सूत ना कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा क्यों?
भारत के फिल्म इतिहास के दो लीजेंड हैं
दिलीपकुमार और देवआनंद। दिलीपकुमार जिन्होंने अपने लाजवाब अभिनय से ट्रेजेडी किंग का
खिताब हासिल किया और देवआनंद जो सदाबहार ऐव्हरग्रीन चाकलेटी हीरो के रुप में जाने गए,
मेटिनीकिंग के रुप में नवाजे गए। लेकिन दिलीपकुमार ने उम्रदराज होने के बाद भी अपने
आदर-सम्मान को बरकरार रखा क्योंकि कब रिटायर हो जाना चाहिए इसका भान उन्होंने समय रहते
रखा। वहीं देवआनंद भले ही अपने अंतिम समय तक फिल्म निर्माण के काम में लगे रहे और लोगों
ने उनके बिना थके या निराश हुए फ्लाप फिल्मों की झडी (1980 में अपनी अंतिम सफल फिल्म
देस-परदेस के बाद उनकी कोई भी फिल्म सफल नहीं हुई) लगाने के बावजूद अपनी लगन व समर्पण
के कारण फिल्में बनाते रहने की जीजीविषा की सराहना की। परंतु अपनी नाती की उम्र की
हीरोइनों के साथ हीरो के रुप में काम करते रहने और बुढ़ापे का असर चेहरे चाल-ढ़ाल में
दिखने के बावजूद हीरो के रुप में डटे रहने के कारण अंततः वे हास्य के पात्र ही बने
और अपना वह सम्मान जिसके वह वास्तव में हकदार थे खो बैठे।
जो हाल देवआनंद का हुआ वही हाल अब आडवाणी
का हो रहा है। माना कि वे आज भी पूरी तरह स्वस्थ एवं कार्यक्षम हैं परंतु, जमाना बदल
गया है, वे अब चूक गए हैं समय रहते उन्हें रिटायर हो स्वयं होकर पार्टी के मार्गदर्शक
की भूमिका में आकर युवा नेतृत्व के लिए स्थान रिक्त कर देना था। परंतु उन्होंने किया
क्या जब स्पष्ट दिख रहा था कि पार्टी धीरे-धीरे मोदी के पीछे लामबंद होती जा रही है,
ऐसे समय में बीमारी का बहाना बनाकर कोपभवन में जा बैठना, बाद में इस्तीफे का ब्रह्मास्त्र
चलाना फिर पीछे घूम की स्थिति में आ जाना, अपन पराजीत हो गए हैं कि स्थिति में स्वयं
को लाना आडवाणी जैसे तपे-तपाए राजनीतिज्ञ ने जो इतना विचारवान और कुशाग्र हो कि आठ
माह पूर्व साक्षात्कार में दिए हुए उत्तर के बाद आज की तारीख में दिए हुए उत्तर में
ऐसा कोई विरोधाभास नजर आए कि कोई स्पष्टीकरण देना पडे या गलतफहमी पैदा हो, ऐसा कभी
होते दिखा नहीं ऐसा परिपक्व आजीवन अपने ध्येय के लिए समर्पित रहनेवाला राजनेता स्वयं
को हंसी का पात्र बनवा लेनेवाला इस प्रकार का उपक्रम, जब स्पष्ट दिख रहा था कि मोदी
का प्रभाव बढ़ गया है करेगा ऐसा लगा नहीं था। परंतु ऐसा हुआ और वे फजीहत को प्राप्त
हुए।
लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर
1927 को कराची में एक खुशहाल उच्चमध्यमवर्गीय परिवार में ज्येष्ठ पुत्र के रुप में
हुआ। उनका मूल नाम लाल और पिता का कृष्ण परंतु कालांतर में उसका हो गया लालकृष्ण। उनकी
शिक्षा कराची के प्रसिद्ध सेंट पॅट्रिक्स स्कूल में हुई इस कारण प्रारंभ में उन पर
फादर एवं नन्स के संस्कार हुए। उनके एक मामा रामकृष्ण मीरचंदानी थे जो कांग्रेस का
कार्य करते थे परंतु उनके जीवन पर मामा के विचारों का कोई प्रभाव नहीं पडा। घर में
किसी भी तरह का सामाजिकता का भान न होने के बावजूद वे रा.स्व.से. संघ की ओर आकृष्ट
हुए। 1942 में 15 वर्ष की अवस्था में आडवाणी अपने ननिहाल हैदराबाद आए और वहां राम कृपलानी
के घर की छत पर लगनेवाली संघ की शाखा में अपने चचेरे भाई प्रीतम और एक अन्य रिश्तेदार
हीरु के साथ मात्र उत्सुकतावश गए। वहां शामलाल का बौद्धिक था और विषय था 'हिंदुत्व"।
आडवाणी को संघकार्य का महत्व समझ में आया और वे हमेशा के लिए संघ के सच्चे स्वयंसेवक
बन गए।
इसी दौरान उन्होंने एक पुस्तक पढ़ी 'ऐ
वार्निंग टू द हिंदू सोसायटी" जिसे मूलतः एक ग्रीक परंतु विवाहोपरांत हिंदू बन
चूकी विद्वान महिला 'सावित्रीदेवी" ने लिखा था। इस ग्रीक महिला ने इस पुस्तक में
इशारा दिया था कि, 'तुम जाग जाओ। अभी भी समय गया नहीं है। ब्रिटिशों (ईसाई) के केवल
राजनैतिक ही नहीं तो सांस्कृतिक आक्रमण के कारण जिस प्रकार से ग्रीक संस्कृति रसातल
में चली गई उसी प्रकार से हिंदू संस्कृति भी रसातल में चली जाएगी। इसलिए हिंदुओं अब
तो भी जाग जाओ। सामने की परिस्थिति का सामना करो।" इस पुस्तक एवं शामलाल के बौद्धिक
के विचारों के कारण आडवाणी के जीवन की दिशा ही बदल गई। और शिक्षा छोड संघ प्रचारक बनने
का निर्णय उन्होंने 1946 में ले लिया। उस समय वे इंजीनियरिंग के द्वितीय वर्ष में पढ़
रहे थे। इसी वर्ष वे नागपूर में संघ के तृतीय वर्ष के शिविर के लिए आए थे उनके साथ
केदारनाथ साहनी, के. आर. मलकानी भी थे। संघ के घोष पथक में वे बांसुरी बजाया करते थे।
अधिकाधिक बच्चों पर संघ संस्कार हो सके इसके लिए वे कराची के मॉडल हायस्कूल में शिक्षक
की नौकरी करने लगे।
विभाजन के पश्चात 12 सितंबर 1947 को चोरी-छिपे
हवाई मार्ग से भेस बदलकर हमेशा के लिए भारत आ गए और 1952 में जनसंघ की स्थापना के पश्चात
राजस्थान में जनसंघ का कार्य करने लगे। बाद में प्रचारक का कार्य छोडकर 'ऑर्गनायजर"
में पत्रकारिता करने लगे। आपको आश्चर्य होगा परंतु,1964 में ऑर्गनायजर में वे सिनेमा
विषयक स्तंभ लिखने लगे। आयु के 37वें वर्ष 1965 में वे कमलाजी से विवाहबद्ध हो गए।
उन्हें एक पुत्र जयंत एवं पुत्री प्रतिभा है। उनके परिवार से कोई भी राजनीति में सक्रिय नहीं है।
उनका इतिहास गवाह है कि वे परास्त जरुर
होते रहे हैं परंतु, हताश नहीं। इसलिए वर्तमान में नजर आ रही उनकी हार को हार मान लेना
भूल करना होगा। जिन्होंने विभाजन की त्रासदी भोगने के बाद निर्वासित के रुप में भारत
आकर 1948 में गांधी हत्या के बाद संघ पर आए भयंकर संकट का सामना एक प्रचारक के रुप
में किया हो, 1952 में 3, 1957 में 4, 1962 में 14 सांसद पार्टी के चुने गए, ऐसे संघर्षपूर्ण
काल में अडिग रहकर सतत बिना विचलित हुए कार्य करते आपातकाल रुपी विपरीत काल भी देखा
और भोगा भी। 1984 में 2 सीटों पर पहुंच गई पार्टी को 2 से 186 तक का सफर तय करवाया
हो जिनकी पार्टी पर इतनी पकड थी कि पार्टी में अटल टू आडवाणी और आडवाणी टू आडवाणी के
अलावा अन्य कोई पार्टी अध्यक्ष वह रुतबा ही हासिल नहीं कर पाया जो आडवाणी का था। वह
निश्चय ही इतनी जल्दी हार मानकर हताश हो, अपनी उपेक्षा सह अपमान का घूंट पीकर चुप बैठ
जाएंगे, प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी छोड देेंगे लगता नहीं।
जिन मुद्दों को उठाकर आडवाणी ने इस्तीफा
दिया था वे तो उनके कार्यकाल में भी मौजूद थे लेकिन तब वे उन्हें नजर नहीं आए और आज
अचानक नजर आने लगे। राजनीति के इस माहिर खिलाडी द्वारा इस्तीफा देकर पार्टी को धर्मसंकट
में डालना फिर वापिस लेना एक सोची समझी रणनीति ही नजर आती है भले ही इससे पार्टी की
साख को बट्टा लग गया हो । इस बदलते परिवेश में पार्टी के अंदर अपने समर्थन में कौन,
किस प्रकार के और कितने हैं तथा पार्टी के बाहर अपने पक्ष में कौन खडे हो सकते हैं,
अपनी मान्यता कितनी है का जायजा लेने के लिए अपनाई गई एक रणनीति है। मोदी की प्रधानमंत्री
के लिए चल रही घुडदौड में बाधा डालना मात्र है। हां उनके इस कदम से यह जरुर हो गया
है कि मोदी को तत्काल प्रधानमंत्री पद का पार्टी प्रत्याशी घोषित करना हालफिलहाल टल
गया है और भविष्य में लिए जानेवाले फैसलों में उनकी सलाह जरुर ली जाए ऐसी परिस्थिति
निर्मित करने में वे सफल हो गए हैं। वर्तमान में वे सभी पदों पर बने हुए हैं।
इसके पूर्व सन् 2005 में जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़ना भी अपनी छबि बदल स्वयं
को सेक्यूलर कहलवा पार्टी के बाहर अपनी मान्यता बढ़ाने का एक उपक्रम ही तो था। परंतु
यह प्रयास सफल हो, चर्चित हो उसके पूर्व ही पार्टी में हुए भारी विरोध के कारण वे अपनी
छबि को धक्का जरुर पहुंचा बैठे। वैसे अभी उन्होंने जो रणनीति अपनाई है उसका परिणाम
तो चुनाव बाद ही नजर आएगा। परंतु, अब परीक्षा की घडी तो मोदी की है जिन्हें चुनाव प्रचार
प्रमुख के रुप में पार्टी को इतनी सीटें जीतवाकर लाना है कि सरकार बनाने के लिए अन्य
छोटी-मोटी पार्टियां उनके साथ स्वयं होकर जुडें और एक वृहत्तर एनडीए का गठन हो उनका
प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हो सके। वरना इतिहास फिर से दोहराए जाने
कि संभावना है कि गठबंधन के लिए सर्वमान्य नेता के रुप में आडवाणी को ही चुना जाए।
भले ही आज एनडीए विघटित होते दिख रहा हो परंतु, भाजपा को सबसे अधिक सीटे मिलने की स्थिति
में हालात बदल भी सकते हैं। नए दल जुड भी सकते हैं। वैसे जो भी होगा वह तो भविष्य के
गर्भ में ही छिपा हुआ है।
लेकिन अपनी अतिमहत्वाकांक्षा की जद में
आकर वह यह भूल बैठे कि जिस आक्रमकता के लिए वे जाने जाते थे वह आक्रमकता अब गायब हो
गई है। पार्टी मूलतः ही जुझारु एवं आक्रमक प्रवृत्ति की है और जब भी वह आक्रमक स्थिति
में आती है आपसी फूट, विवादों को भूलकर एकजुट हो विजय के पथ पर अग्रसर होती है। 90
के दशक की आक्रमकता अब आडवाणी में रही नहीं है, वे पार्टी कार्यकर्ताओं में वह जोश
भी नहीं भर सकते जो वे भर दिया करते थे और पार्टी अब पुनः 90 के दशक के मार्ग पर बढ़
चली है इसलिए अब पार्टी कार्यकर्ता भी उनके पीछे नहीं आक्रमक मोदी के पीछे हैं।
'गांधीनु गुजरात को मोदीनु गुजरात"
में बदलनेवाले नरेंद्र मोदी के बारे में सबसे पहले विहिप के अशोक सिंघल ने कहा था-
'मोदी आज नेहरु जितने ही लोकप्रिय हैं।" यह लोकप्रियता मोदी ने लोगों की इच्छाओं
आकांक्षाओं पर सवार होकर हासिल की है और जब कोई नेता यह सफलता हासिल कर लेता है तो
उस नेता की इच्छाएं आकांक्षाए, संकल्पनाएं जनता की हो जाती हैं और वह नेता के पीछे
चलना प्रारंभ कर देती है। यह सफलता हासिल करनेवाले मोदी का जन्म गुजरात के मैहसाणा
जिले के वडनगर में 17 सितंबर 1950 को हुआ था। शालेय जीवन में ही वे संघ के प्रचारक
बन गए। शीघ्र ही वे अ.भा. विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष बने। आपातकाल में उन्होंने सरकार
विरोधी पत्रक बांटने का काम किया। पॉलिटिकल साइंस में वे स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त
है। 1987 में गुजरात भाजपा में प्रवेश कर एक ही साल में पार्टी महासचिव बने। 1995 में
भाजपा को सत्ता प्राप्त होने पश्चात वे राष्ट्रीय
सचिव बने और पांच राज्यों की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। 1998 में दिल्ली की
सत्ता भाजपा को दिलाने में उनका अहम योगदान था। आडवाणी की अयोध्या यात्रा और मुरलीमनोहर
जोशी की एकता यात्रा के प्रबंधन की धुरा उन्होंने ही सफलतापूर्वक संभाली थी। गुजरातियों
की अस्मिता जागृत करने में सफलता प्राप्त करने के कारण ही आज मोदी गुजरात में अजेय
है इसके लिए उन्होंने महान स्वतंत्रता सेनानी श्यामजीकृष्ण वर्मा के अस्थि कलश की यात्रा
निकालने जैसा कार्य भी किया।
मोदी गुजरात में अजेय कैसे बने और आज
राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें जो भारी लोकप्रियता प्राप्त है वह उन्हें कैसे मिली उसके
भी कुछ कारण और विश्लेषण इस प्रकार हैं-
1. भुज के भूकंप के समय केशुभाई मुख्यमंत्री
थे और कुशासन-भ्रष्ट प्रशासन के कारण लोग इतने बेहाल हो गए थे कि लोग कटाक्षपूर्वक
कहने लगे थे कि, यदि कांग्रेस को जीतना है तो वह प्रतिदिन प्रार्थना करे कि केशुभाई
मुख्यमंत्री बने रहें वे अपनेआप चुनाव जीत जाएंगे। परंतु, नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री
बन गए और पासा पलट गया भाजपा फिर से सत्ता में आ गई। इसके बाद उन्होंने विकास और सुशासन
की वो लहर चलाई कि उनके विरुद्ध सांप्रदायिकता कासतत धुआंधार प्रचार करनेवाले भी इस
मामले में उनके मुरीद हो गए।
2. मोदी कभी पार्षद का चुनाव तक नहीं
लडे बल्कि सीधे मुख्यमंत्री बने लेकिन संगठन पर पकड और संगठन को खडा करने के लिए वे
गांव-गांव घूमे थे और इसी कारण 1984 में चली राजीवगांधी की आंधी में भी उन्होंने पार्टी
को गुजरात में टिकाए रखा। अपनी इसी क्षमता एवं योग्यता के कारण मुख्यमंत्री बनने के
बाद सफलता पूर्वक प्रशासन पर अपनी पकड बना ली और गुजरात को विकास की राह पर ले आए।
3. उनके द्वारा गुजरात में किए गए चौतरफा
विकास, दंगारहित एवं शांत गुजरात, जहां कानून-व्यवस्था की स्थिति उत्तम है महिलाएं
आम जनता अपनेआपको सुरक्षित महसूस करते हैं, औद्योगिक शांति एवं बिजली, पानी, सडक, शीघ्र
भूमि उपलब्ध हो जाती है के कारण देश के शीर्ष उद्योगपति एवं युवाओं के लिए पर्याप्त
रोजगार उपलब्ध होने के कारण युवा तक आज उनके सबसे बडे समर्थक बन गए हैं। एक सर्वेक्षण
के अनुसार युवाओं के समर्थन के तीन कारण हैं- अ). वे एकमात्र नेता हैं जो पाकिस्तान
द्वारा की जा रही हरकतों का करारा जवाब दे सकते हैं। ब). वे एकमात्र नेता हैं जो निर्णय
लेने की क्षमता रखते हैं। स). वे ही ऐसे नेता हैं जो देश को प्रगति के पथ पर ले जा
सकते हैं।
लेकिन यह भी एक बहुत बडा सच है कि गुजरात
पहले से ही एक विकसित एवं सुसंपन्न राज्य रहा है, अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थित का भी
उसे बहुत लाभ मिलता चला आया है, लेकिन विपक्ष एवं तथाकथित सेक्यूलर मीडिया द्वारा सांप्रदायिकता
के नाम पर उनके खिलाफ इतना शोर मचाया गया कि सारे देश-विदेश के लोगों का ध्यान मोदी
और गुजरात की आकर्षित हो गया और इसीके कारण उनके द्वारा किए गए विकास के कार्य लोगों
की नजरों में चढ़ गए। इसमें मोदी का मीडिया प्रबंधन कौशल भी बहुत काम आया जिसमें वे
अत्यंत माहिर हैं यह उनका मीडिया प्रबंधन कौशल ही है कि उन्होंने खुद होकर कभी भी नहीं
कहा कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं पर मीडिया एवं विपक्ष ही सबसे अधिक शोर मचा
रहा है कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, वे प्रधानमंत्री बन गए तो बडा भारी अनर्थ
हो जाएगा।
जब भी किसी राजनेता के विरुद्ध सब लोग
लामबंद होकर गरियाने लगते हैं तो जनता का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो जाता है और लोग
आगे होकर दोनो ही पक्षों के ही कार्यों पर नजर रख उनका मूल्यांकन करने लगते हैं, उसके
साथ सहानुभूति रखने लग जाते हैं। याद कीजिए जनता पार्टी का शासन काल उस समय इंदिरा
गांधी के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया गया था नतीजा क्या हुआ इंदिराज सत्ता में
ढ़ाई साल में ही लौट आई। यही सोनिया गांधी के मामले में भी हुआ। लेकिन इससे सबक सीखने
की बजाए वही इतिहास मोदी के साथ दोहराया जाने लगा उसका लाभ भी मोदी को मिला। परंतु,
यही लाभ वे अपने अतिअहंकार, गर्वोक्तियों एवं अशालीन तथा अतिआक्रमक भाषा के कारण कहीं
गंवा ना दे।
4. मोदी पर आरोप है कि उन्हें बडी जल्दी
मची है प्रधानमंत्री बनने कि तो इसके भी कारण हैं हर अपने आपको योग्य समझनेवाला राजनेता
प्रधानमंत्री बनने की चाह रखता है और ऐसी चाह रखनेवालों में आडवाणी, नीतिशकुमार से
लेकर कई राजनेता शामिल हैं। परंतु, इस दौड में मोदी भारी इसलिए नजर आ रहे हैं क्योंकि
इस समय सबसे बडे करिश्माई व्यक्तित्व के धनी वे ही हैं उनके पीछे जनाधार भी नजर आ रहा
है, सर्वेक्षणों में भी उन्हें ही बढ़त मिलती नजर आ रही है। आज की तारीख में उन्हें
जितनी लोकप्रियता हासिल है वह अटलजी को तो प्रधानमंत्री बनने के बाद ही हासिल हुई थी।
इसीका लाभ वे उठाना चाहते हैं।
सोशल साईट्स पर भी मोदी ही छाए हुए हैं।
ऊपर जिन कारणों की चर्चा की गई है वे गुजरात के संदर्भ में तो ठीक हैं परंतु वे ही
कारण राष्ट्रीय स्तर पर भी सटिक बैठेंगे क्या, यह एक प्रश्न ही है! सबसे पहली बात तो यह है कि आज जो मोदी मोदी का शोर चारों तरफ है वह चुनावों
तक यथावत रह भी पाएगा क्या? जिस जनाधार की चर्चा की गई है वह देश के कई प्रदेशों में
जबरदस्त जातिगत राजनीति के चलते बरकरार रह पाएगा? वह मतदानवाले दिन मतों में बदलकर
मोदी को समर्थन दिला पाएगा? यह सब तो नतीजों के आने के बाद ही पता चल पाएगा। कांग्रेस
कौनसे मुद्दों पर चुनाव लडेगी, कौनसी रणनीति अपनाएगी यह भी सामने आना है, यह भी देखना
पडेगा कि तीसरा मोर्चा बनता भी है या नहीं उसमें कौन-कौन से दल होंगे, वे क्या रणनीति
अपनाते हैं, चुनावों से पहले व चुनावी नतीजों के बाद कौन किस पाले में जाता है, आदि।
सबसे वरिष्ठ नेता आडवाणी 2009 में असफल
सिद्ध हो चूके हैं, भाजपा में मोदी जितने जनाधारवाले राजनेता नजर भी नहीं आ रहे हैं।
सत्तारुढ़ दल के कुशासन एवं घोटालों से लोग तंग आ चूके हैं इसीका लाभ उठाने के लिए मोदी
ने आक्रमक रुख अख्तियार कर लिया। परंतु, आडवाणी भी अपनी वरिष्ठता, पार्टी के लिए किए
गए त्याग, तपस्या, बलिदान का प्रतिफल चाहते हैं, वे यह भी जानते हैं कि मिलीजुली सरकारों
के युग में एनडीए में अपनी सेक्यूलर छवि बनाने के लिए एवं स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए
किए प्रयत्नों के कारण गठबंधन के नेता के रुप में उनकी स्वीकार्यता मोदी से अधिक है
और मोदी भी वर्तमान हालात को अपने लिए सुनहरा मौका मान दौड में सबसे आगे निकलने की
फिराक में हैं इसीलिए आज जब कब चुनाव होंगे तक का किसी को पता नहीं है फिर भी 'सूत
ना कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा जारी" की कहावत चरितार्थ की जा रही है।
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