Friday, May 30, 2014
Wednesday, May 28, 2014
28 मई वीर सावरकर जयंती
यात्रा वृतांत - आधुनिक तीर्थक्षेत्र ः 'अंदमान की सेल्यूलर जेल"
'वनवास" शब्द का उच्चारण करते ही जिस प्रकार से हर हिंदू के मानस में भगवान श्रीरामचंद्रजी का स्मरण हो आता है, ठीक उसी प्रकार से 'अंदमान" शब्द सुनते ही स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी का स्मरण हो आता है। ऐसे इस अंदमान की यात्रा करने का सौभाग्य अचानक मुझे मिला इसका श्रेय माननीय राज्यसभा सदस्य (सांसद) श्री अनिल माधव दवेजी को जाता है। जिन्होंने बीते कुछ वर्षों से यह नियम सा बना रखा है कि प्रतिवर्ष कुछ लोगों को अंदमान की यात्रा पर ले जाकर वे वहां क्रांतिकारियों का महातीर्थ सेल्यूलर जेल की 'सावरकर कोठरी" (सावरकरजी ने अपने काव्य 'सप्तर्षी" में इस कोठरी का उल्लेख 'एकलकोंडी" (एकांतवासी) के रुप में किया है) के दर्शन उन्हें कराते हैं। जिससे कि यात्रीगण उन कष्टों, भीषण यंत्रणाओं के ताप की कल्पना कर सकें, जो उन्होंने वहां सहे, भोगे। उनके त्याग को महसूस कर सकें जो उन्होंने देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किए। देश को स्वतंत्रता ऐसे ही नहीं मिल गई। इसके पीछे क्रांतिकारियों का त्याग, बलिदान भी अहम् था। इस सेल्यूलर जेल में अनेक क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की यंत्रणाएं सहते हुए, उनका विरोध करते हुए हौतात्म्य स्वीकारा। सावरकर ठीक ही कहते थे - क्रांतिकारियों की हड्डियों पर बसा है अंदमान।
हमारी यात्रा 26 अप्रैल को प्रातः प्रारम्भ हुई। हम कुल 9 लोग थे। 9 बजे दिल्ली विमानतल से हमने जेट एयरवेज द्वारा अंदमान के लिए प्रस्थान किया और लगभग 2 बजे दोपहर को अंदमान की राजधानी पोर्टब्लेयर के 'वीर सावरकर विमानपत्तन" पर पहुंचे। वहां से हम होटल सरोवर पोर्टिको पहुंचे जो शहर से दूर स्थित होकर सामने ही 'सी बीच" है। जहां हम हर रात को भोजनोपरांत जाकर कुछ समय तक समुद्री लहरों के उतार-चढ़ाव, उनकी गर्जनाओं को सुनते बैठे रहते। कहते हैं व्यक्ति हर चीज से कुछ समय के पश्चात ऊब जाता है, परंतु समुद्र तट पर बैठकर समुद्री लहरों की ओर देखते यदि हम घंटों बैठे रहें तो भी ऊबते नहीं। हर बार एक नएपन की अनुभूति होती रहती है।
भोजनादि से निपटने में हमें लगभग चार बज गए। चूंकि, इतनी देर बाद हम कहीं जा नहीं सकते थे अतः उस दिन शाम को समुद्र स्नान और बाद में रात्रि-भोजन के पश्चात समुद्र तट पर लहरों का आनंद लेने जा पहुंचे। उसी समय मुझे यह स्मरण हुआ कि इसी प्रकार से इंग्लैंड में एक शाम जब वीर सावरकर अपने मित्र के साथ समुद्र तट पर उदास एवं विमनस्क अवस्था में बैठे हुए थे तभी अचानक उनके मुख से 'सागरा प्राण तळमळला" इस अजरामर गीत की पंक्तियां फूट पडी। यह मान्यता है कि यदि वीर सावरकर ने अपने जीवन में इस गीत की रचना के अलावा और अन्य कोई महत्वपूर्ण कार्य ना भी किया होता तो भी इस रचना के कारण वे अमर हो गए होते। उनके विषाद का कारण था उनके अनुयायी मदनलाल धींगरा को फांसी की सजा और छोटे बंधु डॉ. नारायण सावरकर के कारावास की सूचना।
दूसरे दिन यानी दिनांक 27 को प्रातः 9 बजे हमने सेल्यूलर जेल के लिए प्रस्थान किया। जिसके लिए हम विशेष रुप से आए थे। आगे बढ़ने से पूर्व यह बता दूं कि 1947 में सरदार पटेल ने बडी दूरदर्शिता से इन द्वीपों को पाकिस्तान के अधिकार में जाने से बचाया था। उन्होंने एक जहाज को तिरंगा झंडा फहराने के लिए भेजा जिससे यह प्रमाणित हो सके कि यह भारत का क्षेत्र है। कुछ घंटों बाद वहां पाकिस्तान के जहाज देखे गए। उनकी आशंका सच निकली। भूगर्भ शास्त्रियों का कहना है कि, कभी ये द्वीप भारत की मुख्य भूमि से जुडे थे। इनका सबसे पहला उल्लेख दूसरी सदी के टोलमी ने किया है। मार्कोपोलो के यात्रा वर्णनों में भी इनका उल्लेख है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'मत्स्य पुराण" और 'वायुपुराण" संदर्भ से इन्हें 'इंद्र द्वीप" और 'नाग द्वीप" नाम दिया था।
अंडमान निकोबार को सच्चे अर्थों में 'लघु भारत" कहा जा सकता है। (यह एक अन्य लेख का विषय है) यहां प्रायः सभी राज्यों, धार्मिक परंपराओं, रीतिरिवाजों और भाषाओं के लोग बडे सौहार्द से रहते हैं। यहां न तो सांप्रदायिकता है ना ही धार्मिक संकीर्णता। इसका कारण है देश के विभिन्न अंचलों के लोग जो जेलों में बंद थे बाद में कैदी बस्तियों में रहने लगे उनके बीच विवाह संबंध हो गए। एक नए समाज का जन्म हुआ जिन्हें अंगे्रजों ने लोकल (भूमिपुत्र) नाम दिया। यहां की संपर्क भाषा हिंदी है। यहां की हिंदी का स्वाभाविक प्रचलन भले ही टूटा-फूटा हो परंतु, भारत की मुख्य भूमि के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है जहां आज भी हिंदी को स्वीकारने में न नुच की जाती है।
भारत प्रायद्वीप के पूर्व में गंगा-सागर (बंगाल की खाडी) में कोलकाता से 1255 कि.मी. और चेन्नई से 1190 कि.मी. की दूरी पर छोेटे-बडे 554 द्वीपों का पन्ने सा चमचमाता द्वीप-पुंज है 'अंदमान-निकोबार"। मुख्य भूमि से अतिदूर, निर्जन, उपेक्षित इस प्रदेश से आधुनिक विश्व तब परिचिय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के लिए एक सुरक्षित कारागार के रुप में सेल्यूलर जेल की स्थापना 10 मार्च 1858 को जब आगरा (उत्तरप्रदेश) का कुख्यात कारा अधीक्षक डॉ. जेम्स पेटीशन वाकर 500 भारतीय स्वाधीनता सेनानियों (बंदियों) को लेकर इस बीयाबान पर उतरा। बंदियों को दहशत में रखने तथा किसी प्रकार पलायन के अवसर शून्य होने के कारण साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों ने सेल्यूलर जेल के फैलाव की सतत कोशिशें की। वीर बलिदानियों के जत्थे यहां सतत आते रहे। इसी क्रम में लंदन में बेरिस्टरी को निमित्त बनाकर परंतु स्वाधीनता संघर्ष के मंतव्य से पहुंचनेवाले इस वीर को अंग्रेजों ने 4 जुलाई 1911 को अंदमान के कारावास में पहुंचा दिया। यहीं पर अंदमान का राष्ट्रीय दृष्टि में एक उज्जवल रुप सावरकरजी के मनमस्तिष्क में उभर कर मानो साकार हुआ उसका वर्णन सावरकरजी की आत्मकथा 'आजन्म कारावास" में शब्दबद्ध है।
इस कारागार का निर्माण कार्य 1896 से 1906 तक चला। इस कारागार में सौ-सौ कोठरियों की तीन मंजिला इमारतों की सात पंक्तियों का समूह है। इसका आकार एक तारे के समान है। इसका निर्माण बडी ही होशियारी से किया गया है। सारी इमारतें एक मध्यवर्ती टॉवर से जोडी हुई हैं। इनमें से एक इमारत का आगे का भाग और दूसरी इमारत का पीछे का भाग एकदूसरे के सामने हैं। इस कारण कैदी एक दूसरे को देख नहीं पाते थे। इसी कारण पहले सावरकरजी को पता ही नहीं चला कि उनके बडे भाई गणेश दामोदर सावरकर (बाबाराव सावरकर) भी यहां सजा काट रहे हैं। एक दिन अचानक वे उनके सामने आ गए और वे अवाक् रह गए। सबसे छोटा भाई भी एक बमकांड में गिरफ्तार होकर जेल में था। इस प्रकार तीनों भाई कारावास में थे ऐसा उदाहरण दूसरा कोई नहीं मिलता। वर्तमान में मात्र तीन इमारतें ही शेष बची हैं। बाकी की चार इमारतें 1942 के जापानी हमले में ध्वस्त हो गई। वर्तमान में वहां एक हॉस्पिटल है।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान की स्मृति और सम्मान में 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. मोरारजी देसाई ने सेल्यूलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया। ऐसे इस जेल के परिसर में हम एक भव्य प्रवेश द्वार से प्रविष्ट हुए। अंदर दीवारों पर जेल की ऐतिहासिक जानकारी दी गई है। हमें गाईड की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि, हमारे साथ श्रीअनिलजी जो थे जो प्रतिवर्ष यहां आते ही हैं। यहां एक छोटासा संग्रहालय है जो बलिदानियों की स्मृतियों को आनेवालों के मस्तिष्क में ताजा कर देता है।
संग्रहालय से बाहर आने पर एक खुले परिसर में हम आते हैं जहां सामने ही एक बडा पीपल का पेड है जो सेल्यूलर जेल के निर्माण के पूर्व से ही है। कुछ समय पूर्व यह गिर गया था, परंतु सरकार ने दस लाख रुपये खर्च कर इसे पुनर्जीवित कर दिया। वीर सावरकर सहित कई स्वतंत्रता के सेनानियों के हौतात्म्य का यह साक्षी है। बांई ओर एक बडे चबूतरे पर हुतात्माओं की स्मृतियों को जागृत रखनेवाला एक स्मारक स्तंभ है। उसके निकट ही पवित्र क्रांतिज्वाला स्थापित है से वीर सावरकर के उद्गारों को दुराग्रहपूर्वक तत्कालीन मंत्री मणिशंकर अय्यर ने कुछ वर्ष पूर्व मिटा दिया था। उन पंक्तियों का भावार्थ इस प्रकार से है -
'हमने (देशभक्ति का) यह व्रत नासमझी से नहीं, तो हमारे स्वभावानुसार इतिहास के प्रकाश में सोच समझ कर लिया है। जो निश्चय ही दिव्य दाहक है, ऐसा यह असिधाराव्रत हमने परस्पर अपनाया है।" इन पंक्तियों में अनुचित कुछ भी नहीं परंतु राजनीति की माया देखिए कि इन्हें भी मिटा दिया गया।
हम आगे बढ़े और पहले जेल के मध्य स्थित टॉवर जिससे सातों इमारतों में जाने का मार्ग था में आए। इस टॉवर में बैठकर एक ही कर्मचारी सभी इमारतों के कैदियों पर नजर रख सकता था। क्योंकि, कैदी आखिर भागकर जाता भी तो कहां? चारों ओर घना जंगल और समुद्र के सिवा कुछ ना था। (वैसे यहां भी एक अपवाद है और वह एक कैदी था दूधनाथ तिवारी जिसके बारे में जानकारी किसी ओर लेख द्वारा दूंगा) इस टॉवर की दीवारों पर प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों के नाम उकेरे हुए हैं। हम सब लोग एक असीम इच्छा से उस कोठरी क्रमांक 123 जो तीसरी मंजिल पर स्थित है की ओर दर्शन की अभिलाषा से बढ़े जहां वीर सावरकर को दोहरा आजन्म कारावास (50 वर्ष) भुगतने के लिए रखा गया था। जब देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद यहां आए थे तो प्रतिकात्मक स्मारक कोठरी न. 42 में बनाया गया था। मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि, कैसी होगी वह कोठरी? उस कोठरी की दीवारों पर 'कमला काव्य" की पंक्तियां क्या अद्याप भी हैं? दिल की धडकनें बढ़ने लगी। कोठरी को दो दरवाजे और दो ताले थे जिनकी रचना एकदम अलग थी। सावरकर डेंजरस कैदी जो थे, उनके गले में 'डी-डेंजरस" का बिल्ला भी लटका रहता था।
उस स्वातंत्र्य वीर के मंदिर रुपी गर्भगृह की दीवार पर सावरकरजी का कैदी के रुप में छायाचित्र लगा है। उस पर अमर काव्य 'कमला" की दो पंक्तियां उद्धृत हैं। लेकिन दीवारों पर कोई पंक्ति अब नजर नहीं आती, दीवारें बिल्कूल सामान्य दीवारों की तरह ही हैं। कमरे में दो तसले रखे हुए थे जिनमें से एक सावरकरजी भोजन के लिए और दूसरा शौच के लिए उपयोग में लाते थे। जब उन्हें आंव हुई थी तब उन्होंने दोनो ही तसलों का उपयोग शौच के लिए किया था, परंतु उन्हें कोई अन्य सुविधा नहीं दी गई। अमानवीय घोर यंत्रणाओं की यह पराकाष्ठा है। सन् 1943 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इस जेल को भेंट दी थी। यहां हम कुछ देर स्तब्ध से खडे रहे फिर कुछ समय तक हम शांत बैठे रहे। कुछ ही देर में हम पसीने से भीग गए।
नीचे उतरकर हम फांसीघर की ओर बढ़े जो वीर सावरकर की कोठरी के सामने होकर सहज ही नजर आती है। यहां एक साथ तीन लोगों को फांसी पर चढ़ाया जाता था। निकट ही फांसी पूर्व स्नान और अंतिम क्रिया की व्यवस्था थी । वीर सावरकर का नैतिक बल और धैर्य को समाप्त करने तथा कैदियों का आक्रोश उनके कानों पर पडे इस उद्देश्य से उनकी कोठरी जानबूझकर फांसीघर के निकट रखी गई थी। परंतु, वे दृढ़ इच्छा शक्ति के स्वामी थे उन्होंने इन अत्याचारों को भी सह लिया और अपनी काव्य प्रतिभा को मरने नहीं दिया उसीका फल था उनका महाकाव्य 'कमला" जिसकी दस हजार पंक्तियां जो उन्होंने नाखुनों और खिलों से दीवारों पर उकेरी थी। जेल की भव्यता देख कोई भी चकित हो सकता है। जेल परिसर में ही एक पत्रे का शेड है। इस कार्यशाला में तेल की घानी घूमाकर कैदियों से तेल निकलवाया जाता था। नारियल के रेशों को कूटकर रस्सी गूंथवाई जाती थी। शेड में पुराना 'कोल्हू" रखा हुआ है इसी प्रकार से नारियल के रेशों से रस्सी बनाने का यंत्र भी यहां है।
शाम को हम फिर यहां 'लाइट एंड साउंड" कार्यक्रम देखने के लिए आए। उसमें क्रुर जेलर बारी द्वारा कैदियों को दी गई भयानक यातनाओं का वर्णन सुना। यह पूरा कार्यक्रम उसी पीपल के पेड और सर्वसाक्षी सूर्य को रखकर बनाया गया है जिसका उल्लेख हम पूर्व में ही कर चूके हैं। लेकिन इस कार्यक्रम में खलनेवाली बात यह है कि वीर सावरकर को उतना महत्व जिनके कारण ही अंदमान को पहचाना जाता है नहीं दिया गया है जितना की दिया जाना चाहिए था। इसमें संशोधन की आवश्यकता है। हमारा अंदमान आने का उद्देश्य पूर्ण हो चूका था। इसके बाद हम एक दिन और रुके हमारे साथ के कुछ ने नार्थ बे द्वीप पर जाकर स्कूबा डायविंग का आनंद उठाया और 29 तारीख को हमने वापसी की यात्रा प्रारंभ की। हम भले ही अधिक नहीं घूमे परंतु पर्यटकों के लिए यहां बहुत कुछ है परंतु लेख की भी सीमा है इसलिए मैं यहीं विराम देता हूं।
Friday, May 23, 2014
अनोखा व्हिजन् नरेंद्र मोदी का
नरेंद्र मोदी कुछ बातों को बार-बार दोहरा रहे हैं, उन पर जोर दे रहे हैं जो उनकी सोच, कार्यपद्धति और व्हिजन को दर्शातेे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लंबे समय तक प्रचारक रहने के कारण उनकी सोच है - सर्वे भवन्तु सुखीनः सर्वे सन्तु निरामयः। मोदी की कार्यपद्धति है planning in advance,and planning in detail और व्हिजन है देश के लिए जीना। वे लोगों की भावनाओं को उभारने में माहिर हैं। लोगों की भावनाओं को उभारकर, उन्हें वोटों में तब्दील कर उन्होंने आश्चर्यचकित कर देनेवाली सफलता हासिल कर ली है। अब वे इन जनभावनाओं को चुनाव में जीतने के बाद अपने साथ जोडकर देश के लिए जीना है की ओर मोड रहे हैं।
वे कह रहे हैं हमें देश की आजादी के लिए लडने, जेल जाने, यातनाएं भोगने को नहीं मिला तो क्या हमें देश के लिए जीना है। इसे सर्वांगीण विकास के रास्ते पर ले जाना है। यह संघ की ही तो विचारधारा है। संघ की प्रार्थना में यह पंक्ति आती है 'परम्वैभवम् नेतुमेत स्वराष्ट्रं" अर्थात् हमें अपने देश को परम वैभव की ओर ले जाना है। इसीके लिए हम संघ के स्वयंसेवक बने हैं। गुजरात में उन्होंने इसी प्रकार से गुजराती अस्मिता को जगाकर पूरे गुजरात को अपने साथ जोड लिया और अब बारी है पूरे देश की।
उदाहरणार्थः काशी में चुनावी विजय के पश्चात काशी की जनता के साथ सीधे संवाद साधते हुए उन्होंने कहा काशी के विकास के लिए सफाई आवश्यक है। गांधीजी का उदाहरण देते हुए सब सफाई में जुट जाएं का संदेश दिया। बात सही भी है हम स्वयं ही देख लें कि हमारे मुहल्ले, गलियां, शहर, रास्ते, बस स्थानक, रेल्वे स्टेशन, बसें-रेलें यहां तक कि मंदिर और तीर्थस्थल तक कितनी गंदगी से पटे पडे हैं। कोई भी नाक भौं सिकोडने के लिए मजबूर हो जाएगा। यदि हम सफाई पसंद हो जाएं तो निश्चय ही पर्यटन बढ़ेगा। पर्यटन को बढ़ावा यह मोदी की विकास की नीतियों का एक अंग है। किसी भी नीति की सफलता के लिए जनता का उसमें सहभाग आवश्यक है और इसके लिए जनता को अपने साथ भावनिक और वास्तविकता के धरातल पर जोडना, उनके साथ सीधे संवाद कायम कर उन्हें विश्वास दिलाना कि वे उनके साथ हैं, आवश्यक है और इसमें मोदी माहिर हैं जो गुजरात को देखकर जाहिर होता है। यदि यह भावनाएं कायम रही, मोदी अपने कार्यों द्वारा यह कायम रखने में सफल रहे तो, मोदी की राह निश्चय ही सरल हो जाएगी।
दूसरी बात जिस पर मोदी जोर दे रहे हैं वह है 'सबका साथ सबका विकास" गुजरात में यही बात 'सौनो साथ-सौनो विकास" कहकर प्रचारित की गई और उसमें उनको सफलता भी मिली। उदाहरण के लिए वहां जून माह में शाला प्रवेशोत्सव मनाया जाता है जिसके तहत मंत्री से लेकर विभिन्न स्तर के अधिकारी उन गांवों को चिन्हित करते हैं जहां सरकारी स्कूलों में 'इनपुट' कम है। वे वहां दौरा कर वहां के लोगों-बच्चों की मानसिकता को समझ उन्हें स्कूल में आने के लिए प्रेरित करते हैं, प्रोत्साहन देते हैं। जिसमें सरकार को आशातीत सफलता भी मिली है। लेकिन विरोधी उन पर आरोप लगाते हैं कि वे उत्सवप्रिय हैं और हर बात को उत्सव में बदल देते हैं जैसे गुजरात का 'पतंग महोत्सव"। जो पूरे गुजरात में बहुत बडे पैमाने पर मनाया जाता है। इस उत्सव में सहभागी होने के लिए लोग बडी दूर-दूर से आते हैं, विदेशी भी बहुत बडी संख्या में आते हैं। इससे बडे पैमाने पर राजस्व की प्राप्ति होती है, पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए वे किस प्रकार से सक्रिय भूमिका निभाहते हैं यह अमिताभ बच्चन को गुजरात का ब्रांड एम्बेसेडर बनाने से पता चलता है। अमिताभ के रेडियो-टीव्ही पर आनेवाले विज्ञापनों के संवाद कितने आकर्षित करते हैं यह 'खुशबू है गुजरात की" से पता चलता है।
मोदी की नीति लोगों को जोडना उन तक अपना संदेश पहुंचाना उनके साथ सीधा संवाद स्थापित करना का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। चुनाव के समय उनकी चुनावी रणनीति के एक भाग के रुप में पूरे देश में आयोजित की गई 'चाय पे चर्चा"। जिसने उन्हें अपार लोकप्रियता दीलाई। जो जगह-जगह पर 'मोदी चाय", 'मोदी ज्यूस सेंटर" आदि के रुप में नजर आई। बाजार में मोदी कुर्ते नजर आने लगे, मोदी अपने आप में एक ब्रांड बन गए। मोदी ही देश के वे पहले राजनेता हैं जिन्होंने पांच रुपये का टिकिट उनकी सभा में प्रवेश के लिए रखा था। उस समय उनकी आलोचना हुई, मजाक उडाया गया लेकिन समय ने यह सिद्ध कर दिया कि लोग उन्हें सुनने आए, उनसे जुडे और स्थान ही कम पड गया। यह संघ की ही नीति है कि लोगों को जोडो। संघ का कहना है हम जोडने का काम करते हैं तोडने का नहीं यही तो मोदी ने साकार कर दिखाया।
संघ 'सर्वे संतु सुखीनः सर्वे संतु निरामयः" में विश्वास करता है जैसाकि पूर्व में ही कहा जा चूका है और यही हमारे प्राचीन ऋषियों का उद्घोष रहा है। यही हर हिंदू चाहता है, इसमें विश्वास करता है। इसी उद्घोष के कारण भले ही एक हिंदू व्यक्तिगत रुप से बुरा हो सकता है, परंतु समाज रुप में वह अच्छा ही होता है। इसी सोच को मोदी ने गुजरात में सख्त कानून व्यवस्था लागू कर गुजरात को दंगा-अराजकता विहीन राज्य बनाकर विकास के पथ पर ले जाकर दिखला दिया है। देश की जनता ने इस पर विश्वास किया और उन्हें सफलता मिली।
मोदी ने संसदीय दल की बैठक में अपनी सरकार को गरीबों, करोडों युवाओं और मान-सम्मान के लिए तरसती मां-बहनों के लिए समर्पित सरकार बतलाया। इस सबके लिए सुरक्षा अत्यावश्यक है। सुरक्षा के बिना विकास किसी काम का हो नहीं सकता। यदि आपसमृद्ध हैं, विकसित हैं लेकिन सुरक्षित नहीं, आपको सुरक्षा हासिल नहीं तो कोई भी आपको लूट ले जाएगा। उदाहरण के लिए आप-आपका राज्य समृद्ध है, उन्नत रास्ते हैं उन पर तेज गति से दौडनेवाली गाडियां (जैसेकि एसयूव्ही) हैं, लेकिन आपकी सुरक्षा व्यवस्था लचर है तो, चोर-उचक्के-डकैत आपको लूटकर एसयूव्ही में बैठकर अच्छे रास्तों से सैंकडों मील दूर भाग जाएंगे, ऐसा हुआ है और हो भी रहा है। नेहरुजी कहा करते थे मैं देश के विकास के लिए नए मार्गों का निर्माण कर रहा हूं इस पर सावरकरजी कहा करते थे मार्गों के निर्माण में कैसा विकास यदि सीमाएं सुरक्षित नहीं तो शत्रु इन्हीं रास्तों का उपयोग कर हम पर कब्जा जमा लेगा।
मोदी ने गुजरात की सुरक्षा के लिए शहरों को सीसीटीव्ही कैमरों से लैस कर रखा है इसलिए वहां अपराध कम हैं। सन् 2006 में अहमदाबाद शहर में बम विस्फोट हुए थे गुजरात की मोदी सरकार सभी आतंकवादियों को 21 दिन में पूरे देश में वे जहां कहीं थे वहां से ढूंढ़-पकड लाई। मोदी का कहना है - आतंकवादी के पैर नहीं गला पकडो। सीधी सी बात है समृद्धि के साथ सुरक्षा जरुरी है। ईरान भी किसी जमाने अत्यंत समृद्ध था परंतु सुरक्षा व्यवस्था कमजोर होने और देश के लिए जीना है की भावना ना होने के कारण उसकी समृद्धि, उसके अग्निपूजक धर्म और संस्कृति का देखते-देखते नाश हो गया।
अब यहां सवाल यह उठता है कि जब गुजरात इतना सुरक्षित है तो वहां आयटी इंडस्ट्री क्यों नहीं? आयटी इंडस्ट्री वाले तो सबसे अधिक सुरक्षा पर ही बल देते हैं। तो, इसका उत्तर जानने की कोशिश करने पर यह मिला कि हां, यहा सच है कि गुजरात में आयटी इंडस्ट्री भले ही ना हो परंतु जितना 'इ-गव्हर्नंस" पर जोर गुजरात ने दिया है, अपनाया है उतना किसीने नहीं। वहां पेपर प्रोसीजर ना के बराबर है। गुजरात सबसे अधिक टेक्नोसेवी है। 'चाय पे चर्चा" भी इसका एक अच्छा उदाहरण है। जरा सोचिए इतने सारे टीव्ही सेट्स की व्यवस्था करना एकसाथ पूरे देश में लाखों लोगों के साथ संवाद स्थापित करना क्या कोई साधारण बात है। आखिर मोदी का यह नारा जो है 'मिनिमम गव्हर्नमेंट मेक्सिमम गव्हर्नंस"।
Saturday, May 17, 2014
मोदी की ऐतिहासिक जीत का शिल्पकार संघ ही है !!
मोदी मोदी की जय जयकार आज पूरे देश में सुनाई पड रही है। मोदी के नेतृत्व में सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिसकी कल्पना भी की ना जा सके ऐसी विलक्षण और अविस्मरणीय विजय प्राप्त कर एक इतिहास रच दिया है । जो लोगों को असंभव सी ही लग रही थी। लेकिन यह संभव हो गया, एक नया इतिहास बन गया। इसका श्रेय लगभग सभी लोगों ने एक मुख से नरेंद्र मोदी को ही दिया जिन्होंने इस विजय प्राप्ति के लिए अनथक प्रयास किए। इसके लिए ऐतिहासिक रैलियां-सभाएं की और जनमानस को आंदोलित कर देनेवाले धाराप्रवाह भाषणों की झडी लगा दी। इस संबंध में बहुत कुछ लिखा जा रहा है, लिखा जाता रहेगा। परंतु, इस महानायक की अभूतपूर्व विजय का असली शिल्पकार है संघ।
श्री मोहन भागवत ने सरसंघचालक पद का दायित्व सम्भालने के कुछ समय पश्चात कहा था भाजपा फिनिक्स पक्षी की तरह राख के ढ़ेर से उठ खडी होगी। तब उनका यह वाक्य बहुत चर्चा में आया था। उस समय भाजपा बुरी तरह अंतर-कलह से ग्रस्त थी। कोई किसीकी नहीं सुन रहा था। भाजपा नेताओं ने अपना संतुलन खो दिया था और विसंगत भाषण कर रहे थे, प्रलाप कर रहे थे। मुझे अच्छी तरह याद है उस समय एक पत्रकार ने अपने एक लेख में लिखा था हिंदुत्ववादी वह है जो असभ्य हो, अभद्र भाषा का प्रयोग करनेवाला, बडबोला हो। ऐसी विपरीत परिस्थिति में मोहन भागवत ने भाजपा को पटरी पर लाना तय कर कदम उठाने प्रारंभ किए।
नितिन गडकरी जो कि नागपूर के स्वयंसेवक हैं को संघ की इच्छा पर भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। विरोधी कसमसाकर रह गए। कुछ लोगों ने भाजपा के महाराष्ट्रीकरण का आरोप लगाना शुरु किया। एक समाचार पत्र ने तो यहां तक लिखा कि यदि भाजपा को बचाना है तो उसे कोंकणस्थ ब्राह्मणों से मुक्त करो। तो, एक समाचार पत्र ने भाजपा में संगठन मंत्री और पदाधिकारियों रुप में संघ के उन प्रचारकों की सूची छापी जो ब्राह्मण हैं इस प्रकार से भाजपा किस प्रकार से ब्राह्मणवादी है यह बताने का प्रयत्न किया गया। जबकि सत्य तो यह है कि आज भाजपा में चुने हुए जनप्रतिनिधियों में सर्वाधिक पिछडे, अनुसूचित जाति, जनजाति के लोग हैं और इस मोदी लहर (जिसे अभी भी कुछ लोग नकारने का दुस्साहस कर अपनी ईर्ष्या को ही प्रकट कर रहे हैं) ने जात-पात, धर्म, स्थानीयता, अगडा-पिछडा, प्रादेशिकता आदि सभी संकुचितताओं को उडाकर भाजपा जात-पात विरहित राजनीति करती है, संघ में इन भावनाओं को कोई स्थान नहीं है पर अपना ठप्पा लगा दिया है।
नितिन गडकरी अपना स्थान मजबूत कर कुछ कर दिखाते उसके पूर्व ही षडयंत्रकारियों ने अपने षडयंत्र को अंजाम दे दिया। नितिन गडकरी अपना इस्तीफा दे नागपूर वापिस लौट गए। संघ ने राजनाथ के रुप में अपने स्वयंसेवक की भाजपा के अध्यक्ष पद पर ताजपोशी कर दी। श्री मोहन भागवत इस बात को भूले नहीं कि किस प्रकार संघ के चुने हुए अध्यक्ष की भाजपा के अंदरुनी षडयंत्रों के चलते विदाई हुई। उन्होंने अपनी पकड को और भी बढ़ाते हुए नरेंद्र मोदी को जो सन् 1972 से संघ के प्रचारक थे और जिन्होंने गुजरात में भाजपा के कार्यविस्तार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था एवं अपनी गुड गव्हर्नन्स की योग्यता को गुजरात के सफलतम मुख्यमंत्री रहते सिद्ध कर चूके थे को आगे बढ़ाया, राजनाथ को उनका अनन्य सहयोगी बनाया।
पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम कसकर, अंदरुनी असंतोष, असहयोग, विरोध को कुचलते हुए भाजपा से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रुप में प्रोजेक्ट करवाया और यह संघ की दूरदर्शिता थी कि उसने मोदी को गुजरात से बाहर निकाल कर इस मुकाम तक पहुंचाया। संघ ने मोदी एवं भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलवाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। यह संघशक्ति का ही कमाल था कि पूरे चुनाव में किसीकी भी हिम्मत भीतरघात करने की नहीं हुई। थोडी बहुत जानेअनजाने जो बयानबाजी हुई उसका भी समय रहते पार्टी और मोदी से खंडन करवा कर कोई विवाद उभरने के पूर्व ही शांत कर दिया गया। श्री भागवत ने यहां तक घोषणा कर दी कि प्रधानमंत्री बनेंगे तो मोदी ही बनेंगे वरना विपक्ष में बैठेंगे।
संघ के कार्यकर्ता संघ की कार्यपद्धति के अनुसार चुपचाप जुट गए, घर-घर पीले चावल लेकर गए बिना किसी दल का नाम लिए हिंदूजनजागरण के लिए पत्रक बांटे। जनता से अनिवार्य रुप से जाकर मतदान करने का आग्रह किया। इसीका परिणाम है कि मतदान का प्रतिशत बढ़ा और वह मोदी के ही पक्ष में गया। कई कार्यकर्ता सोशल साइट्स के प्रभाव को जानते थे इसलिए वे भी लंबे समय से भाजपा फिर मोदी के पक्ष वातावरण बनाने में जुटे गए थे। जिस प्रकार से गांधीजी ने आजादी की लडाई को जनआंदोलन में तब्दील कर दिया था उसी तर्ज पर संघ ने जनता को सुशासन, भ्रष्टाचार और कांग्रेस मुक्त भारत के मुद्दे पर आंदोलित कर दिया। पूरा देश मोदी-मोदी करने लगा और अंततः अद्भुत, अभूतपूर्व ऐतिहासिक विजय भाजपा को हासिल हुई। और पहली बार संघ का एक प्रचारक-स्वयंसेवक संघ के बलबूते स्वयं के पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने जा रहा है।
Friday, May 16, 2014
मराठी माणसाची कर्तबगारी - भाऊचा धक्का
मुंबई कर्माला प्राधान्यदेणाऱ्या लोकांची महानगरी आहे. अशापैकींच एक होते लक्ष्मण हरिश्चन्द्र अजिंक्य ऊर्फ भाऊ (1789-1858). ते समकालीन होते इतिहासप्रसिद्ध नानाशंकरशेट, कावसजी फ्रामजी, कावसजी जहांगीर, बैरामजी जीजीभाईंचे. ज्यांचा मुंबईच्या जडण-घडणीत मोठा हात आहे. पण भाऊंची कर्तबगारी सगळ्यांवर मात करते. आता आपण त्याच कर्तबगारीचा एक आढ़ावा घेणार आहोत.
भाऊंच्या कर्तबगारीचा काळ आहे 19व्या शतकातला. महाराष्ट्राला एक मोठा समुद्र किनारा लाभला आहे त्यामुळे अठराव्या शतकात मुंबईला एक व्यापारी बंदर म्हणून प्रसिद्धी लाभली. तसेतर त्याआधी पासूनच जलमार्गाने वाहतूक होते असे पण 1836 पर्यन्त माल किंवा उतारुंसाठी एक ही धक्का नव्हता विशेषकरुन कोंकण आणि गोव्याकडील जनतेचे यामुळे अतिशय हाल होत असत. त्यांचे हे कष्ट दूर करण्याकरिता पुढ़ाकार घेतला तो या भाऊ ऊर्फ भाऊरसेल यांनी.
इंग्रजांची मूळ संस्कृति ती व्यापाराची. समुद्र हटवून धक्का बांधावा तर पैसा त्यांच्या हाताशी नाही. 'साहसे वसती लक्ष्मी" ही म्हण सार्थ करित भाऊंनी इंग्रजांकडून परवानगी मिळवली व हा धक्का स्वखर्चाने बांधला. म्हणून इंग्रजांच्या ईस्ट इंडिया कंपनीने धक्क्याचा वापर व माल चढ़-उतरविण्याचा ठेका कित्येक वर्षे भाऊला दिला त्यामुळे 'भाऊचा धक्का" हे वाक्य लोकांमध्यें प्रचारात आले. पण इंग्रज मंडळी मात्र त्याचा उल्लेख 'फेरी व्हार्फ" असा करित.
सन् 1835च्या दरम्यान भाऊ ईस्ट इंडिया कंपनीच्या गन कॅरिएज फेक्टरी (तोपखाना) मध्यें कारकून म्हणून काम करित होते. हुशार, हुन्नरी व इंग्रजी भाषेत निपुण भाऊंचे कर्तृत्व बघून तोपखान्याच्या अधिकारी कॅप्टन रसेलने त्यांना मजूरांकरिता उपहारगृह सुरु करण्यास सांगितले व भाऊंच्या उद्योगाची मुहुर्तमेढ़ रोवली गेली. त्या आधी त्यांनी एका मजूराला कठोर शिक्षेपासून वाचविल्यामुळे ते मजूरांमध्ये लोकप्रिय झालेच होते. मग त्यांनी क्लार्कीसोडून बिल्डर बनण्याचे ठरवून चिंचबंदर ते मस्जिदबंदरहून क्रॉफर्डमार्केट पर्यन्तची समुद्रसपाटीच्या पूर्वे पर्यन्त 10 ते 15 फूट खोल पाण्याखालची जमीन भरणीसाठी व रस्ता बांधणीसाठी कंपनी सरकारकडून मागितली व सर्वखर्च स्वतः करण्याचे मान्य केले. या मुळे प्रवाशांना तर हे सोयीचे ठरेलच पण शहराचा व्यापार देखील सुधारेल.
सरकारकरिता हा प्रस्ताव नक्कीच फायदाचा होता. कंपनी सरकारने उदात्त हेतूने नव्हे तर स्वतःची अडचण ओळखून लक्ष्मण हरिश्चन्द्रला परवानगी मोठ्या आनंदाने दिली होती. याबाबतीत कलेक्टरने गव्हर्नरला केलेली शिफारस अत्यंत बोलकी आहे. 'लक्ष्मण हरिश्चन्द्रनी सुचविलेल्या सुधारणा सार्वजनिक हिताच्या खऱ्याच. शिवाय सध्याच्या समुद्रपट्टीवर चिकटलेली घरे व दाट वस्तीमुळे कस्टम खात्याला दाद न देता आखाती देशांबरोबर एतद्देशीयांचे जे तस्करी (स्मगलिंग) चालते त्याला ह्या भरणीमुळे आळा बसेल." यावरुन कळते की त्याकाळात देखील आखाती देशांबरोबर स्मगलिंग सारखे गुन्हे एतद्देशीय करित असत. कंपनी सरकारने स्वतःचे हित बघता ताबडतोब भाऊंना भरणी व रस्ता बांधणीच्या कामाची परवानगी दिली. सर्व खर्च भाऊ करणार असल्यामुळे मोबदल्यात नवीन जागेचा उपयोग माल चढ़-उतरविण्याचा मक्ता 50 वर्षे मोफत उपभोगात आणण्याकरिता त्यांना दिला.
भाऊ मोठे धूर्त, हुशार आणि धाडसी असे मराठी माणूस असून त्यांनी आधी भरती-ओहोटीचा अभ्यास केला आणि सोयिस्कर जागा निवडली. याच्या कित्येक वर्षानंतर पोर्ट ट्रस्टच्या अभियंत्यांना या कल्पना सूचल्या. भाऊंनी कॅप्टन रसेलच्या साह्याने आरखडा सादर केला. परवानगी मिळताच सपाट्याने काम सुरु केले. व्यापारी मनोवृत्तीच्या भाऊंना एक अफाट कल्पना सूचली की जर कचरा भरणीकरिता उपयोगात आणला तर त्याचा लगदा जमीनीस चिकटेल व भरणी स्वस्त व सोयिस्कर देखील होईल. त्यांनी नगरपालिकेचा कचरापट्टीचा मक्ता घेऊन सर्व समुद्रखाडी भरुन काढ़ली व लाखोंनी खर्च वाचविला. पण झोपडपट्टीतील मुसलमान विरोधात उभे राहिले. आणि काझी शहाबुद्दीन आदि रहिवाशांनी नवीन होणाऱ्या मोकळ्या जागेमुळे स्मगलिंगला आळा बसेल म्हणून भाऊंचे हे काम सरकारकडून थांबविण्याचा प्रयत्न केला. पण सरकारने मात्र साह्य केले.
त्या काळात मोटारी नव्हत्या, मशीनी नव्हत्या, वीज देखील नव्हती अशाकाळात अशी अफाट कल्पना सूचणे व त्याकरिता अर्ज करणे अत्यंत धाडसीच म्हणावे लागेल ते धाडस भाऊंनी करुन दाखविले. लोकांनी त्यांना अशा अफाट धाडसाकरिता वेड्यात काढ़ले पण त्यांनी यशस्वी होऊन दाखविले. चार-पांच वर्षात बंदर पूर्ण तयार झाले. त्यांनी वखारी बांधल्या व हिंदुस्थानाचे वखारीयुक्त पहिले बंदर अस्तित्वात आले.
या भाऊच्या धक्क्याशी कोंकणी लोकांच्या भावना निगडित झाल्या. त्यात काही गोड तर काही कडू. रस्ते वाहतूकीच्या एस.टी. चा विस्तार झालेला नव्हता, तेव्हा कोकणाच्या लोकांना जलवाहतूकी शिवाय पर्याय नव्हता. स्वातंत्र्यपूर्व काळात तुकाराम, रामदास, रोहिदास अशी संतांची नावे असलेल्या बोटी चालत असत. सेंट झेविअर, सेंट अंथनी अशी ख्रिस्ती संतांची नावे असणाऱ्या, तर हिरावती, चंपावती, पद्मावती अशी सुंदर स्त्रीयांची नावे धारण करणाऱ्या बोटी खासगी कंपन्यांच्या चालत असत.
तात्कालिक गव्हर्नर सर रॉबर्ट ग्रान्टने ब्रिटेनला जाण्यापूर्वी नव्या जागेची पाहणी केली होती. त्यावेळेस त्याने प्रसन्न होऊन टिपणामध्ये लिहले होते - 'ळ ुरी र्ीीीिीळूशव रीं ींहश िीेसीशीी ुहळलह हरी लशशप ारवश ळप ारसपळषळलळशपीं र्ीीशर्षीश्र ुेीज्ञ, ींहश ुहेश्रश ेष ींहश ीशींरळपळपस ुरश्रश्र हरी लशशप लेाश्रिशींशव, ींहश लरीळप षेी ीशलशर्ळींळपस ींहश लेरींी हरी लशशप िीशरिीशव, ळ लरपपेीं ींेे हळसहश्रू िीरळीश ींहश शपशीसू । र्िीलश्रळल ीळिीळीं ेष 'ङरुारप' ळप र्ीपवशीींरज्ञळपस र ुेीज्ञ ेष ींहळी ारसपर्ळींीवश.'
लक्ष्मण हरिश्चन्द्र अजिंक्यनी मशीद बंदर ते मीटमार्केट (फुले मंडई) मधील जागेला नव्या येणाऱ्या गव्हर्नर सर जेम्स कॉरनक याचे नाव सुचविले ते सर ग्रांटने मान्य केले आणि तेव्हा पासूनच ती जागा कॉरनाक बंदर म्हणून प्रसिद्धिस आली. नवीन लीज कराराने भाऊंचे काम अवाढ़व्य वाढ़ले. मर्यादित गंगाजळीमुळे सरकार कडून कर्ज घ्यावे लागले. सरकारच्या चक्रवाढ़ी व्याजाने ते सरकारच्या जाळ्यात पुरते अडकले पण कसेबसे कायद्याच्या कचाट्यातून सुटले तरी देखील त्यांचे पूर्वीचे बॉस आणि आता मित्र कॅप्टन रसेल मात्र नौकरीतून बडतर्फ केले गेले. हीच जोडगोळी भाऊरसेल ऊर्फ भाऊरसूल म्हणून प्रसिद्ध होती. 19 ऑक्टोबर 1858 मध्यें त्यांचे निधन झाले.
आकुरली (कांदीवली पूर्व), चिंचवली (मलाड पश्चिम) आणि दिंडोशी (गोरेगांव पूर्व) या तीन गावांची खोती हक्क ईस्ट इंडिया कंपनीकडून भाऊंनी घेतले होते. पण आज ह्या घराण्याच्या मालकीची अशी टीचभर जागा देखील ह्या विस्तीर्ण मुंबईत नाही. मुंबई महानगरपालिकेने अवश्य कॉरनक बंदराकडे जाणाऱ्या रस्त्यामधील चौकाला भाऊ लक्ष्मण अजिंक्य चौक असे नाव देऊन त्यांची स्मृति जागी ठेवली आहे. आता हेच मुंबईच्या मराठी-कोंकणी लोकांच्या पुढ़ील अनेक पिढ्यांना स्फूर्ति देणारे भाऊंचे स्मारक आहे. भाऊच्या धक्क्याची ऐतिहासिक कागदपत्रे महाराष्ट्र शासनाच्या पुराभिलेखाविभागात उपलब्ध आहेत.