खिलाफत का जुनून
अल बगदादी ने अपने आपको इस्लामी जगत का खलीफा घोषित कर खिलाफत की स्थापना क्या की उसकी आंच भारत तक पहुंचने लगी है। अभी तक तो यही सुनने और पढ़ने में आया करता था कि इंग्लैंड-अमेरिका-यूरोप में सीधे-सादे, मासूम से दिखनेवाले सामान्य मुस्लिम युवाओं की मानसिकता अचानक बदल जाती है और वे जिहाद की राह पर चल पडते हैं। कुछ तो वैश्विक जिहाद (global jihad) में भाग लेने के लिए अपना देश छोड मध्यपूर्व-अफगानिस्तान-पाकिस्तान तक जा पहुंचे हैं। परंतु समाचार पत्रों के अनुसार चौंकने की बात यह है कि आईएसआईएस में शामिल होने वालों में कुछ भारतीय भी हैं और इसमें भी चिंतित करनेवाली बात यह है कि इनमें से अधिकतर दक्षिण भारत के हैं। जबकि इसके पूर्व उत्तर भारत के संबंध में इस प्रकार के समाचार मिल चूके थे।
खिलाफत संबंधी समाचारों ने जो इतिहास के जानकार हैं उनके जहन में 1920 में भारत में जो खिलाफत आंदोलन हुआ था उसकी यादें ताजा हो गई होंगी। इस पर चर्चा हम बाद में करेंगे, पहले तो विचार इस पर करना होगा कि वह कौनसा कारण है जो इन युवाओं को अपना साधारण जीवन छोड जिहाद की ओर प्रवृत्त कर रहा है? तो, इसका कारण है 'उम्मा" (pan islamism) (विश्व मुस्लिम बंधुत्व-पॅन इस्लामिज्म)। जिसका आधार है कुरान की यह आयत ""ईमान वाले (मुसलमान)(सब) आपस में भाई हैं। ''(49ः10, 9ः71, 8ः72) । इस पर कुरान भाष्य कहता है -
"" दीनी (धार्मिक) रिश्ते के हिसाब से मुसलमान एक दूसरे के भाई हैं। रंग और वंश, जाति और देश का अंतर इस विश्वव्यापी भाईचारे में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकता। वे जहां कहीं भी होंगे एक दूसरे से जुड़े रहेंगे और एक के दर्द की चोट दूसरा अपने अंदर महसूस करेगा चाहे उनके बीच हजारों मील का फासला हो।'' इस भाईचारे के रिश्ते को मजबूत करने की ताकीद (चेतावनी) हदीस में दी गई है, मुसलमान मुसलमान का भाई है, न उस पर जुल्म करें और न उसे जालिम के हवाले करें। जो व्यक्ति अपने भाई की हाजत (इच्छा) पूरी करने में लगा रहता है और जो व्यक्ति किसी मुसलमान की तकलीफ दूर करेगा और जोे किसी मुसलमान की परदापोशी करेगा (दोषों को छुपाएगा) अल्लाह कियामत के दिन उसकी परदापोशी करेगा।'' (दअ्वतुल कुर्आन खंड 3 पृ.1848)
आयत (9ः71) के संबंध में मौ. मौदूदी कहते हैं : ''सच्चे श्रद्धावान (मुसलमान) पुरूष और स्त्री मिलकर एक विशिष्ट स्वतंत्र समाज (distinct community) तैयार होता है, क्योंकि उनमें अनेक गुणविशेष समान होते हैं। वे स्वभाव से ही सदाचारी बने होते हैं; वे दुराचार को निषिद्ध मानते हैं; और एकमात्र अल्लाह का स्मरण यह उनके जीवन की सांस ही होती है... इस समान गुण धर्म के कारण उनमें सामूहिक एकता की भावना निर्मित होती है।'' अर्थात् जिहाद के लिए यह एकता, भाईचारा और दोस्ती बहुत काम आती है। इसे ही वैश्विक मुस्लिम भाईचारा कहते हैं। इसीलिए संपूर्ण विश्व के मुस्लिमों का जिहाद के लिए आवाहन किया जा सकता है, किया जाता है। आयत (8ः72) पर भाष्य करते हुए मौ. मौदूदी कहते हैं ''अगर (संसार के) मुसलमान ......एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो संसार में उपद्रव और अराजकता फैल जाएगी।"" सच्चा श्रद्धावान कौन की व्याख्या है : ''श्रद्धावान वह हैं जो अल्लाह और उसके पैगंबर पर श्रद्धा लाए (और श्रद्धा में दाखिल होने के बाद) फिर शक में (डावांडोल) नहीं हुए और अल्लाह की राह में अपनी जानों और मालों से जिहाद किया ।'' (49:15) इस प्रकार यहां जिहाद को अल्लाह और पैगंबर के ठीक बाद का स्थान मिला हुआ है। इसी बंधुभाव के आधार पर बगदादी विश्व के मुसलमानों का जिहाद के लिए आवाहन कर रहा है और उसके प्रत्युत्तर में कुछ मुस्लिम युवा जिहाद में शामिल होने के लिए जा भी रहे हैं।
भारत में 1920 में खिलाफत आंदोलन प्रारंभ करने के पीछे कारण यह था कि मित्र राष्ट्रों द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तुर्क साम्राज्य के टुकडे करके आपस में बांट लिए थे। मुसलमानों के अरबस्थान के पवित्र तीर्थस्थान (मक्का-मदीना) विजयी ईसाई राष्ट्रों के कब्जे में चले गए थे। वे उनके कब्जे में न जाएं और उन पर खलीफा की हुकूमत बनी रहे इसलिए हिंदुस्थान के मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की थी। क्योंकि, संसार के सारे मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपना राजनैतिक और धार्मिक प्रेरणास्थान और श्रद्धास्थान, रक्षणकर्ता मानते थे और पैगंबर के बाद खलीफा का ही स्थान था। इस आंदोलन के परिणामस्वरुप मुसलमानों का धार्मिक उन्माद बेकाबू हो गया। उन्हें विदेशी मुस्लिम अपने भाई और हिंदू शत्रु नजर आने लगे। तभी सबसे पहले राष्ट्रीय हिंदू नेताओं के ध्यान में खिलाफत और पॅनइस्लामिझ्म (विश्व इस्लामी बंधुत्व) का भयंकर स्वरुप आया। गांधीजी ने ही, आंदोलन के प्रारंभ में जब वे अली बंधुओं के साथ देशव्यापी दौरों पर थे, लिख रखा है ''उन्हें ऐसा नजर आया कि हिंदू-मुस्लिम एकता होने पर भी हिंदू 'वंदेमातरम्" तो मुसलमान 'अल्लाहो अकबर" के नारे लगाया करते थे।""(यंग इंडिया 8 सितंबर 1920)
सन् 1921 में मोहम्मद अली ने एक पत्र लिखकर अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्ला को भारत पर आक्रमण का आमंत्रण दिया था। मोहम्मद अली ने अफगान आक्रमण संबंधी जो वक्तव्य दिया था वह इस प्रकार से था ः ''यदि महामहिम (अफगानिस्तान का अमीर) को उसी धार्मिक उद्देश्य से प्रेरित होकर उन लोगों के विरुद्ध जेहाद की बात सोचनी पडती है जिन्होंने जजीरुतल अरब और पवित्र स्थलों पर अवैध अधिकार कर रखा है ... जो इस्लाम को दुर्बल करने की इच्छा रखते हैं और हमें प्रचार करने की पूरी स्वतंत्रता देने से इंकार करते हैं, ... तो इस्लाम का कानून साफ-साफ कहता है कि किसी भी मुसलमान को उनके (अमीर के) विरुद्ध कोई सहायता नहीं देनी चाहिए और यदि जेहाद उसके क्षेत्र तक पहुंचता है तो प्रत्येक मुसलमान को मुजाहिदीन (विधर्मियों से लडनेवाले योद्धा) में सम्मिलित हो जाना चाहिए और सबको, चाहे स्त्री हो या पुरुष, उनकी भरसक सहायता करना चाहिए।""
दिसंबर 1922 में अहमदाबाद में खिलाफत आंदोलन की समीक्षा करते हुए हकीम अजमल खां जिन्हें विशुद्ध एवं वास्तविक राष्ट्रवादी माना जाता था ने गांधीजी की उपस्थिति में मंच से कहा था कि इस्लामी साम्राज्य का भविष्य उज्जवल है ः ''एक ओर भारत और दूसरी ओर एशिया माइनर भावी इस्लामी महासंघ की लम्बी श्रंखला के दो सिरे ही हैं। शनैः शनैः ये सिरे मध्यवर्ती राज्यों को एक महान सूत्र में पिरोते जा रहे हैं।"" आज बगदादी इसी दिशा में ही तो कदम बढ़ा रहा है। भारत के खिलाफ भी जिहाद की घोषणा कर रहा है।
गांधीजी ने खिलाफत के समूचे प्रश्न को एक वैचारिक आधार प्रदान किया और स्वयं उस आंदोलन का नेतृत्व भी किया एवं कांग्रेस ने तो केवल उसका अनुगमन किया। तथापि कांग्रेस में कुछ ऐसे स्वर उभरे जिन्होंने सचेत किया कि खिलाफत जैसे साम्प्रदायिक उन्माद में कूदने के क्या कुफल हो सकते हैं। परंतु, गांधीजी ना माने। 1921 में यंग इंडिया में घोषणा की ''एक दृष्टि से मैं निश्चय ही अफगानिस्तान के अमीर की सहायता करुंगा यदि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध तलवार उठाई। इसका अर्थ है कि मैं खुले आम अपने देशवासियों से कहूंगा कि जिस सरकार ने सत्ता में रहने के संबंध में राष्ट्र का विश्वास खो दिया है, उसकी सहायता करना अपराध होगा।""
खिलाफत से उत्पन्न जेहाद का उन्माद शीघ्र ही दावानल की भांति फैल गया। देश भर में फैले दंगों से गांधीजी को गहरा आघात लगा। गांधीजी के नेतृत्व की यह भयंकर भूल मानी गई। इस कारण आज भी गांधीजी पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने खिलाफत आंदोलन में भाग लेकर मुसलमानों को भारत के बाहर देखने की आदत लगाई।
यह आरोप अज्ञान पर आधारित है। मुसलमानों को भारत के बाहर देखने की नई आदत किसी के द्वारा लगाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। वे हमेशा से ही स्वयं को इस देश में परकीय विजेता मानते आए हैं। जिनकी कई पीढ़ियां भारत में गुजर गई प्रत्युत जो एतद्देशीय धर्मपरिवर्तन कर मुसलमान बने वे भी स्वयं को इस भूमि में पराया मानते। सुन्नी राज्यकर्ता स्वयं को तुर्की समझते और शुक्रवार की नमाज का खुत्बा बिना चूके तुर्की के खलीफा के नाम से पढ़ा जाता। भले ही औरंगजेब क्यों ना हो, उसे भी खलीफा का आशीर्वाद तख्त जीतने के समान महत्वपूर्ण और आनंद का लगता था। शिया राजा ईरान के खलीफा के नाम का खुत्बा पढ़ते। शिया राज में ईरान के नागरिकों को विशेषाधिकार थे। सुन्नीयों के राज में तुर्कों को विशेषाधिकार थे। जो स्वयं को परंपरा से पराया मानते आए, जो हर दिक्कत के समय ईरान, तुर्कस्तान, अफगनिस्तान की सहायता मांगते आए वे आवश्यकतानुसार अरबस्तान की ओर हिजरत करते गए, उन्हें विदेश की ओर देखने की आदत गांधीजी द्वारा लगाए जाने की आवश्यकता ही नहीं थी।
इसीलिए शाह वलीउल्लाह ने सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली की ओर देखा तो इसमें आश्चर्य करने जैसा कुछ नहीं उसके पूर्व भी यह अनेकों ने किया था और उसके बाद भी करना अनेकों ने योग्य माना था। यदि आज कुछ मुसलमान युवा बगदादी के जिहाद में शामिल होने जा रहे हैं तो इसमें भी आश्चर्य करने या चौंकने जैसा कुछ भी नहीं।
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