ब्रिटिश नीति 'फूट डालो और राज करो" को सूत्ररुप में संबोधित करना योग्य होगा क्या?
अपने धक्कादायक और तल्ख बयानों के लिए प्रसिद्ध पूर्व न्यायाधीश श्रीमार्कंडेय काटजू ने विगत दिनों देश के 90% लोगों को यह कहते हुए मूर्ख ठहराया था कि वे ब्रिटिशों की 'फूट डालो और राज करो" की नीति का शिकार हैं और 1857 के पूर्व देश में सांप्रदायिकता, धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं था या वे लडते नहीं थे। उनके यह वाक्य मु. लीग के 30वें वार्षिक अधिवेशन में जिन्ना के 24 अप्रैल 1943 के अध्यक्षीय भाषण जिसकी शुरुआत उन्होंने 'अल्लाहो अकबर" से की थी से कुछ साम्य जरुर रखते हैं। उस भाषण में जिन्ना ने अपने झगडे के लिए ब्रिटिशों को दोषी ठहराने पर अपने ही लोगों की आलोचना करते हुए कहा था- ''ब्रिटिश अपने में समझौता होने नहीं देना चाहते ऐसा कहने से कोई फायदा नहीं अर्थात् अपनी मूर्खता का लाभ वे उठाते हैं यह सच है। परंतु, ब्रिटिशों की अपेक्षा अपने में ही एकता न होने के साधन अधिक हैं.... 'ब्रिटिशों की नीति 'फूट डालो और राज करो" है, यह ध्यान में आ जाने के बावजूद अपन एकत्रित होकर ब्रिटिशों को बाहर निकाल क्यों नहीं देते?""
इसके कुछ महीनों बाद मुंबई में बेव्हर्ली निकोलस ने साक्षात्कार में जिन्ना से प्रश्न किया गया था कि, ''तुम्हारे विरोधी आलोचना करते हैं कि, 'पाकिस्तान" ब्रिटिशों की 'फूट डालो और राज करो" की नीति का निर्माण है।"" इस पर कुछ क्रोधित होकर ही जिन्ना ने कहा था- ''जो मनुष्य ऐसा कहता है उसका ब्रिटिशों की बुद्धिमत्ता के विषय में और इसी प्रकार मेरी प्रामाणिकता के विषय में भी अत्यंत बुरा मत होना चाहिए ... (उल्टे) मैं पुनः कहता हूं कि, अखंड भारत यही ब्रिटिशों का निर्माण है। वह एक कल्पना है और अत्यंत धोखादायक है। इसके कारण अखंड संघर्ष होता रहेगा। यह संघर्ष रहने तक ब्रिटिशों को यहां रहने का कारण मिलेगा... (अतः) 'फूट डालो और राज करो" की नीति यहां लागू ही नहीं होती।""
जिन्ना का प्रतिपादन कुछ झूठ भी नहीं था। हिंदू-मुस्लिम संघर्ष कोई ब्रिटिशों द्वारा निर्मित किया हुआ नहीं था। इसके पूर्व से ही 800 वर्षों से वह चालू ही था। ब्रिटिशों ने सर सय्यद अहमद, अलीबंधु, जिन्ना, गांधी, नेहरु, सरदार पटेल, सावरकर आदि का सहारा लेकर यह संघर्ष लगा दिया था यह आरोप छिछला और इन महान नेताओं की बदनामी करनेवाला है। अपने में ही मूलतः और मूलभूत संघर्ष था और उसका लाभ ब्रिटिशों ने न उठाया होता तो ही आश्चर्य की बात होती या यूं कहें कि, वह न उठाना राजनैतिक दृष्टि से मूर्खतपूर्ण ठहरता।
डा. आंबेडकरजी ने कहा थाः ''हिंदू-मुस्लिम ... इनमें विरोध के मूल कारण ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक घोर शत्रुता है; राजनैतिक जानीदुश्मनी तो उसका प्रतिबिंब है ... ये दो धर्म परस्पर विभिन्न हैं... उनके विरोध अंगभूत हैं और सदियों से वे मिट न सकें हैं।""
वस्तुतः हिंदू-मुसलमानों में फूट डालने की आवश्यकता ब्रिटिशों को थी ही नहीं। उन्हें तो केवल इस फूट का उपयोग अपने राज्य को स्थिर करने के लिए करना भर था। डॉ. पी. हार्डी के अनुसार ब्रिटिशों की नीति 'फूट डालो और राज करो" की नहीं थी, बल्कि 'संतुलन साधो और राज करो" (balance & rule) की थी।
इस नीति के संबंध में प्रा. फॅ्रान्सिस रॉबिनसन ने अपने ग्रंथ 'सेपरेटिज्म अमंग इंडियन मुस्लिमस्" में अत्यंत वस्तुनिष्ठ एवं मार्मिक विश्लेषण किया हुआ है। उनके कहने के अनुसार ''(1857 के बाद) भारत के ब्रिटिश राज्य के लिए मुस्लिम समाज सबसे बडा धोखा है ऐसा मानकर उनके विषय में ब्रिटिश शासन ने नीति तय की... बाद के काल में भी ब्रिटिशों को दूसरे मुस्लिम विद्रोह का भय सताता रहता था। मुस्लिम समाज उनकी सर्वाधिक चिंता का विषय बन गया था और इसीको दृष्टि में रख वायसराय लॉर्ड मेयो ने मुस्लिमों के संबंध में अपनी नीति तय की ... (उन्हें निकट करना प्रारंभ हुआ। उनके लिए विशेष शिक्षा प्रसार की योजना 1871 में तैयार की गई) .... लॉर्ड मेयो की (मुस्लिम) शिक्षा योजना और हंटर के ग्रंथ में आई हुई मुस्लिम पिछडेपन की चर्चा को अखिल भारतीय महत्व प्राप्त हुआ ... मुसलमानों का विचार करते समय पहले राजनीति का विचार किया गया और उसअनुसार नीति तय की गई और उसके दूरगामी परिणाम हुए।"" लॉर्ड मेयो का विचार था कि राजनैतिक दृष्टि से मुसलमान अत्यंत धोखादायक हैं और उनसे तालमेल बैठा लेने में ही समझदारी है। परंतु, इस प्रकार के विचार व्यक्त करने के कुछ ही दिनों बाद एक वहाबी मुसलमान ने उनका कत्ल कर दिया और वे स्वयं समन्वय बैठा लेने की नीति के लाभ से वंचित रह गए ।
फ्रांसिस यह भी स्पष्ट करते हैं कि, इस प्रकार से ब्रिटिश शासन ने 1871 के बाद अपनी नीति मुसलमानों के लिए कितनी भी अनुकूल बनाई हो तो भी ''खुला सच यह था कि, ब्रिटिशों को मुसलमान कभी भी विश्वसनीय नहीं लगे।"" वे दिखला देते हैं कि, 1877 में लॉडॅ नॉर्थब्रुक ने 'हाउस ऑफ लॉर्ड्स" में कहा था कि, ''कोई भी धार्मिक मुसलमान मुस्लिम राज्य के बगैर संतुष्ट रह ही नहीं सकता।"" ''वस्तुस्थिति यह थी कि, ब्रिटिश मुसलमानों के प्राणघातक हमलों से डरते थे। उनकी दृष्टि में इस्लाम के अनुयायी ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा के लिए सर्वाधिक धोखादायक थे। इसीलिए (1857 के) विद्रोह के बाद उनके विरुद्ध बदले का अभियान चलाया गया था। परंतु, जब ध्यान में यह आया कि, (बदले का दंड) गले पडनेवाला सिद्ध होनेवाला है तो उन्हें निकट करने की नीति अपनाई गई।"" वे स्पष्ट करते हैं कि, ''इस प्रकार से (निकट) करने का उनका उद्देश्य मुसलमानों को हिंदुओं के विरुद्ध खडा करने का नहीं था बल्कि (उनका) ब्रिटिश राज्य से समन्वय बैठा लेने का था। (उनमें भेदभाव निर्मित करना यह उद्देश्य नहीं था) परंतु, भले ही उद्देश्य ना हो तो भी उसका परिणाम कुछ मुसलमानों को राजनीति में मुसलमान के रुप में व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहन मिलने में हुआ।""
निश्चय ही विश्लेषण सत्य के निकट है ब्रिटिश यहां राज करना चाहते थे उसके लिए अपने राह की बाधाओं को हटाना, धोखों को कम करना जरुरी था इसलिए उन्होंने मुसलमानों को खुष करने का मार्ग चुनकर अपना मार्ग आसान करना चाहा तो उसमें उनकी दृष्टि से कुछ भी गलत नहीं था। वे यहां कोई हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने तो आए नहीं थे, हिंदू-मुस्लिमों के बीच के भेद का लाभ उठाकर अपना राज्य स्थिर करना उनका राजकर्तव्य था, प्रजा के भेदों का लाभ न उठाकर अपना राज्य गमानेवाला राज्यकर्ता मूर्ख ही कहलाता है। स्वतंत्र भारत के धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक शासक भी चुन कर आने और स्थिर रहने के लिए इसी भेदनीति को अपनाते हैं। ब्रिटिश राज्यकर्ताओं की तरह ही उन्हें भी मुसलमानों का भय सताता है और इसलिए उन्हें खुश करने की नीतियां और कार्यक्रम अपनाए जाते हैं। हिंदुओं को दुखाने का इस प्रजातंत्र के दलों को जरा भी डर नहीं लगता। यह 'फूट डालो और राज करो" की नीति न होकर विद्रोहियों को शांत और खुश करने की सामान्य राजनीति है।
वैसे भी ब्रिटिश जानते थे कि हिंदू कोई अनंतकाल तक उनका राज्य सहन करनेवाले नहीं थे। इंग्लिश विद्या सीखकर उनकी राज्यपद्धति अवगत और आत्मसात करने, उनके शक्तिस्थान समझकर स्वयं जब प्रजातांत्रिक शासन चलाने योग्य हो जाएंगे ऐसा समझने लगेंगे वैसेही हिंदू स्वराज्य-स्वतंत्रता के लिए संघर्ष छेड देंगे। यह ठीक है कि हिंदू कोई मुसलमानों के समान विद्रोही नहीं थे फिर भी सातसौ वर्षों तक मुसलमानों द्वारा शासित रहने के बावजूद बहुसंख्यक थे और प्रजातांत्रिक पद्धति से आंदोलन चलाकर प्रजातंत्र की भाषा उपयोग में लानेवाले ब्रिटिशों को स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य कर सकते थे। अतः ब्रिटिशों के लिए संभावित विरोधक हिंदू ही रहनेवाले थे ऐसी परिस्थिति में नई नीतियों के अनुसार हाल ही में मित्र बने मुसलमान उपयोगी ठहरनेवाले थे।
उधर मुस्लिम नेताओं को भी केवल मुसलमानों का हित चाहिए था। वह हित साध्य होने में जब तक हिंदुओं की सहायता मिलेगी तब तक चाहिए थी जैसीकि 1857 में अपना राज्य वापिस लाने के लिए उन्होंने हिंदुओं की सहायता ली थी। परंतु, अब परिस्थितियां बदल गई थी ब्रिटिशों ने मुसलमानों को दबाना, कुचलना प्रारंभ कर दिया था। मुसलमान भी समझ चूके थे कि अब ब्रिटिशों के विरुद्ध विद्रोह करना सरल नहीं बल्कि उनके साथ तालमेल बैठा लेने में ही अपना हित है। यह समझ विकसित हो इसके लिए सर सय्यद अहमद आगे आए। उन्होंने इतना अध्ययन कर लिया था कि 1857 का विद्रोह हिंदुओं के कारण ही ब्रिटिशों द्वारा कुचला जा सका था। आगे इस प्रकार के विद्रोह के कारण मुसलमानों का ही अहित होगा यह भी उनकी समझ में आ गया था। मुसलमानों का सच्चा हित ब्रिटिशों का विरोध नहीं मित्रता करने में ही है। इधर ब्रिटिशों ने भी अपनी नीतियां बदल दी थी। अंग्रेजी पढ़े-लिखे धर्मनिष्ठ मुसलमानों को न तो पराये ब्रिटिशों से कोई लगाव था न ही एतद्देशीय हिंदुओं के साथ प्रेम और उसमें उन्हें सर सय्यद जैसा उच्चशिक्षित न्यायाधीश,उदारवादी विचारक नेता ब्रिटिशों को हिंदुओं की अपेक्षा निकट मानने का उपदेश कुरान के आधार पर कर रहा था। ब्रिटिशों को भी तो यही चाहिए था अतः दोनो में गठबंधन हो गया और कल के सहयोगी हिंदू अब विरोधी हो गए।
मुसलमानों के लिए भी सच्चे विरोधी एवं प्रतिस्पर्धी हिंदू ही थे, उन्हें भय भी हिंदुओं से ही लगता था, क्योंकि वे बहुसंख्यक थे, उनसे ज्यादा पढ़े-लिखे एवं आधुनिक भी थे। यह भी वे जानते थे कि ब्रिटिशों के जाने के बाद इस देश में प्रजातंत्र आएगा और बहुसंख्य होने के कारण राज्य हिंदुओं का ही आएगा। हिंदुओं का बहुसंख्यकत्व ही उनके लिए धोखा था। इसलिए हिंदुओं के बहुसंख्यकत्व और वर्चस्व से बचने के लिए ब्रिटिश ही उनके तारणहार ठहरनेवाले थे। यही विचारसरणी आगे जाकर 'द्विराष्ट्रवाद" बनी और देश के विभाजन का कारण भी बनी। विभाजन का आधार भी इसी काल में तैयार हुआ।
डॉ. आंबेडकर अपने पाकिस्तान इस ग्रंथ में कहते हैं ः ''छःसौ वर्षों से मुसलमान इस देश के राज्यकर्ता (मालिक) रहे थे। ब्रिटिशोंें का राज्य आने के बाद उनका दर्जा कम होकर वे हिंदुओं की बराबरी में आ गए। राज्यकर्ता का दर्जा जाकर सामान्य प्रजा का दर्जा मिलना यह पर्याप्त मानहानी थी; परंतु (हिंदुओं के साथ रहने पर प्रजातंत्र के तत्त्वानुसार) हिंदू राज्यकर्ता हो जाएंगे और अपन उनके प्रजाजन बनेंगे यही उनकी दृष्टि में सच्ची मानखंडना थी।"" इससे छूटने के लिए ही उन्होंने विभाजन की मांग की थी।
विभाजन की दृष्टि से पहला चरण था 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना तो दूसरा चरण था मुस्लिमों के लिए स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र मान्य करना जिसे 1909 में ब्रिटिश शासन ने मान्य किया था और1916 में लखनऊ करार द्वारा कांग्रेस (यानी हिंदुओं) ने। यह समझौता करते समय और मान्यता देते समय कांग्रेस की ओर से लोकमान्य तिलक तो मु. लीग की ओर से मोहम्मदअली जिन्ना थे। इसका स्पष्ट अर्थ इस प्रकार से होता है कि लो. तिलक और कांग्रेस ने मुस्लिमों के स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र को मान्यता दी थी। इधर एक ओर तो हम लखनऊ समझौते को हिंदू-मुस्लिम एकता का करार मानकर इसके लिए तिलक-जिन्ना को 'हिंदू-मुस्लिम एकता के दूत" कहकर उनको गौरवान्वित करते हैं और उधर हम ब्रिटिशों ने स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र को मान्यता देकर 'फूट डालो और राज करो" की नीति उपयोग में लाई इसके लिए दोषी ठहराते हैं। क्या यह हास्यास्पद नहीं है। निष्कर्ष यही है कि, ब्रिटिश नीति 'फूट डालो और राज करो" को सूत्ररुप में संबोधित करना अयोग्य होगा।
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