Friday, March 9, 2012

बहुधर्मीय समरसता का मंत्र

भारत में धार्मिक बहुवाद की परंपरा बडी प्राचीन है। प्राचीनकाल से ही अनेक धर्म और उनके अनुयायी इस भूमि पर फल-फूल रहे हैं और समय के साथ उनमें जो सामंजस्य और सहिष्णुता निर्मित हुई है उसीके कारण उनकी विविधताओं में एकता के जो दर्शन होते हैं वैसे दर्शन कहीं और होना अत्यंत दुर्लभ है। इस भारतीय धर्म-धारणा और उनके दर्शन की विविधाताओं में जिस एकता के दर्शन होते हैं उसका अनुपमेय उदाहरण है शिव-परिवार। इस परिवार के प्रत्येक सदस्य के वाहन, विन्यास, प्रतीक और क्रिया-कलापों में एकतरफ तो विषमता है तो दूसरी तरफ अद्‌भूत एकात्मता का सुंदर परिचय प्राप्त होता है।

शिव के बारह ज्योतिर्लिगों में भारत की अखंडता के दर्शन होते हैं। जो उन्हें आदि-देव का रुप प्रदान करते हैं और पत्नी पार्वती को जगतमाताका। उनके बडे पुत्र कार्तिकेय के पास हिंदुओं द्वारा पूजे जानेवाले सभी देवताओं का सेनापतित्व है तो, दूसरे पुत्र गणेश उन सभी देवताओं में सर्वप्रथम पूज्य हैं। लेकिन स्वयं शिव स्मशान विहारी हैं। कार्तिकेय या कार्तिकस्वामी को दक्षिण भारत में सुब्रहमण्यम, मुरुगन, षणमुखम आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। उत्तर भारत में इन्हें ब्रह्मचारी तो, दक्षिण भारत में इनकी दो पत्नियां होना माना जाता है। पहली इंद्रपुत्री देवयानी (जिसके कारण कार्तिकेय को दैवयानैमणालन कहा जाता है) कार्तिकेय से देवयानी का विवाह हो इसकी इच्छा स्वयं इंद्र ने महाविष्णु, ब्रह्मा आदि के समक्ष प्रकट की थी। जिसका सभी देवताओं ने स्वागत किया था। तो, दूसरी पत्नी वल्ली (जिसके पति होने के कारण उन्हें वल्लीमणालन भी कहा जाता है) यह पूर्व जन्म में भगवान विष्णु की पुत्री थी। इन विवाहों के वर्णन का कथानक दुर्गादास स्वामी के संक्षिप्त तमिल स्कंद पुराण में मिलता है। ठीक इसी तरह जहां गणेशजी को उत्तर भारत में विवाहित तो दक्षिण भारत में ब्रह्मचारी माना जाता है। इसी प्रकार से इनके आसपास के वातावरण को देखें  तो हमें दिखाई देगा कि शिवजी गले में सर्प है जिसका शत्रु मोर है जो कार्तिकेयजी का वाहन है और गणेशजी का वाहन चूहा है जिसका शत्रु सांप है चूहा सांप का भोजन भी है। फिर भी ये सब एक साथ एक ही जगह सुख-शांति से सहअस्तित्व को स्वीकारते हुए रह रहे हैं।

शिव के भक्त शैव तो उनके विपरीत गुणधर्म वाले विष्णु के भक्त वैष्णव कहलाते हैं। इन दो प्रमुख संप्रदायों की एकता का प्रतीक है उज्जैन की हरिहर यात्रा तो दक्षिण भारत में हर और हरि के संयुक्त प्रतीक के रुप में स्वामी अयप्पा की पूजा का प्रचलन। इसी तरह से तीन प्रमुख देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिनमें ब्रह्माजी निर्माणकर्ता, भगवान विष्णु पालनहार तो शिवजी संहार के देवता होने के बावजूद इनके संयुक्त प्रतीक के रुप में भगवान दत्तात्रय की पूजा की जाती है। जो हमारी व्यापक सोच-सामंजस्य, सहिष्णुता के साथ ही एकता में अनेकता को स्वीकारने की प्रवृत्ति को दर्शाती है। शिवजी भोलेभंडारी तो भगवान विष्णु चतुर मायावी जिन्होंने शिवजी द्वारा भोलेपन में भस्मासुर को दिए वरदान से जिसके कारण उनके प्राण संकट में आ गए थे की रक्षा के लिए मोहिनी रुप धारण कर भस्मासुर से उनकी रक्षा की। न केवल इनके कार्य परस्पर विरोधी हैं अपितु शिवजी जो गले में सर्प को धारण किए रहते हैं का शत्रु गरुड है जो विष्णुजी का वाहन है और ब्रह्माजी का आसन कमल पुष्प है जो अति कोमल होता है। इन्हीं ब्रह्माजी के पुत्र हैं नारदमुनि जो भगवान विष्णु के भक्त होकर तीनो लोकों में विहार करते हैं और इन तीनों के संपर्क सूत्र का कार्य भी निभाहते हैं। इन तीनों का  सामंजस्य देखिए कि जब ब्रह्माजी रावण की भक्ति से प्रसन्न हो उसे अमरत्व का वरदान दे बैठे तो उसके नाश के लिए विष्णुजी ने भगवान राम का अवतार लिया तो उनके सेवक के रुप में भगवान शिव के अंश हनुमानजी ने जन्म लिया।
विपरीतताओं के बावजूद मॉं शारदा तीनो ही देवताओं की आराध्य हैं। इन्हीं मॉं शारदा ने देवी सरस्वती के रुप में रावण के भाई कुंभकर्ण, जो रावण के साथ ही ब्रह्माजी की भक्ति कर रहा था, द्वारा ब्रह्माजी से वरदान मांगते समय कोई ऐसा वरदान न मांग लिया जाए जो रावण को अमरत्व प्राप्त होने के बाद रक्ष संस्कृति के लिए सहायक सिद्ध हो के निवारणार्थ कुंभकर्ण की जिह्वा पर जा बैठी और कुंभकर्ण छः महीने सोते रहने और केवल छः महीने जागने का वरदान मांग बैठा।  
  
देवी सरस्वती जो ऋगवेद, सामवेद और यजुर्वेद की माता होने के साथ ब्रह्मा की उत्पादक शक्ति है का वर्चस्व जैन धर्म की सोलह विद्या की देवताओं पर है। वाक्‌देवी के रुप में हिंदू, जैन और बौद्धों को समान रुप से पूज्य है। बौद्ध इसे मंजूश्री की आत्मा के रुप में मानते हैं। तो, हंस या मयूर वाहन पर सरस्वती जैन परम्परा में ऋतुदेवी के नाम से विख्यात हैं। पुराणों में इसका संदर्भ ब्रह्मा और विष्णु से बताया गया है। मार्कंडेय पुराण में तो इसे जगद्वात्री के रुप में संबोधित किया गया है।

हमारी मान्यताएं जो सहिष्णुता और सामंजस्य से परिपूर्ण हैं यहीं तक आकर नहीं रुकती वरन्‌ आगे जाकर निरीश्वरवाद तक को अपनी मान्यता के दायरे में ले आती हैं। चार्वाक ने अपने निरीश्वरवाद का उद्‌घोष महांकाल की सीढ़ियों पर बैठकर ही किया था। उनका सिद्धांत था यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत। भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। यह अपने मतों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सहिष्णुतापूर्वक मान्य करने की चरम सीमा है। चार्वाक कोई एक ही व्यक्ति नहीं, जो नास्तिकता के दर्शन को मानता है वह चार्वाक। चार्वाक दर्शन की शुरुआत वेदकाल से मानी जाती है। तो, देवताओं के गुरु बृहस्पति पहले चार्वाकवादी माने जाते हैं। कर्मकांड और बंधनों से समाज को मुक्तता का मार्ग दिखलानेवाले आध्यात्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करनेवाले कुछ चार्वाक भी थे। परंतु, केवल अनियंत्रित स्वतंत्र जीवन का समर्थन न करते समझदार व्यक्ति ने खेती-बाडी, गो-पालन, व्यापार-व्यवसाय और दंड-नीति आदि जैसे सरल मार्ग का अवलंबन कर जीवन की भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करते हुए जीवनयापन करना चाहिए। इस प्रकार का कुछ कथन इन चार्वाकवादियों का है।

उपर्युक्त मीमांसा हमारी सहिष्णुता और आपसी सामंजस्य से उपजी व्यापक सोच को दर्शाने के लिए है और इसके पीछे है हमारी धर्म संबंधी व्यापक संकल्पना। हमारे यहां धर्म कोई बाह्याचार नहीं बल्कि धर्म वह है जिसके पालन से समाज सुव्यवस्थित रहता है। इसके लिए कुछ नियम बनाकर उनका पालन करना होता है। इससे कर्तव्य का बोध होता है। उदा. माता-पिता की सेवा करना हमारा धर्म है, सेवा ही धर्म है, निर्बल की रक्षा करना धर्म है, पशुओं पर दया करना धर्म है, यजुर्वेद में भी कहा गया है 'प्राणी मात्र को मित्र की दृष्टि से देखो" आदि। चूंकि मनुष्य को ही परमेश्वर ने बुद्धि दी है अतः मनुष्य ही अपने मूल प्राकृतिक गुणधर्मों को मोडकर नियंत्रित कर सकता है। उन पर विजय प्राप्त कर सकता है। जो पशुओं के लिए संभव नहीं। इसीलिए तो कहा गया है मनुष्य और पशु में अंतर करनेवाला विभेदक धर्म ही है। इसके लिए मनुष्य कुछ नियम बनाता है जो उसकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करते हैं, पशुओं से मनुष्य के अलगत्व को दर्शाते हैं। इन्हीं नियमों की मदद से मनुष्य समाज का निर्माण करता है और सामाजिक प्राणी कहलाता है। इस आधार पर ऐसी नियमावली को जो समाज या देश को सुचारु रुप से चलाने में सहायक सिद्ध हो को भी धर्म कहा जा सकता है। इस दृष्टि से हम हमारे संविधान को भी इहलोक से संबंधित विभिन्न विषयों पर के नियमों के संकलन के आधार पर आधुनिक धर्म-ग्रंथ कह सकते हैं। लेकिन इस पृथ्वी पर शायद ही कोई ऐसा धर्म हो जिसमें ईश्वर की संकल्पना न हो। इस दृष्टि से तो निरीश्वरवादियों को तो यह सहर्ष मान्य होगा। परंतु, आस्तिकों के लिए उनके ऐहिक जीवन व्यवस्था के नियंत्रक के रुप में ही केवल मान्य होगा। क्योंकि, आस्तिकों की दृष्टि में धर्म यानी इहलोक और परलोक दोनो के कल्याण की व्यवस्था। परलोक के संबंध में या मरणोत्तर अवस्था के संबंध में हर धर्म की श्रद्धा अलग-अलग है। जहां हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है और इसके लिए जीवात्मा अपने कर्मफलानुसार तब तक जीवन ग्रहण करता रहता है जब तक कि उसके पुण्यकर्म इतने प्रबल नहीं हो जाते कि उसको मोक्ष की प्राप्ति हो जाए। वहीं ईसाइयत और इस्लाम की मरणोत्तर जीवन की संकल्पना में जजमेंट डे,  न्याय दिवस, आखिरत है।

संस्कृत में एक श्लोक है - श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वाचैवार्व धार्रयतम्‌। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌।। अर्थात्‌ संपूर्ण धर्म का सार सुनो और सुनकर उसको भली-भांति धारण करो। वह यह कि जिस व्यवहार को तुम स्वयं अपने साथ उचित नहीं समझते, वैसा व्यवहार कभी दूसरों के साथ भी न करो।

इस धारणा और उपर्युक्त विवेचना के आधार पर सहज ही प्रतिपादित किया जा सकता है कि संविधान का पालन सभी के इहलौकिक जीवन यानी अभ्युदय के लिए समान रुप से मान्य होना चाहिए। भले ही पारलौकिक जीवन की निःश्रेयस की श्रद्धाएं भिन्न क्यों न हों और उसके लिए सर्वधर्म समादर की भावना का अंगीकार करना आवश्यक है और यह कहने मात्र से काम नहीं होगा इसके लिए हमें यह स्वीकारना होगा कि भारत एक बहुधर्मीय देश है और भविष्य में भी रहेगा। हमे हमारे धर्मों का पालन करते हुए इसी देश में, इसी देश के संविधान के अंतर्गत रहना है। धर्म की सबकी सब आज्ञाओं का पालन आज के समय में संभव नहीं इस मर्यादा को स्वीकारना होगा। यह सहज संभव हो सके इसके लिए एक दूसरे के धर्मों का अध्ययन कर एक दूसरे के मानस को समझना होगा। हां, यह सत्य है कि दूसरे धर्म का अध्ययन हर किसी के लिए सहज संभव नहीं। क्योंकि, हर एक की अपनी सीमाएं हैं। इसके लिए हर समाज के कुछ प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों को ही आगे आकर एक दूसरे धर्मो का अध्ययन कर उसकी वास्तविकता को समाज के सामने रखना होगा।

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