Thursday, August 28, 2014

गणेशोत्सव 
गणेशजी का विदेश संचार

गणेशजी की उपासना अत्यंत प्राचीन काल से भारत ही नहीं तो सारे विश्व में जहां-जहां जिन-जिन देशों मे भारतीय जाकर बसे भारतीय संस्कृति का प्रभाव पडा वहां-वहां श्रीगणेश की उपासना भी जा पहुंची। वेद, उपनिषद, पुराण और ऐतिहासिक काल में भी गणपति की उपासना की जाती रही है। भारतीय संस्कृति का प्रभाव पश्चिम में तुर्कस्तान, उत्तर में चीन और ईशान कोण में जापान तक फैला था। मलय द्वीप पुंज में भी गणेशजी की मूर्तियां मिलती हैं। श्रीगणेश के भारत के बाहर विविध नाम हैं। ब्रह्मदेश यानी बर्मा या म्यांमार में महापियन कहा जाता है। पियेन विनायक का ही विकृत रुप हो अथवा विघ्न शब्द का रुपांतर जिसमें गणेशजी विघ्नेश्वर कहलाए पियेन हो सकता है।

व्हेनसांग (सातवीं शताब्दी) के यात्रा वर्णन से ज्ञात होता है कि अफगानिस्तान में कुशाण पूर्व काल में भी गणेश पूजा व्याप्त थी। पश्चिम ईरान के लुरिस्तान में उत्खनन में ई.पू. 1200 से 1000 वर्ष पूर्व में गणेश मूर्तियां मिली हैं। ईरानियों में अहुरमज्दा नाम से भगवान गणेश की पूजा होती है। ईरान का गणपति वीर योद्धा के रुप में है जो खडगधारी है। यूनानवासी गणेशजी की पूजा ओरेनस नाम से करते हैं। इजिप्त के इतिहासकार हर्मिज के अनुसार 'सब देवों में यह अग्रिम है जिसका विभाग नहीं हो सकता, जो बुद्धि का अधिष्ठाता है उसका नाम एकहोन है। संभवतः यह देवता गणेश ही है क्योंकि वही पूजनीय है और एकहोन संबोधन भी एकदन्त का पर्यायवाची मालूम होता है।

 नेपाल ने गणेश पूजा को विशिष्ट स्थान दिया और उन्हें हेरम्ब विनायक की संज्ञा दी। नेपाल के समान ही तिब्बत में भी गणेशजी को सम्मान मिला और उन्हें 'सोरद दाग" नाम दिया व मंदिर की पताकाओं में स्थान दिया। तिब्बत में प्रत्येक मठ के अधीक्षक के रुप में विनायक पूजा का प्रचलन है। चीनी और जापानी लोगों को गणेश के रुप मालूम थे। एक विनायक का दूसरा कांगितेन का। जब बौद्ध धर्म शनैः शनैः जापान में लोकप्रिय होने लगा तभी गणेश को भी जापान में मान्यता प्राप्त होने लगी। गणेश का स्वरुप जापान के निओ से साम्य रखता है। चीनी तुर्कस्थान में गणेश नेपाल, तिब्बत होते हुए पहुंचा होगा। चीनी तुर्कस्थान में प्राप्त चतुर्भुज गणेश का भित्ति-चित्र विशेष महत्वपूर्ण है। 

सयाम देश के लोग मंगोलवंशीय होकर उनकी संस्कृति आर्य संस्कृति युक्त है। सयाम में गणेशजी वैदिकों के समान बौद्धों में भी लोकप्रिय है। कंबोडिया या कम्बुज जिसे हिंद चीन भी कहा जाता है में भी बर्मा और सयाम के ही जैसी छोटी-छोटी गणेश मूर्तियां मिली हैं। बोर्नियो की कांस्य गणेश मूर्ति विशेष प्रसिद्ध है। यहां सामाजिक स्वरुप में गणेशजी की पूजा होती है। जावा में भगवान गणेश के पूजन के प्रमाण मिले हैं। बाली में जावा की तरह अशुभ विनाशक के रुप में गणेश पूजन होता होगा ऐसा लगता है। यहां का उसका रुप भारतीय कम चीनी अधिक लगता है। श्रीलंका में गणेशजी ईसा से एक शताब्दी पूर्व जा पहुंचने के साक्ष्य मिलते हैं। कंपूचिया के गणेश खमेर दाहिना पांव बांये पांव पर रखकर बुद्ध के समान आसनस्थ है। हनोई का विघ्नेश्वर भारत के समान कमलाकृति प्रतीक में अंकित है। अमेरिका में बचे-खुचे रेडइंडियन लोग और मेक्सीको (दक्षिण अमेरिका) के लोग गज मस्तक और मनुष्य देह वाली मूर्ति की आज भी पूजा करते हैं।

उपरोक्त प्रकार से भारतवर्ष के बाहर भी यत्र-तत्र न्यूनाधिक मात्रा में श्रीगणेश की पूजा-आराधना के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से श्री गणेश की गणना संसार के सबसे अधिक लोकप्रिय देवताओं में हो सकती है एवं ऐतिहासिक स्तर पर उनके महत्व का विस्तार सार्वभौम है। 

Friday, August 22, 2014

बढ़ता ध्वनि प्रदूषण - एक गंभीर सामाजिक समस्या

 वर्तमान में बढ़ता प्रदूषण एक गंभीर अंतर-राष्ट्रीय समस्या का रुप धारण कर चूका है। वायु, जल, भूमि में व्याप्त प्रदूषण की तरह कोलाहल, शोर भी पर्यावरण प्रदूषण में सम्मिलित हो गया है। देश में बढ़ते वायु, जल, भूमि प्रदूषण जो विभिन्न गैसों के उत्सर्जन एवं बढ़ते कीटनाशकों, कच्चे तेल के रिसाव, प्लास्टिक और एल्यूमिनियम तथा विषैले पदार्थों जैसे केडमियम, सीसा आदि के प्रयोग से और उनके उचित तरीके से नष्ट न होने की प्रक्रिया से हो रहा है पर तो बडी चिंता प्रकट की जाती है। परंतु, ध्वनि प्रदूषण के विरुद्ध कोई खास ऐसा शोर सुनाई नहीं देता। लगता है शोर-शराबा लोगों को जरा कुछ ज्यादह ही पसंद है। तभी तो, कोई भी धार्मिक हो या सामाजिक उत्सव, समारोह बिना शोर मचाए सफल नहीं समझे जाते। बारातें हों या धार्मिक जुलूस सडकों को घेर लेना, यातायात में बाधा डालना, उसे रोककर सडकों पर नाचना। इनमें शामिल बैंड भी ज्यादा से ज्यादा भोंगे अपनी गाडियों पर कसकर अधिकाधिक शोर पैदा कर अपना महत्व दर्शाते से लगते हैं। शायद यह शोर कुछ कम पडता है इसलिए आजकल बडी गाडियों पर बडे-बडे डीजे बजाते हुए जुलूस निकाले जाते हैं। आजकल सफल नेता वही होता है जो समाज चाहता है उन गलत गतविधियों को स्वयं उसमें शामिल होकर उसे प्रोत्साहन प्रदान करता है। इसीलिए चुनाव प्रचार में वे भी बडी-बडी गाडियों पर शोर मचाते डीजे के साथ चुनाव प्रचार करते नजर आते हैं। 
कई बार कई उच्चन्यायालय इस ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ निर्णय दे चूके हैं। परंतु, उनके निर्णयों का कोई असर नहीं हो रहा है और इस ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ उठनेवाली आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती हैं। लोकसभा तक में इसके खिलाफ प्रश्न पूछा जा चूका है और पर्यावरण मंत्री जवाब भी दे चूके हैं कि 'रात 9 बजे से सुबह 6 बजे तक लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है।" 'एक रिपोर्ट के अनुसार लाउडस्पीकर सबसे अधिक शोर करते हैं। लेकिन दिल्ली के मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों पर लगे लाउडस्पीकर मनमोहक कीर्तन के नाम पर लगातार शोर करते ही रहते हैं। कानूनी पाबंदी होने के बावजूद भी इन्हें बंद नहीं कराया जा सकता। इस तरह की लाचारी दूरदर्शन से प्रसारित 'जनवाणी" कार्यक्रम में पर्यावरण मंत्री प्रकट कर चूके हैं।" 

वैज्ञानिकों के अनुसार ध्वनि प्रदूषण मनुष्य को धीरे-धीरे मौत की तरफ ले जानेवाला तत्त्व है। इसके कुप्रभावों का ज्वलंत उदाहरण है नईदुनिया भोपाल संस्करण 16-10-86 का एक समाचार 'भोपाल के महापौर ने उनके मकान के सामने दुर्गोत्सव की झांकी में लाउडस्पीकर से होनेवाले शोर से उत्तेजित होकर झांकी तोडी।" जनसत्ता में 24-2-92 में छपे एक लेख के अनुसार 'बोकारो जैसे छोटे शहर मेें 50 से 70 मानसिक रोगियों का इलाज के लिए बोकारो जनरल अस्पताल में आना यह साबित करता है कि इस शहर में ध्वनि प्रदूषण किस हद तक पहुंच चूका है। किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार '1980 के गणपति उत्सव के दौरान शोर का स्तर 97 डेसिबल तक पहुंच गया था जबकि विमानतलों पर शोर 90 डेसिबल का होता है।" यह तबके हालात है  और तब से लेकर अब तक तो कई गुना आबादी भी बढ़ चूकी है, नए-नए कल-कारखाने खुल चूके हैं, यातायात भी कई गुना बढ़ गया है, ज्यादा ध्वनि पैदा करनेवाले कई यंत्र भी बाजार में आ चूके हैं। तो, परिस्थितियां कितनी भयावह होना चाहिए इसकी कल्पना की जा सकती है। 'विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा सहन करने योग्य शोर की सीमा 45 डेसिबल निर्धारित की गई है। शोर यदि 70 डेसिबल से अधिक हो तो पीडादायक हो सकता है। लगातार शोर से स्थायी बहिरापन, उच्च रक्तदाब, मस्तिष्क में अस्थिरता, अल्सर, गैस की समस्या, एलर्जी उत्तेजना, बांझपन, अनिद्रा का कारण बन सकता है। अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ है कि इसके कारण नाडीतंत्र की गडबडी और पाचन क्रिया खराब हो सकती है। केवल कल-कारखाने, मोटरगाडियां, रेलें, हवाईजहाज ही शोर प्रदूषण में योगदान नहीं करते, अपितु धार्मिक और सामाजिक उत्सव भी इसमें बढ़ावा करते हैं। इन उत्सवों में लाउडस्पीकरों का उपयोग खासतौर पर होता है।" 'लाउडस्पीकरों का शोर तो अत्यंत घातक है। उसे तो शीघ्र नियंत्रित करने की जरुरत है।"

एक याचिका की सुनवाई के दौरान 'केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ताओं को ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।" 'केंद्रिय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के बनाए नियमों के अनुसार लाउडस्पीकरों का रुख बाहर की तरफ नहीं, बल्कि समारोह की तरफ होना चाहिए। बोर्ड ने लाउडस्पीकरों के ध्वनि स्तर की सीमा भी तय की है।" परंतु, सभी मस्जिदों पर तने लाउडस्पीकरों का रुख बाहर की तरफ ही होता है। नईदुनिया  29-10-03 में छपे 'श्री ए. के. शेख (सूबेदार), प्रथम वाहिनी, विसबल, इंदौर" केपत्र के अनुसार ''नमाज पर बुलावे के लिए किसीको इस्लाम ने ठेकेदार नहीं बनाया है। रमजान में रात्रि 3 बजे से हर 15 मिनिट में प्रत्येक मस्जिद से उठाने की आवाज लगाई जाती है। जिस क्षेत्र में 5-6 मस्जिद हैं। वहां के लोगों की नींद हराम हो जाती है।... बूढ़े व बीमार लोगों के लिए तो यह ध्वनि प्रदूषण अभिशाप ही है। अन्य जाति-समाज के लोगों को 3 बजे उठाना क्या न्यायसंगत है? किसी भी प्रकार से अन्य को प्रताडित करना इस्लाम में हराम है दूसरों को परेशान कर स्वयं सुखी नहीं रह सकते हैं। शासन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के परिपालन में इस प्रकार के ध्वनि प्रदूषण पर पूर्ण पाबंदी लगाकर अन्य जाति - समाज के लोगों को राहत दे सकता है।"" 

परंतु, इस प्रकार की न्यायोचित समाज हितकारी आवाज उठानेवालों की कोई सुनवाई नहीं होती। बल्कि होता यह है जो पटना में फरवरी 2005 में हुआ था। 'पटना उच्चन्यायालय में पांच वर्ष पूर्व मस्जिद की प्रबंध समिति ने आश्वासन दिया कि दिन में एक और चार बजे मस्जिद से लाउडस्पीकर पर अजान नहीं पढ़ी जाएगी। इसके बावजूद अदालती आदेश का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता रहा। अदालत ने स्वयं की अवमानना का मामला चलाया जिस पर मुजार की ओर से आश्वासन दिया गया कि अब बाधा उत्पन्न नहीं की जाएगी। लेकिन अदालती आदेश की खिल्ली उडाई जाती रही। आखिरकार 4 फरवरी को न्यायमूर्ति के आदेश पर मुअज्जिन अलीमुद्दीन को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया। इसी बीच कुछ मुस्लिम नेताओं ने मामले को सांप्रदायिक रुप दे दिया और दोपहर की नमाज के समय भडकाऊ भाषण दिए। शुक्रवार का दिन था भीड बढ़ती गई और भीड ने कोतवाली को घेर लिया और न्यायमूर्ति के प्रति अशिष्ट भाषा का उपयोग कर अलीमुद्दीन की रिहाई की मांग करने लगे। सडक जाम कर उन्होंने जानबूझकर दोपहर की नमाज मुख्य सडक पर पढ़ी। उच्चन्यायालय ने पूछताछ के बाद अलीमुद्दीन को छोड दिया तब कहीं शांति हुई।"(पांचजन्य 20-2-05) यह बेजा अडियल रवैया भी तब जबकि लगभग पांच वर्ष पूर्व सन्‌ 2000 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि 'किसी भी समुदाय को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी प्रार्थना को माइक्रोफोन या लाउडस्पीकर जैसे ध्वनि विस्तारक यंत्रों द्वारा प्रसारित करे जिससे कि दूसरों को कष्ट पहुंचे। न्यायमूर्ति एम. बी. शाह तथा न्यायमूर्ति एस. एन. फुकेन की खंडपीठ ने एक चर्च की अपील पर यह निर्णय दिया। अपील में मद्रास उच्चन्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें चर्च से लाउडस्पीकर की आवाज धीमी करने को कहा गया था। न्यायालय ने कहा कि सभ्य समाज में धर्म के नाम पर दूसरों को कष्ट पहुंचे ऐसी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती।"  
               
हम सब एक देश के वासी हैं और जब हमें साथ-साथ रहना है तो, हम शांति से मिलजुल कर क्यों न रहें? बेजा जिदों का त्याग क्यों ना करें? जैसाकि मौलाना वहीदुद्दीन कहते हैं ''तालमेल बुजदिली नहीं। तालमेल किए बिना इस दुनिया में जिंदगी की तामीर या निर्माण मुमकिन नहीं। मुसलमान आज जिस मुल्क में भी शांति और सुकून से रह रहे हैं, वे उसी उसूल पर अमल करके वहां रह रहे हैं। मगर अजीब बात यह है कि जब हिंदुस्थान में इस उसूल को अपनाने को कहा जाता है तो फौरन कुछ सतही किस्म के मुसलमान लीडर बोल पडते हैं कि यह बुजदिली है, यह हालात से समझौता करना है, यह अपने को पीछे ले जाना है वगैराह। ""(पांचजन्य 16-9-90) ''पैगंबर मुहम्मद के जमाने में मक्का के मुसलमान झगडा टालने के लिए कई साल तक अजान दिए बिना नमाज पढ़ते रहे।""(जनसत्ता 15-12-90) 

वैसे पिछले कुछ वर्षों में ध्वनि प्रदूषण की समस्या के प्रति लोग जागरुकता दिखला रहे हैं। परंतु, जिस प्रकार से यह बढ़ रहा है वह मानवजाति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। ध्वनि प्रदूषण रोकथाम का सबसे कारगर उपाय है हम स्वयं शोर कम करें, कारखानों को आवासीय क्षेत्र से दूर रखकर भी इससे होनेवाले नुक्सान को कम किया जा सकता है। वृक्षारोपण वह भी नीम, बरगद, इमली, अशोक आदि के वृक्षों का, बेलें भी शोर सोखने का काम करती हैं, रक्षा कवच सिद्ध हो सकता है।  'नॉइज बैरियर्स" जैसे ध्वनि शोषक यंत्र भी बेहद मददगार साबित हो सकते हैं। 

Friday, August 15, 2014

यश-प्रतिष्ठा-आस्था और पहचान का प्रतीक ः ध्वज

मानव ने शैलाश्रय को छोड जब समूह रुप में झोपडियां आदि बनाकर रहना आरंभ किया तभी अपने समूह-टोली-कबीले की पहचान के रुप में पहले पहल झंडे या ध्वज को अपनाया जिसके तले वे एकत्रित होते थे। सबसे पहले झंडे का उपयोग भूत-प्रेत-बुरी आत्माओं से बचने के लिए किया गया। झंडे पर कबीले के ओझा द्वारा बनाया हुआ कोई जादूई चिंह या किसी भयानक पशु-पक्षी को इस विश्वास के साथ अंकित किया जाता था कि इससे बुरी आत्माएं, भूत, प्रेत आदि दूर रहेंगे। धीरे-धीरे वे विभिन्न त्यौहारों आदि पर इसी ध्वज तले एकत्रित होने लगे। विभिन्न कबीलों के भिन्न-भिन्न ध्वज बनने लगे। इसी प्रकार से समय के साथ विभिन्न देशों-राष्ट्रों के झंडों की निर्मिति हुई और इसे राष्ट्रीय सम्मान के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। 

ध्वज की महत्ता युद्धकाल से लेकर शांतिकाल तक में है। विभिन्न रंगों के झंडे विभिन्न बातों के प्रतीक के रुप में उपयोग में लाए जाने लगे। सफेद रंग को शांति का प्रतीक माना गया है। इसलिए लंबे समय से सफेद झंडा शांति और संधि का प्रतीक बना हुआ है। युद्ध के समय सफेद झंडा लेकर आनेवाले को शांतिदूत माना जाता है। काला रंग विरोध का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए विरोध प्रकट करनेवाले काले झंडे फहराते हैं या काली पट्टी बांधते हैं। पुराने जमाने में समुद्री डाकुओं के जहाज पर काले झंडे फहरते थे और वे वस्त्र भी काले ही पहनते थे। पीला रंग बीमारी का प्रतीक है इसलिए छूत की बीमारी से ग्रस्त रोगियों को लेकर जानेवाले जहाज पर पीले रंग का झंडा लहराया जाता है। झंडे को विभिन्न तरीके से विभिन्न प्रतीकों के रुप में भी उपयोग में लाया जाता है। झंडे को झुकाने का मतलब है राष्ट्रीय शोक। किसी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु पर झंडे को झुकाया जाता है। युद्धकाल में झंडे को झुकाने का अर्थ हार को स्वीकारना होता है। झंडे को उल्टा फहराना यानी राष्ट्रीय संकट को दर्शाना होता है। प्रत्येक राष्ट्र के झंडे के पीछे कोई ना कोई कथा या राष्ट्रीय संदर्भ छुपा होता है। 

प्रारंभ से ही ध्वज का धर्म से गहरा संबंध रहा है। हमारे यहां देवताओं के प्रतीक चिंह के रुप में ध्वज शब्द को उपयोग में लाया जाता है। साधारणतया जिस देवता का ध्वज होता है उस ध्वज पर उस देवता के वाहन को अंकित किया जाता है। श्रीकृष्ण का गरुड ध्वज है तो बलराम के ध्वज पर तालवृक्ष अंकित होने के कारण वह तालध्वज कहलाता है। अग्नि का धूम्र तो सूर्य का अरुण ध्वज है। महाभारत के योद्धा उनके ध्वजों से ही विख्यात हैं जैसेकि अजुर्न कपिध्वज नाम से। भिन्न-भिन्न संप्रदायों के भिन्न-भिन्न ध्वज होते हैं। वैष्णव संप्रदाय के ध्वज पर गरुड, शैव के वृषभ तो शाक्त संप्रदाय के ध्वज पर सिंह अंकित है। झंडा, पताका, ध्वज या केतु को यश, प्रतिष्ठा, आस्था के प्रतीक के रुप में लहराया जाता है। ध्वज आकाश में उत्कृष्टता का उद्‌घोष करता है। धर्म से अटूट संबंध होने के कारण मंदिरों के शिखर पर ध्वज स्थापित किए जाते हैं।

ईसाई चर्च में ध्वज का उपयोग चौथी शताब्दी से किया जाने लगा। ऐसी अनुश्रुति है कि सम्राट कांस्टेटाईन को सपने में ध्वज पर क्रॉस नजर आया था। धर्मयुद्ध (क्रूसेड) में क्रॉस वाला ध्वज सेना के आगे रहता था। इंग्लैंड का यूनियन जैक तो विशेष रुप से धार्मिक भावना से ही प्रेरित है। इसमें तीन क्रॉस हैं। पहला सैंट जॉर्ज का जो रोमन सैनिक थे और ईसाई धर्म स्वीकारने के कारण सम्राट ने उन्हें मृत्युदंड दे दिया था। धर्म के लिए बलिदान देने के कारण उनके रेडक्रॉस को इंग्लैंड ने 1277 में राष्ट्रीय प्रतीक के रुप में स्वीकारा। दूसरे दो क्रॉस सैंट एण्ड्रयू और सैंट पैट्रिक के हैं। इन दोनो ने भी ईसाई धर्म के लिए बलिदान दिया था इसलिए इनके भी क्रॉस को इंग्लैंड के यूनियन जैक में स्थान दिया गया है। 

मुस्लिम देशों के झंडों में इस्लाम के प्रतीक के रुप में किसी ना किसी रुप में चांद-तारा और हरा रंग देखने को मिल ही जाता है। इस्लाम धर्म में क्रॉस जैसा कोई निश्चित चिंह नहीं था। मुहम्मद पैगंबर ने रोमन लोगों के गरुड चिंह (अल उकाब) को अपनी सेना के ध्वज के लिए उपयोग में लाया और उसका रंग काला था तो कभी कभी उन्होंने सफेद रंग के ध्वज को भी अपनाया। विश्व विख्यात मुस्लिम इतिहासकार इब्ने खलदून के अनुसार मुहम्मद साहब के राज्यकाल में सेना में पताकाओं का प्रयोग हुआ और इसी प्रकार से खलिफाओं के काल में भी। ... अब्बासियों की पताकाएं काले रंग की होती थी। इस प्रकार वे इस रंग से अपने वंश के शहीदों का शोक मनाते थे और इसे बनी (बनी या बनू का अर्थ के बेटे या वंशज) उमय्या की हत्या एवं उनके विनाश की स्मृति का चिंह समझते थे। अलवियों (चौथे खलीफा अली की वह संतान जो उनकी पत्नी फातिमा से अतिरिक्त है) ने अब्बासियों से शत्रुता प्रदर्शित करने के लिए अपनी पताकाएं सफेद रंग की बना ली। मामून (अब्बासी खलीफा 813-833 ई.) ने अपने राज्यकाल में पताकाओं का काला रंग त्यागकर हरा रंग ग्रहण किया और हरी पताकाएं बनवा ली। उमय्या खलीफाओं (661-750 ई.) के झंडे का रंग सफेद था। परंतु, कुख्यात आतंकवादी संगठन अल शबाब और आईएसआईएस के झंडे का रंग काला है। 1880 से 1901 तक अफगानिस्तान के अमीर के झंडे का रंग भी काला ही था। जबकि मस्कत और ओमान के ध्वज लाल सुर्ख रंग के हैं।

जो भी हो लेकिन झंडों का इतिहास बडा ही लंबा है जिसके एक छोटे से हिस्से पर ही हमने नजर डाली है। हर देश, धर्म, पंथ, संप्रदाय, संस्थाओं का अपना एक ध्वज होता है जो उनके यश, आदर्श के प्रतीक के रुप में उनके द्वारा सम्मानीय होता है। वह उनका स्फूर्ति स्थान भी होता है। जिससे उनकी विशिष्ट पहचान जुडी होती है। 

Saturday, August 9, 2014

श्रावण पूर्णिमा ः संस्कृत दिवस विशेष

विदेशी भाषाओं में संस्कृत शब्द दर्शाते हैं संस्कृत के विलक्षण वैभव को

संस्कृत संसार की समृद्धतम भाषा है। परंतु, भारत द्वेषी अंगे्रजों ने यह भ्रांत धारणा फैलाई कि संस्कृत सीखने और समझने की दृष्टि से अत्यंत कठिन है एवं हम भी इसी भ्रांत धारणा को फैलाने में सहभागी हो गए। जबकि सभी भारतीय भाषाओं एवं अनेक विदेशी भाषाओं को तक संस्कृत ने अपनी शब्द राशी प्रदान की है।

उदाहरणार्थ हम अंगे्रजी की संख्याओं पर दृष्टि डालें तो वे संस्कृत से ही निकले हुए दिख पडेंगे जो लैटिन भाषा के माध्यम से वहां पहुंचे हैं। 'द्वि" से टू, त्रि से थ्री, सप्तम, अष्टम, नवम और दशम सेप्टम, ऑक्ट, नोवेम और डेसम हो गए हैं। इन्हीं से सेप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोवेम्बर व डिसम्बर बने हैं। मनुष्य या मानव शब्द का उद्‌भव आदि पुरुष मनु से हुआ है इसीसे अंगे्रजी का 'मैन" और आदि से अरबी का आदम (मूल पुुरुष), आदमी और अंगे्रजी के 'एडम" शब्द की उत्पत्ति हुई है। ओम (ऊँ) से ही अंगे्रजी का ओमन्‌ (भविष्य में होनेवाली बात का संकेत, शगुन, सगुन), अरबी का 'आमीन" (एवमस्तु, तथास्तु) शब्द बने हैं। 'ओमन्‌" से 'ओमनी" शब्द बना है जिसका अर्थ होता है सर्व, बहु। अब ओमनी से निकले हुए शब्द देखें ः ओमनीसिअन्ट-सर्वज्ञ, ओमनीव्होर-सर्वभक्षी पशु, ओमनीव्होरस- सर्वभक्षी, सर्वसमावेशी, सर्वसंग्रही, ओमनी प्रेजेन्ट- सर्वव्यापी, ओमनी पोटेन्ट- सर्वशक्तिमान।

संस्कृत के पितृ, मातृ और भ्रातृ शब्द लैटिन में रुपांतरित होकर पेटर, मेटर और फाटर हो गए और अंगे्रजी के फादर, मदर और ब्रदर शब्द लैटिन से ही निकले हैं अर्थात्‌ ये संस्कृतोद्‌भव शब्द ही हैं। ठंड के दिनों में हम जिस स्वेटर को पहनते हैं उसकी उत्पत्ति संस्कृत के स्वेद से हुई है। स्वेद का अर्थ होता है पसीना और अंगे्रजी के स्वेट का अर्थ भी पसीना ही होता है जो स्वेद का ही परिवर्तित रुप है और इसीसे बना है स्वेटर। इन्हीं दिनों में हमें खांसी भी होती है और हम खंखारते भी हैं इसे अंगे्रजी में 'कफ" कहते है जो मूलतः संस्कृत शब्द है। अंगे्रजी का कैश संस्कृत के कोष का परिवर्तित रुप है। नाम का परिवर्तित रुप है अंगे्रजी का 'नेम"।

ये तो हुए अंगे्रजी शब्द अब कुछ संस्कृतोद्‌भव अरबी-फारसी शब्द भी देख लें - फारसी का अंगुश्त यानी उँगली, अंगुली संस्कृतोद्‌भव है। संस्कृत में 'अंगुल" अंगूठे को कहते हैं। अरबी का अस्वद - अश्वेत, काला या बहुत काला और श्वेत का फारसी रुपांतरण है सफेद। कर्पास (फा.) मोटा कपडा, संस्कृत 'कपट" का अपभ्रंश। गंदुम (फा.अ.)- गोधूम, गेंहू। चत्र (फा.)- छत्र, छाता जो राजाओं के सर पर लगाया जाता है। चुम्चः (तुर्की)- चमचा ('चमस" संस्कृतोद्‌भव) परंतु उर्दूवाले 'चम्चः" बोलते हैं। चर्म (फा.) चमडा, चर्म (संस्कृत का फार्सी में प्रचलित तत्सम रुप)। चहार (फा.)- चार, चार की संख्या (संस्कृतोपन्न)। चहारदह (फा.) चौदह, चतुर्दश (फारसी में 'स" का 'ह" हो जाता है) जात (अ.) कुल, वंश, नस्ल, जाति, बिरादरी (संस्कृतोद्‌भव) 

इस प्रकार के अनेकानेक शब्द हमें मिल जाएंगे जो संस्कृत से उत्पन्न हुए हैं जो संस्कृत के वैभव को दर्शाते हैं और कई लोग जो संस्कृत को देवभाषा कहकर संस्कृत को विश्व की अधिकांश भाषाओं की जननी यदि कहते हैं तो इसमें कुछ अतिश्योक्ति नहीं लगती। इस संस्कृत के द्वारा हमारे पराक्रमी पूर्वज पूरे विश्व को जब सुसंस्कृत करने निकले थे तभी उन्होंने विभिन्न भाषाओं की नींव डाली। 

Thursday, August 7, 2014

आंबेडकर के अनुयायी क्या आंबेडकरी जलसे को पुनरुज्जीवित करेंगे !!
डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्यों के उद्धार के एक प्रयत्न के रुप में धर्मांतरण की घोषणा की थी। उनकी भूमिका यह थी कि जिस धर्म में अस्पृश्यता जैसी निर्दय रुढ़ि का पालन किया जाता है उस धर्म में अस्पृश्य समाज ही नहीं तो उस संपूर्ण समाज की प्रगति कभी नहीं हो सकती। परंतु, उनकी धर्मांतरण की यह राह बिल्कूल सीधी नहीं दिखती। 

मई 1929 में जलगांव की परिषद में उन्होंने आवाहन किया कि 'दलित हिंदूधर्म छोडकर कोई सा भी धर्म स्वीकार लें"। परंतु,  1930 में नागपूर दलित कांग्रेस में मत प्रदर्शित किया कि 'सवर्ण चाहे जितनी यंत्रणाएं या कष्ट दें हम हिंदू धर्म का त्याग नहीं करेंगे।" 1933 में वे मुसलमान बननेवाले हैं की अफवाह उडी। परंतु बाद में उन्होंने ही बतलाया कि यदि मैंने धर्मांतरण किया तो भी मैं मुसलमान नहीं बनूंगा।

 13 अक्टूबर 1935 में येवला परिषद में उन्होंने धर्मांतरण की ऐतिहासिक घोषणा की, 'हिंदूधर्म में अस्पृश्य के रुप में मैं जन्मा यह दुर्भाग्यशाली घटना टालना मेरे हाथ में नहीं था, परंतु हिंदू के रुप में नहीं मरुंगा यह विश्वासपूर्वक कहता हूं।" 

इस घोषणा ने संपूर्ण देश में खलबली मचा दी। प्रत्येक धर्मप्रचारक की आंखें 6 करोड दलितों पर लग गई। बाबासाहब जानते थे कि धर्मपरिवर्तन से उनकी सभी समस्याओं का समाधान नहीं होगा। अतः पुणे के युवक सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, 'यह सोचना गलत होगा कि ईसाई, इस्लाम या किसी मत को स्वीकारते ही समानता प्राप्त हो जाएगी। कहीं भी जाएं समानता, सम्मान के लिए संघर्ष करना ही पडेगा।"

 इस धर्मांतरण का राष्ट्र पर होनेवाले प्रभाव की चर्चा करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि, 'इस्लाम" या 'ईसाई" मत में दलितों के धर्मांतरण का अर्थ है उनका विराष्ट्रीयकरण। यदि वे इस्लाम स्वीकार करते हैं मुस्लिमों की संख्या दुगनी हो जाएगी और देश पर मुस्लिम आधिपत्य का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। ईसाई मत ग्रहण करने पर देश में 5-6 करोड ईसाई हो जाएंगे। दूसरी ओर यदि वे सिख धर्म ग्रहण करेंगे तो वे अराष्ट्रीय नहीं बनेंगे और देश के भविष्य को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकेंगे। तीनों मतों की तुलना करते हुए बाबासाहब ने कहा हिंदुओं के हित में वे सिख धर्म को ही उचित समझते हैं। यह हिंदुओं का कर्तव्य है कि वे नवसिखों के मार्ग में आनेवाली आर्थिक, राजनैतिक समस्याओं का समाधान करने में सिखों का सहयोग करें।

डॉ. मुंजे और शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटी सरीखे हिंदू नेताओं ने सोचा था कि यदि दलित धर्मांतरण करने पर तुले हैं तो हिंदूधर्म के लिए जो कम हानि का मार्ग है उसे ही क्यों ना स्वीकारा जाए? परंतु, महात्मा गांधी, मालवीयजी, राजगोपालाचारी धर्मांतरण के मूलतः विरोधी थे। गांधीजी का मत था कि धर्म कोई मकान या कपडा नहीं जिसे जब इच्छा हुई बदल डाला। ऐसे धर्मांतरण से दलितों का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इन चर्चाओं के दौरान डॉ. आंबेडकर का सिख धर्म के संबंध में धर्मनिरास हो गया और वे बौद्धधर्म की ओर मुड गए।

 धर्मांतरण के संबंध में इस प्रकार की अनुकूल-प्रतिकूल चर्चाओं को ध्यान में रखकर समाज को धर्मांतरण के लिए तैयार करने का काम 1935 से 1956 तक सतत आंबेडकर अनुयायियों की जलसा मंडली महाराष्ट्र के गांव-गांव जाकर करने लगी। इस संघर्ष के कारण अस्पृश्य समाज में धर्मांतरण का विचार पक्का हो गया।

आज बहुत से लोगों को आंबेडकरी जलसा क्या है यह ही मालूम नहीं होगा। उस जमाने में मनोरंजन का एकमेव साधन था तमाशा (नौटंकी)। तमाशे में लावनी (एक तरह का चलता गाना), वग (लोकनाट्‌य की कथावस्तु), विनोद अनाडी लोग बडी आत्मीयता से सुनते। इन्हीं जलसों के माध्यम से आंबेडकर के ध्येयवादी अनुयायी गांव-गांव में फैले अस्पृश्यों को जागृत कर सके, एकजुट कर सके। बाबासाहब के विचार पोवाडे (यशगान), लावनी की तर्ज पर ग्रामीण क्षेत्र की जनता तक पहुंचाने का काम इन जलसों के माध्यम से आंबेडकरी जलसे वालों ने किया। इसीके माध्यम से अपने, परायों की आलोचना का उत्तर दे सके। समाज की कुरीतियों पर प्रहार कर सके। प्रचार का अत्यंत कठिन काम बडी आसानी से इस जलसे के माध्यम से सहजतापूर्वक कर सके।  

1950 में आंबेडकर कोलम्बो बौद्ध सम्मेलन में सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन में उन्होंने अस्पृश्यों को बौद्धधर्म स्वीकारने का आवाहन किया। कोलम्बो से लौटने पर 29 सितंबर 1950 को वरली (मुंबई) में बिरलाजी द्वारा उस समय निर्मित किए जा रहे बुद्ध मंदिर में 'बुद्ध समागम सोसायटी" को दी भेंट के समय अपने उद्‌बोधन में कहा था - मैंने तय किया है कि मैं अब अपना बचा हुआ जीवन बौद्ध धर्म के पुनरुज्जीवन और प्रसार के काम में व्यतीत करुंगा, मेरे जीवन के इस इस अंतिम आश्रम मेें यही कार्य मैं करनेवाला हूं। अंततः बाबासाहब ने 24 मई 1956 को बुद्ध जयंति के दिन बंबई के नरे पार्क में ऐतिहासिक घोषणा की कि वे अपने अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर 1956 विजयादशमी के दिन बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे। पूरे देश में खलबली मच गई। एक बार पुनः बाबासाहब को रोकने के प्रयास हुए। परंतु बाबासाहब अडिग रहे। 

''डॉक्टर साहब के धर्मांतर करने के निश्चय का जब श्री गुरुजी को पता चला तब उन्होंने अविलम्ब ठेंगडीजी को डॉक्टर साहब के पास चर्चा करने हेतु भेज दिया। 'डॉक्टर साहब, सुना है कि आप हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले हैं?" 'हॉं,मैंने पक्का निर्णय किया है।" 'परंतु आप जो विचार बताते हैं वही सब हममें से कुछ युवक प्रत्यक्ष आचरण में अनेक वर्षों से ला रहे हैं।" 'आप युवक याने आर.एस.एस. ही है?"  'जी हॉं, हममें कुछ सवर्ण भी हैं, कुछ दलित वर्ग के भी हैं। जो सवर्ण हममें हैं वे ऐसा विचार करते हैं कि भूतकाल में हमसे जो कुछ पाप हुआ सो हो गया है उसका प्रायश्चित करने को हम तैयार हैं। हमको सब हिंदू मात्र का संगठन करना है।" 'बहुत ही अच्छा है परंतु इस पर मैंने कुछ सोचा ही नहीं ऐसी तुम्हारी धारण है क्या?" 'आपने इस पर सोचा नहीं होगा यह कैसे हो सकता है डॉक्टर साहब!" ठेंगडीजी ने कहा।

'तो फिर मेरे प्रश्न का उत्तर दो।" 'पूछिए आपका प्रश्न डॉक्टर साहब!" 'तुम्हारे आर.एस.एस. का कार्य कब प्रारंभ हुआ।" 'सन 1925 में।" 'याने कार्य प्रारंभ हुए कितने वर्ष हो गए?" 'साधारणतः 27-28 वर्ष।" 'देशभर में आर.एस.एस. वालों की कुल  कितनी संख्या है?" 'मुझे तो इसकी कल्पना नहीं है।" 'अच्छा! तो मेरे अनुमान से देशभर में 26-27 लाख स्वयंसेवक होंगे।" 'हो सकते हैं।" 'तो तुम ही बताओ कि 26-27 लाख सवर्ण और दलित लोगों को आपकी संस्था में लाने में अगर आपको 27-28 वर्ष लगे हैं तो पूरे दलित वर्ग को संघ में लाने के लिए कितने वर्ष लगेंगे?" 'परंतु... .. डॉक्टर साहब... 'बीच में मत बोलो। तुम क्या कहने वाले हो वह सब मुझे पता है। तुम जो geometrical progression (जियोमेट्रिकल प्रोग्रेशन) बतानेवाले हो उसकी भी कुछ मर्यादा है। बकरी कितनी भी बडी हो जाए तो भी बैल नहीं बन सकती। मुझे अपने ही जीवन में इस समस्या का हल करना है। इसको निश्चित दिशा देनी है।""  ठेंगडी मौन रह गए।" (स्वदेश दीपावली विशेषांक 1973 पृ.25) और प्रत्यक्ष नागपूर में ही दशहरे के विजयदिवस पर तथाकथित अस्पृश्यों का बडा भाग हिंदूधर्म समाज से अलग हो गया।

14 अक्टूबर 1956 को नागपूर में करीब तीन लाख अनुयायियों के साथ बाबासाहब ने बौद्धधर्म की दीक्षा ली। इस समय बाबासाहब ने कहा था - मैंने एक बार अस्पृश्यों की समस्याओं के बारे में गांधीजी के साथ चर्चा करते हुए कहा था कि, ''अस्पृश्यता के बारे में तुम्हारे साथ मेरे मतभेद हैं तो भी प्रसंगवश इस देश को कम से कम धक्का पहुंचे ऐसा मार्ग स्वीकार करुंगा। इसलिए बौद्ध मत स्वीकार करके मैं इस देश का अधिकाधिक हित साध रहा हूं। क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है। इससे देश की संस्कृति, इतिहास और परंपरा को धक्का नहीं लगेगा, इसका मैंने जिम्मा ले लिया है।"" उसी दिन जारी पत्रक में भी कहा गया है कि, ''हिंदूधर्म और बौद्धधर्म एक ही वृक्ष की दो डालियां हैं।""

इस प्रकार से डॉक्टर साहब अपने जीवन के 65 वर्ष 8 माह के जीवनकाल में केवल 1 माह 22 दिन बौद्ध रहे। परंतु, इन सब बातों को भूलकर आज बौद्ध समाज में कुछ लोग आवाज उठा रहे हैं कि हमें हिंदुओं से अलग स्मशान भूमि चाहिए तो, कुछ लोग अलग से भारतीय बौद्ध विवाह कानून की मांग कर रहे हैं। यह अलगाववाद फैलाकर वे बाबासाहब के विचारों के साथ क्या अन्याय नहीं कर रहे हैं।

 वस्तुतः उन्हें आज फिर से उसी जलसा कृति का पालन करना चाहिए जिसके द्वारा बाबासाहब के अनुयायियों ने अस्पृश्य जनता को जागृत किया था, एकजुट किया था। उन्हें चाहिए कि, बाबासाहब के विचारों को ध्यान में रखते हुए जो पूर्वास्पृश्य धर्मांतरित हो भारतोद्‌भव धर्मों की परिधि के बाहर जाकर मुसलमान या ईसाई हो गए हैं उनका आवाहन करें कि वे बौद्धधर्म को स्वीकारें। क्योंकि, जिन अन्यायों से त्रस्त होकर, समानता, सम्मान के अधिकारों की प्राप्ति के लिए उन्होंने धर्मांतरण कर बौद्धधर्म को स्वीकार किया था उन्हीं कारणों से उन्हीं के पूर्व के धर्म-जाति बंधू ईसाई या मुसलमान बने थे। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि, यह बाबासाहब का ही आदेश है।   

Friday, August 1, 2014

खिलाफत का जुनून

अल बगदादी ने अपने आपको इस्लामी जगत का खलीफा घोषित कर खिलाफत की स्थापना क्या की उसकी आंच भारत तक पहुंचने लगी है। अभी तक तो यही सुनने और पढ़ने में आया करता था कि इंग्लैंड-अमेरिका-यूरोप में सीधे-सादे, मासूम से दिखनेवाले सामान्य मुस्लिम युवाओं की मानसिकता अचानक बदल जाती है और वे जिहाद की राह पर चल पडते हैं। कुछ तो वैश्विक जिहाद (global jihad) में भाग लेने के लिए अपना देश छोड मध्यपूर्व-अफगानिस्तान-पाकिस्तान तक जा पहुंचे हैं। परंतु समाचार पत्रों के अनुसार चौंकने की बात यह है कि आईएसआईएस में शामिल होने वालों में कुछ भारतीय भी हैं और इसमें भी चिंतित करनेवाली बात यह है कि इनमें से अधिकतर दक्षिण भारत के हैं। जबकि इसके पूर्व उत्तर भारत के संबंध में इस प्रकार के समाचार मिल चूके थे।

खिलाफत संबंधी समाचारों ने जो इतिहास के जानकार हैं उनके जहन में 1920 में भारत में जो खिलाफत आंदोलन हुआ था उसकी यादें ताजा हो गई होंगी। इस पर चर्चा हम बाद में करेंगे, पहले तो विचार इस पर करना होगा कि वह कौनसा कारण है जो इन युवाओं को अपना साधारण जीवन छोड जिहाद की ओर प्रवृत्त कर रहा है? तो, इसका कारण है 'उम्मा" (pan islamism) (विश्व मुस्लिम बंधुत्व-पॅन इस्लामिज्म)। जिसका आधार है कुरान की यह आयत ""ईमान वाले (मुसलमान)(सब) आपस में भाई हैं। ''(49ः10, 9ः71, 8ः72) । इस पर कुरान भाष्य कहता है -

"" दीनी (धार्मिक) रिश्ते के हिसाब से मुसलमान एक दूसरे के भाई हैं। रंग और वंश, जाति और देश का अंतर इस विश्वव्यापी भाईचारे में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकता। वे जहां कहीं भी होंगे एक दूसरे से जुड़े रहेंगे और एक के दर्द की चोट दूसरा अपने अंदर महसूस करेगा चाहे उनके बीच हजारों मील का फासला हो।'' इस भाईचारे के रिश्ते को मजबूत करने की ताकीद (चेतावनी) हदीस में दी गई है, मुसलमान मुसलमान का भाई है, न उस पर जुल्म करें और न उसे जालिम के हवाले करें। जो व्यक्ति अपने भाई की हाजत (इच्छा) पूरी करने में लगा रहता है और जो व्यक्ति किसी मुसलमान की तकलीफ दूर करेगा और जोे किसी मुसलमान की परदापोशी करेगा (दोषों को छुपाएगा) अल्लाह कियामत के दिन उसकी परदापोशी करेगा।'' (दअ्‌वतुल कुर्आन खंड 3 पृ.1848)

आयत (9ः71) के संबंध में मौ. मौदूदी कहते हैं : ''सच्चे श्रद्धावान (मुसलमान) पुरूष और स्त्री मिलकर एक विशिष्ट स्वतंत्र समाज (distinct community) तैयार होता है, क्योंकि उनमें अनेक गुणविशेष समान होते हैं। वे स्वभाव से ही सदाचारी बने होते हैं; वे दुराचार को निषिद्ध मानते हैं; और एकमात्र अल्लाह का स्मरण यह उनके जीवन की सांस ही होती है... इस समान गुण धर्म के कारण उनमें सामूहिक एकता की भावना निर्मित होती है।'' अर्थात्‌ जिहाद के लिए यह एकता, भाईचारा और दोस्ती बहुत काम आती है। इसे ही वैश्विक मुस्लिम भाईचारा कहते हैं। इसीलिए संपूर्ण विश्व के मुस्लिमों का जिहाद के लिए आवाहन किया जा सकता है, किया जाता है। आयत (8ः72) पर भाष्य करते हुए मौ. मौदूदी कहते हैं ''अगर (संसार के) मुसलमान ......एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो संसार में उपद्रव और अराजकता फैल जाएगी।"" सच्चा श्रद्धावान कौन की व्याख्या है : ''श्रद्धावान वह हैं जो अल्लाह और उसके पैगंबर पर श्रद्धा लाए (और श्रद्धा में दाखिल होने के बाद) फिर शक में (डावांडोल) नहीं हुए और अल्लाह की राह में अपनी जानों और मालों से जिहाद किया ।'' (49:15) इस प्रकार यहां जिहाद को अल्लाह और पैगंबर के ठीक बाद का स्थान मिला हुआ है। इसी बंधुभाव के आधार पर बगदादी विश्व के मुसलमानों का जिहाद के लिए आवाहन कर रहा है और उसके प्रत्युत्तर में कुछ मुस्लिम युवा जिहाद में शामिल होने के लिए जा भी रहे हैं।

भारत में 1920 में खिलाफत आंदोलन प्रारंभ करने के पीछे कारण यह था कि मित्र राष्ट्रों द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तुर्क साम्राज्य के टुकडे करके आपस में बांट लिए थे। मुसलमानों के अरबस्थान के पवित्र तीर्थस्थान (मक्का-मदीना) विजयी ईसाई राष्ट्रों के कब्जे में चले गए थे। वे उनके कब्जे में न जाएं और उन पर खलीफा की हुकूमत बनी रहे इसलिए हिंदुस्थान के मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की थी। क्योंकि, संसार के सारे मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपना राजनैतिक और धार्मिक प्रेरणास्थान और श्रद्धास्थान, रक्षणकर्ता मानते थे और पैगंबर के बाद खलीफा का ही स्थान था। इस आंदोलन के परिणामस्वरुप मुसलमानों का धार्मिक उन्माद बेकाबू हो गया। उन्हें विदेशी मुस्लिम अपने भाई और हिंदू शत्रु नजर आने लगे। तभी सबसे पहले राष्ट्रीय हिंदू नेताओं के ध्यान में खिलाफत और पॅनइस्लामिझ्म (विश्व इस्लामी बंधुत्व) का भयंकर स्वरुप आया। गांधीजी ने ही, आंदोलन के प्रारंभ में जब वे अली बंधुओं के साथ देशव्यापी दौरों पर थे, लिख रखा है ''उन्हें ऐसा नजर आया कि हिंदू-मुस्लिम एकता होने पर भी हिंदू 'वंदेमातरम्‌" तो मुसलमान 'अल्लाहो अकबर" के नारे लगाया करते थे।""(यंग इंडिया 8 सितंबर 1920)

सन्‌ 1921 में मोहम्मद अली ने एक पत्र लिखकर अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्ला को भारत पर आक्रमण का आमंत्रण दिया था। मोहम्मद अली ने अफगान आक्रमण संबंधी जो वक्तव्य दिया था वह इस प्रकार से था ः ''यदि महामहिम (अफगानिस्तान का अमीर) को उसी धार्मिक उद्देश्य से प्रेरित होकर उन लोगों के विरुद्ध जेहाद की बात सोचनी पडती है जिन्होंने जजीरुतल अरब और पवित्र स्थलों पर अवैध अधिकार कर रखा है ... जो इस्लाम को दुर्बल करने की इच्छा रखते हैं और हमें प्रचार करने की पूरी स्वतंत्रता देने से इंकार करते हैं, ... तो इस्लाम का कानून साफ-साफ कहता है कि किसी भी मुसलमान को उनके (अमीर के) विरुद्ध कोई  सहायता नहीं देनी चाहिए और यदि जेहाद उसके क्षेत्र तक पहुंचता है तो प्रत्येक मुसलमान को मुजाहिदीन (विधर्मियों से लडनेवाले योद्धा) में सम्मिलित हो जाना चाहिए और सबको, चाहे स्त्री हो या पुरुष, उनकी भरसक सहायता करना चाहिए।"" 

दिसंबर 1922 में अहमदाबाद में खिलाफत आंदोलन की समीक्षा करते हुए हकीम अजमल खां जिन्हें विशुद्ध एवं वास्तविक राष्ट्रवादी माना जाता था ने गांधीजी की उपस्थिति में मंच से कहा था कि इस्लामी साम्राज्य का भविष्य उज्जवल है ः ''एक ओर भारत और दूसरी ओर एशिया माइनर भावी इस्लामी महासंघ की लम्बी श्रंखला के दो सिरे ही हैं। शनैः शनैः ये सिरे मध्यवर्ती राज्यों को एक महान सूत्र में पिरोते जा रहे हैं।"" आज बगदादी इसी दिशा में ही तो कदम बढ़ा रहा है। भारत के खिलाफ भी जिहाद की घोषणा कर रहा है।

गांधीजी ने खिलाफत के समूचे प्रश्न को एक वैचारिक आधार प्रदान किया और स्वयं उस आंदोलन का नेतृत्व भी किया एवं कांग्रेस ने तो केवल उसका अनुगमन किया। तथापि कांग्रेस में कुछ ऐसे स्वर उभरे जिन्होंने सचेत किया कि खिलाफत जैसे साम्प्रदायिक उन्माद में कूदने के क्या कुफल हो सकते हैं। परंतु, गांधीजी ना माने। 1921 में यंग इंडिया में घोषणा की ''एक दृष्टि से मैं निश्चय ही अफगानिस्तान के अमीर की सहायता करुंगा यदि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध तलवार उठाई। इसका अर्थ है कि मैं खुले आम अपने देशवासियों से कहूंगा कि जिस सरकार ने सत्ता में रहने के संबंध में राष्ट्र का विश्वास खो दिया है, उसकी सहायता करना अपराध होगा।""

खिलाफत से उत्पन्न जेहाद का उन्माद शीघ्र ही दावानल की भांति फैल गया। देश भर में फैले दंगों से गांधीजी को गहरा आघात लगा। गांधीजी के नेतृत्व की यह भयंकर भूल मानी गई। इस कारण आज भी गांधीजी पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने खिलाफत आंदोलन में भाग लेकर मुसलमानों को भारत के बाहर देखने की आदत लगाई।

 यह आरोप अज्ञान पर आधारित है। मुसलमानों को भारत के बाहर देखने की नई आदत किसी के द्वारा लगाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। वे हमेशा से ही स्वयं को इस देश में परकीय विजेता मानते आए हैं। जिनकी कई पीढ़ियां भारत में गुजर गई प्रत्युत जो एतद्देशीय धर्मपरिवर्तन कर मुसलमान बने  वे भी स्वयं को इस भूमि में पराया मानते। सुन्नी राज्यकर्ता स्वयं को तुर्की समझते और शुक्रवार की नमाज का खुत्बा बिना चूके तुर्की के खलीफा के नाम से पढ़ा जाता। भले ही औरंगजेब क्यों ना हो, उसे भी खलीफा का आशीर्वाद तख्त जीतने के समान महत्वपूर्ण और आनंद का लगता था। शिया राजा ईरान के खलीफा के नाम का खुत्बा पढ़ते। शिया राज में ईरान के नागरिकों को विशेषाधिकार थे। सुन्नीयों के राज में तुर्कों को विशेषाधिकार थे। जो स्वयं को परंपरा से पराया मानते आए, जो हर दिक्कत के समय ईरान, तुर्कस्तान, अफगनिस्तान की सहायता मांगते आए वे आवश्यकतानुसार अरबस्तान की ओर हिजरत करते गए, उन्हें विदेश की ओर देखने की आदत गांधीजी द्वारा लगाए जाने की आवश्यकता ही नहीं थी।

 इसीलिए शाह वलीउल्लाह ने सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली की ओर देखा तो इसमें आश्चर्य करने जैसा कुछ नहीं उसके पूर्व भी यह अनेकों ने किया था और उसके बाद भी करना अनेकों ने योग्य माना था। यदि आज कुछ मुसलमान युवा बगदादी के जिहाद में शामिल होने जा रहे हैं तो इसमें भी आश्चर्य करने या चौंकने जैसा कुछ भी नहीं। 
मोदी पर उमडता अमेरिकी मीडिया प्रेम 

मोदी देश के एक ऐसे राजनेता हैं जो बडी तेजी से फैशन जगत के फैशन आइकॅान बनकर उभरे हैं। मोदीजी का ड्रेस सेंस काबिले तारिफ है। वे जानते हैं कि उन के शरीर और व्यक्तित्व के हिसाब से उन पर क्या फबता है, जंचता है। हिंदुस्थान के टॉप के ड्रेस डिजाइनर उनके ड्रेस डिजाइन करते हैं। वैसे मोदी कोई अकेले राजनेता-सेलेब्रिटी नहीं हैं जिनके ड्रेस सेंस और वेल ड्रेस्ड होने को सराहा गया हो और भी हैं। नेहरुजी का जैकेट भी बहुत प्रसिद्ध हुआ था। सोनिया गांधी की ट्रेडिशनल साडियों को भी खूब सराहा गया है। राजनीति पिक्चर के लीड रोल को निबाहने वाली केटरीना कैफ के रोल का इन्सपायरेशन सोनिया गांधी ही थी। 

फिल्म जगत की आख्यायिका बन चूके दिलीप कुमार इतने सलीके से कपडे पहनते थे कि उनके पुराने से पुराने सूट में भी वे प्रशंसा भी पाते और वेल ड्रेस्ड भी कहलाते थे। गुलजार भी वेल ड्रेस्ड रहनेवालों में जाने जाते हैं और उनके कपडे कोई विशेष महंगे भी नजर नहीं आते। उनका थ्रीपीस सूट में कोई चित्र भी नजर नहीं आया है लेकिन उनके वेल ड्रेस्ड होने की सराहना कई सिने तारिकाएं भी कर चूकी हैं जो उनसे प्रभावित भी रही हैं।

वेल ड्रेस्ड एवं फिट दिख रहे हैं कि नहीं यह देखने के लिए आर्मी, पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में आदमकद आईने लगे रहते हैं जिसके सामने से आते-जाते अफसर देख सकें कि उनका गणवेश सही है कि नहीं। यह वेल ड्रेस्ड होने के महत्व को दर्शाता है। वेशभूषा का अपना महत्व है इससे कोई भी इंकार कर नहीं सकता और वेशभूषा से आदमी की एक पहचान बनती है जिस प्रकार से वेल ड्रेस्ड रहना कुछ लोग पसंद करते हैं, अपनी पहचान को उससे जोडते हैं। वैसे ही अंटशंट रहने को भी कुछ लोग अपनी पहचान के रुप मेें देखना पसंद करते हैं। लालू यादव गांव का दिखने के लिए क्या नहीं करते यह सब जानते हैं। तो, कुछ लोग बुद्धिजीवी, फक्कड छाप दिखने के लिए थोडी बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे बाल रख लंबा चौडा कुर्ता पहनते हैं, कंधे पर एक झोला लटकाए रखते हैं।

फिल्म जगत के लोकप्रिय संगीतकार ओ. पी. नय्यर अपने अंतिम समय तक वेल ड्रेस्ड व्यक्ति की श्रेणी में रहे। उनकी केप और छडी उनकी पहचान थे। उन्हें इन दोनो चीजों से इतना लगाव था कि उनके देहावसान के पश्चात अंतिम दर्शन के समय उनकी छडी और केप को उनके पास रखा गया था। कई सेलेब्रिटिज के साथ कुछ विशिष्ट चीजें जुडी भी रही हैं जो उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन गई थी। जैसेकि नेहरुजी के साथ लाल गुलाब, करुणानिधि के साथ काला चश्मा, मुरारी बापू के साथ काली शाल, सावरकरजी के साथ हमेशा रहनेवाला छाता। गांधीजी के चित्र की तो धोती, काठी और चश्मे के बिना कल्पना करना भी असंभव सा लगता है।

परंतु, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैशन आइकॉन बनकर जो प्रसिद्धि और प्रशंसा पाई है वह निश्चय ही अभूतपूर्व है यहां तक कि जिस अमेरिका ने सन्‌ 2005 में उनका वीजा स्थगित कर दिया था आज उसी अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने सन्‌ 2007 के बाद से पहली बार अपनी इंटरनेशनल रीलिजियस फ्रीडम रिपोर्ट में 2002 के गुजरात दंगों के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सभी जिक्र हटा दिए हैं। अमेरीकी मीडिया भी मोदी के कसीदे बांच रहा है। कसीद ख्वां बनते हुए 'न्यूयार्क टाईम्स" में एक लेख 'ए लीडर हू इज व्हाट ही वीयर्स" a leader who is what he wears छपा है जिसमें लिखा गया है उनके पेहराव को देखते उस पर चिंतन की गरज है। तो उससे भी बढ़कर 'वाशिंगटन पोस्ट" लिखता है मिशेल ओबामा को बाजू में रखो, दुनिया को एक नया फैशन आइकॉन मिल गया है, वह ब्लादीमीर पुतिन नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी है। यह सब पढ़कर मुझे तो ऐसा लगने लगा है कि चिंतन उनके पेहराव पर नहीं बल्कि इस बात पर होना चाहिए कि आखिर अमेरिका और उसके मीडिया का इतना मोदी प्रेम अचानक क्यों उमडा जा रहा है !