मौलवियों को राजनीति में कौन लाया?
विभाजन और मुस्लिम प्रश्न का अध्ययन करते समय हम अलीगढ़ आंदोलन के संस्थापक सर सय्यद अहमद से आरंभ करते हैं। इस आंदोलन से ही आगे मुस्लिम लीग की स्थापना और हिंदुस्थान का विभाजन हुआ। इस आंदोलन की मुस्लिम मंडली ब्रिटिशों की ओर से और कांग्रेस के विरोध में थी। मुस्लिम धर्मांध न बने, पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण करें और आधुनिक बनें, ऐसा इस मंडली का कहना था। तथापि धार्मिक मुल्ला-मौलवी-उलेमाओं को यह मान्य नहीं था। वे इस आंदोलन से और कुल मिलाकर ऐसी राजनीति से दूर ही रहे।
हिंदुस्थान के इस प्रकार के मुल्ला-मौलवियों को एकत्रित कर राजनीति में लाने का कर्तृत्व और अग्रमान मौलाना अबुल कलाम आजाद को ही जाता है। इसके लिए उन्होंने 1912 में 'अल हिलाल" नाम से उर्दू साप्ताहिक शुरु किया। राजनीति में धर्म को लाने की आवश्यकता पर उन्होंने 'अल हिलाल" के माध्यम से प्रचार शुरु किया। ब्रिटिश शासन पर और अलीगढ़ आंदोलन पर उन्होंने कठोर प्रहार शुरु किए। उन्हींकी प्रेरणा से 'जमियत उलेमा हिंद" नाम का हिंदुस्थानी उलेमाओं का संगठन स्थापित हुआ। वे इन सबको खींचकर राजनीति में लाए। धर्म का आवाहन कर मुस्लिमों को उत्तेजित करने की शुरुआत की। ब्रिटिशों का शासन होने के कारण हिंदुस्थान दार-उल-हरब बन गया है इसलिए उन्हें भगाकर कुरान और शरीअत पर आधारित शासन लाने का आवाहन करना शुरु किया। इसके लिए कांग्रेस से मित्रता की। इसी कारण से इस मंडली को 'राष्ट्रवादी मुसलमान" कहा जाता है। आज की युवा पीढ़ी को ऐसे राष्ट्रवादी मुसलमानों के विचारों की तनिक भी जानकारी नहीं है। इस बारे में अल्प परिचय हो इसलिए मौलाना आजाद के विचारों का थोडा सा दर्शन हम यहां करवा रहे हैं।
मौ. आजाद 'पॅन इस्लाम" के समर्थक !
उनके एक पाठक ने पूछा था कि, मुस्लिम किस दल के पीछे जाएं? मौ. आजाद ने 'अल हिलाल" में उत्तर दिया था कि ः मुस्लिम किसी भी दल के पीछे न जाएं। उन्होंने गतकाल में अनेक सदियों तक नेतृत्व किया है और आगे भी कर सकेंगे। वे केवल इस्लाम का अनुकरण करें। ऐसा होने पर उन्हें राजनीति में हिंदुओं के पीछे जाने की आवश्यकता नहीं पडेगी। कुरान की सीख है किः 'किसी के सामने भी (अल्लाह के सिवाय) न झुकें।"
दूसरे एक अंक में उन्होंने लिखा ः 'हिंदुओं से मत डरो। केवल अल्लाह से डरो। तुम अल्लाह के सैनिक हो। तुमने अल्लाह ने दिया हुआ गणवेश त्याग दिया है। उसे पहनो सारा संसार तुमसे डरने लगेगा .... तुम अल्लाह ने भेजे हुए पृथ्वी के शासक हो। 'अल हिलाल" में सीख दी जाती थी कि ः ''एक हाथ में 'धर्म" और दूसरे हाथ में 'राजनीति" होनी चाहिए! और 'कुरान" दोनो ही स्थानों पर होना चाहिए। 'चलो कुरान की ओर" यह हमारी घोषणा है!""
इस संबंध में मुशीर-उल्-हक कहते हैं ः ''धर्म और राजनीति की अविभाज्यता आजाद के कार्य का निचोड था। आजीवन उन्होंने इस मुद्दे पर समझौता नहीं किया। 'लूंगा तो दोनो, नहीं तो कुछ भी नहीं चाहिए", इस प्रकार की उनकी भूमिका थी।""
आजाद ने लिखा था ः 'पैगंबर के अनुयायी धार्मिक दृष्टि से कोई मृत नहीं हो गए हैं जिससे कि, वे राजनीति के लिए धर्म का आधार न लें। जो धर्म केवल विवाह या अंत्यसंस्कार के समय ही काम में आता हो, उस धर्म की हमें आवश्यकता ही क्या?" उन्होंने कहा था ः ''राष्ट्र" और मातृभूमि इन शब्दों से अन्य संसार पर जो परिणाम होता है, वही परिणाम 'अल्लाह" अथवा 'इस्लाम" इन शब्दों का मुसलमानों पर पडता है। इन शब्दों द्वारा मुसलमानों के ह्रदय भडकाए जा सकते हैं... धर्म की शक्ति अमर्यादित होती है।"
1921 में खिलाफत कमेटी के सामने भाषण करते समय उन्होंेने कहा था ः 'कुरान गैर-मुस्लिमों को दो भागों में विभाजित करती है। एक मुसलमानों से मित्रता का व्यवहार करनेवाला और दूसरा, उनसे संघर्ष करनेवाला। इनमें से पहले वर्ग के साथ सहयोग करने के लिए कुरान को कोई आपत्ति नहीं। इसलिए (दूसरे वर्ग के) ब्रिटिशों से संघर्ष करते समय मुस्लिमों द्वारा (पहिले वर्ग के) हिंदुओं के साथ सहयोग करना उनका धर्म कर्तव्य है।"
इसके लिए पैगंबर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा ः 'जब पैगंबर मक्का से हिजरत कर मदीना रहने गए, तब उन्होंने वहां के यहूदियों से करार किया था। उस करार में मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों का एक राष्ट्र होगा, ऐसा कहा गया था।" (परंतु, जब मुस्लिमों की शक्ति बढ़ी, तब मुस्लिम न बने यहूदी टोलियों को मदीना से किस प्रकार से भगा दिया गया था, यह भर उन्होंने भाषण में बतलाया नहीं।)
हिजरत (देश त्याग) का धर्मादेश
मौ. आजाद पॅन-इस्लाम (विश्व बंधुत्व) के कट्टर समर्थक थे। इस संबंध में उन्होंने 1912 में लिखा था कि ः 'अलीगढ़ आंदोलन ने मुस्लिमों को अपंग किया है। इस्लाम का सच्चा ध्येय 'पॅन-इस्लाम" है। इस्लाम में सुधार और प्रगति का आधार वही है। आज कोई सा भी स्थानीय अथवा राष्ट्रीय आंदोलन मुस्लिमों के हित का नहीं। जब तक संपूर्ण मुस्लिम जगत एकत्रित नहीं आता तब तक विश्व के चालीस करोड मुस्लिमों का भला होनेवाला नहीं।" इसीलिए उन्हें पाकिस्तान का निर्माण नहीं चाहिए था। क्योंकि, इससे मुसलमानों का विभाजन होनेवाला था।
1946 में विभाजन का विरोध करते समय उन्होंने कहा था ः ''पाकिस्तान की योजना विशेष रुप से मुसलमानों के लिए अत्यंत हानिकारक है। 'पाकिस्तान" शब्द से यही सूचित होता है कि, संसार का कुछ भाग पवित्र और कुछ अपवित्र है। इस प्रकार से विश्व का विभाजन अइस्लामिक है और इस्लाम के मूल उद्देश्य को ही ध्वस्त कर देनेवाला है। इस्लाम को इस प्रकार का भौगोलिक विभाजन मान्य ही नहीं है। पैगंबर ने कहा है कि, 'अल्लाह ने यह सारा विश्व ही मुस्लिमों के लिए मस्जिद के रुप में निर्मित किया है।" मुस्लिम के रुप में मैं क्षण भर के लिए भी मेरा समूचे हिंदुस्थान पर का अधिकार छोडने के लिए तैयार नहीं।"" पूरे हिंदुस्थान को ही इस्लाम भूमि बनाने का मुस्लिमों का अधिकार विभाजन के कारण मारा जाएगा इसकी आजाद को चिंता थी। सारे विश्व पर इस्लाम का शासन उनका ध्येय था।
कुरान पर आधारित न होने के कारण ब्रिटिश शासित हिंदुस्थान 'दार-उल-हरब" है और मुसलमानों के रहने योग्य नहीं, ऐसा तय करके हिंदुस्थान से मुस्लिम मुस्लिम देश के लिए हिजरत (देशत्याग) करें, इसके लिए 1920 में मौ. आजाद ने 'हिजरत का फतवा" जारी किया था। उस फतवे में उन्होंने कहा था ः 'शरीअत की आज्ञा, वर्तमान परिस्थितियों और मुस्लिमों के हित को ध्यान में लेते मेरे संदेह का निरावरण हो गया है कि, शरीअत के दृष्टिकोण से हिंदुस्थान के मुसलमानों को यहां से मुस्लिम देश में स्थानानंतरण करने के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं।" इस आदेशानुसार 5 से 20 लाख मुसलमानों ने अफगानिस्तान के लिए स्थानानंतरण किया था।
'जिहाद" की तैयारी
धार्मिक उलेमा मुस्लिमों का राजनैतिक नेतृत्व करें, ऐसा आजाद का कहना था भर इसके लिए उन्हें योग्य उलेमा चाहिए था। वे लिखते हैं ः 'मगर आज के उलेमाओं से मुझे कुछ भी आशा नहीं .... इसके लिए उलेमाओं की नई पीढ़ी तैयार करना पडेगी।" उनमें सच्ची 'इस्लामिक मानसिकता" निर्मित करना पडेगी।" इस प्रकार का उत्तम इस्लामी ज्ञान रखनेवाले उलेमा तैयार करने के लिए उन्होंने 1914 में कलकत्ता में 'दार-उल्-इर्शाद" शिक्षण संस्था की स्थापना की। वहां केवल विश्वविद्यालयीन स्नातकों को ही प्रवेश दिया जाएगा। परंतु, यह मदरसा बहुत अधिक समय तक चल नहीं पाया। आजाद का ध्येय साध्य न हो सका।
'स्वतंत्रता के लिए लडना मुस्लिमों का धार्मिक कर्तव्य है, वह जिहाद है", ऐसा मानकर उन्होंने जिहाद की तैयारी की थी। इसके लिए उन्होंने 1913 में 'हिजबुल्लाह" (अल्लाह का पक्ष) नामके गुप्त संगठन की स्थापना की थी। उसमें भर्ती होने के लिए उन्होंने युवाओं का आवाहन किया था। 'अल्लाह की राह में लडने के लिए मेरे सहयोगी कौन हैं?" इस शीर्षक से पत्रक निकाले गए थे। प्रवेश आवेदन पत्र पर जिहाद की आज्ञाएं देनेवाली कुरान की तीन आयतें छपी थी। कुछ दिनों में ही 800 सैनिकों की भरती हो गई। खलीफा की नियुक्ति भी की गई थी। अल्लाह की कुरान की इच्छानुसार रहनेवाला शासन हिंदुस्थान में स्थापित करना यह इस गुप्त संगठन का अंतिम ध्येय था। परंतु, मौ. आजाद को इस मार्ग में भी सफलता नहीं मिली।
सभी मुस्लिमों को आदेश देनेवाला सर्वाधिकारी 'इमाम" होना चाहिए, ऐसी मौ. आजाद की योजना थी। इस प्रकार का एकाधिकारी इमाम न होने के कारण ही मुस्लिम पिछडे हुए हैं, ऐसा उनका कहना था। उनका यह भी कहना था 'इमाम के अधिकार के बिना मुस्लिमों का जीवन अइस्लामी है।" 'इमाम के सिवाय अन्य कोई भी न बोले। उसकी आज्ञा मुस्लिमों के सिरआंखों पर होना चाहिए। धर्मशास्त्र का योग्य अर्थ निकालकर उस अनुसार इमाम द्वारा फतवे निकाले जाना चाहिए। ऐसा इमाम हिंदुओं से करार कर ब्रिटिशों के विरुद्ध जिहाद करेगा," ऐसी उनकी योजना थी। परंतु, इस प्रकार का इमाम किसे मानें? उनका शिष्य मलीहाबादी कहता है ः 'यह स्पष्ट है कि, मौ. आजाद के अतिरिक्त इस पद के लिए हिंदुस्थान में अन्य कोई अधिक योग्य नहीं था। मैं भी इसी मत का था।" स्वयं आजाद को भी ऐसा इमाम होना था।
परंतु, इसके लिए मुस्लिम समाज से मान्यता मिलना आवश्यक था। परंपरानुसार उलेमा-इमाम होने के लिए 'मदरसा" में धार्मिक शिक्षा लेना आवश्यक था। आजाद कभी भी किसी भी मदरसे में शिक्षा ग्रहण करने गए नहीं थे। उनकी शिक्षा घर पर ही हुई थी। अब क्या करें? इसके लिए आजाद इजिप्त के 'अल-अजहर" मुस्लिम विद्यापीठ के स्नातक हैं इस प्रकार की समझ निर्मित की गई। विद्यार्थी काल में कुछ समय तक आजाद इजिप्त में थे। इस कारण हिंदुस्थान में यह समझ रुढ़ भी हो गई।1940 में महादेव देसाई द्वारा लिखे गए आजाद के चरित्र में भी यह घटना बतलाई गई है। 1958 में आजाद की मृत्यु के समय लोकसभा द्वारा सम्मत की हुई श्रद्धांजली के प्रस्ताव में भी यह घटना बतलाई गई है। मृत्य तक आजाद ने इस बारे में कोई खुलासा किया नहीं था। उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुए उनके आत्मचरित्र में अपन 'अल्-अजहर" के स्नातक नहीं होने का खुलासा उन्होंने किया हुआ है।
'इमाम" के रुप में मान्यता प्राप्त करने के लिए उन्होंने मान्यवर मौलवियों के पास प्रयत्न शुरु किए। इन प्रयत्नों की जानकारी उनके शिष्यों ने ही लिखकर रखी हुई है। देवबंद के मौ. हसन और लखनऊ के मौ. बारी (अलीबंधुओं के गुरु) ने उन्हें मान्यता दी थी। 1921 में उलेमाओं के संगठन 'जमियत उलेमा हिंद" का अधिवेशन लाहौर में आजाद की अध्यक्षता तले होना तय हुआ उस समय इसका निर्णय लेने के लिए एक उपसमिति नियुक्त की गई। परंतु, अधिकृत रुप से मौ. आजाद को हिंदुस्थानी मुस्लिमों के इमाम में रुप में मान्यता कुछ मिली नहीं। इमाम बनकर मुस्लिमों के सर्वाधिकार स्वयं के पास लेने का आजाद का ध्येय भी सफल न हो सका।
ये सारे विचार और ध्येय मन में रखकर मौ. आजाद जीवनभर कांग्रेस के साथ रहे। 1940 के रामगढ़ के कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष पद पर बोलते समय उन्होंने स्पष्ट रुप से जाहीर किया था कि ः '(हिंदू-मुस्लिम प्रश्न के संबंध में) 1912 में मेरे जो विचार थे आज भी वे वैसे ही हैं.... मैं आज उनकी पुनरावृत्ति करता हूं कि, 1912 में मैं ने जो मार्ग दिखलाया था उसे अधिक योग्य मार्ग हिंदुस्थान के 9 करोड मुसलमानों के लिए अन्य कोई सा भी नहीं।" ऐसे थे मौलाना आजाद। इस प्रकार से आधुनिक काल में मुल्ला मौलवियों को और धर्म को राजनीति में लाने का अग्रमान उनकी ओर जाता है।
लेखक -शेषराव मोरे (अप्रिय पण)
अनुवाद ः शिरीष वसंत सप्रे
islam kewal arebiyan rashtrabad hai iske alawa kuchh nahi yaha islam bharat birodh ke adhar par hai inse bharat bhakti ki ummid karna bekufi karna hai.
ReplyDeletevery nice
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