्रयत्नों से
1935 के चुनावों में 17 स्त्रियां लोकसभा में चुनकर गई। विरोध भी बहुत हुआ क्योंकि,
इस्लामी मानस के लिए यह सबकुछ एकदम नया ही था। अल्लाह, पैगंबर, धर्म इन सबको उसने ताक
पर रख दिया और विरोध प्रदर्शन करनेवालों को जेल की हवा खिला दी। कानून बनाना, लागू
करना प्रजातांत्रिक पद्धति से होने के कारण वह मौका आने पर पुलिसबल का उपयोग करने से
भी नहीं चूकता था।
2 अप्रैल 1924 को कानून बना मदरसों पर
बंदी ला दी। कमालपाशा केवल यही नहीं रुका बल्कि उसने ढूंढ़-ढूंढ़कर मदरसे बंद कर दिए।
उसके पूर्व के सुलतानों ने सेक्यूलर शिक्षा देनेवाली स्कूलें जरुर खोली पर मदरसों पर
पाबंदी नहीं लगाई थी।परंतु, कमालपाशा ने यह कदम उठाया। सरकार ने एक स्वतंत्र धार्मिक
कामकाजों का विभाग खोलकर मस्जिदों के इमामों को सरकारी नौकर बना दिया उनके लिए भी स्कूलें
खोलकर उनको विज्ञान, गणित की शिक्षा दी जाती है। कॉलेजेस में धर्मविषयक शिक्षा का गहन
ज्ञान दिया जाता है, संसार के अन्य धर्मों की शिक्षा भी दी जाती है। कुरान, कुरानपठन
विषय रहते हैं परंतु, कुरान का क्या अर्थ लगाना यह सरकार तय करती है। अतिरेक, आतंकवाद,
गुलामगिरी का समर्थन करनेवाली कालबाह्य बातों का समर्थन करना नहीं सीखाया जाता। प्रारंभ
में मुल्लाओं ने विरोध किया परंतु उन्हें बाकायदा मुकदमे चलाकर दंडित किया गया।
आज तक यह व्यवस्थाएं तुर्की में टिकी
हुई हैं। इस्लामी पक्ष जरुर सिर उठा रहे हैं, परंतु जनता यह व्यवस्था भंग की जाए की
मांग नहीं करती। धर्मनिरपेक्षता, संसद द्वारा बनाए कानूनों के आधार पर की गई व्यवस्था
जनता में रच-बस गई है इसीलिए एर्दोगोन जिन्होंने
तुर्कस्तान के कृषकों व छोटे उद्यमियों के लिए कष्टकारी कानूनों को हटाकर विकास में
आर्थिक निवेश किया। सीरिया, आर्मेनिया, यूनान जैसे शत्रु राष्ट्रों के साथ करार कर
शत्रुता समाप्त की। रक्षा खर्च कम कर गांवों के विकास में खर्च किया जब वही उनकी धर्मनिरपेक्षता
के आडे आने लगे तो वे आज उनके विरुद्ध अपनी स्वतंत्रता व धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के
लिए खडे हो विरोध प्रदर्शन के नए-नए तरीके अख्तियार कर रहे हैं।
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