गंभीर स्थिति शौचालयों की - आवश्यकता है मानसिकता बदलने की
गांधीजी खुले में शौच की आदत को पसंद
नहीं करते थे। बच्चों को फिराना तो असभ्यता मानते थे। गांधीजी एक व्यवहारवादी जननेता
थे। उन्होंने भारतीयों की मानसिकता को भली-भांति समझा था, उससे परिचय प्राप्त किया
था। इसे ही जनता की नब्ज पकडना भी कह सकते हैं और यही उनकी सफलता का राज भी था। इसके
लिए उन्होंने अफ्रीका से लौटने के पश्चात पूरे भारतवर्ष का भ्रमण ट्रेन के तृतीय श्रेणी
के डिब्बे से किया था। शौच से उत्पन्न होनेवाली गंदगी और समस्या के हल के लिए वे कहते
थे- यदि जंगल हो आना हो (यानी खुले में शौच) तो गांव से एक मील दूर जहां आबादी ना हो,
वहां जाना चाहिए। टट्टी करने से पूर्व एक गड्ढ़ा
खोद लेना चाहिए और निबटने के पश्चात मल पर खूब मिट्टी डाल देना चाहिए। समझदार किसानों
को तो चाहिए कि अपने खेतों में ही पूर्वोक्त प्रकार के पाखाने बनाकर अथवा गड्ढ़े में मैला गाडकर बिना पैसे की खाद लें।
श्रीजयराम रमेश जिन्होंने शौचालयों की
समस्या के लिए मानो एक जनजागरण अभियान सा ही छेड रखा है का कहना है कि खुले में शौच
जाने की मानसिकता को बदलने में दस वर्ष लगेंगे यह समस्या कितनी गंभीर है इसकी बानगी
इस प्रकार के समाचारों से ही लग सकती है कि पचास हजार की आबादी वाले उ.प्र. के कस्बे
रुदौली में एक भी शौचालय नहीं। वर्ष 2000 में बने पांच सीटर शौचालय की दशा जर्जर है।
हाल ही में हुई जनगणना के आंकडों के मुताबिक 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय सुविधा ही
नहीं है। कुछ समय पूर्व ऑस्ट्रेलिया के एक उद्घोषक
ने भारत को शौचालय का छेद करार दिया था। यह बात अलग है कि बाद में विरोध होने पर उसने
माफी मांग ली। परंतु, फिर भी शौचालयों और स्वच्छता के प्रति हमारी कितनी अनास्था है
को तो निश्चय ही नकारा नहीं जा सकता।
महिलाओं के लिए शौचालय होने को कितनी
उपेक्षा प्राप्त है इसका पता इसी बात से लगता है कि आजादी के इतने वर्षों पश्चात देश
की संसद के परिसर में लोकसभा अध्यक्ष मीराकुमार द्वारा महिलाओं के लिए अलग से प्रसाधनकक्ष
बनाए जाने के पूर्व वहां तैनात महिला पुलिस कर्मियों, आनेवाली महिला पत्रकारों या दूसरी
कर्मचारियों के लिए यह एक बुनियादी जरुरत है कि आवश्यकता ही समझी नहीं गई थी।
नोएडा में तो कई कारखाने ऐसे हैं जहां
संयुक्त टॉयलेट में दरवाजे तक नहीं हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि महिलाएं टॉयलेट में ज्यादा
समय ना बीताएं और काम में जुटी रहें। यह तो अमानवीयता की पराकाष्ठा है। ऐसी भीषण परिस्थिति
में कोई महिला कैसे अपने महिला होने पर गर्व कर सकती है। महिलाओं के लिए टॉयलेट की
उपेक्षा इतनी अधिक है कि कई बडे-बडे संस्थान अपने रिसेप्शन की सजावट पर तो भरपूर खर्च
करते हैं पर वहां बैठनेवाली महिला रिसेप्शनिस्ट और वहां कार्य करनेवाली अन्य महिला
कर्मचारियों के लिए अलग से प्रसाधन कक्ष होना चाहिए को कोई प्राथमिकता ही नहीं देते
हैं।
वैसे शौचालयों के लिए किए जा रहे जनजागरण
का इतना असर तो अब साफ दिखाई पडने लगा है कि लोग विशेषकर महिलाएं इस संबंध में जागरुक
होने लगी हैं। कई स्थानों पर शौचालय नहीं है इसलिए लडकियों ने विवाह करने से इंकार
कर दिया तो कहीं शौचालय नहीं है इसलिए महिलाओं ने प्रदर्शन का सहारा लिया है। कहीं
शासन ही घोषणा कर रहा है कि ग्राम पंचायत का चुनाव लडना हो तो उम्मीदवार के पास घर
में शौचालय है का प्रमाणपत्र संलग्न करने को कहा जा रहा है तो कहीं बार-बार चेतावनी
दिए जाने के बावजूद शौचालय निर्मित नहीं किए गए इसलिए कइयों के ग्रामपंचायत सदस्यत्व
निरस्त कर दिए गए हैं। म. प्र. में तो मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत दुल्हे टॉयलेट
सीट के साथ फोटो खिंचवाते नजर आ रहे हैं क्योंकि इस योजना के तहत विवाह के लिए यह एक
महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उ. प्र. सरकार ने तो शौचालय निर्माण के लिए धनराशी 1000 से
बढ़ाकर 1400 करने का निर्णय लिया है।
एक तरफ तो इतना उत्साह एवं उतावलापन दूसरी
तरफ इस योजना के तहत हो रहा अंधाधुंध भ्रष्टाचार जिस पर मानो कोई अंकुश ही नहीं। उ.प्र.
में सूचना के अधिकार के तहत यह खुलासा हुआ है कि शौचालय निर्माण में 2856 लाख का घोटाला
हुआ है। बुंदेलखंड में 14 करोड खर्च होने के बावजूद नतीजा सिफर है फिर भी अनुदान रेवडियों
के माफिक बंट गया। भ्रष्टाचारियों ने इस अच्छी योजना को धोखे और लूट का माध्यम बनाना
प्रारंभ कर दिया है। परिस्थिति को इतना दयनीय बना दिया गया है कि कहीं शौचालय निर्माण
लक्ष्य से पीछे चल रहा है तो कहीं लाखों की लागत से निर्मित शौचालय अतिक्रमण की भेंट
चढ़ गए हैं। महिला शौचालयों पर ताले जड महिलाओं को उनकी मूलभूत सुविधा से वंचित किया
जा रहा है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए बी.ओ.टी के तहत भी प्रयत्न किए गए किंतु ठेकेदार
इस डर से सामने नहीं आ रहे कि निर्माण के बाद यदि लोगों ने पैसे नहीं दिए और मुफ्त
में सुविधा दो के लिए आंदोलन छेड दिया तो पैसे कौन देगा।
सरकारी धन का इस योजना में दुरुपयोग इस
प्रकार से भी किया जा रहा है कि पहले तो योजना के तहत शौचालय बना लिए जाते है परंतु उनका उपयोग शौचालय की बजाए स्नानगृह
अथवा जानवरों का भूसा रखने या जलावन लकडी आदि रखने के लिए उपयोग में लाया जाने लगता
है। कहीं-कहीं इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि पीने के लिए तो पर्याप्त पानी नहीं
तो शौचालय के लिए पानी कहां से लाएं। यह भी तो समस्या ही है कि जो शौचालय बन गए उनका
उपयोग किस प्रकार से किया जा रहा है उसे देखेगा कौन? महाराष्ट्र में जलप्रदाय एवं स्वच्छता
विभाग एवं जनगणना के आंकडों में 31 लाख का अंतर है यानी 31 लाख शौचालय गायब हैं और
यह अंतर यूनीसेफ ने अपने अध्ययन से निकाला है। जबकि महाराष्ट्र स्वच्छता के मामले में
अग्रसर माना जाता है और प्रतिवर्ष निर्मल ग्राम योजना का पुरस्कार प्राप्त करता चला
आ रहा है।
इतने प्रचार-प्रसार, अरबों रुपये खर्च
होने के बावजूद निर्मल भारत योजना से अभी तक मात्र 9प्रतिशत गांव जुडे हैं और आगामी
10 वर्षों में देश की सभी ग्रामपंचायतें जुड जाएंगी ऐसा केंद्रीय पेयजल एवं स्वच्छता
मंत्री भरतसिंह सोलंकी ने एक कार्यक्रम में कहा है। वस्तुतः इस एक अच्छी योजना का पूरा
लाभ उठाना है तो लोगों की मानसिकता को बदलना होगा, स्वच्छता के संबंध में जागरुकता
बढ़ाने के साथ ही साथ इसे शिक्षा पाठ्यक्रम से जोडना होगा क्योंकि जो लोग पीढ़ियों से
खुले में शौच करते चले आ रहे हैं रातो-रात उनकी मानसिकता बदलना भी तो इतना आसान नहीं।
लोगों के अपने तर्क भी अपने स्थान पर हैं खाने को तो है नहीं शौचालय निर्माण के लिए
पैसे कहां से लाएं? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद स्कूलों में शौचालय बन भी गए तो उनके
रखरखाव का खर्च कहां से आएगा। इतनी सारी समस्याओं का अंबार और लोगों की विचित्र मानसिकता
को देखते लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल ही नहीं तो असंभव सा ही है। वास्तव में सबसे
बडा कटु सत्य तो यह है कि देश की सारी समस्याओं की जड में है सामाजिक संस्कारहीनता
और बेतहाशा बढ़ती आबादी जिसकी ओर से सभी लोग आंखें मूंदे हुए हैं।
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