क्या भारत में परदा प्रथा सदा से रही है !
'परदा है परदा है" या 'परदे में रहने दो परदा ना हटाओ" जैसे फिल्मी गीत हो या फारसी शब्द परदा का हिंदी अर्थ घुंघट पर आधारित गीत 'अरे यार मेरी तुम भी हो गजब घुंघट तो जरा ओढ़ो" जैसा लोकप्रिय गीत जिनका आधार महिलाओं से संबंधित शब्द 'परदा" है या कबीर की रचना 'घुंघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे। घट घट में वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे।" सुनकर (1960 में घुंघट नामकी एक फिल्म भी बनी है) और उत्तर एवं पूर्वी भारत में फैली पर्दा प्रथा को देखकर लगता है क्या यह प्रथा भारतीय संस्कृति की अविभाज्य परंपरा का भाग है? इसकी सार्थकता क्या है? क्या विश्व में अन्य स्थानों पर भी यह प्रथा थी? यदि थी तो किस प्रकार की थी?
भारत के बाहर के जगत पर दृष्टि दौडाएं तो दिखता है कि ईसा के जन्म से 500 वर्ष पूर्व यूनानी स्त्रियां किसी संरक्षक के बिना घर से बाहर अकेले जा नहीं सकती थी। पति के द्वारा बुलाए अतिथियों से मिलने की अनुमति उन्हें नहीं होती थी। मिनिएंदर ने अपने नाटकों में एक पात्र के द्वारा यह कहलवाया हुआ है स्वतंत्रता पूर्वक घूमनेवाली स्त्री के लिए गली का द्वार बंद कर देना चाहिए। स्पार्टा में स्त्रियां सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग नहीं ले सकती थी। ईसा से 300 वर्ष पूर्व कुलीन-अभिजात वर्ग की असीरियन महिलाओं में परदा प्रथा थी। साधारण महिलाओं और वेश्याओं को परदे की अनुमति नहीं थी। सीरिया में विवाहित स्त्रियां अपने चेहरे को एक विशेष प्रकार के आवरण से ढ़के रहती थी।
भारत के संदर्भ में ईसा से 500 वर्ष पूर्व रचित निरुक्त में इस तरह की प्रथा का वर्णन कहीं नहीं मिलता। निरुक्तों में संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने-जाने का उल्लेख मिलता है। न्यायालयों में उनकी उपस्थिति के लिए किसी पर्दा व्यवस्था का विवरण ईसा से 200 वर्ष पूर्व तक नहीं मिलता।
इस काल के पूर्व के प्राचीन वेदों तथा संहिताओं में पर्दा प्रथा का विवरण नहीं मिलता। ''ऋगवेद (10/85/33) ने लोगों को विवाह के समय कन्या की ओर देखने को कहा है ः 'यह कन्या मंगलमय है, एकत्र होओ और इसे देखो, इसे आशीष देकर ही तुम लोग अपने घर जा सकते हो।" आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार दुलहिन को अपने घर ले आते समय दूलह को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋगवेद (10/85/33) के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि उन दिनों वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (परदा या घुंघट) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरवगुण्ठन आती थी।"" (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336) परदा प्रथा का उल्लेख उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (देखें उक्त पृ. 336,7)
कुछ विद्वानों के मतानुसार रामायण और महाभारतकालीन स्त्रियां किसी भी स्थान पर परदा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थी। जातक कथाओं, भास के नाटकों तथा भवभूति की रचनाओं मेंं कहीं-कहीं स्त्रियों के परदे में रहने का उल्लेख मिलता है। अजंता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की जीवनशैली के संबंध में कई नियम बनाए हुए हैं परंतु कहीं भी यह नहीं कहा है कि स्त्रियों को परदे में रहना चाहिए। ज्यादातर संस्कृत नाटकों में भी परदे का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि 10वी शताब्दी के प्रारंभ में तक भारतीय राजपरिवारों की स्त्रियां बिना परदे के सभा में तथा घर से बाहर भ्रमण करती थी जैसाकि एक अरब यात्री अबू जैद ने वर्णन किया है। स्पष्ट है कि उस समय तक परदा प्रथा प्रचलित नहीं थी जैसीकि अभी नजर आती है।
अब हम मध्यकाल में देखते हैं 16वी शताब्दी के रुस में पिता एवं भाई भी अपनी पुत्री और बहिन का मुख देख नहीं सकते थे। 17वी शताब्दी तक इंग्लैंड में भी स्त्रियां न तो अकेले यात्रा कर सकती थी न ही अपने किसी पुरुष साथी कर्मचारी को घर आमंत्रित कर सकती थी। अगर कोई स्त्री सार्वजनिक सभा में कोई वक्तव्य दे देती तो वह उसके लिए अत्यंत अपमानजनक माना जाता था।
इतिहासकारों के अनुसार भारत में मुस्लिम साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ परदा प्रथा ने भी हमारी सामाजिक व्यवस्था में अपने पैर जमा लिए। 'धर्मशास्त्र का इतिहास" के अनुसार ''उच्च कुल की नारियां बिना अवगुण्ठन के बाहर नहीं आती थी, किंतु साधारण स्त्रियों के साथ ऐसी बात नहीं थी। उत्तरी एवं पूर्वी भारत में परदा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।"" ( पृ. 337) इसके तीन कारण थे 1. हिंदू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से। 2. विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण। 3. विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर। सर्वप्रथम हिंदू सरदारों और उच्चवर्ग ने शासकों का अनुसरण कर अपने अंतःपुरों में इस प्रथा को लागू किया फिर उनका अनुसरण कर समाज के अन्य वर्गों ने भी उसे अपना लिया।
स्त्री शिक्षा समाप्त होने कम आयु में विवाह होने के कारण अनुभवहीन स्त्रियों का परिवार में सम्मानजनक स्थान नहीं रहा। 15वी 16वी शताब्दी के आते-आते परदा उत्तर भारत की स्त्रियों की सामान्य जीवनशैली बन गई, सम्मान और कुलीनता का हिस्सा बन गया। यहां तक कि खेती मजदूरी करनेवाले वर्ग की महिलाएं तक परदा करने लगी। इससे पुरुषों का वर्चस्व बढ़ता चला गया स्त्रियों का सामाजिक व राजनैतिक गतिविधियों में योगदान समाप्त होता चला गया। यह कैसी विडंबना है कि जो परदा स्त्रियों की कुलीनता, सम्मान का प्रतीक था वही स्त्रियों के लिए दुर्भाग्यशाली बन गया। स्त्रिया दीन हीन जीवन बीताने को बाध्य हो गई। इस दृष्टि से मध्यकाल स्त्रियों के जीवन का काला पन्ना साबित हुआ।
भारतीय समाज में जो भी बिकृति है सब इस्लाम की देन है चाहे वह छुवा-छूत हो अथवा पर्दा प्रथा भारतीय समाज को इससे ऊपर उठाना होगा हमारे समाज में कभी यह सब प्रथाएं नहीं थीं.
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