मुस्लिमों के कल्याण का मार्ग - विज्ञाननिष्ठा; धर्मांधता नहीं !
स्वयं को धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, साम्यवादी, आधुनिक समझनेवाले संगठन, दल और व्यक्तियों के साथ ही अपने को मुस्लिमों का हितकर्ता कहलवानेवाली कांग्रेस तक ने मुस्लिम समाज के प्रबोधन कार्य के क्षेत्र को उपेक्षित ही रखा इसके लिए कोई प्रयत्न ही नहीं किए। महात्मागांधी के काल में कांग्रेस ने मुसलमानों के हितों के रक्षणकर्ता की भूमिका निभाई और हितों की रक्षा का अर्थ समाज सुधार नहीं। इसके लिए मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना पडती जिसके लिए कांग्रेस न तो उस काल में तैयार थी और न ही आज भी है।
वस्तुतः इन सबने एक ही मार्ग को अपनाया और वह है जब तक तुम स्वयं होकर उसकी मांग नहीं करोगे हम तुम्हारे धर्म में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। यही हाल लगभग सभी समाज सुधारकों का रहा है। सभी ने भारतीय समाज के प्रबोधन कार्य को हिंदू समाज के प्रबोधन कार्य तक ही सीमित रखा। इसके जो भी प्रमुख कारण हैं उनमें से प्रमुख तो यही नजर आते हैं कि चूंकि भारत में हिंदू समाज बहुसंख्यक है इसलिए स्वाभाविक रुप से जो भी प्रश्न उपस्थित होंगे वे प्रमुख रुप से हिंदुओं के ही होंगे। इसलिए प्रबोधन भी हिंदुओं का ही प्रमुख रुप से रहेगा। दूसरी बात जो भी समाजसुधारक हुए हैं वे प्रमुख रुप से हिंदुओ में से ही हुए हैं। इसलिए यह भी स्वाभाविक ही है कि, वे प्रबोधन भी हिंदुओं का करेंगे। अपवाद स्वरुप मुसलमानों में हमीद दलवाई जरुर हुए हैं और वह भी हाल ही में। फिर एक बात और भी है और वह यह है कि, भले ही हिंदू अपने आचारों के संबंध में कितना भी सनातन, कर्मठ, रुढ़िप्रिय क्यों न हो परंतु, दूसरों के विचारों को सुनने के मामले में उदार और सहिष्णु है। इसी कारण से हिंदू समाज का प्रबोधन किया जा सकता है तथा हिंदुओं में इसकी परंपरा भी है। इसके विपरीत मुस्लिम समाज है और वहां समाज प्रबोधन करना मतलब अपनी जान को ही खतरे में डालना है। इसलिए हर कोई अपनेआपको हिंदुओं के प्रबोधन तक ही सीमित रखता है।
किसी भी समाज का प्रबोधन करने के दौरान उस समाज की धर्मश्रद्धाओं को ठेस पहुंचती ही है और मुस्लिमों की श्रद्धाओं को ठेस पहुंचाने का अर्थ है स्वयं की मुस्लिम विरोधी छबि बनाना और अपनी धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी छबि को कोई ठेस पहुंचाना चाहता नहीं। और रही राजनीतिज्ञों की बात तो वे अपनी उपर्युक्त छबि के अलावा अपने राजनैतिक हितों से वंचित होना चाहते नहीं इसलिए मुस्लिमों के मामले में चुप्पी साधे रहते हैं। और कम हानि होने की संभावना के चलते केवल हिंदुओं को ही उपदेश देते रहते हैं। यही परिस्थिति स्वतंत्रतापूर्वकाल में भी थी और वर्तमान में भी बनी हुई है।
यदि आप स्वतंत्रता पूर्व का 100 वर्षों का इतिहास उठाकर देखें तो आपको केवल एक ही व्यक्ति मुस्लिम समाज का प्रबोधन करते नजर आएगा और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि, वह व्यक्ति है - हिंदुत्व का दर्शन देनेवाले हिंदूराष्ट्र उद्गाता, बुद्धिवादी विचारक वीर सावरकर। (अपवाद सिर्फ डॉ. अंबेडकर का है और वह भी उन्होंने 1940 में अपने ग्रंथ 'पाकिस्तान" में किया है और वह भी विभाजन के संबंध में)। वैसे देखा जाए तोे सावरकरजी ने मुस्लिम समाज प्रबोधन का कार्य इसलिए भी किया क्योंकि, उनका संकल्प एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण करना था। उनकी राष्ट्रीयत्व की धर्मनिरपेक्ष व्याख्या के अनुसार 'सच्चा राष्ट्रीयत्व वही है कि जो हिंदू-मुसलमान में भेदभाव न करते सभी को समान मानता है।" और चूंकि, हिंदू-मुसलमान दोनो ही इस राष्ट्र के घटक हैं इसलिए राष्ट्र के सुधार के लिए हिंदुओं के सुधार के साथ ही साथ मुसलमानों में भी सुधार आवश्यक है।
यह सत्य है कि, राजनीति के क्षेत्र में सावरकरजी ने स्पष्ट रुप से मुस्लिम विरोध की भूमिका स्वीकार की थी और हिंदुत्व, हिंदूराष्ट्र, हिंदू संगठन मुसलमानों तक उनके सामाजिक विचार पहुंचाने के मार्ग की सबसे बडी बाधाएं थी। परंतु, हिंदुओं के स्वयं को पुरोगामी, सेक्यूलर और मुस्लिम हितकर्ता समझनेवालों ने भी इन विचारों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। इसके लिए उन्हें विशेष ऐसा कोई दोष दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि, वे सपने में भी सोच नहीं सकते थे कि, हिंदुत्वनिष्ठ सावरकर मुस्लिम समाज के प्रबोधन के लिए इतने मूलगामी विचार रख सकते हैं। मुस्लिम समाज भी प्रगत हो, प्रबल, संगठित और आधुनिक बने का उपदेश कर सकते हैं। रही अनुयायियों की बात तो उन्हें ऐसे अनुयायी मिले ही नहीं जो उनके इन क्रांतिकारी विचारों को आगे बढ़ाते इसलिए उनके यह विचार पुस्तक में ही रह गए।
वर्तमान में जो परिस्थितियां हैं उनको मद्देनजर रखते उनके विचारों को समाज के सामने रखने की आवश्यकता को दृष्टि में रख वे विचार संक्षेप में प्रस्तुत हैं - मुसलमानों को उपदेश करते हुए सावरकरजी कहते हैं ः ''हिंदुस्थानी राष्ट्र के आज अपरिहार्य उपांग मुस्लिम समाज को भी हमारा यही कहना है कि, तुम्हारे समाज में भी जो धर्मांधजंगली कल्पनाओं और क्रूर आचारों की भरमार है, उन उपद्रवी आचारों और क्रूर धार्मिक उन्माद से तुम जितना संभव हो सके उतना जल्दी मुक्ति पाओ इसीमें तुम्हारा हित है। हिंदुओं पर उपकार करने के लिए नहीं, हिंदू तुम्हारे उस धार्मिक उन्माद से डरते हैं इसलिए नहीं, बल्कि तुम्हारे मनुष्यता को वह कलंक है इसलिए, और विशेषतः एक पुरानी पिछडी संस्कृति को ही पक्का पकडकर समय के आडे आओगे तो विज्ञान की ऐडी तले तुम निःशंक कुचले जाओगे इसलिए"" तुम विज्ञाननिष्ठ बनो इस प्रकार का उनका उपदेश है। सावरकरजी का यह उपदेश एक सच्चे बुद्धिवादी सुधारक जैसा ही है। विज्ञाननिष्ठ बनना यानी क्या यह बतलाते हुए सावरकरजी कहते हैं, ''तुम्हें वह कुरान त्रिकालाबाधित ईश्वरोक्त अक्षर और अक्षर अनुल्लंघनीय मानने की सनातन प्रवृत्ति छोडकर, कुरान का योग्य वह सम्मान रखते हुए ही, परंतु उसमें का ..... वह वह निर्बंध त्रिकालाबाधित न मानते मनुष्य जाति के हित का जो आज उपयुक्त है वह वह बेखटके आचरण में लाने की अद्यतन प्रवृत्ति को स्वीकारो!"" कुरान को ईश्वर निर्मित ग्रंथ न मानते मनुष्यकृत मानो यह उनका पहला उपदेश था।
मनुष्य बुद्धिनिष्ठ मनुष्य बने ऐसा उनका उपदेश है। ''बाइबल-कुरान ये सारे धर्मग्रंथ आदरणीय और अभ्यसनीय, परंतु केवल मनुष्यकृत ग्रंथ हैं यह पक्का तय कर लो""; उस ग्रंथ में जो आज के लिए उपयुक्त और विज्ञान की कसौटी पर उतरने योग्य हो उतना ही स्वीकारो; उनका उपदेश है ''जो बुद्धिशून्य है उसे साफ छोड दो""। धर्मांधता के कारण दुनिया में मुसलमानों की इतिहास में कितनी हानि हुई है इसका ज्वलंत चित्र सावरकरजी मुसलमानों के सामने खडा करते हैं। यूरोप ने बाइबल की धर्मांधता छोडी और वह विज्ञाननिष्ठ बना। इस यूरोप से मुसलमानों को संघर्ष करना पडा। इस संघर्ष में पोथीनिष्ठ मुसलमानों के क्या हाल हुए इसका वर्णन सावरकरजी ने अपने समग्र सावरकर वाड्मय के तीसरे खंड में किया हुआ है।
मुसलमानों को उपदेश करते हुए सावरकरजी आगे कहते हैं, ''हमारी मनःपूर्वक इच्छा है कि, हिंदी मुसलमान भी पोथीनिष्ठ प्रवृत्ति छोडकर विज्ञाननिष्ठ बनें; भोलेपन और धर्मोन्मतता के शिकंजे से उसकी बुद्धि मुक्त हो और उनका समाज भी शिक्षित, प्रगत और अभ्युन्नत हो। अगर उनके ध्यान में यह आ गया कि विज्ञानबल के आगे धर्मोन्मतता कभी भी टिक नहीं सकेगी तो वे भी तुर्कों का ही मार्ग स्वीकारेंगे और आज यूरोपीयन शक्तियों के सामने जो उनकी दुर्गति हो रही है वह रुकेगी। मुसलमान अगर विज्ञाननिष्ठ और प्रगत हुए तो उसमें हिंदुओं और मुसलमानों दोनो का ही कल्याण है।"" विज्ञाननिष्ठा के अभाव में मुस्लिम समाज आज हिंदू समाज की अपेक्षा अधिक अज्ञानी, गरीब और अवनति के चंगुल में फंसा हुआ है इसका भान करवाते हुए सावरकरजी कहते हैं ''जो प्राप्त करना है वह विज्ञानबल जिसके आगे धर्मभेद का डंक ढ़िला पडता है!"" इस विज्ञानबल का अर्थ बुद्धिनिष्ठा है। हिंदू-मुस्लिम दोनो ही समाजों का कल्याण इस बुद्धिनिष्ठा को स्वीकारने से ही होगा। इसके बगैर धर्मभेद का विषैला डंक कुचला नहीं जा सकता। हिंदू-मुस्लिम समस्या के हल के लिए यह बल उपकारक ठहरेगा। सावरकरजी की यह भूमिका आज भी कितनी मार्गदर्शक है यह अलग से बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं।
सावरकरजी का कहना था संसार के अन्य किसी के भी अपेक्षा हिंदुओं को भारतीय मुसलमान निकट के हैं और मुसलमानों को हिंदू। 1924 के एक लेख में वे कहते हैं ः''और एक बात हम हमारे मुस्लिम देशबंधुओं को बतला देते हैं कि, मुसलमानों तुम भी रक्त और बीज से हिंदू ही होने के कारण तुम हमारे लिए सारे विश्व में निकट के हो। परंतु, तुम अगर यह समझते हो कि, तुम्हारे लिए काफिर हिंदू की अपेक्षा सारी दुनिया निकट की है, तुर्कस्थान आदि मुसलमान तुम्हें सहायता देंगे और उसके बलबूते तुम हिंदुओं को सीधा कर दोगे तो, तुम यह समझ लो कि, इस तुम्हारी दुष्ट बुद्धि से तुम्हारा ही घात होगा।"" दुनिया के मुसलमान किस प्रकार से भारतीय मुसलमानों को महत्व नहीं देते इसके उदाहरण देते हुए वे आगे कहते हैं ः ''जब तुम सिंधी मुसलमान मक्का यात्रा पर गए थे तब वहां के अरब मुसलमानों ने तुम्हें किस प्रकार लात-घूंसों से मारा था और अपमानित किया था! अब हिंदुस्थान के मुसलमान ही तुम्हारे उपयोग में आएंगे!"" यही स्थिति आज भी बरकरार है। यदि मुस्लिम जगत में तुम्हें महत्व चाहिए हो तो, तुममें दम होना चाहिए।
1941 में उन्होंने कहा था, ''खिलाफत आंदोलन के समय हिजरत का कडवा अनुभव आने के बावजूद तुम शायद यह मान रहे होंगे कि, तुम हिंदुस्थान के मुसलमानों की सहायता के लिए बाहर के स्वतंत्र राष्ट्रों के मुसलमान दौडकर आएंगे"" यह झूठ तय होगा। उनका कहना था कि, ''अपन दोनों एकदूसरे से प्रेमबद्ध हो, एक होकर देशोद्धार करें, इसीमें दोनों का हित है।"" इस प्रकार के हितोपदेश के साथ ही सावरकरजी ने मुसलमानों की धर्मांध रुढ़ियों के विरुद्ध भी कठोर टीका की है। उदाहरण के लिए उन्होंने बुरका, नमाज, सूअर का मांस, पोथीनिष्ठ रोजा, मुसलमानी धर्म की समता की डिंगें मारना, आदि को लिया है।
मुस्लिम प्रबोधन के लिए उन्होंने कथालेखन भी किया है। 'मुसलमानों का पंथोपपंथ का परिचय" उनका यह लेख मुस्लिम प्रबोधन की दृष्टि से पढ़ने जैसा है। इस लेख में सावरकरजी ने प्रमुख रुप से तीन विचार प्रस्तुत किए हैं 1). संसार के सारे धर्मग्रंथ सारे मनुष्यों की संयुक्त संपत्ति है। उसमें जो अपने हित का है उसे लेने का अधिकार हर किसीको है और प्रत्येक ने उसे कार्यान्वित करना चाहिए। मेरा ही धर्मग्रंथ सच्चा है, बाकी झूठे हैं इस धर्मांधता का दुराग्रह हरएक को छोडना चाहिए। ऐसे धर्मग्रंथों का आदर करें, सम्मान दें परंतु अंधानुकरण न करें। 2). कुरान ईश्वरीय ग्रंथ मानने के कारण मुसलमानों की प्रगति रुक गई है। वे पिछड गए हैं। अपने ही हित के लिए उन्होंने इस कुरान की बेडी को तोड देना चाहिए। 3). कुरान भले ही एक ही ग्रंथ दिखता हो तो भी वास्तव में वह एक नहीं। प्रत्येक भाष्यकारानुसार स्वतंत्र कुरान तैयार होते चला गया है। इस वस्तुस्थिति के कारण कुरान ईश्वर ने ही बतलाया हुआ है, उसकी सीख निश्चित और तयशुदा है और उसीका हम पालन कर रहे हैं, यह मुसलमानों की समझ पूरी तरह से झूठ है। कुरान के इस भाष्यभेद और अर्थभेद के कारण मुसलमानों में जो अनेक पंथ बन गए हैं, उनकी जानकारी इस लेख में सावरकरजी ने प्रस्तुत की है। उनका उद्देश्य यह था कि, यह पढ़कर कुरान मनुष्यकृत ग्रंथ है इसका विश्वास मुसलमानों को हो।
अंत में यही कहना है कि, आज साम्यवाद, समाजवाद के दिन लद चूके हैं। वैश्विक इस्लामी आतंकवाद भी अल्पकालीन ही है, स्थायी नहीं। मुसलमानों को यह समझना ही होगा, स्वीकारना ही होगा कि उनका उज्जवल भविष्य विज्ञाननिष्ठ बनने में, बुद्धिवादी मार्ग स्वीकारने में ही है। इसके लिए उन्हें पढ़ना-लिखना होगा दूसरे समाजों के साथ समरस होना पडेगा, यह बात-बेबात हिंसा करने का मार्ग त्यागना होगा तभी उनके समाज की उन्नति हो सकेगी।
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