शौचालय तो चाहिए ही चाहिए, परंतु साथ ही मंदिर भी चाहिए !
गत दिनों केंद्रिय मंत्री श्रीजयराम रमेश ने मंदिर से अधिक शौचालय आवश्यक हैं से संबंधित बयान क्या दिया देश में कइयों की भवें टेढ़ी हो गई और वे निशाने पर आ गए। वैसे उनका यह बयान तथ्यपूर्ण है परंतु चूंकि यह आस्था से संबंधित है इसलिए इस प्रकार के बयान जरा सावधानीपूर्वक देना चाहिए इस प्रकार की एक टिप्पणी भी एक संपादक द्वारा की गई, जो योग्य भी है। परंतु सत्य तो यह है कि इन तथ्यों को नकारा नहीं जा सकता कि आज विश्व के खुले में शौच जानेवाले 60% लोग हिंदुस्थान में ही बसते हैं, देश की आधी से अधिक आबादी के पास शौचालयों की सुविधा नहीं है। पहले हम शौचालय का अर्थ भी समझ लें- शौचालय एक ऐसी सुविधा है जो मानव के मल-मूत्र की समुचित व्यवस्था के लिए प्रयुक्त किया जाता है या उस युक्ति के लिए भी।
श्री रमेश ने भारतीय रेल को एक बहुत बडे शौचालय का नाम दिया है जो सच ही है। रेलयात्रा के दौरान सुबह-सबेरे यदि आप खिडकी से झांककर देखें तो आपको दर्शन होंगे पटरी किनारे शौच के लिए बैठे लोगों के ही, यही दृश्य बस यात्रा के दौरान भी देखने को मिल जाता है। शहरों में भी खुले स्थानों पर प्रातःकाल में शौच के लिए बैठे लोगों के हाथ में डिब्बा या पानी से भरी बोतल लिए शौच के लिए स्थान तलाशते लोग नजर आ ही जाएंगे।
जरा सोचिए विदेशों से आनेवाले पर्यटकों के सामने हमारी क्या छवि बनती है। कितने गंदे लोग हैं इस देश के जो चाहे जहां गंदगी करते हैं और इसमें भी कोई दो मत हो नहीं सकता कि हम अव्वल दर्जेे के गंदों मेें गिने जा सकते हैं। अब तो मुंबई जो हमारे देश की आर्थिक राजधानी है को दुनिया के सबसे गंदे शहरों में गिना गया है। वस्तुस्थिति तो यह है कि, यदि हम केवल स्वच्छ रहना और स्वच्छता रखना भी सीख जाएं तो मात्र पर्यटन ही हमारे देश में रोजगार का एक बहुत बडा साधन बन सकता है।
परंतु, स्वच्छतागृहों की कमी के चलते यह कैसे संभव है? वैसे इसके लिए हमें सबसे पहले अपनी शौच निवृत्ति संबंधी आदतों को भी बदलना पडेगा। हमारे यहां आज भी खुले में शौच जाने की मानसिकता रखनेवाले लोगों की कमी नहीं। कुछ लोग तो लगता है कि इस समस्या को इतने हल्के से लेते हैं कि वे यह तक कहने से बाज नहीं आते कि लगता है इस देश में सारी समस्याएं हल हो गई हैं और इस देश में एक ही समस्या बची है और वह है शौचालयों की।
यह भी एक कटु सत्य ही है कि घटती जमीनें और उनकी बढ़ती कीमतों ने शहरों में सबसे अधिक कहर मूत्रालयों पर ही ढ़ाया है, जहां उन्हें तोडकर पार्किंग, व्यापार आदि के लिए उपयोग में लाया जाने लगा है। और लगता है कि, इस नेचरल कॉल से निवृत्त होने के लिए शहरों में स्थान ही शेष नहीं रहे हैं। इस कारण लोग चाहे जहां खडे होकर लघुशंका निवृत्त होते रहते हैं परंतु, महिलाएं क्या करें? बाहर से या छोटे गांवों से शहरों में किसी काम के सिलसिले में सुबह आकर शाम को वापिस चले जानेवाला एक बहुत बडा वर्ग जिसे फ्लोटिंग वर्ग भी कहा जा सकता है के सामने भी यही समस्या है। वर्तमान में छोटे शहरों-कस्बों के बसस्टैंड पर भी या तो सुविधा ही नहीं है और यदि है भी तो अति अपर्याप्त वह भी गंदी जिसमें महिलाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं मानो महिलाएं यात्रा ही नहीं करती या उन्हें इस सुविधा की आवश्यकता ही नहीं पडती। बस छूट न जाए इसलिए शीघ्रताशीघ्र निवृत्त हो आए कि आपाधापी में दौड लगाते यात्री इन बसस्टैंडों पर दिख पडना आम है। क्या शौचालयों की यह कमी भयावह नहीं है? चीन में तो महिलाओं ने इस कमी के समाधान के लिए ऑक्यूपाय वॉलस्ट्रीट की तर्ज पर ऑक्यूपाय मॅन्स टॉयलेट का आंदोलन ही छेड दिया है यहां इस आंदोलन का उल्लेख केवल इस समस्या की गंभीरता को दर्शाने के लिए ही किया है।
सर्वेक्षणों के अनुसार कई कार्यालयों में महिलाओं के लिए टॉयलेट की अलग से व्यवस्था ही नहीं है, कहीं-कहीं तो टॉयलेट ही नहीं हैं या हैं भी तो स्वच्छता की कमी के कारण कई महिलाएं इनका उपयोग घृणावश या यूरीन इंफेक्शन के डर से करना नहीं चाहती। मुंबई जैसी जगह पर तो कई महिलाएं सुबह घर से निवृत्त हो निकलने के पश्चात शाम को घर लौटकर ही टॉयलेट में जाती हैं। मुंबई ही क्यों अन्य कई शहरों में भी यही समस्या मौजूद है। सार्वजनिक शौचालयों की कमी एवं अस्वच्छता के कारण महिलाओं का एक बडा वर्ग यूरीन इंफेक्शन या अन्य संक्रमणों से पीडित हैं। गांवों की समस्या तो और भी गंभीर होती चली जा रही है बढ़ती आबादी के दबाव से गांव भी अछूते नहीं रहे हैं। पहले गांवों के पास ही झाडियों के झुरमुट हुआ करते थे लेकिन बढ़ती आबादी के कारण अब वे भी ना के बराबर होते चले जा रहे हैं गांव की महिलाएं जब शौच के लिए जाती थी तो वे आड का काम करते थे।
आयुर्वेद में सात वेगों का उल्लेख है जिन्हें रोका नहीं जाना चाहिए उनमें शौच निवृत्ति भी है। शौच निवृत्त होने का सुख चेहरे पर ही झलकता है। क्या आप इस सुख से परिचित नहीं हैं? और जिनके पास इनकी सुविधा नहीं है, जिन्हें सुबह-शाम के प्राकृतिक परदे का सहारा लेना पडता है और तब तक इस आवेग को रोके रखने का कष्ट और इस आवेग से मुक्त होने के प्रयत्नों में झेलने के लिए बाध्य होने की जिल्लत और कष्टों की कल्पना विपरीत मौसम जैसे बाढ़ आदि को दृष्टि में रख कर करें तभी इन शौचालयों की आवश्यकता कितनी अहम् हैऔर लोगों का ध्यान एकदम से इस समस्या की ओर आकर्षित हो इसके लिए श्रीजयराम रमेश द्वारा दिए गए स्फोटक, दिलो-दिमाग को झकझोर देनेवाले बयानों में कुछ आपत्तिजनक नहीं है यह महसूस होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने भी इस समस्या पर निर्देश दिए हैं कि छः माह के भीतर सभी स्कूलों में शौचालय की सुविधा प्रदान की जाए, विशेषकर लडकियों के लिए शौचालय बनाए जाएं। केंद्र सरकार ने ही लोकसभा में बतलाया है कि एक लाख से अधिक स्कूलों में शौचालयों की सुविधा नहीं है। सफाई के अभाव में कई जलजनित और शौच संबंधी बीमारियां जन्म लेती हैं, फैलती हैं, जो किसी महामारी से कम नहीं। पूरी दुनिया में इस सुविधा के अभाव में प्रतिवर्ष 40 लाख बच्चे डायरिया जैसी बीमारी से मर जाते हैं।
आपको आश्चर्य होगा कि 20 शताब्दी के आरंभ तक हमारे नेताओं को शौचालय भी कोई समस्या है इसका भान तक न था। यह एक समस्या है इस ओर सबसे पहले यदि किसीने ध्यान आकर्षित किया तो वह थे गांधीजी। गांधीजी कांग्रेस के हर अधिवेशन में सबसे पहले शौचालयों की व्यवस्था की ओर ही ध्यान देते थे कि पानी आदि की समुचित व्यवस्था है कि नहीं! गांधीजी के एक अनुयायी अप्पा पटवर्धन, गांधीजी द्वारा जो असहयोग आंदोलन छेडा गया था उसके पूर्व ही उनके सत्याग्रह आश्रम में रह चूके थे ने ही 1928 में किसानों के लिए शौचकूप का प्रचार सफलता पूर्वक किया था और 1930 में उन्होंने जेल में आगे होकर, मांगकर भंगी काम न केवल स्वयं ने किया था अपितु इसके लिए बारा लोगों को और तैयार भी किया था। गांधीजी स्वयं भी अपना संडास स्वयं स्वच्छ किया करते थे।
देश के प्रधानमंत्री रह चूके चौधरी चरणसिंह ने भी इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया था परंतु, उनका कार्यकाल बडा ही अल्प रहा। इतने वर्षों से इस समस्या की और ध्यान आकर्षित किए जाने के बावजूद परिस्थिति क्या है तो - यह ऊपर बयान कर ही दी गई है। ऐसी विकट परिस्थितिमें यदि जनता का तत्काल ध्यान आकर्षित हो सके इसके लिए कोई स्फोटक, किसीको भी हिला देनेवाला बयान मंत्री महोदय श्री जयराम रमेश ने दे दिया तो कौनसा पहाड टूट पडा हमारी दृष्टि में तो वे बधाई के पात्र हैं जो निर्मल भारत अभियान के तहत शौचालयों की आवश्यकता पर इतना जोर दे रहे हैं, इसके लिए जोरदार प्रयास भी कर रहे हैं। जिसे आजतक इस देश में किसीने भी नहीं किया अपवाद है तो सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक श्री बिंदेश्वरजी पाठक और उनके स्वयंसेवकों का और यही श्री बिंदेश्वरजी हैं जो अकेले श्री रमेश के समर्थन में आगे आए जबकि उनकी स्वयं की कांग्रेस पार्टी ने भी उनके वक्तव्य से किनारा कर लिया था।
लेकिन चूंकि हमारा देश धर्मप्रधान होने के साथ ही मंदिरों का देश भी है। और हमारी मंदिर इस संकल्पना में जैन मंदिर, सिक्खों का गुरुद्वारा, ईसाइयों का चर्च, मस्जिद तथा अन्य धर्मों-संप्रदायों-पंथों के धर्मस्थल भी समाहित हैं। श्रीरमेश के बयान के मंदिर को भी इसी संदर्भ में देखें तो अधिक योग्य होगा, चूंकि भारत हिंदूबहुल देश है इसलिए स्वाभाविक ही है कि जब कोई उल्लेख होगा तो वह सबसे पहले हिंदुओं से संबंधित ही होगा इसे भी समझना आवश्यक है। अब हम अपने इस मुद्दे पर आते हैं कि हमें शौचालयों के साथ ही मंदिर भी चाहिए लेकिन वह मंदिर कैसे होने चाहिए यही असली मुद्दा है।
वर्तमान में देखें तो मंदिर कहें या धर्मस्थल कहें कुकुरमुत्तों की तरह उगे चले जा रहे हैं। जहां दिखी जगह वहीं बना दिया मंदिर फिर वह गली के नुक्कड हों या फिर कोई मैदान, सडक आदि। कहीं-कहीं तो लोगों के कंपाउंड में ही मौका देखकर धर्मस्थल बना दिए गए हैं। जहां धंधेबाजी के सिवा और कुछ नहीं हो रहा। इन धंधेबाजों ने तो नालों के ऊपर, किन्हीं सार्वजनिक प्रसाधनगृह के पास तक मंदिर बना डाले हैं। इसके लिए एक चबूतरा बनाया एक मूर्ति रखी या सिंदूर पोतकर पत्थर रख दिया और धीरे-धीरे लोगों की अंधश्रद्धा का लाभ उठाकर धीरे से मंदिर बना दियाऔर हो गई चंदे, भंडारे की दुकान चालू।
श्रद्धा की आवश्यकता हर मनुष्य को होती है किसी मंदिर में जाने के बाद मूर्ति के आगे हाथ जोडकर खडे होने से उसे आत्मिक शांति की संतुष्टि प्राप्त होती है, वह एक प्रकार की शक्ति प्राप्त करता है। समस्या का समाधान हो जाएगा का उसे विश्वास प्राप्त होता है। लेकिन इन धंधेबाजों के मंदिर में ये कैसे प्राप्त हो सकती है केवल श्रद्धा का क्षेत्र है इसलिए किसीको भी धर्म के नाम पर कुछ भी करने की अनुमति किस प्रकार से दी जा सकती है। इसके लिए तो चाहिए कि समाज के लोग ही इस प्रकार के धार्मिक स्थलों को प्रोत्साहन ना दें। मंदिरों का स्वरुप क्या हो इसका भी विचार किया जाना चाहिए। किसी चबूतरे पर एक बडा सा पत्थर पोतकर रख देने से वह मंदिर तो नहीं हो सकता।
इसी प्रकार से कहीं-कहीं तो घरों में ही बडे मंदिर बना लिए गए हैं जहां हर सप्ताह भंडारे-प्रसाद वितरण, आरती वह भी जोर-जोर से भले ही आसपास के रहवासियों को कष्ट हो, समय-समय पर होने वाले यज्ञ अखंड पाठ, प्रवचन आदि चलता रहता है वह भी सडकों को घेरकर और आयोजन के पश्चात जो गंदगी होती है उसे या तो सडकों पर ऐसे ही छोड दिया जाता है या ड्रेनेज के हवाले कर दिया जाता है भले ही पूरी ड्रेनेज व्यवस्था चरमरा जाए। कहीं-कहीं तो बीच सडक पर ही मंदिर स्थित हैं या सडक को बाधित कर रहे हैं। इन मंदिरों में से अधिकांश तो अवैध ही होते हैं जिन्हें अतिक्रमण कर ही बनाया जाता है। जब शास्त्रों में कहा गया है कि सबसे बडा पाप भूमि अतिक्रमण है तब इन मंदिरों को मान्यता कैसे दी जा सकती है।
जब विश्वनिर्माण संबंधी तत्त्वज्ञान अस्तित्व में आया, श्रद्धालु आए, श्रद्धा बनी रहे इसके लिए कर्मकांडों की निर्मिती हुई तो यह श्रद्धा सतत बनी रहे इसके लिए कुछ अभिनिवेश भी आए। इसीसे शिल्प, संगीत, चित्रकला, नाटक आदि आए। परंतु आज यह कलाएं जो मंदिर के माध्यम से सुचारु रुप से चला करती थी वह इन तथाकथित मंदिरों में तो कहीं नजर ही नही आती। निश्चय ही ऐसे मंदिरों की क्या आवश्यकता?
कुछ मंदिर जो व्यक्ति विशेष या समाज विशेष द्वारा निर्मित एवं संचालित किए जा रहे हैं वे तो निश्चय ही इस प्रकार की झांकीबाजी, शोभायात्राएं निकालकर समस्याएं पैदा करने की प्रवृत्ति, उत्सवों के नाम पर बेजा फिजूलखर्ची से बाज आ सकते हैं, समाज के लोगों को जागरुक कर इस प्रकार की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा सकते हैं। अपना दृष्टिकोण व्यापक कर समाजहित समाज सुधार की दृष्टि से कदम बढ़ा सकते हैं। परंतु, इस प्रकार के मंदिर और इस प्रकार की प्रवृत्तिवाले भी कुछ कम ही हैं। फिर भी आशा की कुछ किरणें तो हैं ही वैसे ये बढ़े यह भी आशा है।
यदि वर्तमान में उदारीकरण-वैश्विकरण या बाजारवाद कहें की जो लहर चल रही है उसने हर चीज को बाजार का रुप दे दिया है तो मंदिर भी क्यों कर इससे अछूते रह सकते हैं। आज की तारिख में यदि सबसे बडा बाजार किसी का है तो वह मंदिरों का ही है। जरा कल्पना कीजिए देश में कितने गांव है, कितने विभिन्न स्तरों के नगर हैं, महानगर हैं और फिर इनको मद्देनजर रख कितने मंदिर इस देश में हैं और उन मंदिरों में आनेवाले चढ़ावे की कल्पना भी लगे हाथ कर ही लें तो यह आंकडा अरबों-खरबों में जाएगा। कुछ वर्ष पूर्व समाचार पत्रों में छपा था कि अकेले मुंबई में ही सांईबाबा के कितने मंदिर वैध-अवैध हैं और उनमें आनेवाला चढ़ावा किस प्रकार से करोडों का है तो यह मार्केट कितना बडा है इसकी कल्पना सहज ही आ जाएगी। और यह स्मरण रहे कि मंदिर तो ना नफा का क्षेत्र है।
और भारत का यह सबसे बडा सर्वस्पर्शी क्षेत्र नितांत अनियोजित है। और यही मुख्य मुद्दा भी है। इस क्षेत्र में आधुनिक कहा जाए ऐसा व्यवस्थापन ही नहीं है। मुख्यतः जो दान-चढ़ावा आदि आता है वह और सुरक्षा का प्रश्न। सुरक्षा के लिए आपातकालीन व्यवस्था क्या है? श्रद्धालुगण जो पैसा दान के रुप में परमेश्वर के सामने सत्कार्य के लिए देते हैं उसका उपयोग उनकी श्रद्धा का सम्मान रखते हुए उतनी ही पवित्रता से हो रहा है कि नहीं? जब यह आस्था का, पवित्रता का क्षेत्र है तो इस पर समुचित ध्यान देनेवाली, नियंत्रण रखनेवाली मशीनरी कौनसी? यह एक अध्ययन मांगता है। इस मिशनरी की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि, दान पेटी में दिया हुआ दान, या थाली में रखे पैसे कहां जा रहे है यह पूछने की हिम्मत तो साधारण व्यक्ति जुटा ही नहीं सकता लेकिन यदि कोई अथारिटी हो तो वह कम से कम उसे शिकायत कर अपनी आवाज तो उठा सकेगा। जैसे बैंक या इंश्योरेंस सेक्टर में लोकपाल जिन्हें शिकायत कर आप न्याय मांग सकते हैं उसी प्रकार से इस क्षेत्र में कोई हो क्या ऐसा आपको भी नहीं लगता। यदि ऐसा कोई पूछनेवाला होगा तो इस क्षेत्र में आनेवाले को भी यह तय करना पडेगा कि वह 'फीलगुड" के लिए आ रहा है कि श्रद्धावश श्रद्धालुओं को लाभ पहुंचा सके इसलिए आ रहा है।
आज जब हम वैश्वीकरण के दौर से गुजर रहे हैं तब इस व्यवस्था को पुरातन स्थिति में कैसे छोडा जा सकता है। पुराने जमाने में मंदिरों की व्यवस्था राजे-रजवाडे, उनके सरदार आदि करते थे और जो भी कार्य संपादन होता था वह परंपरागत रुप से होता था वैसे तो 1860 से लेकर आज तक मंदिरों के लिए ट्रस्ट पंजीकरण, उसकी व्यवस्था, मिलनेवाले चढ़ावे का विनियोग आदि के लिए कानून उपलब्ध हैं। परंतु, इस क्षेत्र में भी आधुनिक प्रबंधन की, टेक्नालॉजी की आवश्यकता है यह सोच भी तो होना चाहिए जो जरा कुछ कम ही है।
आज के इस नए दौर में जब नियामकों का महत्व बढ़ता चला जा रहा है और जिस क्षेत्र में नियामक नहीं है वहां कितनी गडबड है यह जगजाहिर है उदाहरणार्थ रीयल्टी सेक्टर को ही लिया जा सकता है जहां नियामक की मांग एक लंबे समय से की जा रही है और अब सरकार भी इस पर शीघ्र ही कारवाई करने जा रही है। एक और उदाहरण है टेलीकॉम सेक्टर का जहां नियामक ट्राय को जब अधिकार कम थे तो हमें किन समस्याओं का सामना करना पडा और जब अधिकार मिले तो परिस्थितियां कैसे बदल गई यह सबके सामने ही है। तो धर्मस्थलों के क्षेत्र में व्याप्त गडबडियों को रोकने के लिए भी नियामक क्यों नहीं होना चाहिए?
यदि आस्था के इस क्षेत्र में अनियोजन, कुप्रबंधन कहें या अव्यवस्थापन के कारण मची गडबडी जिसे भ्रष्ट आचरण भी कहा जा सकता है को दूर करना है तो क्यों ना इस क्षेत्र में भी कोई नियामक हो। जो श्रद्धालुओं के हितों की, भावनाओं की कदर करे, उसकी क्या आवश्यकता है, उसे किस दर्जे की सेवा प्रदान की जाए, आदि का ध्यान रखे, उसकी शिकायतों की सुनवाई करे। जिस स्थान का प्रबंधन ग्राहकाभिमुख होता है, जहां महिलाओं, बच्चों, वृद्धों के साथ आदर का, सहयोगात्मक व्यवहार होता है क्या वहां प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती। क्या मुजोर प्रबंधन किसीको आनंद दे सकता है। दिल पर हाथ रखकर कहिए कि ऊपर वर्णित अव्यवस्थित मंदिरों में क्या आप आत्मिक शांति पाते हैं, तो क्यों नहीं व्यापक चर्चा इस बात पर भी आयोजित की जाए कि उस नियामक का रुप किस प्रकार का होगा, उसके नियंत्रण मंडल में प्रतिनिधि के रुप में सरकारी, गैर-सरकारी, धर्माचार्य, समाजसेवी आदि कौन लोग होंगे, कितने सदस्य होंगे, उनकी योग्यता आदि। क्योंकि, मंदिर में आनेवाले श्रद्धालुओं में सभी वर्गों के लोग, खिलाडी, व्यापारी, उद्योगपति, सरकारी-निजी क्षेत्र के लोग आदि आते हैं।
आस्था और मूलभूत आवस्यकता का अनोखा संगम !!
ReplyDeleteBAHUT SUNDAR AUR PRASAGIK LEKH KE LIYE SADHUWAD
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