Wednesday, August 26, 2015

18 अगस्त पतेती - पारसी नूतनवर्ष
पारसीयों का भारत से संबंध 

ईरान या पर्शिया के निवासी पारसी और उनका साम्राज्य जोराष्ट्रियन और उनके पैगंबर का नाम जरतुष्ट्र। 651 में अरबों ने पर्शियन साम्राज्य को परास्त कर दिया। अरबों द्वारा अपने राज में ईरानियों का जबरदस्ती धर्मांतरण किया गया तब कुछ ईरानी निर्वासित होकर गुजरात में आए। आज के पारसी उन्हीं ईरानी निर्वासितों के वंशज हैं पर भारत में आए हुए ये पहले ईरानी नहीं। ईरान के सासानी घराने के कार्यकाल (ई. स. 226 से 651) में भी भारत और ईरान में व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे। इसके अलावा महाभारत, पुराणों, कालीदास के रघुवंश इन ग्रंथों में भी पारसिकों (पार्स. पारसा, सिका-शक) का उल्लेख आता है।  कालीदास ने लिखा है अपरांत (कोंकण, पश्चिमी समुद्रतट) जीतने के बाद रघु पारसिकों को जीतने निकला था। कुषाण साम्राज्य की पराजय के बाद यानी 4थी और 7वीं शताब्दी में इन गोरे पारसिक योद्धाओं ने सासानी घराने के सार्वभौमत्वतले राजस्थान से काश्मीर के दरम्यान एक साम्राज्य स्थापित किया था। गिरनार, कार्ला और नाशिक में मिले शिलालेखों में (पार्थव, पार्थियन) उल्लेख मिलता है। ई. पू. 126 पार्थियन सम्राट मिनिएंदर (ई. पू. 155-130) सौराष्ट्र पर राज्य किया था तो, पल्लव राजा बाद में कांजीपुरम के सम्राट बने थे। उन्होंने दक्षिण के तीन बडे राज घरानों में से एक की स्थापना की थी।

ईरान से निकला दूसरा गुट मागी पुरोहितों का जो सिस्तान (सकद्वीप) से निकले थे। दक्षिण मारवाड के माघ या भोजक ब्राह्मणों में वे घुल मिल गए। इन्हीं माघी या भोजक ब्राह्मणों ने हिंदुओं में सूर्योपासना आरंभ की। मुस्लिम इतिहासकार भी गवाही देते हैं कि, प्राचीन मध्य युग में भारत में ईरानी जोराष्ट्रीयन थे।

पारसियों के आरंभिक (भारत में बसने के) इतिहास के बारे में एकमात्र लिखित साक्ष्य है 'किस्सा-इ-संजान"। ''पारसी जब संजान के राजा जादी राणा के पास संजान में रहने की अनुमति लेने गए तब उसने पांच शर्तें डाली- 'राजा को जोराष्ट्रियन धर्म समझाकर बतलाएं, पारसी मातृभाषा के रुप में गुजराती को स्वीकारें, पारसी स्त्रियां साडी पहनें, पारसी अपने पास के सारे हथियार सरकार के पास जमा करें और अपने विवाह की बारातें रात के अंधेरे में निकालें। यह अंतिम शर्त, बहुधा निर्वासितों ने स्वयं द्वारा की हुई विनती पर डाली गई थी। इस परायी जमात की ओर अन्य जमातों का ध्यान आकृष्ट न हो यह इसके पीछे का उद्देश्य होना चाहिए। इस किस्से के अलावा गुजराती गर्बों, समूह गीतों, नृत्यों, आदि में ईरानी निर्वासित और राजा जाधव राणा की भेंट के बारे में विस्तृत विवरण मिलता है। इस प्रकार पारसी समुदाय दूध में घुली हुई शक्कर की भांति यहां रहने लगा।

सन्‌ 1200 में "नेरीओसांग धवल' नामके एक पारसी पुरोहित ने संपूर्ण 'अवेस्ता" (पारसियों का धर्मग्रंथ) का संस्कृत में रुपांतर किया। तत्कालीन हिंदू विद्वानों के सुविधा के लिए उसने यह उपक्रम किया होना चाहिए। नेरीओसांग द्वारा किया हुआ भाषांतर आज भी उपलब्ध है। पारसियों ने गुजराती भाषा के अध्ययन को भी बढ़ावा दिया। गुजराती भाषा में प्रकाशित पहला वृत्तपत्र था 'द बॉम्बे समाचार" (1822) फर्दुनजी मर्जबान उसके पहले संपादक थे। 

पारसियों ने भारत को तीन प्राचीन कारीगिरी-नक्काशी की देन दी है। वे हैं सुरतीघाट, गारो और तनचोई। गारो और तनचोई मूलतः चीनी हुनर है। तीन पारसी भाई अनेक वर्षों तक चीन में रहे और वहां यह कला उन्होंने सीखी फिर सूरत में आकर यहां बुनाई का व्यवसाय आरंभ किया। स्थानीय लोग उन्हें तनचोई कहने लगे। तन यानी तीन और चोई यानी चीनी। उनका मूलनाम था जोशी।  उनकी ख्याती देशभर में फैली हुई थी। जब यह प्रसिद्धि गांधीजी के कानों पर गई तो वे पैदल ही उनसे मिलने पहुंचे। वहां जोशी के कार्य को देख वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि 'जब भारत स्वतंत्र होगा तब भारत सरकार 'तनचोई कसीदा केंद्र" देशभर में शुरु करने की जिम्मेदारी आप पर सौंपेगी।" गांधीजी ने अपने वचन का पालन किया।    
भारत के अर्वाचीन इतिहासकाल में पारसियों ने भारत के निर्माण में बहुत सक्रिय भाग लिया है। इस देश की स्वतंत्रता की लडाई में महर्षि दादाभाई नौरोजी (1825 से 1917) के नेतृत्व को भारतीय नेताओं ने माना था। इनके अलावा अन्य दो पारसी जिनका राष्ट्रीय आंदोलन से संबंध था वे थे सिर फिरोजशाह मेहता (1845 से 1915) और सर दिनशा वाच्छा (1844 से 1936)।  राष्ट्रीय आंदोलन में स्वयं का ऐसा खास स्थान निर्मित करनेवाली पहली पारसी महिला थी भिकाजी कामा। लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, आदि जैसे राष्ट्रवादीयों का उन्हें समर्थन प्राप्त था। 18 अगस्त 1907 को जर्मनों के सामने उनकी मातृभाषा में दिए भाषण में एक ध्वज फहराया था जिसमें थोडा फेरफार कर आज का राष्ट्रध्वज बना। उन्होंने देवनागरी लिपि का भी प्रसार किया। उनका प्रतिपादन था हिंदी ही भारत की सर्वमान्य भाषा रहेगी। 

भारत के औद्योगिक क्षेत्र का नेतृत्व जमशेदजी टाटा ने किया और उन्हीं के कदमों पर चलकर भारतीय उद्योगीयों ने भारत की कारखानेदारी को आज का यह विशाल रुप दिया है। रॉयल सोसायटी की फेलोशिप का सम्मान सबसे पहले एक पारसी अर्देसी कर्सेजटी वाडिया को मिला था। वे सबसे पहले मुंबई में गैस के दीए लाए थे। दिनशॉ पेरिट, कावसी जहांगीर, गोदरेज आदि अन्य प्रसिद्ध नाम हैं। बैंक क्षेत्र के प्रवर्तक भी पारसी ही थे। शापुरजी पालनजी मिस्त्री आधुनिक मुंबई के शिल्पकार हैं तो, एम. एन. दस्तुर की कंपनी अंतरराष्ट्रीय कन्सल्टिंग इंजीनिअर्स के रुप में काम करनेवाली पहली भारतीय कंपनी है। भारत की पहली वास्तुशास्त्रज्ञ एक पारसी महिला है पेरीन जे. मिस्त्री। इतिहास बतलाता है कि टाटा ने हमेशा से ही स्त्रियों को प्रोत्साहन दिया।

पारसियों ने जिस प्रकार से भारत के व्यापार-उद्योग का विकास किया वैसे ही व्यवसाय के क्षेत्र में भी नाम कमाया। पारसियों ने दो प्रमुख शास्त्रज्ञ-वैज्ञानिक भी दिए अणु-ऊर्जा संशोधन के क्षेत्र में होमी जहांगीर भाभा और भूगर्भशास्त्र में दाराशॉ नोशेरवान वाडिया। चिकित्सा शास्त्र में भी पारसियों ने महत्वपूर्ण काम किया है और विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में पारसियों ने अंतरराष्ट्रीय ख्याती प्राप्त की। सर जमशेटजी जीजीभॉय ने 3 जनवरी 1843 को जे. जे. हॉस्पिटल की नींव डाली। उस समय मुंबई में सामान्य लोगों के लिए एक भी अस्पताल नहीं था। आंखों का पहला अस्पताल मुंबई भायखला में सर कावसजी जहांगीर ने खोला था। इन्होंने ही सूरत में पहला प्रसूतीगृह खोला था। लेडी साकरबाई ने 1874 में पहला पशु चिकित्सालय खोलने के साथ ही प्राणियों को क्रूरता से बचानेवाली संस्था द सोसायटी फॉर द प्रिव्हेन्शन ऑफ क्रुएल्टी टु द एनिमल्स स्थापित की थी।  

पारसियों के रीति-रिवाज हिंदुओं से मिलते-जुलते हैं - कमर में ऊन के पट्टे की कश्ती (जनेऊ) बांधते हैं। पंच महाभूतों की पूजा करते हैं। सूर्य की उपासना करते हैं। विवाहादि मुहूर्त के समय मंगलाष्टक का उच्चारण करते हैं उस समय वधू को चंदन का उबटन लगाते हैं। गोमूत्र, गोमय को पवित्र मानते हैं और प्रायश्चित के समय उनको उपयोग में लाते हैं। नवजोत (उपनयन संस्कार) (प्रत्येक पारसी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना) संस्कार करते समय दरवाजे के बाहर रंगोली निकालते हैं। स्त्री-पुरुष के  कपाल पर कुंकुम तिलक लगाते हैं। विवाह के समय वर-वधू आमने-सामने बैठते हैं और पुरोहित उनके बीच अंतःपाट पकडकर रखते हैं। पुरोहित अग्नि को चंदन और धूप की आहुती देते हैं। अवेस्ता के कुछ सुंदर उपदेश और आशीर्वाद का प्रारंभ होता है। सारी विधि में संस्कृत कही जाती है। विवाह में अक्षताओं का प्रयोग करते हैं। केले के पत्ते पर भोजन करते हैं।
अपने धर्म के आचरण की स्वतंत्रता और खुशहाली मिले इस हेतु पारसी भारत में आए। जो उन्हें मिली भी इसीलिए उनके पैगंबर जरतुष्ट्र (जरतुष्ट्र एक खिताब है- इसका अर्थ सुवर्ण प्रकाश) की सीख हम जाने यह आवश्यक लगता है। लेकिन विस्तारभयावश वह दे नहीं रहा हूं फिर भी अत्यंत संक्षिप्त सार यह है- संसार में एक ही ईश्वर है और वह है आहुरमाजदा। (मानवी इतिहास में ऐसा कहनेवाला बहुधा वह पहला ही पैगंबर होना चाहिए) आहुरमाजदा को वह जीवन और ज्ञान, तेज और सत्य, सद्‌गुण और न्याय, प्रेम और दया का देवता मानता है। उसकी सीख का मूलभूत तत्त्व है - रुचि-अरुचि की स्वतंत्रता। सुख और दुख मानव के अच्छे या बुरे कृत्यों के फल हैं। ईशभीरुओं को शुभ फल मिलता है तो, दुष्टों को दीर्घकाल पीडा होती है। जरतुष्ट्र की सीख का सार है अपने साथ के लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो। उसका ध्येय वाक्य है - अच्छे विचार, उत्तम शब्द और सत्कृत्य।  

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