इस्लाम में मूर्तिभंजन की परंपरा
इस्लाम मूर्तिपूजा का निषेध करता है।
क्योंकि, इस्लाम की मान्यता है कि, ईश्वर एक ही है और वह अल्लाह है, इसके अलावा अन्य
कोई ईश्वर नहीं इस एकेश्वरवाद पर श्रद्धा रखना यह इस्लाम का पहला और मूलभूत सिद्धांत
है। मूर्तिपूजा का विरोध इस सिद्धांत का उपसिद्धांत है। क्योंकि, मूर्ति को मानना मतलब
एकमेव अल्लाह के सिवाय अन्य देवी-देवताओं को मानना है अथवा अल्लाह के एकाध प्रतिस्पर्धी
को मानना है यानी अनेकेश्वरवाद/बहुदेववाद को मानना है और यही विवाद का मुद्दा भी है।
कुरान मूर्तिपूजा को सबसे बडा धर्मद्रोह,
गंदगी मानती है और उसका कठोरता से निषेध करती है। कुरान की आयत 22ः30 में कहा
गया है- ''बुतों (मूर्तियों) की गंदगी से बचो।"" इस आयत पर दअ्वतुल कुर्आन का भाष्य इस प्रकार है : ''बुतों की गंदगी से तात्पर्य
आस्था एवं आचरण की वह गंदगी है जो मूर्तिपूजा के फलस्वरूप पैदा होती है। ऐसे लोेग व्यर्थ
के भ्रमों, अंधविश्वासों और मानसिक निकृष्टता में लिप्त रहते हैं। मनुष्य के अंतर्मन
को पाक साफ रखने वाली चीज एकेश्वरवाद की धारणा और ईमान ही है। बहुदेववाद तो मनुष्य
के अंर्तमन को गंदगियों से भर देता है।'' (दअवतुल कुरान खंड 2 पृ. 1131) इसीलिए कुरान
का सम्पूर्ण और मुख्य जोर शिर्क (अनेकेश्वरवाद) एवं मूर्तिपूजा नष्ट करने पर है।
एकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा विरोध इन दोनो
ही प्रमुख बातों को मुहम्मद साहेब उन्हें पैगंबरत्व प्राप्त होने के पूर्व से ही मानते
थे। एक बार उन्होंने स्पष्ट किया था कि, 'जन्म से ही मैंने मूर्ति के प्रति गहरा द्वेष
और बैरभाव पाल रखा है।" मक्कावासी कट्टर मूर्तिपूजक थे और उन्हें मूर्तिपूजा का
विरोध कदापि सहने होनेवाला नहीं था यह बात मुहम्मद साहेब अच्छी तरह जानते थे इसलिए
प्रारंभ में उन्होंने अपने इस्लामधर्म का प्रचार अपने निकटस्थों में गुप्त रुप से किया।
तीन वर्षों में उन्हें केवल 33 अनुयायी मिले। तीन वर्षों पश्चात उन्हें खुले प्रचार
का संदेश अल्लाह से प्राप्त हुआ जो इस प्रकार से है
ः ''ऐ (वही यानी आयत के प्रभाव
से) चादर ओढे हुये (पैगंबर!) उठो और लोगों को सचेत करो, और अपने परवरदिगार की बडाई
(का बखान) करो, और अपने कपडों को पाक रखो, और (मूर्तिपूजा की) नापाकी से अलग रहो। और
(इहसान से) जियाद: बदला पाने के लिए किसी पर इहसान न करो, और अपने परवरदिगार (की कुदरत)
पर सब्र रखो। फिर (उस कियामत के दिन) जब सूर (नरसिंहा) फूंका जायगा, तो वह दिन (श्रद्धाहीनों
के लिए) बडा कठीन होगा। कि उसमें श्रद्धाहीनों को (यानी गैर-मुस्लिमों के लिए) आसान
न होगा।"" (74:1-10)
असत्य धर्म के विषय में तटस्थ रहकर अथवा
गुप्त रुप से प्रचार करके नहीं चलेगा बल्कि सत्य धर्म की विजय के लिए खुले रुप से प्रचार
करना होगा। ऐसा अल्लाह का संदेश था। इसी समय आगे का संदेश भी अवतरीत हुआ : ''(नहीं),
बल्कि हम (यानी अल्लाह) सच को झूठ पर खींच मारते हैं तो वह उसके सिर को कुचल देता है
फिर वह (झूठ) उसी दम मटियामेट हो जाता है। (और लोगों !) तुम जैसी बातेें बनाते हो उससे
तुम्हारी ही खराबी है ।'' (21:18) ''पस जो तुमको आज्ञा हुई है उसे खोलकर
सुना दो । ''(15:94) इस प्रकार के प्रचार की परिणिती मूर्तिभंजन में होना
थी और आगे चलकर शक्ति संपन्न होने पर वह हुई भी।
वैसे भी मूर्ति के प्रति द्वेष और भंजन
तो सेमेटिक (यहूदी, ईसाई, मुस्लिम) धर्मों की परंपरा ही है और इन तीनों के ही समान
पूर्वज हैं इब्राहीम जिनकी सारे पूर्व पैगंबरों में सर्वाधिक प्रशंसा कुरान में की
गई है। मुहम्मद साहेब, इब्राहीम के चालीसवें वंशज थे, ऐसा माना
जाता है। इब्राहीम के दो लड़के थे, इस्माईल और इसहाक। दोनों ही बाद में पैगंबर बने।
इस्माईल से आगे जो वंश तैयार हुआ वह मुस्लिमों का था। वे मुस्लिमों के पैगंबर बने।
इसहाक से जो वंश तैयार हुआ वह यहूदी लोगों का था। वे यहूदियों के पैगंबर बने। बाइबल
में उनका नाम अब्राहम है। इस प्रकार ये तीनों ही धर्मों के श्रद्धेय पैगंबर हैं। कुरान
का कहना है :''और कौन है जो इब्राहीम के दीन से मुंह फेरे, सिवा उसके जो अपने को
बिल्कुल बे अकली के सुपुर्द कर दे । और बेशक हमने इब्राहीम को दुनिया-लोक में चुन लिया,
और आखिरत (परलोक) में (भी) वह सदाचारियों में होंगे । जब उनसे उनके पालनकर्ता ने कहा
कि (मेरे) आज्ञाकारी (मुस्लिम) बनो, (तो जवाब में) निवेदन किया कि मैं सारे
संसार के स्वामी का आज्ञाकारी (मुस्लिम) हुआ... इब्राहीम अपने बेटों को वसीयत कर गए,
कि ऐ मेरे बेटो! बेशक अल्लाह ने इस दीन को तुम्हारे लिए पसंद फरमाया है तो तुम मुस्लिम
(अल्लाह के अनुवर्ती) होने की हालत ही में मरो।'' (2:130-132) अर्थात् इस्लाम धर्म मूलत: इब्राहीम को बताया हुआ है।
उन्होंने मार्गदर्शन स्वरुप क्या किया
वह कुरान में इस प्रकार से आया हुआ है ः''फिर (इब्राहीम ने एक दिन उन लोगों की गैर
मौजूदगी में उन)बूतों को (तोड़-फोड़कर) टुकड़े-टुकड़े कर दिया""(21ः58) जब
मूर्ति एवं मूर्तिपूजा से इतनी घृणा है तो स्पष्ट है कि, उसके पूजकों से घृणा होगी
ही होगी वे निंदा के पात्र, घृणास्पद होंगे ही। कुरान में कहा गया है ः''अल्लाह के नजदीक सबसे खराब वह जीव है (worst of beasts) जो कुफ्र (इस्लाम से इंकार) करते हैं,
फिर वह श्रद्धा नहीं लाते ।""(8:55) वैसे ही (8:22) ''(अल्लाह को छोड़कर)
शैतान को पूजनेे लगे थे, तो यही लोग दर्जे में खराब ठहरे, और सीधी राह से बहुत दूर
भटक गए।""(5:60) ''उन्होंने (इब्राहीम ने) अपनी कौम (मूर्तिपूजक लोगों) से
कहा कि हम तुमसे और जिनको तुम अल्लाह के सिवाय पूजते हो उनसे विमुख हैं । और हममें
और तुममें दुश्मनी और बैर हमेशा के लिए खुल पड़ा।""(60:4) इसी कारण से इब्राहीम के वंशज ईसाई और
मुसलमान हम मूर्तिपूजकों को पैगन-काफिर कहकर हमें निकृष्ट समझते हैं, नरकगामी समझते
हैं और दोनो ने ही हिंदुस्थान में मूर्तिभंजन किया है।
इतने स्पष्ट आदेश होने के बावजूद तथाकथित
सेक्यूलर विद्वान इस्लाम और उसके अनुयायियों को पाक साफ समझते हैं तथा उनको मूर्तिभंजन
के आरोपों से बचाने के लिए नए-नए और अजीबोगरीब तर्क गढ़ने से बाज नहीं आते। विगत दिनों
जब दक्षिण भारत में एक प्रसिद्ध मंदिर से अकूत खजाना मिला तो इन्हीं तथाकथित सेक्यूलरों
में से एक ने एक लेख लिखकर यह तर्क प्रस्तुत किया कि मंदिरों के इस प्रकार के अकूत
धन को लूटने के लिए ही मुहम्मद गजनी जैसे इस्लामधर्मी हिंदुस्थान में आए, आक्रमण किया
और रही बात मूर्तिभंजन की तो वह कश्मीर में राजा हर्षवर्धन और उसके मंत्री ने भी किया
था।
यहां हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं
कि यह राजा हर्षवर्धन अपवाद है जिसने मूर्तिभंजन किया और मंदिरों को लूटा और उसने जो
कुछ किया उसके लिए उसे कोई धार्मिक आदेश नहीं था। यह हमारी परंपरा नहीं। हमारे यहां
तो आद्य शंकराचार्य इधर तो अद्वैत का दर्शन देते हैं उधर मूर्तिपूजकों के लिए भी सिद्ध
मंत्रों की रचना करते हैं किसी तरह का कोई द्वेष नहीं। आर्य समाज के स्वामी दयानंद
सरस्वती एकेश्वरवादी होकर मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं परंतु, मूर्तिभंजन करो का न
तो कोई आदेश देते हैं ना ही स्वयं करते हैं। जबकि इसके विपरीत स्वयं मुहम्मद साहेब
ने मूर्तिभंजन किया भी और मूर्ति को लूटने का कार्य भी उन्हीं के पैगंबरत्व काल में
हुआ था जो उन्हीं के इस्लाम के अनुयायियों ने इस प्रकार से दर्ज कर रखा है-
मक्का विजय के बाद पैगंबर तत्काल ही पवित्र
काबागृह गए । वहां पवित्र 'काले पत्थर" का भक्तिभाव से अभिवादन किया, प्रेम से
चुंबन लिया, 'अल्लाह हो अकबर' (अल्लाह सर्वश्रेष्ठ है) की घोषणा की। उसके बाद उन्होंने
परंपरानुसार काबागृह की सात बार परिक्रमा की काबागृह में कुल 360 मूर्तियां थी। अनेक
देवी-देवताओं के, पूर्व पैगंबरों के चित्र थे। पैगंबर ने उनके हाथ की लकड़ी से निर्देश
किया। उस अनुसार उनके आदेश पर प्रत्येक मूर्ति इस तरह फोड़ डाली गई कि तोडी गई मूर्ति
नीचे जमीन पर मुंह के बल गिरे। भग्न मूर्तियों
का ढ़ेर हो गया। प्रत्येक मूर्ति को तोड़ते समय और नीचे गिराते समय पैगंबर बड़ी जोरों
से कुरान की यह आयत कहते थे :'सत्य प्रकट हो गया और असत्य मिट गया, बेशक असत्य तो
मिटनेवाला होता ही है।" (17ः81, 34:49)
इस प्रकार सारी मूर्तियां कुछ ही समय में मिट्टी
में मिला दी गई, इस्लाम के अनुसार मूर्ति याने
अल्लाह को आव्हान था; अल्लाह से स्पर्धा करना था, वह अल्लाह से विद्रोह था; वह अल्लाह
विरोधी गुनाह था। इस कार्य में आज काबागृह तक ही सफलता मिली थी। वहां हुबल की जो प्रमुख
और प्रचंड मूर्ति थी, वह पैगंबर ने अली के कंधों पर खड़े रहकर स्वयं के हाथों से फोड
डाली। उसके जमीन पर गिरने पर टुकड़े कर दिए गए। उसके बाद इस स्थान पर के चित्र नष्ट
किए गए। उनमें इब्राहीम, इस्माईल, इन पैगंबरों के और मेरी के चित्र भी थे। चित्र नष्ट
करते समय पैगंबर ने प्रार्थना की : 'अल्लाह इन श्रद्धाहीनों का नाश करेे।" इसके
बाद शहर भर में डोंडी पिटवाई गई कि : 'जो कोई अल्लाह पर और अंतिम निर्णय दिन पर श्रद्धा
रखता है, वह उसके घर में कोई भी मूर्ति न रखे यदि हो तो उसे नष्ट कर डाले।" पैगंबर
ने मक्कावासियों का आवाहन किया कि, वे एकमेव अल्लाह को मानें; उन्हें अल्लाह के पैगंबर
के रुप में मान्य करें; श्रद्धा अर्पण करें, उनकी आज्ञा का पालन किया जाए।
संक्षेप
में,लोग श्रद्धावान बनें; इस्लाम का स्वीकार करें ऐसा आवाहन किया गया। मक्का विजय के
संबंध में वे आगे बोले : 'अल्लाह ने अपना वचन पूर्ण किया और उसके दासों की मदद की।
उसने अकेले ही सारी शत्रु सेना को धूल चटा दी। सभी पुराने गर्व, बदला लेने के और रक्त
के बदले के सभी अधिकार आज मेरे पैरों तले हैं ...ऐ कुरैश लोगों ! अल्लाह ने श्रद्धाहीनता
का अभिमान नष्ट किया है। तुम्हारे अज्ञान काल का सारा अभिमान और उच्च कुल का गर्व आज
मिट्टी में मिल गया है। सभी मनुष्य इसी मिट्टी से जन्मे हुए आदम के ही वंशज हैं।"
इसी प्रकार से तायफ शहर की जीत के बाद
पैगंबर ने निर्णय दिया था कि, 'इस्लाम और मूर्ति एक साथ रह नहीं सकते। (सभी) मूर्तियों
को एक दिन के अंदर मटियामेट कर दिया जाए।" मूर्ति और मंदिर नष्ट करने के लिए भूतपूर्व
मक्का प्रमुख अबू सुफियान और एक को नियुक्त किया गया। उन्होंने तायफ जाकर वहां स्थित
अल-लात की भव्य मूर्ति गेंती की चोटें मारकर चकनाचूर कर दी। अपनी इस मूर्ति की यह दशा
देखकर शहर की औरतें छाती पीटकर आक्रोश करके रो रही थी। उस मंदिर में बहुत सारी संपत्ति
और मूर्ति पर बहुत कीमती ऊंंचे दर्जे के जेवरात थे। मूर्ति फोड़ी जाने वाली है यह मालूम
होते हुए भी मूर्ति को दु:ख पहुंचेगा इसलिए वे जेवरात वहां के लोगों ने नहीं उतारे।
मूर्ति फोड़ने के लिए गए हुओं ने वह संपत्ति और जेवरात अपने कब्जें में ले लिए। मूर्ति
फोड़ने के बाद वहां की संपत्ति लूटने का यह पहला ही उदाहरण था। मक्का विजय के समय भी
वहां की सम्पत्ति लूटी नहीं गई थी। पैगंबर के बाद के समय में भर इस्लाम का प्रसार,
मूर्ति का भंजन और वहां की संपत्ति की लूट इन तीनों घटनाओं का एक दूसरे में मिश्रण
हो गया था।
मुहम्मद साहेब ने जो कुछ किया वह सुन्नत
है और उस सुन्नत का पालन करना मुस्लिमों का आदर्श है। इसीलिए आज भी मुसलमान जब भी मौका
मिलता है मूूर्तिभंजन से बाज नहीं आते और समय-समय पर होेनेवाले दंगों या होनेवाली सांप्रदायिक
घटनाओं में इस आदर्श को आचरण में लाकर दिखलाते रहते हैं। वैश्विक स्तर पर तो ऐतिहासिक
महत्व की अफगानिस्तान की बामियान मूर्तियों को ध्वस्त करने का और हाल ही में मालदीव
के संग्रहालय की प्राचीन मूर्तियों को भग्न करने का पराक्रम दिखाने का श्रेय भी इन्हीं
इस्लाम के बंदों को जाता है।
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