मंदिर-मस्जिद विवाद का निदान
मस्जिद मतलब प्रार्थना स्थल, मुसलमानों
द्वारा इकट्ठे आकर मक्का की ओर मुंह करके नमाज पढ़ने की जगह। प्रार्थना (नमाज) के बाद
इमाम द्वारा खुत्बा (भाषण, धर्मोपदेश) देने की जगह। मस्जिद कोई संस्था नहीं, इसे कोई
भी बना सकता है,संचालन की जिम्मेदारी उठा सकता है। कोई चाहे तो आकर नमाज पढ़े, न चाहे
तो न आए। मस्जिद का मुसलमान होने के लिए जो पांच बातें अनिवार्य हैं (कलमा (अल्लाह
एकमेव है और मुहम्मद उसके पैगंबर हैं), नमाज, रोजा, जकात और हज) उनमें कोई स्थान नहीं।
शरीअत (इस्लामिक कानून) में भी मस्जिद का कोई स्थान नहीं।
जिस प्रकार से प्रवचन-कीर्तन स्थलों पर
अस्थायी मंदिरों का निर्माण किया जाता है, गुरुग्रंथ साहिब का दीवान सजाया जाता है
जो कार्यक्रमों की समाप्ति पर हटा दिया जाता है। उसी प्रकार से हज यात्रियों के लिए
हवाई अड्डों पर और हज हाऊसों में अस्थायी मस्जिदों का निर्माण किया जाता है जो हज यात्रियों
की रवानगी के बाद हटा दिए जाते हैं और कोई यह नहीं सकता कि ये नहीं हटेंगी। कोई भी
मस्जिद हमेशा के लिए नहीं हो सकती। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ की सुरक्षा की दृष्टि
से दो मस्जिदें जो उनके प्रतिदिन के आवागमन के मार्ग पर थी हटा दी गई थी। अनगिनत मंदिरों
को भी सडक निर्माण में बाधक होने के कारण जनहित में समय-समय पर हटाया गया है, स्थानांतरित
किया गया है। इसके उदाहरण दूर क्यों जाएं इंदौर में ही मौजूद हैं। नमाज तो कहीं भी
पढ़ी जा सकती है। पैगंबर मुहम्मद द्वारा ऊँट के हौदे में नमाज पढ़ने संबंधी हदीसें (पै.
के वचन, उक्तियां-कृतियां) हैं। नमाज पांच क्यों पचास पढ़ें तो भी कोई एतराज नहीं। क्योंकि,
अल्लाह तआला ने ही फर्माया है कि पांच वक्त की नमाजें फर्ज रही और वह सवाब (पुण्य)
में पचास के बराबर हैं, मेरे यहां हुक्म में तब्दीली नहीं होती।
लेकिन यह जिद कि मस्जिद नहीं हटेगी गलत
है। क्योंकि, दअ्वतुल कुर्आन भाष्य के अनुसार मस्जिदों के निर्माण का उद्देश्य उनके प्रति “आदर एवं प्रतिष्ठा का भाव लोगों में उत्पन्न हो और उनमें अल्लाह
का जिक्र हो।’’ (खंड 2, पृ.
1213,14) और अल्लाह के नाम का जिक्र तो कहीं भी किया जा सकता है व मुसलमान हर दूसरे-तीसरे
वाक्य में अल्लाह का जिक्र करते ही हैं। फिर यदि मस्जिद निर्माण सर्वसाधारण के आवागमन
में, जनहित के लिए किए जानेवाले विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता हो, समाज की
समरसता-सद्भाव आदि को ठेस पहुंचाता हो तो उसे वहां से उसे हटा देना क्या उचित नहीं
होगा? या नहीं हटाने से मस्जिद के आदर-प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। इसी प्रकार से लाउडस्पीकर
लगाकर हम तो पांचों वक्त की नमाज की अजान देेंगे की जिद भी गलत है। क्योंकि, जिस जमाने
में समय जानने के साधन नहीं हुआ करते थे उस जमाने में नमाज के लिए अजान देना तो समझ
में आता है। परंतु, अब जबकि समय जानने के कई साधन उपलब्ध हैं। लाउडस्पीकर लगाकर ही
अजान देंगे कि जिद निश्चय ही अनुचित कही जाएगी।
क्योंकि, नमाज के जो पाबंद हैं वे तो घडी देखकर नमाज पढ़ने आ ही जाएंगे और जिन्हें नहीं
आना है वे लाख अजान दो तब भी नहीं आएंगे। और कौन कहता है कि इस्लाम को तब्दीली मंजूर
नहीं। पुराने जमाने में तो लोग पानी के जहाज, रेलगाड़ियों से, पैदल चलकर हज के लिए जाया
करते थे। परंतु, अब विज्ञान की प्रगति का लाभ उठाते हुए हवाई जहाज से जाते हैं। जब
यह बदलाव मंजूर है तो अजान में बदलाव क्यों नहीं स्वीकारा जा सकता, लाउडस्पीकर क्यों
नहीं बंद किए जा सकते? वास्तव में मुस्लिम समाज तो बदलाव स्वीकारने को तैयार है, स्वीकार
भी रहा है। कई रीति-रिवाज जो इस्लाम में नहीं हैं का पालन करता है, ऐसी कई बातों को आचरण में लाता भी है। परंतु, ये
जो उलेमा हैं वे ही मुस्लिम समाज को फतवे जारी कर-करके गुमराह कर रहे हैं, उनके सुधारों
को स्वीकारने में बाधा पैदा करते हैं।
हम सब एक देश के वासी हैं और जब हमें
साथ-साथ रहना है तो, हम शांति से मिलजुल कर क्यों न रहें? बेजा जिदों का त्याग क्यों
ना करें? कई स्थानों पर हिंदुओं-जैनियों के मध्य मंदिर विवाद हैं। यदि जैन समाज का
हक बनता है तो, हिंदुओं को उन मंदिरों पर अधिकार का त्याग करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
इसी प्रकार से कई स्थानों पर मंदिर-मस्जिद विवाद हैं। समरसता के लिए आवश्यक है कि यदि
कहीं मस्जिद की जगह मंदिर बनाया गया है यह सिद्ध हो जाए तो हिंदू उस स्थान को मुसलमानों
को सौंप दें तथा मुसलमानों को चाहिए कि आगे आकर तीन नहीं तीस हजार स्थानों पर से अपना
अधिकार हटाकर हिंदुओं को सौंप दे। कुरान में केवल तीन ही मस्जिदों का उल्लेख है, मस्जिदे
नबवी, मस्जिदे हराम (काबागृह) और मस्जिदे अक्सा। और जिन मस्जिदों पर विवाद जारी है
वे इनके समतुल्य तो हैं ही नहीं, फिर इन्हें लौटाने में इतना विवाद पैदा करने की जरुरत
ही क्या है?
वस्तुतः जब देश स्वतंत्र हुआ था तभी हिंदू-मुस्लिमों
के मध्य के सभी संबंधित विवादों को सुलझा लिया जाना चाहिए था, फैसले ले लिए जाने चाहिए
थे। मंदिर-मस्जिद संबंधित विवादों के लिए यदि उसी समय कोई धार्मिक कमीशन बिठा दिया
गया होता जो इनके मध्य के विवाद सुलझाता तो आज मस्जिद हटाओ आंदोलनों की कोई आवश्यकता
ही नहीं पडती। परंतु, देर आयद दुरुस्त आयद अब भी इस समस्या को एक धार्मिक कमीशन बैठाकर
सुलझाया जा सकता है। जैसेकि, उस समय समान नागरिक संहिता पर फैसला नहीं लिया गया तो
आज भी सुप्रीम कोर्ट कहता है कि समान नागरिक संहिता बनाई जाए। उसी प्रकार से आज भी धार्मिक कमीशन क्यों नहीं बैठाया जा सकता। क्योंकि,
इस प्रकार के भावनात्मक, आस्थाओं के मुद्दे कोर्ट के बाहर ही निपटाए जा सकते हैं।
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