आंबेडकर के अनुयायी क्या आंबेडकरी जलसे को पुनरुज्जीवित करेंगे !!
डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्यों के उद्धार के एक प्रयत्न के रुप में धर्मांतरण की घोषणा की थी। उनकी भूमिका यह थी कि जिस धर्म में अस्पृश्यता जैसी निर्दय रुढ़ि का पालन किया जाता है उस धर्म में अस्पृश्य समाज ही नहीं तो उस संपूर्ण समाज की प्रगति कभी नहीं हो सकती। परंतु, उनकी धर्मांतरण की यह राह बिल्कूल सीधी नहीं दिखती।
मई 1929 में जलगांव की परिषद में उन्होंने आवाहन किया कि 'दलित हिंदूधर्म छोडकर कोई सा भी धर्म स्वीकार लें"। परंतु, 1930 में नागपूर दलित कांग्रेस में मत प्रदर्शित किया कि 'सवर्ण चाहे जितनी यंत्रणाएं या कष्ट दें हम हिंदू धर्म का त्याग नहीं करेंगे।" 1933 में वे मुसलमान बननेवाले हैं की अफवाह उडी। परंतु बाद में उन्होंने ही बतलाया कि यदि मैंने धर्मांतरण किया तो भी मैं मुसलमान नहीं बनूंगा।
13 अक्टूबर 1935 में येवला परिषद में उन्होंने धर्मांतरण की ऐतिहासिक घोषणा की, 'हिंदूधर्म में अस्पृश्य के रुप में मैं जन्मा यह दुर्भाग्यशाली घटना टालना मेरे हाथ में नहीं था, परंतु हिंदू के रुप में नहीं मरुंगा यह विश्वासपूर्वक कहता हूं।"
इस घोषणा ने संपूर्ण देश में खलबली मचा दी। प्रत्येक धर्मप्रचारक की आंखें 6 करोड दलितों पर लग गई। बाबासाहब जानते थे कि धर्मपरिवर्तन से उनकी सभी समस्याओं का समाधान नहीं होगा। अतः पुणे के युवक सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, 'यह सोचना गलत होगा कि ईसाई, इस्लाम या किसी मत को स्वीकारते ही समानता प्राप्त हो जाएगी। कहीं भी जाएं समानता, सम्मान के लिए संघर्ष करना ही पडेगा।"
इस धर्मांतरण का राष्ट्र पर होनेवाले प्रभाव की चर्चा करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि, 'इस्लाम" या 'ईसाई" मत में दलितों के धर्मांतरण का अर्थ है उनका विराष्ट्रीयकरण। यदि वे इस्लाम स्वीकार करते हैं मुस्लिमों की संख्या दुगनी हो जाएगी और देश पर मुस्लिम आधिपत्य का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। ईसाई मत ग्रहण करने पर देश में 5-6 करोड ईसाई हो जाएंगे। दूसरी ओर यदि वे सिख धर्म ग्रहण करेंगे तो वे अराष्ट्रीय नहीं बनेंगे और देश के भविष्य को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकेंगे। तीनों मतों की तुलना करते हुए बाबासाहब ने कहा हिंदुओं के हित में वे सिख धर्म को ही उचित समझते हैं। यह हिंदुओं का कर्तव्य है कि वे नवसिखों के मार्ग में आनेवाली आर्थिक, राजनैतिक समस्याओं का समाधान करने में सिखों का सहयोग करें।
डॉ. मुंजे और शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटी सरीखे हिंदू नेताओं ने सोचा था कि यदि दलित धर्मांतरण करने पर तुले हैं तो हिंदूधर्म के लिए जो कम हानि का मार्ग है उसे ही क्यों ना स्वीकारा जाए? परंतु, महात्मा गांधी, मालवीयजी, राजगोपालाचारी धर्मांतरण के मूलतः विरोधी थे। गांधीजी का मत था कि धर्म कोई मकान या कपडा नहीं जिसे जब इच्छा हुई बदल डाला। ऐसे धर्मांतरण से दलितों का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इन चर्चाओं के दौरान डॉ. आंबेडकर का सिख धर्म के संबंध में धर्मनिरास हो गया और वे बौद्धधर्म की ओर मुड गए।
धर्मांतरण के संबंध में इस प्रकार की अनुकूल-प्रतिकूल चर्चाओं को ध्यान में रखकर समाज को धर्मांतरण के लिए तैयार करने का काम 1935 से 1956 तक सतत आंबेडकर अनुयायियों की जलसा मंडली महाराष्ट्र के गांव-गांव जाकर करने लगी। इस संघर्ष के कारण अस्पृश्य समाज में धर्मांतरण का विचार पक्का हो गया।
आज बहुत से लोगों को आंबेडकरी जलसा क्या है यह ही मालूम नहीं होगा। उस जमाने में मनोरंजन का एकमेव साधन था तमाशा (नौटंकी)। तमाशे में लावनी (एक तरह का चलता गाना), वग (लोकनाट्य की कथावस्तु), विनोद अनाडी लोग बडी आत्मीयता से सुनते। इन्हीं जलसों के माध्यम से आंबेडकर के ध्येयवादी अनुयायी गांव-गांव में फैले अस्पृश्यों को जागृत कर सके, एकजुट कर सके। बाबासाहब के विचार पोवाडे (यशगान), लावनी की तर्ज पर ग्रामीण क्षेत्र की जनता तक पहुंचाने का काम इन जलसों के माध्यम से आंबेडकरी जलसे वालों ने किया। इसीके माध्यम से अपने, परायों की आलोचना का उत्तर दे सके। समाज की कुरीतियों पर प्रहार कर सके। प्रचार का अत्यंत कठिन काम बडी आसानी से इस जलसे के माध्यम से सहजतापूर्वक कर सके।
1950 में आंबेडकर कोलम्बो बौद्ध सम्मेलन में सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन में उन्होंने अस्पृश्यों को बौद्धधर्म स्वीकारने का आवाहन किया। कोलम्बो से लौटने पर 29 सितंबर 1950 को वरली (मुंबई) में बिरलाजी द्वारा उस समय निर्मित किए जा रहे बुद्ध मंदिर में 'बुद्ध समागम सोसायटी" को दी भेंट के समय अपने उद्बोधन में कहा था - मैंने तय किया है कि मैं अब अपना बचा हुआ जीवन बौद्ध धर्म के पुनरुज्जीवन और प्रसार के काम में व्यतीत करुंगा, मेरे जीवन के इस इस अंतिम आश्रम मेें यही कार्य मैं करनेवाला हूं। अंततः बाबासाहब ने 24 मई 1956 को बुद्ध जयंति के दिन बंबई के नरे पार्क में ऐतिहासिक घोषणा की कि वे अपने अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर 1956 विजयादशमी के दिन बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे। पूरे देश में खलबली मच गई। एक बार पुनः बाबासाहब को रोकने के प्रयास हुए। परंतु बाबासाहब अडिग रहे।
''डॉक्टर साहब के धर्मांतर करने के निश्चय का जब श्री गुरुजी को पता चला तब उन्होंने अविलम्ब ठेंगडीजी को डॉक्टर साहब के पास चर्चा करने हेतु भेज दिया। 'डॉक्टर साहब, सुना है कि आप हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले हैं?" 'हॉं,मैंने पक्का निर्णय किया है।" 'परंतु आप जो विचार बताते हैं वही सब हममें से कुछ युवक प्रत्यक्ष आचरण में अनेक वर्षों से ला रहे हैं।" 'आप युवक याने आर.एस.एस. ही है?" 'जी हॉं, हममें कुछ सवर्ण भी हैं, कुछ दलित वर्ग के भी हैं। जो सवर्ण हममें हैं वे ऐसा विचार करते हैं कि भूतकाल में हमसे जो कुछ पाप हुआ सो हो गया है उसका प्रायश्चित करने को हम तैयार हैं। हमको सब हिंदू मात्र का संगठन करना है।" 'बहुत ही अच्छा है परंतु इस पर मैंने कुछ सोचा ही नहीं ऐसी तुम्हारी धारण है क्या?" 'आपने इस पर सोचा नहीं होगा यह कैसे हो सकता है डॉक्टर साहब!" ठेंगडीजी ने कहा।
'तो फिर मेरे प्रश्न का उत्तर दो।" 'पूछिए आपका प्रश्न डॉक्टर साहब!" 'तुम्हारे आर.एस.एस. का कार्य कब प्रारंभ हुआ।" 'सन 1925 में।" 'याने कार्य प्रारंभ हुए कितने वर्ष हो गए?" 'साधारणतः 27-28 वर्ष।" 'देशभर में आर.एस.एस. वालों की कुल कितनी संख्या है?" 'मुझे तो इसकी कल्पना नहीं है।" 'अच्छा! तो मेरे अनुमान से देशभर में 26-27 लाख स्वयंसेवक होंगे।" 'हो सकते हैं।" 'तो तुम ही बताओ कि 26-27 लाख सवर्ण और दलित लोगों को आपकी संस्था में लाने में अगर आपको 27-28 वर्ष लगे हैं तो पूरे दलित वर्ग को संघ में लाने के लिए कितने वर्ष लगेंगे?" 'परंतु... .. डॉक्टर साहब... 'बीच में मत बोलो। तुम क्या कहने वाले हो वह सब मुझे पता है। तुम जो geometrical progression (जियोमेट्रिकल प्रोग्रेशन) बतानेवाले हो उसकी भी कुछ मर्यादा है। बकरी कितनी भी बडी हो जाए तो भी बैल नहीं बन सकती। मुझे अपने ही जीवन में इस समस्या का हल करना है। इसको निश्चित दिशा देनी है।"" ठेंगडी मौन रह गए।" (स्वदेश दीपावली विशेषांक 1973 पृ.25) और प्रत्यक्ष नागपूर में ही दशहरे के विजयदिवस पर तथाकथित अस्पृश्यों का बडा भाग हिंदूधर्म समाज से अलग हो गया।
14 अक्टूबर 1956 को नागपूर में करीब तीन लाख अनुयायियों के साथ बाबासाहब ने बौद्धधर्म की दीक्षा ली। इस समय बाबासाहब ने कहा था - मैंने एक बार अस्पृश्यों की समस्याओं के बारे में गांधीजी के साथ चर्चा करते हुए कहा था कि, ''अस्पृश्यता के बारे में तुम्हारे साथ मेरे मतभेद हैं तो भी प्रसंगवश इस देश को कम से कम धक्का पहुंचे ऐसा मार्ग स्वीकार करुंगा। इसलिए बौद्ध मत स्वीकार करके मैं इस देश का अधिकाधिक हित साध रहा हूं। क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है। इससे देश की संस्कृति, इतिहास और परंपरा को धक्का नहीं लगेगा, इसका मैंने जिम्मा ले लिया है।"" उसी दिन जारी पत्रक में भी कहा गया है कि, ''हिंदूधर्म और बौद्धधर्म एक ही वृक्ष की दो डालियां हैं।""
इस प्रकार से डॉक्टर साहब अपने जीवन के 65 वर्ष 8 माह के जीवनकाल में केवल 1 माह 22 दिन बौद्ध रहे। परंतु, इन सब बातों को भूलकर आज बौद्ध समाज में कुछ लोग आवाज उठा रहे हैं कि हमें हिंदुओं से अलग स्मशान भूमि चाहिए तो, कुछ लोग अलग से भारतीय बौद्ध विवाह कानून की मांग कर रहे हैं। यह अलगाववाद फैलाकर वे बाबासाहब के विचारों के साथ क्या अन्याय नहीं कर रहे हैं।
वस्तुतः उन्हें आज फिर से उसी जलसा कृति का पालन करना चाहिए जिसके द्वारा बाबासाहब के अनुयायियों ने अस्पृश्य जनता को जागृत किया था, एकजुट किया था। उन्हें चाहिए कि, बाबासाहब के विचारों को ध्यान में रखते हुए जो पूर्वास्पृश्य धर्मांतरित हो भारतोद्भव धर्मों की परिधि के बाहर जाकर मुसलमान या ईसाई हो गए हैं उनका आवाहन करें कि वे बौद्धधर्म को स्वीकारें। क्योंकि, जिन अन्यायों से त्रस्त होकर, समानता, सम्मान के अधिकारों की प्राप्ति के लिए उन्होंने धर्मांतरण कर बौद्धधर्म को स्वीकार किया था उन्हीं कारणों से उन्हीं के पूर्व के धर्म-जाति बंधू ईसाई या मुसलमान बने थे। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि, यह बाबासाहब का ही आदेश है।