Sunday, June 28, 2015

बेतहाशा बढ़ती छुट्टियों के कहर से निजात कब मिलेगी, कौन दिलाएगा?
सरकारी कर्मचारियों का कार्यालय से गायब रहना और नित नए बहाने बनाते रहना यह प्रवृत्ति कोई आज की नहीं है। यह प्रवृत्ति कितने लंबे समय से है यह हमें सम्राट चंद्रगुप्त के गुरु चाणक्य, जो एक कुशल राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, आयुर्वेदाचार्य आदि तो थे ही साथ ही एक कुशल प्रशासक एवं समस्याओं का संतोषजनक हल निकालने में भी अत्यंत पारंगत थे के जमाने में भी मौजूद थी इसका पता हमें इस कथा से मिलता है जो आज भी प्रासंगिक है-

चाणक्य को निरीक्षण में यह नजर आया कि सरकारी कार्यालयों में कई बार कर्मचारियों की उपस्थिति बहुत बडे पैमाने पर कम रहती है। पूछताछ करने पर यह पता चला कि अनुपस्थित कर्मचारियों के घर में मॉं अथवा पिता का श्राद्ध है इसलिए वे नहीं आए हैं। अधिक जांच करने पर यह भी ध्यान में आया कि वर्ष में दो-तीन बार मॉं या पिता का श्राद्ध है कहकर कर्मचारी कार्यालय से गायब रहते हैं। चाणक्य के लिए यह कहना तो संभव था नहीं कि श्राद्ध ना करें। क्योंकि, धार्मिक भावना को ठेस पहुंचा नहीं सकते थे। इस पर चाणक्य ने यह मार्ग ढूंढ़ निकाला कि भाद्रपद महीने के अंतिम पंद्रह दिनों को पितृ-पक्ष का नाम देकर उन पंद्रह दिनों में सभी लोग अपने मृत संबंधियों के श्राद्ध करें।

कुछ परिवारों में यदि कोई अडचन हो या श्राद्धकर्म करने के लिए पंडित (ब्राह्मण) उपलब्ध न हो सके तो अंतिम अमावस्या वाले दिन करें और चाणक्य ने उस दिन का नामकरण सर्वपितृ अमावस्या किया। इस प्रकार से बिना किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाए चाणक्य ने इस कामचोरी और कार्यालय से गायब रहने की प्रवृत्ति पर काबू पाया। परंतु, कर्मचारियों के गायब रहने की यह समस्या आज फिर सिर उठाए खडी है। परिस्थितियां यहां तक बेकाबू हो गई है कि कर्मचारी तो कर्मचारी अधिकारी तक गायब रहने लगे हैं और हमारे शासक-प्रशासक इस समस्या से पार पाने के स्थान पर अधिकाधिक छुट्टियां घोषित कर इस देशघातक प्रवृत्ति को क्षणिक लाभवश बढ़ावा ही दे रहे हैं और जनता हैरान-परेशान है एवं भारत दुनिया में सर्वाधिक छुट्टियोंवाला देश बनता चले जा रहा है। नया वर्ष आरंभ होने के समय समाचार पत्रों में यह समाचार बराबर स्थान पाता है कि नए वर्ष में कितनी छुट्टियां रहेंगी और कर्मचारी अपनी छुट्टियों का जोड-बाकी लगाने में भिड जाते हैं।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने पांच दिन का सप्ताह घोषित कर सरकारी कर्मचारियों से यह अपेक्षा की कि वे तरोताजा होकर अधिक काम करेंगे परंतु कोई बदलाव नहीं आया न तो काम करने की गति बढ़ी ना ही जवाबदेही बढ़ी। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद अधिकारियों-कर्मचारियों का वेतन बढ़ा इससे हजारों करोडों रुपयों का बोझ सरकार पर पडा। सरकारी नौकरियां और भी अधिक आकर्षक हो गई। इस वेतन बढ़ौत्री के साथ सिफारिशें समयबद्धता, अनुशासन, कार्यसंस्कृति बढ़ाने। कर्मचारियों की संख्या और खर्चों में कटौती, कागजी कार्यवाही में कमी लाने, जांच अल्पावधि में करने, कार्यकुशलता के आधार पर पदोन्नति, देर से आनेवाले कर्मचारियों पर निगरानी आदि की जाए, की भी थी। परंतु, कर्मचारियों को तो खुश कर दिया गया परंतु, बाकी सिफारिशें उपेक्षित ही रह गई। कार्य संस्कृति में कोई इजाफा नहीं हुआ।

हम अमेरिकीयों की नकल करने में कहीं पीछे नहीं रहना चाहते, नई आर्थिक नीतियों से भी अमेरिकी संस्कृति को ही बढ़ावा मिल रहा है। कई भारतीय तो अमेरिका जाने का, खुद को अमेरिकी कहलवाने का सपना रात-दिन देखते रहते हैं, पाले रहते हैं। परंतु, अमेरिका में छुट्टियां ही नहीं मिलती इस बारे में न तो हम बात करना चाहते हैं न ही उसी तर्ज पर अपनी छुट्टियां कम करवाना चाहते हैं। ऑस्ट्रेलिया जाने का सपना भी बहुत से लोग पाले रहते हैं। वहां जरुर छुट्टियां मिलती हैं परंतु, इतनी नही जितनी हमारे देश में। अमेरिकी तो छुट्टियों के लिए ही तरस जाते हैं। वहां पेड अवकाश भी 'पर्क" है। छुट्टियां मोलभाव का विषय है। वहां की कई कंपनियां 5 से 15 दिन का वेतन सहित अवकाश उपहार के रुप में देती हैं। पाश्चात्य देशों की वैज्ञानिकप्रगति, अनुशासनप्रियता, स्वच्छता की सबसे अधिक प्रशंसा करनेवालों में हम ही सबसे आगे हैं। परंतु, उनकी तरह कर्मप्रधान होने की बजाए सर्वाधिक छुट्टियां मनानेवालों में भी सबसे आगे हम ही हैं।

हमारे यहां साप्ताहिक अवकाश के रुप में रविवार के अतिरिक्त महापुरुषों के नाम पर छुट्टियां चाही जाती हैं। हमारे नेता भी सस्ती लोकप्रियता और वोट बैंक की राजनीति के चलते सत्ता में आते ही अपनी विचारधारा के नेताओं के नाम पर छुट्टियां घोषित करते चले जाते हैं। मानो यह सबका संविधान प्रदत्त हक हो। लेकिन निजी कंपनियों के लोग और मजदूरों को यह नसीब नहीं होती। आपको आश्चर्य होगा कि सप्ताह में एक दिन का अवकाश-रविवार का अवकाश जो हम सबको अति प्रिय है वह भी एक जमाने में भारतीयों को लडकर लेना पडा था और आज से सवासौ वर्षों पूर्व तक तो उन्हें यह भी नहीं मिलता था। रविवार का सबसे पहला अवकाश 10 जून 1890 को मिला था। वह भी अंगे्रज बहादुर की कृपा से नहीं बल्कि नारायण मेघाजी लोखंडे के कारण जिन्होंने इसके लिए ब्रिटिशों से 6 साल तक लडाई लडी थी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद हमें अधिकार क्या मिले हम छुट्टियां मांगते चले जा रहे हैं, मिलती चली जा रही हैं और महत्वपूर्ण काम देरी से होने के कारण राष्ट्रीय हानि हो रही है परंतु हममें से कोई भी परवाह नहीं कर रहा।

व्ही. पी. सिंह प्रधानमंत्री बनने के पूर्व तक पैगंबर मुहम्मद के नाम पर छुट्टी नहीं मिलती थी। अर्जुनसिंह ने अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में सतनामी समाज के संत घासीदास के नाम पर अवकाश घोषित किया था। जिन्हें म. प्र. के अधिकांश लोग जानते तक नहीं थे। लेकिन छुट्टी पूरा प्रदेश मना रहा था। उत्तर प्रदेश सरकार तो इस मामले में सबसे बाजी मार गई है। वहां इस वर्ष 37 शासकीय अवकाश घोषित किए गए हैं और इसके खिलाफ लोग कोर्ट में भी चले गए हैं। इन छुट्टियों को घोषित करने के पीछे यह राजनीति काम करती है कि इस बहाने सरकारी कर्मचारियों-उनके परिवारों के साथ ही कुछ सामाजिक वर्गों को भी प्रसन्न किया जा सके जिन्हें आगे जाकर चुनावों में वोटों में तब्दील किया जा सके। 

आखिर में इन महापुरुषों के नाम पर इतनी सारी छुट्टियों का औचित्य ही क्या है। नेहरुजी और इंदिरा गांधी के जन्मदिन पर तो कोई छुट्टी नहीं होती तो क्या लोग उनको याद नहीं करते या उनके योगदान को भूल गए हैं। नेहरुजी कहा करते थे 'आराम हराम है"। गांधीजी के नाम पर छुट्टी दी जाती है। सच बताइए कितने लोग इस दिन गांधीजी को याद करते हैं और करते हैं तो किसलिए यह 'मुन्नाभाई सीरिज" की एक फिल्म से पता चल जाता है। कितने लोग गांधीजी के बताए रास्ते पर चलने का प्रयत्न करेंगे यह ठानते हैं। यदि ठानते होते तो आज देश में इतनी न तो हिंसा होती न हिंसा प्रधान फिल्में बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड तोडती नजर आती। सभी महापुरुष तो हमेशा कर्मप्रधान रहे, अपने विचारों पर अडिग रहे। उन्होंने आजीवन अपने को देश और समाज के लिए कर्मरत रखा इसीलिए तो आज वे महापुरुष हैं, श्रद्धेय हैं। लेकिन हम उनके नाम पर छुट्टियां चाहते हैं। उसे प्रतिष्ठा का विषय बनाते हैं और छुट्टी मिलने के बाद मौज-मजा, सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं या निठल्ले घर में बैठे रहते हैं। और भूले भटके कभी रविवार को इनके नाम पर मिलनेवाली छुट्टी आ गई तो लोग बडे दुखी हो जाते हैं कि अरे, यार एक छुट्टी फोकट में ही मारी गई।

भारत एक प्रजातांत्रिक देश है इसलिए जो कुछ होता है वह जनसंख्या के आधार पर ही होता है इस आधार पर तो हर 2, 3 करोड का समूह यदि अपने महापुरुषों या धर्म-संप्रदाय के त्यौहारों पर छुट्टी मांगने लगे तो, क्या यह देना संभव है? और यदि नहीं दी इसलिए वे धमकाने लगे ... और दी जाने लगी तो कल्पना कीजिए क्या होगा? क्योंकि, जब हम कुछ महापुरुषों के जन्मदिन पर और उस समूह के धर्म के आधार उसके त्यौहारों पर छुट्टी देते हैं तो इस आधार पर सभी समूहों को छुट्टियां दी जाना चाहिए और इस आधार पर तो मेरे खयाल से शायद और 100 छुट्टियां देना पडेंगी। कुछ विद्वानों के मतानुसार साल के 365 दिन में से हम केवल 150-55 दिन काम करते हैं। इस प्रकार से तो बमुश्किल दो महीने ही काम करेंगे बाकी समय मौज-मजा करेंगे। यह तो संभव नहीं इसलिए बेहतर यही होगा कि इस प्रकार की सभी छुट्टियां निरस्त की जाएं।

इस वर्ष यानी सन्‌ 2015 में केंद्र सरकार की घोषित छुट्टियां हैं 18 और वैकल्पिक 33, 1 मई की छुट्टी अलग से दी हुई है। म. प्र. शासन ने 24 अवकाश सामान्य और 57 वैकल्पिक अवकाश घोषित किए हैं उनमें से तीन लिए जा सकते हैं। केंद्र में तो पांच दिन का सप्ताह है इस आधार पर शनिवार-रविवार के लगभग 104 अवकाश बनते हैं। तो म. प्र. में 77। हडतालें आदि होती रहती हैं और हमारे कुछ चतुर कर्मचारी भाई अपनी छुट्टियों को उस हिसाब से भी एडजस्ट कर लेते हैं इसके अतिरिक्त स्थानीय अवकाश अलग से घोषित होते ही हैं। सी. एल., ई. एल. आदि अलग से हैं। उदा ः. सन्‌ 2012 में बैंककर्मियों ने दो दिन की हडताल की थी उसके पूर्व संलग्न तीन दिनों की छुट्टियां थी एक दिन और छुट्टी ले ली तो बढ़िया फेमिली टूर बनाया जा सकता था और कुछ भाई लोगों ने बनाया भी था। इस वर्ष भी इस प्रकार के बहुत से मजे के अवसर उपलब्ध हैं उसी पर अब नजर डालेंगे। 

जाते हुए वर्ष एवं नववर्ष के आगमन पर कई लोग पूरे साल क्या-क्या करना है, कौनसी उपलब्धियां हासिल करना है की योजनाएं बनाने में लग जाते हैं तो कुछ लोग केवल आनंद ही आनंद के प्लानिंग में छुट्टियों का गणित बैठाने में जुट जाते हैं। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों को जो तडी मारने, लेटलतीफी, काम के घंटों के दौरान गप्पे हांकने या घरेलु काम निपटाने, कामचोरी, आदि में माहिर हैं की छुट्टियों की विपुलता के कारण चांदी ही चांदी है।

1. जनवरी से आरंभ करते हैं नए वर्ष का प्रारंभ ही चार छुट्टियों से हुआ। एक जनवरी को छुट्टी थी 2 को सी.एल ले ली 3,4 (ईद मिलाद उन नबी) शनिवार रविवार था। 23 जनवरी को सुभाष जयंती, 24,25 'वीक एंड" 26 जनवरी को राष्ट्रीय अवकाश। 

2. फरवरी की पहली तारीख को रविवार की छुट्टी थी। 3 को रविदास जयंती। 14, 15 शनिवार, रविवार 16 को या तो तडी मार दी या सी. एल. ले ली तो 17 को महाशिवरात्री का आनंद डबल हो गया। 18 को बहुत से लोग काम के मूड में नहीं रहे इतनी छुट्टियों का आनंद भूले जो नहीं थे। फिर उपवास का भारी फरियाल भी तो किया था। महाराष्ट्र में तो 19 को छत्रपति जयंती के कारण छुट्टी मनाई गई यानी हर एक दिन छोडकर छुट्टियों का लुत्फ उठाया गया। क्योंकि, 21, 22 वीक एंड था। 

3. मार्च की शुरुआत भी रविवार यानी छुट्टी से हुई। 6 को धूलंडी थी फिर वीकएंड था। 21 मार्च गुढ़ी पडवा 22 रविवार छुट्टी।

4. अप्रैल के शुरुआत में ही 2 महावीर जयंती, 3 को गुडफ्रायडे, 4 को शनिवार हनुमान जयंती और 5 को रविवार की छुट्टियां रही। 11, 12 को शनिवार-रविवार था। 13 को एक छुट्टी ले ली तो 14 को फिर अंबेडकर जयंती की छुट्टी थी। 21 अप्रैल को अक्षय तृतीया-परशुराम जयंती की छुट्टी थी परंतु सरकारी कार्यालयों में छुट्टी का माहौल 18-19 के वीक एंड से प्रारंभ होकर पूरे सप्ताह बना रहा और कार्यालयों में कामकाम की शुरुआत धीरे-धीरे 27 से ही हो सकी। सभी कर्मचारी शादी-ब्याह में व्यस्त रहे। सरकारी कार्यालयों में 30 में से 18 दिन छुट्टियों का माहौल बना रहा।  
5. मई की शुरुआत ही छुट्टीवाले दिन से हुई 1 मई मजदूर दिवस, 2, 3 वीक एंड 4 को बुद्धपूर्णिमा की छुट्टी। हाल-फिलहाल जून-जुलाई जरुर छुट्टियों से मुक्त रहेंगे। केवल 18 जुलाई शनिवार को ईद-उल-फितर की छुट्टी रहेगी।

6. अगस्त में 5 रविवार हैं। 15 अगस्त के बाद 16 को रविवार की छुट्टी है। यदि 17 को कुछ एडजस्ट कर लिया गया तो 18 को पतेती (पारसी नववर्ष) की छुट्टी (महाराष्ट्र में) है ही। कुल 8 छुट्टियां हैं।  

7. 5 सितंबर शनिवार जन्माष्टमी।17 सितंबर को गणेश चतुर्थी है 19-20 वीक एंड 18 को जुगाड जमा ली जाए तो संलग्न 4 छुट्टियां। यही हाल 24 से 27 तक का है । 24 या 25 को ईदुज्जहा 26, 27 वीक एंड।  इस प्रकार की संलग्न मिलनेवाली छुट्टियों के कारण कई माता-पिता यह भी सलाह देते मिल जाते हैं कि अपने बच्चों को अपने शहर के निकट के शहर में  यदि संभव हो तो पढ़ने मत भेजो। यदि भेजना ही हो तो दूर ही भेजो या भेजो ही मत क्योंकि साल भर में कई बार इस प्रकार की संलग्न छुट्टियों के कारण बच्चे बार-बार घर चले आते हैं पढ़ाई का तो नुक्सान होता ही है पैसा भी बेजा खर्च होता है। मेरे एक शिक्षाविद मित्र के अनुसार उनके 47 साल के शैक्षणिक अनुभव का निचोड यह है कि साल भर में किसी भी हालत में 180 दिन से अधिक स्कूल लगते ही नहीं तो कोर्स कैसे पूरा होगा। शिक्षक बच्चों को उनका पाठ्यक्रम पूर्ण करवाएं कैसे? 

8. अक्टूबर 2 शुक्रवार को गांधी जयंती है 3, 4 वीक एंड है यानी 3 दिन छुट्टियों के। 22 को दशहरा है 23 को कार्यदिवस कैसे जाएगा यह बतलाने की आवश्यकता नहीं ! 24 (मोहर्रम), 25 वीक एंड और 27 को वाल्मिकी जयंती।

9. नवंबर छुट्टियों का महिना है। 1 को रविवार है और कुल 5 रविवार हैं इस महिने में। 7, 8 वीक एंड है। 9 तारीख धनतेरस से दीपावली प्रारंभ हो रही है, 10 को नरक चतुर्दशी या रुपचौदस है, 11 को लक्ष्मी पूजन, 12 को बलिप्रतिपदा या पडवा, गोवर्धन पूजा है, 13 को भाईदूज। 14, 15 वीक एंड। संलग्न 9 दिन छुट्टियों का आनंद उठाने के बाद 16 को या तो सरकारी कर्मचारी हमेशा से अधिक लेट आएंगे या आएंगे ही नहीं, पूछनेवाला भी या तो आएगा नहीं आ भी गया तो पूछने की जहमत नहीं उठाएगा उसे भी सब मालूम है, आदत में आ गया है। कर्मचारी आ भी गए तो दीवाली कैसी रही पर गंभीर चर्चा करेेंगे। काम का माहौल बनते बनते ही बनेगा, जनता भी अब समझदार हो गई है वह भी एक दिन और सही कहकर धका लेगी। इतने पर ही बस नहीं अभी तो दो वीक एंड और 25 नवंबर को गुरुनानक जयंती की छुट्टियां बाकी हैं।

10. साल जाते जाते भी कर्मचारियों पर मेहरबान है। 24 गुरुवार को ईद मिलाद दूसरी बार आई है। 25 को क्रिस्मस 26, 27 वीक एंड। इन सब का परिणाम जनता के काम न होने के रुप में सामने आता है। एक तो कई कर्मचारी गायब रहते हैं ऊपर से कई विभागों में तो सतत बैठके होती रहती हैं अधिकारीयों को उसमें भाग लेना रहता है इस कारण से भी जनता के काम रुकते हैं। इसलिए छुट्टियों पर नियंत्रण आवश्यक है। इस लेख में 'वीक एंड" का उल्लेख इसलिए बार-बार किया गया है क्योंकि जहां पांच दिन का अवकाश नहीं होता वहां भी शनिवार को छुट्टी हो या नहीं सरकारी ऑफिसों में काम नहीं होगा यह मानसिकता ही अब बन सी गई है और जनता भी अपेक्षा नहीं करती कि इस दिन कुछ काम होगा। बेहिसाब छुट्टियों का यह सिलसिला बरसों से चला आ रहा है इस वर्ष भी है और आनेवाले वर्ष का आगाज भी छुट्टियों से ही होनेवाला है। 2,3 जनवरी वीक एंड है। 
कई छुट्टियां तो ऐसी हैं कि जो मिलना ही नहीं चाहिए या केवल उन्हें ही मिले जो संबंधित हैं। उदाहरणार्थ ः पारसियों के नववर्ष 'पतेती" की छुट्टी। इस संबंध में पहली बात तो यह है कि सरकारी नौकरियों में पारसी हैं ही कितने और उनकी आबादी है ही कितनी और जो है वह देश के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है और कितने बहुसंख्य समाज के लोग इस बारे में जानते हैं या उसमें सम्मिलित होते हैं। यही बात मुस्लिम या ईसाई समुदाय के त्यौहारों के संबंध में भी कही जा सकती है। कितने हिंदू बकरा ईद मनाते हैं। सरकार चाहे तो इन समुदायों को अलग से छुट्टी दे या उस दिन अन्य कोई विशेष सुविधा भी दी जा सकती है जैसेकि अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में दीपावली के दिन पार्किंग फ्री होती है। मेरे मत से तो रविवार के अतिरिक्त राष्ट्रीय त्यौहारों के नाम पर 15 अगस्त और 26 जनवरी की ही छुट्टियां यानी कुल मिलाकर दो छुट्टियां हों इसी प्रकार बहुसंख्य लोग किसी ना किसी रुप में दीवाली मनाते हैं या इस त्यौहार से जुडे हुए हैं अतः इन त्यौहारों पर दो या तीन दिन की छुट्टी दी जाना चाहिए बाकी सभी छुट्टियां समाप्त कर दी जाना चाहिएं। जिन्हें यह मान्य नहीं वे अपना वेतन कटवाएं और लें छुट्टियां।   
 वर्तमान में हो यह रहा है कि बेचारी जनता कर कुछ नहीं सकती, मन ही मन कुढ़ती रहती है। हैरान-परेशान होती रहती है। रिश्वत देने के बाद भी समय पर काम इन छुट्टियों की विपुलता के कारण होता नहीं है और यदि रिश्वत नहीं दी तो इन छुट्टियों का उपयोग हथियार के रुप में करने में सरकारी अधिकारी-कर्मचारी माहिर हैं। इन बेतहाशा बढ़ती छुट्टियों के कहर के कारण कार्यदिवस की हानि होती है, कार्यसंस्कृति का ह्रास होता है इसलिए जनता तो चाहती है कि छुट्टियां कम हों परंतु, एक भी कर्मचारी संगठन जो वेतन एवं सुविधा वृद्धि के नाम पर एकजुट हो अपनी मांगे मनवाने पर उतारु रहते हैं वे भूले से भी अपने संगठन के सदस्यों को ईमानदारी और तेज गति से काम करो, छुट्टियां कम करो, कार्यालयीन समय में गायब मत रहा करो कि अपील करते कहीं नजर नहीं आते हैं। ना ही सरकार से कभी कहते हैं कि हमारी छुट्टियों में कमी की जाना चाहिए जिससे कि सरकारी काम तेज गति से हों।
हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को एक वर्ष पूर्ण हो चूका है और जब उन्होंने पूरे वर्षभर में एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है और सतत परिश्रम कर रहे हैं तो, इन सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों, उनके संगठनों और साथ ही बात बे बात छुट्टियां घोषित करनेवाले नेतागणों को भी तो कुछ सोचना चाहिए। लेकिन वे सोचते नजर आते नहीं। अतः अब केंद्र सरकार ही सबसे पहले पहल करे और बिना किसी की परवाह किए राष्ट्रीय हित में तत्काल छुट्टियों में कटौती प्रारंभ करे। कर्मचारियों के गायब रहने, लेटलतीफी के प्रति सख्ती दिखाए। देखिए कितने शीघ्र देश की सूरत बदली हुई नजर आने लगेगी।

Saturday, June 20, 2015

योगशास्त्र पर सावरकरजी के विचार

सावरकरजी की योगशास्त्र में रुचि युवावस्था में ही हो गई थी। उनके काव्य 'सप्तर्षि" और 'माझी जन्मठेप" (मेरा आजन्म कारावास) में योगशास्त्र का उल्लेख मिलता है। स्वामी विवेकानंद का राजयोग उनका प्रिय ग्रंथ था। स्नान के बाद ध्यानधारणा करना उनका नित्यक्रम था। उन्होंने अखिल हिंदू ध्वज पर कृपाण के साथ कुंडलिनी को स्थान दिया था।

योगशास्त्र - मानव को एक वरदान

योगशास्त्र का वर्णन मानवी जीवन को एक श्रेष्ठ वरदान के रुप में किया जा सकता है। इस प्रयोगाधारित शास्त्र को हिंदुओं ने पूर्णत्व तक पहुंचाया है।
योगशास्त्र मनुष्य की आंतरिक शक्तियों के संपूर्ण विकास का एक सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है।

व्यक्तिगत अनुभवों का शास्त्र

योगशास्त्र व्यक्तिगत अनुभवों का शास्त्र है इसलिए उसमें मतभेद को स्थान नहीं।

गुप्त नहीं शास्त्र है
योग गोपनीय न होकर एक शास्त्र है।

मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ ध्येय

योग को आचरण में लानेवाले मनुष्य में आश्चर्यकारी, इंद्रियातीत और उत्कंट प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस अवस्था के बारे में योगी कैवल्यानंद कहते हैं - वज्रायनी महासुख। अद्वैती ब्रह्मानंद और भक्त प्रेमानंद कहते हैं - यह सर्वश्रेष्ठ आनंद प्राप्त कर लेना मनुष्य का फिर वह हिंदू या अहिंदू, आस्तिक हो या नास्तिक, नागरिक हो या वनवासी हो, सर्वश्रेष्ठ ध्येय है। (वि. दा. सावरकर)

Monday, June 15, 2015


अधिकस्य अधिकम्‌

वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद की संकल्पनाओं के कारण सारी दुनिया में कुहराम मचा हुआ है। इसके कारण उपभोक्तावाद भी बहुत तेज गति से बढ़ा साथ ही फुजूलखर्ची, भ्रष्टाचार, बिनाकारण खर्च करना की प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी,  विपुलतावाद, मौज-मजा की संस्कृति ने पांव फैलाना प्रारंभ कर दिया, मितव्ययिता शब्द ही मानो परिदृश्य से गायब होता चला जा रहा है। राजनैतिक, सामाजिक, स्वास्थ्य-परीक्षा, शैक्षणिक आदि सभी क्षेत्रों में इस प्रवृत्ति ने पांव फैलाना प्रारंभ कर दिया है। अधिकस्य- अधिकम्‌ की होड मची है।

विदेशों में लोग सप्ताह में पांच दिन 14 से 15 घंटे जमकर काम करते हैं फिर बचे हुए दो दिनों में 'वीक एंड" मनाते हैं। उसके लिए किसी शांत स्थान पर जाना वे पसंद करते हैं। वहां मौज-मजा, खाना-पिना करते हैं, कमाए हुए पैसे को खर्च करते हैं और आकर फिर काम में जुट जाते हैं। हमने केवल उत्तरार्ध स्वीकारा है। (कारपोरेट क्षेत्र में काम करनेवाले लोग अपवाद हैं) एक तो हमारे यहां मिलनेवाला वेतन या काम-धंधे से होनेवाली आय विदेशों की तुलना में कम है जिसमें जैसे-तैसे गुजारा हो सकता है। सिवाय बेरोजगारों की फौज फालतू घूम रही है। हमारे यहां कई अधिकारी-कर्मचारी बडी शान से यह कहते मिल जाएंगे कि मजे की नौकरी है कोई टेंशन नहीं अब ऐसे लोगों को क्या कहें? लेकिन प्रत्येक को कम से कम कष्ट उठाकर अधिक से अधिक ऐशोआराम चाहिए  और इसके लिए कुछ भी करने को लोग तैयार हैं इसीके कारण भ्रष्टाचार और लूट की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। अच्छे, ईमानदार लोग एकाकी, उपेक्षित और उपहास के पात्र बनते जा रहे हैं।

इस मौज-मजा की संस्कृति को फिल्में, टी. व्ही. और उनपर आनेवाले विज्ञापन बढ़ावा दे रहे हैं जिनका बहुत बडा प्रभाव आज के युवाओं पर नजर आ रहा है। फिल्मी अभिनेता-नेत्री किस प्रकार का व्यवहार करते हैं, कौनसी फैशन करते हैं, कैसे गहने, कपडे पहनते है इसी पर उनका ध्यान है। चित्रपट बाजार में आते ही या कोई सा सीरियल लोकप्रिय होते ही उसी नाम के गहने, कपडे बाजार में बिकने लगते हैं। बाजार, शॉपिंग मॉल, बडे शोरुम में बिना जेब की परवाह किए खर्च किए जा रहे हैं। फास्ट फूड संस्कृति ने घर-घर में प्रवेश कर लिया है।  घर के भोजन के बजाए होटलों में जाने का कल्चर बढ़ रहा है। कई परिवार तो छुट्टी के दिन बाहर ही भोजन करते हैं। ग्रामीण क्षेत्र भी अछूते नहीं रहे हैं वहां भी ढ़ाबे में जाकर भोजन करने की पद्धति रुढ़ हो रही है।  

आवश्यकता हो या न हो नए-नए दोपहिया वाहन वह भी महंगे से महंगे लेने का रुझान बढ़ रहा है साथ ही कई मोबाईल एक साथ रखना और उन्हें सतत बदलते रहना का चलन भी क्या शहर और क्या गांव दोनो में ही बढ़ता चला जा रहा है। आज हर एक के हाथ में मोबाईल है यह बात अलग है कि वे इसका सदुपयोग कितना और दुरुपयोग कितना करते हैं। इस मोबाईल ने मनुष्य के सारे जीवन को ग्रसित कर लिया है सभी जानते हैं कि इस मोबाईल से हमें लाभ कम हानि अधिक हो रही है फिर भी इसको प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया गया है। अधिकांश बच्चे और युवा इस पर 24 घंटे चॅटिंग करने में लगे रहते हैं या गेम खेलते रहते हैं। सुविधाएं स्वीकारने की प्रवृत्ति भी बढ़ती ही जा रही है एकने किया इसलिए दूसरे को भी वह आवश्यक लगने लगता है।

 भौतिक सुख सुविधाएं हमारे लिए ही हैं परंतु हम उनके कितने अधीन हों यह हम नहीं संबंधित कंपनियां तय कर रही हैं। रोकडा  नहीं हों तो क्रेडिट कार्ड है इस कारण अनावश्यक खरीदी और जो नहीं चाहिए वह हम स्वीकारते हुए ऑफर्स की बलि चढ़ रहे हैं।  इस क्रेडिट कार्ड के कारण पैसा खर्च करते समय में मन में जो टीस उठती है वह नहीं उठती और कितना पैसा खर्च हो गया का भान हमें नहीं रहता। देशी पौष्टिक पेय गन्ने का रस, छाछ, दूध, लस्सी, फलों का रस पीने के स्थान पर पेप्सी और कोला जैसे पेयों की खपत अधिकतम होती जा रही है। आम का रस पीने के स्थान पर कंपनियों का आम से बना ठंडा पेय हमें पसंद होते चले जा रहा है। सारी दुकानें यहां तक की पान की दुकान तक पर यह उपलब्ध हैं और खपत इतनी अधिक है कि उनकी शॉर्टेज भी होती है। एक लीटर दूध की कीमत इन पेयों से कम है परंतु, पीनेवाले गायब हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में कई गांवों में पिने के पानी के लिए महिलाओं को मीलों भटकना पडता है जहां जलयोजनाएं आज तक पहुंच नहीं सकी हैं ऐसे क्षेत्रों में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीतल पेय, चीप्स-वेफर्स बडी सहजता से उपलब्ध हैं। यह किस बात का द्योतक है।

 बाजारवाद के केंद्र में है उपभोक्ता यानी कंज्यूमर और कंज्यूमर कंज्यूम करेगा तभी तो उत्पादन बढ़ेगा एवं उत्पादन और खपत बढ़ेगी तभी कंपनियों को लाभ होगा इसलिए कंपनियां उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए ग्राहक की क्रय शक्ति हो या न हो उसे कर्ज मुहैया कराने में पीछे हटती नहीं हैं और लोग भी अधिकाधिक सुविधाएं जुटाने के लिए कर्ज लेकर कर्ज में डूबते चले जा रहे हैं। हमारा पुराना अनुभव सिद्ध मंत्र 'जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारो" को हम भूल जाएं इसलिए वे 'जितने चाहे पांव पसारो चादर हम दे देंगे" का लालच दिखाकर हमें उपभोगवादी बनाने पर तुले हैं। वे इस प्रकार के विज्ञापन बडे ही सुनियोजित ढ़ंग से दिखा रहे हैं कि यदि आपने फलां-फलां वस्तु का उपयोग नहीं किया तो लोग आप पर हंसेंगे और हम भावनाधीन हो बलि चढ़ रहे हैं। कारपोरेट क्षेत्र के लोगों को छोड बाकी लोगों की आय इतनी नहीं कि वे इस उपभोगवादी संस्कृति को स्वीकारे परंतु, वे स्वीकारते चले जा रहे हैं और अपना सुख-चैन खोते जा रहे हैं। इस झूठे नशे के अधीन हो उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है, वे पतन की और बढ़ रहे हैं एवं कई संयम खोने के कारण आत्महत्या की ओर भी बढ़ जाते हैं।

ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी अपार धनराशी के बलबूते और साम-दाम-दंड-भेद की नीति को अपना स्थानीय व्यापार, उद्योगों को समाप्त कर देना चाहती हैं। एक बार यहां का व्यापार-उद्योग-धंधा ठप्प हुआ कि ये ग्राहकों को विकल्प ना होने के कारण मनमाने भाव पर सामान बेचेंगी। इसके लिए वे ऑफर्स का सहारा ले रही हैं हम हमारे बचत के मंत्र को भूल रहे हैं। हमें पुराने मंत्र बचाते रहो बचाते रहो के संदेश का अवलंबन कर इसका प्रचार करेंतो अधिक बेहतर होगा।   

हमारे राजनेता भी इस उपभोगवाद को बढ़ा रहे हैं। हर चुनाव के समय जो की लगभग साल भर ही चलते रहते हैं। युवाओं को साथ लेकर उन्हें जो चाहिए वह दिया जाता है और युवा भी मुफ्त में मिल रहा है इसलिए महंगा भोजन, शराब, पान-गुटखा सिगरेट का सेवन करने लगते हैं व्यसनाधीन हो जाते हैं और जब चुनाव के बाद यह सब मिलता नहीं तो गलत रास्ते पर निकल पडते हैं। यदि अपराधों पर नजर डालें तो दिख पडेगा कि समाज के सभी स्तरों के युवक अपराधों की ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं। बात इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि मां या दादी बेजा खर्च के लिए पैसे ना दे तो वे हत्या तक कर गुजरते हैं। राजनैतिक दल जनता की सभी अपेक्षाओं को तो पूरा कर नहीं सकते और उम्मीदवार को तो चुनाव जीतना है इसलिए वह सुविधाएं लोगों को बांटकर वोट कबाडता है। एक प्रकार से यह भी तो मुफ्त में मौज मजा की संस्कृति को बढ़ावा देने का एक एक्सटेंशन है। परिणाम सभी जानते हैं भ्रष्टाचार।

यदि मौज-मजा संस्कृति को स्वीकारना ही है तो हमें अपनी आय बढ़ाना होगी। परंतु, हमारे यहां इतने अवसर नहीं। सिक्स्‌थ पे कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में वेतन अवश्य अत्यंत आकर्षक हो गए हैं परंतु वह नौकरियां मिलना आसान नहीं और कारपोरेट कंपनियों को छोडकर अन्य नौकरियों में कोई वेतन कोई खास नहीं। अब पीछे भी जा नहीं सकते पुराने जमाने की मितव्ययिता से गुजारा करना भी संभव नहीं। जो है उसे स्वीकारते हुए एक ही रास्ता बचता है वह है अधिकाधिक मेहनत, मेहनत और कठिन मेहनत। हम अमेरिका में तो हैं नहीं जहां की अर्थव्यवस्था अधिकाधिक खर्च पर चलती है, वहां क्रेडिट कार्ड के बलबूते लोग जीते हैं, साथ ही सरकार की ओर से सोशल सिक्योरिटी होने के कारण नौकरी या आय के साधन नहीं मिलने पर कोई भूखा नहीं मरे इसकी व्यवस्था सरकार करती है। परंतु, हम तो बचत पर निर्भर हैं, उसे ही बढ़ाना होगा जितना संभव हो सके बचाएं। यह ना भूलें कि हमारे यहां सोशल सिक्योरिटी सरकार की ओर से नहीं है। यदि नहीं समझे तो फिर घर फूंक तमाशा ही होगा लेकिन यह भी कितने दिन चलेगा। इसलिए मेहनत का मार्ग स्वीकारें, मौज मजा को नियंत्रित रखें। अपनी आवश्यकताओं को बेजा बढ़ाएं नहीं।

Saturday, June 6, 2015

आचरण बदलने पर ही स्वच्छ भारत का सपना साकार हो सकेगा
प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के एक वर्ष पूर्ण होने पर मीडिया में जो व्यापक चर्चाएं आयोजित की गई थी उन्हें देख-सुनकर ऐसा लगने लगा मानो देश में ऐसा कुछ अभूतपूर्व घटित हो गया है जैसाकि आज तक घटित नहीं हुआ है। हां, ऐसा अभूतपूर्व कुछ घटित हो सकता था यदि मोदी की महत्वाकांक्षी घोषणा स्वच्छ भारत सफल हो जाती तो। परंतु, वह तो बुरी तरह असफल हो गई है जो खुली आंखों दिखाई पड रहा है और इसके जिम्मेदारों में हम आम लोग भी हैं जिनमें से कई सरकार की उत्तमता का प्रमाणपत्र  दे रहे हैं साथ ही मोदी के पार्टीजन भी हैं जिन्होंने अपनी हरकतों से इस बहुउपयोगी महत्वाकांक्षी योजना का मजाक बना कर रख दिया। पार्टीजन मोदी से प्रेरणा ले यदि ईमानदारी से इस अभियान को सफल बनाने में जुट जाते तो वास्तव में यह एक ऐसा महान ऐतिहासिक कार्य होता कि सरकार गर्व से कह सकती थी कि सरकार का एक वर्ष का कार्यकाल अभूतपूर्व रहा है और सारी दुनिया भी अपनी स्वीकृती बडी प्रसन्नता से देती एवं बाकी सारे ऐब, असफलताएं इस आड में छुप जाती जो आज विपक्ष उघाडने पर उतारु है और ऐसी स्थिति में जनता भी विपक्ष की इन आलोचनाओं को कोई खास तवज्जो नहीं देती। क्योंकि, स्वच्छता के लाभ उन्हें नजर आने लगते।

पार्टीजन यदि इस मुद्दे पर गंभीरता पूर्वक कार्य करने की ठानते तो उनके ध्यान में आता कि स्वच्छता के लिए दो पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। पहला प्रशासन और दूसरा आम नागरिक जिन्हें चाहे जहां कचरा फैलाने में महारत हासिल है इसमें उन्हें कोई संकोच नहीं होता ना ही ऐसा कुछ लगता है कि यह गलत है। प्रशासन की दृष्टि स्वच्छता के मामले में कैसी है यह तो जगजाहिर है। मोदी के आवाहन पर स्वच्छता अभियान से जुडे सेलेब्रिटिज की भूमिका तो स्वयं को चमकाने की यानी लाइम लाइट में रहने की ही रही। और सोशल मीडिया वीर तो स्वच्छता के संदेश को शेअर, फॉरवर्ड करने तक ही सीमित रहे, झाडू हाथ में लेना भूल गए। जो आए भी उन्हें आगे मार्गदर्शन नहीं मिला। प्रारंभ में उत्साह से जुडे लोग बाद में कौन छुट्टी के दिन हम्माली करे की भावनावश धीरे से दूर हो गए। 

पार्टीजन यदि स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने के लिए जनता से नियमित संपर्क में रहते, स्वच्छता अभियान में सततता बनाए रहते तो उन्हें कई ऐसे लोग नजर आ जाते जो कई छोटी-छोटी बातों को आचरण में लाकर अपने आसपास के परिसर को स्वच्छ रखने में योगदान देते हैं। उदाहरणार्थ मेरे एक मित्र जो डॉक्टर हैं और स्पूतनिक परिवार से संबद्ध भी होने के साथ ही स्पूतनिक की नीति लोग शौचालय एवं स्वच्छता के प्रति जागरुक हों से इत्तिफाक भी रखते हैं का दृष्टिकोण एवं व्यवहार अनुकरणीय है। वे अपनी दुकान (क्लीनिक) एवं उसके सामने के फुटपाथ को स्वयं स्वच्छ तो करते ही हैं साथ ही दिन भर उड-उडकर आनेवाले कचरे को समय-समय पर स्वयं ही उठाकर डस्टबिन में डालते रहते हैं और अपने सहायक के द्वारा या स्वयं ही निकट की कचरा पेटी के अंदर डाल भी आते हैं। फैंकी हुई चाकलेट की जिलेटिन या जर्मन पन्नियों या दवाइयों की स्ट्रीप्स को अलग से एकत्रित कर उसकी गोल गेंद के रुप में स्क्रब बना बरतन साफ करने के उपयोग में भी लाते हैं। 

जबकि अधिकांशतः होता यह है कि सभी व्यवसायी, दुकानदार प्रतिदिन सुबह दुकान या अपना प्रतिष्ठान खोलते से ही दुकान की स्वच्छता के साथ ही साथ अपनी दुकान के सामने के फुटपाथ को भी झाडू से साफ अवश्य करते हैं जिससे उनकी दुकान के सामने स्वच्छता नजर आए। परंतु, अधिकांश मामलों में यह देखा जा सकता है कि वे सारा कचरा एक ढ़ेर बनाकर दुकान से थोडा दूर सामने के एक कोने में यह सोचकर एकत्रित करके रख देते हैं कि चलो हमारी दुकान के सामने तो स्वच्छता है। परंतु, होता यह है कि थोडी ही देर में वही कचरा आनेजानेवाली गाडियों या हवा के चलने या पैदल चलनेवालों के पांवों के कारण फिर से फैल जाता है और उड-उडकर दूकानों के सामने या अंदर आने लगता है। कुछ लोग तो इस मामले में और भी अधिक होशियारी दिखाते हैं। वे अपनी दुकान या घर के सामने का कचरा दूसरे की दुकान या मकान के सामने एकत्रित करके रख देते हैं।

पार्टीजन उपर्युक्त प्रकार के उदाहरण देकर उन व्यवसायियों को बता सकते कि यदि वे वास्तव में स्वच्छता चाहते हैं और अपनी दुकान के साथ ही साथ आसपास का परिसर भी स्वच्छ रहे तो इसके लिए उन्हें यह कचरा डस्टबिन में एकत्रित कर उसे निकट की कचरा पेटी के अंदर डाल आना चाहिए। चूंकि, वे इतनी जहमत उठाते नहीं हैं और इस कारण बाजारों में स्वच्छता नजर आती नहीं है। वे उन्हें बता सकते हैं कि, इस प्रकार से विचार करें तो और भी कई छोटी-छोटी बातें हमें करने लायक नजर आ जाएंगी जिन्हें आचरण में लाकर हम स्वच्छ भारत अभियान को सफल बना सकते हैं। इस तरह की बातों को हिकारत की नजरों से ना देखें, आचरण में लाएं। 

मेरा तो अनुभव यह है कि अधिकतर पढ़े-लिखे व्हाईट कालर वाले लोग ही इस प्रकार के कार्य को हिकारत की नजर से देखते हैं। यही लोग गरीबों को गंदगी, अस्वच्छता, कचरा फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं और अपने आचरण की ओर ध्यान देना या किसीके द्वारा आकर्षित किए जाने को अपनी तौहीन समझते हैं। उदाहरण के लिए कार में सफर करते समय पानी पीकर बोतल  चलती कार से बाहर सडक पर ही फैंक देते हैं। पापकार्न या अन्य कोई फास्ट फूड खाकर पैकेट या कागज की प्लेट आदि सडक पर फैंक देना आदि इसीमें शुमार होता है। इंदौर में एक वकील हैं वे हमेशा अपनी कार में एक डस्टबिन रखते हैं जिसमें वे सफर के दौरान किसी भी तरह का कचरा फिर वह फालतू कागज का टुकडा या केले का छिलका ही क्यों ना हो डाल देते हैं और बाद में गंतव्य या घर पहुंचने पर उसे कचरा पेटी के हवाले कर देते हैं। 

गरीबों के पास तो साधन, स्थान की कमी है इसलिए वे घर के बहुत से कार्य जैसे बर्तन मांजना, कपडे धोना यहां तक कि स्नान तक सडक से लगे घर के ओटलों पर करने के लिए बाध्य हैं। कभी-कभी वे अशिक्षा एवं अज्ञानवश भी ऐसे कुछ कार्य कर जाते हैं जिनसे अस्वच्छता फैलती है। परंतु, पढ़े-लिखे लोग स्वयं भी अस्वच्छता फैलाने में कुछ कम नहीं कई लोग रात का बचा हुआ भोजन गाय को खिलाने के नाम पर दूसरों के गेट के सामने बडे आराम से प्लास्टिक की थैली में बांधकर फैंक देते हैं इससे क्या हानि हो सकती है इस पर कई बार लिखा जा चूका है फिर भी ये लोग सुधरने का नाम ही नहीं लेते।

कचरा और गंदगी फैलाने में चाय, चाट-पकौडी के स्थान भी अग्रणी हैं। चाय पीने के डिस्पोजेबल प्लास्टिक के कप, दौने आदि बहुत अहम भूमिका निभाते हैं जिन्हें हम ही वहीं स्थित कचरा पेटी में डालने के स्थान पर उपयोग के पश्चात सडक पर ही फैंक देते हैं। सडक पर खाते हुए चलते-चलते पैकेट या कागज कहीं भी फैंक देना हमारी आदतों में शुमार है। युवा भी इस मामले में किसीसे पिछे नहीं। वे कागज, डिस्पोजेबल पेन, प्लास्टिक पैकेट, बोतलें, गुटके-सिगरेट के पैकेट, टुकडे, लायटर, चाकलेट के रैपर चाहे जहां फैंक देते हैं। बूढ़े भी कुछ कम नहीं वे चाहे जहां खंखाकर थूक देते हैं, सार्वजनिक वॉशबेसिन, मूत्रालयों में तो यह सहज ही दिख पडेगा कि थूके हुए पान-तंबाकू से लेकर थूक-कफ तक पडा हुआ है। 

वस्तुतः स्वच्छ भारत के नाम पर सभी ने औपचारिकता निभाई इस कारण स्वच्छता के नाम पर चारों ओर केवल शोर सुनाई पडा, अस्वच्छता वैसी की वैसी ही बरकरार है।